हरे कृष्ण। इस पोस्ट में श्रीमद भागवत महापुराण के स्कन्ध 1 के अध्याय 10 सम्पूर्ण अर्थ संग्रह किया हुआ है। आशा है आप इसे पढ़के इसी जन्म में इस जन्म-मरण के चक्कर से ऊपर उठ जायेंगे और आपको भगवद प्राप्ति हो जाये। तो चलिए शुरू करते हैं – राधा-कृष्ण
श्रीमद् भागवत महापुराण – स्कन्ध 1: सृष्टि (अध्याय 10: द्वारका के लिए भगवान् कृष्ण का प्रस्थान)
श्लोक 1: शौनक मुनि ने पूछा : जो महाराज युधिष्ठिर की वैध पैतृक सम्पत्ति को छीनना चाहते थे,उन शत्रुओं का वध करने के बाद महानतम धर्मात्मा युधिष्ठिर ने अपने भाइयों की सहायता से अपनी प्रजा पर किस प्रकार शासन चलाया? निश्चित ही वे अपने साम्राज्य का उपभोग मुक्त होकर अनियन्त्रित चेतना से नहीं कर सके।
श्लोक 2: सूत गोस्वामी ने कहा : विश्व के पालनकर्ता भगवान् श्रीकृष्ण महाराज युधिष्ठिर को उनके साम्राज्य में पुन: प्रस्थापित करके एवं क्रोध की दावाग्नि से विनष्ट हुए कुरुवंश को पुनरुज्जीवित करके अत्यन्त प्रसन्न हुए।
श्लोक 3: भीष्मदेव तथा अच्युत भगवान् श्रीकृष्ण ने जो कुछ कहा था, उससे प्रबुद्ध होकर महाराज युधिष्ठिर परिपूर्ण ज्ञान विषयक मामलों में व्यस्त हो गये, क्योंकि उनके सारे सन्देह दूर हो चुके थे। इस प्रकार उन्होंने पृथ्वी तथा सागरों पर राज्य किया और उनके छोटे भाई उनका साथ देते रहे।
श्लोक 4: महाराज युधिष्ठिर के राज्य में मनुष्यों को जितना भी पानी चाहिए था, बादल उतना पानी बरसाते थे और पृथ्वी मनुष्यों की सारी आवश्यकताओं की पूर्ति पर्याप्त मात्रा में करती थी। दूध से भरे थनों वाली तथा प्रसन्न-चित्त गौवें अपने दूध से चरागाही को सिक्त करती रहती थीं।
श्लोक 5: प्रत्येक ऋतु में नदियाँ, समुद्र, पर्वत, जंगल, लताएँ तथा कारगर औषधियाँ प्रचुर मात्रा में राजा को अपना-अपना कर चुकता करती थीं।
श्लोक 6: चूँकि राजा का कोई शत्रु न था, अतएव सारे जीव, किसी भी समय मानसिक क्लेशों, रोगों या अत्यधिक ताप या शीत से विचलित नहीं थे।
श्लोक 7: श्री हरि अपने सम्बन्धियों को सान्त्वना देने तथा अपनी बहन (सुभद्रा) को प्रसन्न करने के लिए कुछ महीने हस्तिनापुर में रहे।
श्लोक 8: तत्पश्चात् जब भगवान् ने प्रस्थान करने की अनुमति माँगी और राजा ने अनुमति दे दी तो भगवान् ने महाराज युधिष्ठिर के चरणों में नतमस्तक होकर प्रणाम किया और राजा ने उनको गले लगा लिया। इसके बाद अन्यों द्वारा गले मिलने एवं नमस्कृत होकर, वे अपने रथ में आरूढ़ हुए।
श्लोक 9-10: उस समय सुभद्रा, द्रौपदी, कुन्ती, उत्तरा, गान्धारी, धृतराष्ट्र, युयुत्सु, कृपाचार्य, नकुल, सहदेव, भीमसेन, धौम्य तथा सत्यवती, सभी मूर्छित से हो गये, क्योंकि भगवान् कृष्ण का वियोग सह पाना उन सबों के लिए असम्भव था।
श्लोक 11-12: वह बुद्धिमान जिस ने शुद्ध भक्तों की संगति से परमेश्वर को समझ लिया है और भौतिक कुसंगति से अपने को छुड़ा लिया है, वह भगवान् के यश को सुनने से चूकेगा नहीं; उसने चाहे उनके विषय में एक ही बार क्यों न सुना हो। तो भला, पाण्डव उनके वियोग को कैसे सह पाते? क्योंकि वे उनसे घनिष्ठतापूर्वक सम्बन्धित थे, वे उन्हें साक्षात् अपने समक्ष देखते थे, उनका स्पर्श करते थे, उनसे बातें करते थे और उन्हीं के पास सोते, उठते-बैठते तथा भोजन करते थे।
