हरे कृष्ण। इस पोस्ट में श्रीमद भागवत महापुराण के स्कन्ध 1 के अध्याय 3 सम्पूर्ण अर्थ संग्रह किया हुआ है। आशा है आप इसे पढ़के इसी जन्म में इस जन्म-मरण के चक्कर से ऊपर उठ जायेंगे और आपको भगवद प्राप्ति हो जाये। तो चलिए शुरू करते हैं – राधा-कृष्ण
श्रीमद् भागवत महापुराण – स्कन्ध 1: सृष्टि (अध्याय 3: समस्त अवतारों के स्रोत : कृष्ण)
श्लोक 1: सूतजी ने कहा : सृष्टि के प्रारम्भ में, भगवान् ने सर्वप्रथम विराट पुरुष अवतार के रूप में अपना विस्तार किया और भौतिक सृजन के लिए सारी सामग्री प्रकट की। इस प्रकार सर्वप्रथम भौतिक क्रिया के सोलह तत्त्व उत्पन्न हुए। यह सब भौतिक ब्रह्माण्ड को उत्पन्न करने के लिए किया गया।
श्लोक 2: पुरुष के एक अंश ब्रह्माण्ड के जल के भीतर लेटते हैं, उनके शरीर के नाभि-सरोवर से एक कमलनाल अंकुरित होता है और इस नाल के ऊपर खिले कमल-पुष्प से ब्रह्माण्ड के समस्त शिल्पियों के स्वामी ब्रह्मा प्रकट होते हैं।
श्लोक 3: ऐसा विश्वास किया जाता है कि समस्त ब्रह्माण्ड के ग्रहमंडल पुरुष के विराट शरीर में स्थित हैं, किन्तु उन्हें सर्जित भौतिक अवयवों से कोई सरोकार नहीं होता। उनका शरीर नित्य आध्यात्मिक अस्तित्वमय है जिसकी कोई तुलना नहीं है।
श्लोक 4: भक्तगण अपने विमल (पूर्ण) नेत्रों से उस पुरुष के दिव्य रूप का दर्शन करते हैं जिसके हजारों-हजार पाँव, जंघाएँ, भुजाएँ तथा मुख हैं और सबके सब अद्वितीय हैं। उस शरीर में हजारों सिर, आँखें, कान तथा नाक होते हैं। वे हजारों मुकुटों तथा चमकते कुण्डलों से अलंकृत हैं और मालाओं से सजाये गये हैं।
श्लोक 5: यह रूप (पुरुष का द्वितीय प्राकट्य) ब्रह्माण्ड के भीतर नाना अवतारों का स्रोत तथा अविनाशी बीज है। इसी रूप के कणों तथा अंशों से देवता, मनुष्य इत्यादि विभिन्न जीव उत्पन्न होते हैं।
श्लोक 6: सृष्टि के प्रारम्भ में सर्वप्रथम ब्रह्मा के चार अविवाहित पुत्र (कुमारगण) थे, जिन्होंने ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए परम सत्य के साक्षात्कार हेतु कठोर तपस्या की।
श्लोक 7: समस्त यज्ञों के परम भोक्ता ने सूकर का अवतार (द्वितीय अवतार) स्वीकार किया और पृथ्वी के कल्याण हेतु उसे ब्रह्माण्ड के रसातल क्षेत्र से ऊपर उठाया।
श्लोक 8: ऋषियों के सर्ग में, भगवान् ने देवर्षि नारद के रूप में, जो देवताओं में महर्षि हैं, तीसरा शक्त्यावेश अवतार ग्रहण किया। उन्होंने उन वेदों का भाष्य संकलित किया जिनमें भक्ति मिलती है और जो निष्काम कर्म की प्रेरणा प्रदान करते हैं।
श्लोक 9: चौथे अवतार में भगवान् राजा धर्म की पत्नी के जुड़वाँ पुत्र नर तथा नारायण बने। फिर उन्होंने इन्द्रियों को वश में करने के लिए कठिन तथा अनुकरणीय तपस्या की।
श्लोक 10: भगवान् कपिल नामक पाँचवाँ अवतार सिद्धों में सर्वोपरि है। उन्होंने आसुरि ब्राह्मण को सृष्टिकारी तत्त्वों तथा सांख्य शास्त्र का भाष्य बताया, क्योंकि कालक्रम से यह ज्ञान वि-नष्ट हो चुका था।