श्लोक 13: उन सबके हृदय उनके आकर्षण-रूपी पात्र में द्रवित हो रहे थे। वे उन्हें अपलक नेत्रों से देख रहे थे और (स्नेह-बन्धन में बँधकर) व्यग्रता से इधर-उधर मचल रहे थे।
श्लोक 14: सगी-सम्बन्धी (नातेदार) स्त्रियाँ, जिनके नेत्रों से कृष्ण के लिए व्याकुलतावश अश्रुधारा निकल रही थी, महल से बाहर आ गईं। वे बड़ी मुश्किल से अपने आँसू रोक पाईं। उन्हें भय था कि प्रस्थान के अवसर पर आँसुओं से अपशकुन हो सकता है।
श्लोक 15: हस्तिनापुर के राजमहल से भगवान् के प्रस्थान समय, उनके सम्मान में विभिन्न प्रकार के ढोल—यथा मृदंग, ढोल, नगाड़े, धुंधुरी तथा दुन्दुभी—एवं तरह-तरह की वंशियाँ, वीणा, गोमुख और भेरियाँ एकसाथ बज उठे।
श्लोक 16: भगवान् को देखने की प्रेममयी इच्छा से कुरुओं की राजवंशी स्त्रियाँ राजमहल की छत पर चढ़ गईं और स्नेह तथा लज्जा से युक्त हँसती हुई भगवान् पर पुष्पों की वर्षा करने लगीं।
श्लोक 17: उस समय महान् योद्धा तथा निद्रा को जीतनेवाले अर्जुन ने, जो परम प्रिय भगवान् का घनिष्ठ मित्र था, एक छाता ले लिया जिसका हत्था रत्नों का था और जिसमें मोतियों की झालर लगी थी।
श्लोक 18: उद्धव तथा सात्यकि अलंकृत पंखों से भगवान् पर पंखा झलने लगे और मधु के स्वामी कृष्ण ने बिखरे हुए पुष्पों पर आसीन होकर उन्हें मार्ग पर चलने के लिए आदेश दिया।
श्लोक 19: जहाँ-तहाँ यह सुनाई पड़ रहा था कि कृष्ण को दिये गये आशीर्वाद, न तो उनके उपयुक्त हैं, न अनुपयुक्त, क्योंकि वे सब उन परम पुरुष के लिए थे जो इस समय मनुष्य की भूमिका निभा रहे थे।
श्लोक 20: चुने हुए छन्दों से जिनकी स्तुति की जाती है, ऐसे भगवान् के दिव्य गुणों के विचार में डूबीं, हस्तिनापुर के सभी घरों की छतों पर चढ़ी हुई स्त्रियाँ, उनके विषय में बातें करने लगीं। ये बातें वैदिक स्तोत्रों से कहीं अधिक आकर्षक थीं।
श्लोक 21: वे कहने लगीं : जैसा हमें निश्चित रूप से स्मरण है, यही हैं वे, जो आदि परमेश्वर हैं। प्रकृति के गुणों की व्यक्त सृष्टि के पूर्व, वे ही अकेले विद्यमान थे। चूँकि वे परमेश्वर हैं, अतएव सारे जीव उन्हीं में लीन होते हैं, मानो रात्रि में सोये हुए हों और उनकी शक्ति रुक गई हो।
श्लोक 22: तब भगवान् ने अपने अंशस्वरूप जीवों को, नाम तथा रूप प्रदान करने की इच्छा से, उन्हें भौतिक प्रकृति के मार्गदर्शन के अन्तर्गत कर दिया। उनकी ही अपनी शक्ति से भौतिक प्रकृति को पुन: सृष्टि करने के लिए अधिकृत कर दिया गया है।
श्लोक 23: ये वे ही पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं, जिनके दिव्य रूप का अनुभव बड़े-बड़े भक्तों द्वारा किया जाता है, जिन्होंने सुदृढ़ भक्ति द्वारा तथा जीवन एवं इन्द्रियों पर पूर्ण संयम द्वारा, भौतिक चेतना से पूर्ण रूप से विशुद्ध हो चुके हैं। तथा अस्तित्व को विमल बनाने का यही एकमात्र मार्ग है।
श्लोक 24: हे सखियो, यहाँ पर वही भगवान् हैं, जिनकी आकर्षक तथा गोपनीय लीलाओं का वर्णन बड़े-बड़े भक्तों द्वारा वैदिक साहित्य के गुह्यतम अंशों में हुआ है। वे ही भौतिक जगत की सृष्टि करने वाले, पालने वाले तथा संहार करनेवाले हैं, फिर भी वे उससे अप्रभावित रहते हैं।
श्लोक 25: जब भी राजा तथा प्रशासक, तमोगुण में स्थित पशुओं की तरह रहते हैं, तो भगवान् अपने दिव्य रूप में अपनी परम शक्ति, सत्य ऋत, को प्रकट करते हैं, श्रद्धालुओं पर विशेष दया दिखाते हैं, अद्भुत कार्य करते हैं तथा विभिन्न कालों तथा युगों में आवश्यकतानुसार विभिन्न दिव्य रूप प्रकट करते हैं।