श्लोक 11: पुरुष के छठे अवतार अत्रि मुनि के पुत्र थे। वे अनसूया की प्रार्थना पर उनके गर्भ से उत्पन्न हुए थे। उन्होंने अलर्क, प्रह्लाद तथा अन्यों (यदु, हैहय आदि) को अध्यात्म के विषय में उपदेश दिया।
श्लोक 12: सातवें अवतार प्रजापति रुचि तथा उनकी पत्नी आकूति के पुत्र यज्ञ थे। उन्होंने स्वायम्भुव मनु के बदलने पर शासन सँभाला और अपने पुत्र यम जैसे देवताओं की सहायता प्राप्त की।
श्लोक 13: आठवाँ अवतार राजा ऋषभ के रूप में हुआ। वे राजा नाभि तथा उनकी पत्नी मेरुदेवी के पुत्र थे। इस अवतार में भगवान् ने पूर्णता का मार्ग दिखलाया जिसका अनुगमन उन लोगों द्वारा किया जाता है, जिन्होंने अपनी इन्द्रियों को पूर्ण रूप से संयमित कर लिया है और जो सभी वर्णाश्रमों के लोगों द्वारा वन्दनीय हैं।
श्लोक 14: हे ब्राहणों, मुनियों द्वारा प्रार्थना किये जाने पर, भगवान् ने नवें अवतार में राजा (पृथु) का शरीर स्वीकार किया जिन्होंने विविध उपजें प्राप्त करने के लिए पृथ्वी को जोता। फलस्वरूप पृथ्वी अत्यन्त सुन्दर तथा आकर्षक बन गई।
श्लोक 15: जब चाक्षुष मनु के युग के बाद पूर्ण जलप्रलय हुआ और सारा जगत जल में डूब गया था, तब भगवान् मछली (मत्स्य) के रूप में प्रकट हुए और वैवस्वत मनु को नाव में रखकर उनकी रक्षा की।
श्लोक 16: भगवान् का ग्यारहवाँ अवतार कच्छप के रूप में हुआ, जिनकी पीठ ब्रह्माण्ड के आस्तिकों तथा नास्तिकों के द्वारा मथानी के रूप में प्रयुक्त किये जा रहे मन्दराचल पर्वत के लिए आधार बनी।
श्लोक 17: बारहवें अवतार में भगवान् धन्वन्तरि के रूप में प्रकट हुए और तेरहवें अवतार में उन्होंने स्त्री के मनोहर सौंदर्य द्वारा नास्तिकों को मोहित किया और देवताओं को पीने के लिए अमृत प्रदान किया।
श्लोक 18: चौदहवें अवतार में भगवान् नृसिंह के रूप में प्रकट हुए और अपने नाखूनों से नास्तिक हिरण्यकशिपु के बलिष्ठ शरीर को उसी प्रकार चीर डाला, जिस प्रकार बढ़ई लट्ठे को चीर देता है।
श्लोक 19: पन्द्रहवें अवतार में भगवान् ने बौने ब्राह्मण (वामन) का रूप धारण किया और वे महाराज बलि द्वारा आयोजित यज्ञ में पधारे। यद्यपि वे हृदय से तीनों लोकों का राज्य प्राप्त करना चाह रहे थे, किन्तु उन्होंने केवल तीन पग भूमि दान में माँगी।
श्लोक 20: सोलहवें अवतार में भगवान् ने (भृगुपति के रूप में) क्षत्रियों का इक्कीस बार संहार किया, क्योंकि वे ब्राह्मणों (बुद्धिमान वर्ग) के विरुद्ध किये गये विद्रोह के कारण उनसे क्रुद्ध थे।
श्लोक 21: तत्पश्चात् सत्रहवें अवतार में भगवान्, पराशर मुनि के माध्यम से सत्यवती के गर्भ से श्री व्यासदेव के रूप में प्रकट हुए। उन्होंने यह देखकर कि जन-सामान्य अल्पज्ञ हैं, एकमेव वेद को अनेक शाखाओं-प्रशाखाओं में विभक्त कर दिया।
श्लोक 22: अठारहवें अवतार में भगवान् राजा राम के रूप में प्रकट हुए। उन्होंने देवताओं के लिए मनभावन कार्य करने के उद्देश्य से हिन्द महासागर को वश में करते हुए समुद्र पार के निवासी नास्तिक राजा रावण का वध करके अपनी अतिमानवीय शक्ति का प्रदर्शन किया।
श्लोक 23: उन्नीसवें तथा बीसवें अवतारों में भगवान् वृष्णि वंश में (यदु कुल में) भगवान् बलराम तथा भगवान् कृष्ण के रूप में अवतरित हुए और इस तरह उन्होंने संसार के भार को दूर किया।
श्लोक 24: तब भगवान् कलियुग के प्रारम्भ में गया प्रान्त में अंजना के पुत्र, बुद्ध के रूप में उन लोगों को मोहित करने के लिए प्रकट होंगे, जो श्रद्धालु आस्तिकों से ईर्ष्या करते हैं।
श्लोक 25: तत्पश्चात् सृष्टि के सर्वोसर्वा भगवान् दो युगों के सन्धिकाल में कल्कि अवतार के रूप में जन्म लेंगे और विष्णु यशा के पुत्र होंगे। उस समय पृथ्वी के शासक लुटेरे बन चुके होंगे।
श्लोक 26: हे ब्राह्मणों, भगवान् के अवतार उसी तरह असंख्य हैं, जिस प्रकार अक्षय जल के स्रोत से निकलने वाले (असंख्य) झरने।
श्लोक 27: सारे ऋषि, मनु, देवता तथा विशेष रूप से शक्तिशाली मनु की सन्तानें भगवान् के अंश या उन अंशों की कलाएँ हैं। इसमें प्रजापतिगण भी सम्मिलित हैं।
श्लोक 28: उपर्युक्त सारे अवतार या तो भगवान् के पूर्ण अंश या पूर्णांश के अंश (कलाएं) हैं, लेकिन श्रीकृष्ण तो आदि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं। वे सब विभिन्न लोकों में नास्तिकों द्वारा उपद्रव किये जाने पर प्रकट होते हैं। भगवान् आस्तिकों की रक्षा करने के लिए अवतरित होते हैं।
श्लोक 29: जो कोई भी भगवान् के गुह्य अवतारों का सावधानीपूर्वक प्रतिदिन सुबह तथा शाम को पाठ करता है, वह जीवन के समस्त दुखों से छूट जाता है।
श्लोक 30: भगवान् के विराट रूप की धारणा, जिसमें वे इस भौतिक जगत में प्रकट होते हैं, काल्पनिक है। यह तो अल्पज्ञों (तथा नवदीक्षितों) को भगवान् के रूप की धारणा में प्रवेश कराने के लिए है। लेकिन वस्तुत: भगवान् का कोई भौतिक रूप नहीं होता।
श्लोक 31: बादल तथा धूल वायु द्वारा ले जाए जाते हैं, लेकिन अल्पज्ञ लोग कहते हैं कि आकाश मेघाच्छादित है और वायु धूलिमय (मलिन) है। इसी प्रकार वे लोग आत्मा के विषय में भी भौतिक शरीर की धारणाओं का आरोपण करते हैं।
श्लोक 32: रूप की इस स्थूल अवधारणा से परे रूप की एक अन्य सूक्ष्म धारणा है, जिसका कोई आकार नहीं होता और जो अनदेखा, अनसुना तथा अव्यक्त होता है। जीव का रूप इस सूक्ष्मता से परे है, अन्यथा उसे बारम्बार जन्म न लेना पड़ता।
श्लोक 33: जब कभी मनुष्य आत्म-साक्षात्कार द्वारा यह अनुभव करता है कि स्थूल तथा सूक्ष्म दोनों शरीरों का शुद्ध आत्मा से कोई सरोकार नहीं, उस समय वह अपना तथा साथ ही साथ भगवान् का दर्शन करता है।
श्लोक 34: यदि माया का शमन हो जाता है और यदि भगवत्कृपा से जीव ज्ञान से सम्पन्न हो जाता है, तो उसे तुरन्त आत्म-साक्षात्कार का प्रकाश प्राप्त होता है और वह अपनी महिमा में प्रतिष्ठित (महिमामण्डित) हो जाता है।
श्लोक 35: इस प्रकार विद्वान पुरुष उस अजन्मा तथा अकर्ता के जन्मों तथा कर्मों का वर्णन करते हैं, जो वैदिक साहित्य के लिए भी ज्ञेय नहीं हैं। वे हृदयेश हैं।
श्लोक 36: जिनके कर्म सदैव निष्कलुष होते हैं वे भगवान् छह इन्द्रियों के स्वामी हैं और छहों ऐश्वर्यों के साथ सर्वशक्तिमान हैं। वे दृश्य ब्रह्माण्डों की सृष्टि करते हैं, उनका पालन करते हैं और रंचमात्र भी प्रभावित हुए बिना उनका संहार करते हैं। वे समस्त जीवों के भीतर विद्यमान रहते हैं और सदैव स्वतन्त्र होते हैं।
श्लोक 37: मूर्ख मनुष्य अपने अल्प ज्ञान के कारण भगवान् के रूपों, नामों तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को नहीं जान सकते, क्योंकि वे तो किसी नाटक में एक पात्र की तरह कार्य कर रहे होते हैं। न ही ऐसे मनुष्य अपने तर्क या अपनी वाणी द्वारा भी ऐसी बातों को व्यक्त कर सकते हैं।
श्लोक 38: जो बिना हिचक के अबाध रूप से अपने हाथों में रथ का चक्र धारण करने वाले भगवान् के चरणकमलों की अनुकूल सेवा करता है, वही इस जगत के स्रष्टा की पूर्ण महिमा, शक्ति तथा दिव्यता को समझ सकता है।
श्लोक 39: इस संसार में केवल ऐसी जिज्ञासाओं द्वारा ही मनुष्य सफल तथा पूर्णत: ज्ञात हो सकता है, क्योंकि ऐसी जिज्ञासाओं से अखिल ब्रह्माण्डों के स्वामी भगवान् के प्रति दिव्य आह्लादकारी प्रेम उत्पन्न होता है और जन्म-मृत्यु की घोर पुनरावृत्ति से शत प्रतिशत प्रतिरक्षा की गारंटी प्राप्त होती है।
श्लोक 40: यह श्रीमद्भागवत भगवान् का साहित्यावतार है, जिसे भगवान् के अवतार वेदव्यास ने संकलित किया है। यह सभी लोगों के परम कल्याण के निमित्त है और यह सभी तरह से सफल, आनन्दमय तथा परिपूर्ण है।
श्लोक 41: स्वरूपसिद्धों में अत्यन्त सम्माननीय श्री व्यासदेव ने समस्त वैदिक वाङ्मय तथा ब्रह्माण्ड के इतिहासों का सार निकाल कर इसे अपने पुत्र को प्रदान किया।
श्लोक 42: व्यासदेव के पुत्र शुकदेव गोस्वामी ने, अपनी पारी में महाराज परीक्षित को भागवत सुनाई जो तब निर्जल तथा निराहार रहकर मृत्यू की प्रतीक्षा करते हुए गंगा नदी के तट पर ऋषियों से घिरे बैठे हुए थे।
श्लोक 43: यह भागवत पुराण सूर्य के समान तेजस्वी है और धर्म, ज्ञान आदि के साथ कृष्ण द्वारा अपने धाम चले जाने के बाद ही इसका उदय हुआ। जिन लोगों ने कलियुग में अज्ञान के गहन अन्धकार के कारण अपनी दृष्टि खो दी है, उन्हें इस पुराण से प्रकाश प्राप्त होगा।
श्लोक 44: हे विद्वान ब्राह्मणों, जब शुकदेव गोस्वामी ने वहाँ पर (महाराज परीक्षित की उपस्थिति में) भागवत सुनाया, तो मैंने अत्यन्त ध्यानपूर्वक सुना और इस तरह उनकी कृपा से मैंने उन महान शक्ति-सम्पन्न ऋषि से भागवत सीखा। अब मैं तुम लोगों को वही सब सुनाने का प्रयत्न करूँगा, जो मैंने उनसे सीखा तथा जैसा मैंने आत्मसात् किया।