श्लोक 26: ओह, यदुवंश कितना यशस्वी है और मथुरा की भूमि कितनी पुण्यमयी है, जहाँ समस्त जीवों के परम नायक, लक्ष्मीपति ने जन्म लिया और अपने बचपन में विचरण किया है।
श्लोक 27: निस्सन्देह, यह कितना आश्चर्यजनक है कि द्वारका ने स्वर्ग के यश को पिछाड़ कर पृथ्वी की प्रसिद्धि को बढ़ाया है। द्वारका के निवासी उनके प्रिय स्वरूप में समस्त जीवों के आत्मा (कृष्ण) का सदैव दर्शन करते हैं। भगवान् उन पर दृष्टिपात करते हैं और अपनी मुसकान भरी चितवन से उन्हें कृतार्थ करते हैं।
श्लोक 28: हे सखियो, तनिक उनकी पत्नियों के विषय में सोचो, जिनके साथ उनका पाणिग्रहण हुआ था। उन्होंने कैसा व्रत, स्नान, यज्ञ तथा ब्रह्माण्ड के स्वामी की सम्यक् पूजा की होगी, जिससे वे सब उनके अधरामृत का निरन्तर आस्वादन (चुम्बन द्वारा) कर रही हैं? ब्रजभूमि की बालाएँ ऐसी कृपा की कल्पना से ही प्राय: मूर्छित हो जाती होंगी।
श्लोक 29: इन पत्नियों से सन्तानें हैं—प्रद्युम्न, साम्ब, अम्ब इत्यादि। उन्होंने शिशुपाल के नायकत्व में आए हुए अनेक शक्तिशाली राजाओं को हरा कर रुक्मिणी, सत्यभामा तथा जाम्बवती जैसी स्त्रियों का उनके स्वयंवर-समारोहों से बलपूर्वक अपहरण किया था। उन्होंने भौमासुर तथा उसके हजारों सहायकों का वध करके अन्य स्त्रियों का भी अपहरण किया था। ये सारी स्त्रियाँ धन्य हैं।
श्लोक 30: इन सारी स्त्रियों ने व्यक्तित्व तथा शुद्धि से विहीन होते हुए भी, अपने जीवन को धन्य किया। उनके पति कमलनयन भगवान् ने उन्हें घर में कभी अकेले नहीं छोड़ा। वे उन्हें बहुमूल्य भेंट प्रदान करके उनके हृदयों को प्रसन्न बनाते रहे।
श्लोक 31: राजधानी हस्तिनापुर की स्त्रियाँ अभी उनका अभिनन्दन कर ही रही थीं और इस प्रकार से बातें चला रही थीं कि भगवान् ने मुस्कराते हुए उनकी बधाइयाँ स्वीकार कीं और उन पर अपनी कृपादृष्टि डालते हुए नगर से प्रस्थान किया।
श्लोक 32: यद्यपि महाराज युधिष्ठिर का कोई शत्रु न था, तो भी उन्होंने असुरों के शत्रु, भगवान् श्रीकृष्ण के साथ जाने के लिए चतुरंगिणी सेना (घोड़ा, हाथी, रथ तथा पैदल सेना) लगा दी। शत्रु से बचाव और भगवान् से स्नेह के कारण महाराज ने ऐसा किया।
श्लोक 33: भगवान् कृष्ण के प्रति प्रगाढ़ स्नेहवश कुरुवंशी पाण्डव उन्हें विदा करने के लिए उनके साथ काफी दूर तक गये। वे भावी विछोह के विचार से अभिभुत थे। किन्तु भगवान् ने उनसे घर लौट जाने का आग्रह किया और स्वयं अपने प्रिय संगियों के साथ द्वारका की ओर रवाना हुए।
श्लोक 34-35: हे शौनक, तब भगवान् कुरुजांगल, पाञ्चाल, शूरसेन, यमुना के तटवर्ती प्रदेश, ब्रह्मावर्त, कुरुक्षेत्र, मत्स्या, सारस्वता, मरुप्रान्त तथा जल के अभाव वाले भाग से होते हुए आगे बढ़े। इन प्रान्तों को पार करने के बाद वे सौवीर तथा आभीर प्रान्त पहुँचे और अन्त में इन सबके पश्चिम की ओर स्थित द्वारका पहुँचे।
श्लोक 36: इन प्रान्तों से होकर यात्रा करते समय उनका स्वागत किया गया, पूजा की गई और उन्हें विविध भेंटें प्रदान की गईं। संध्या समय सारे स्थानों में संध्या-कालीन अनुष्ठान (कृत्य) करने के लिए भगवान् अपनी यात्रा स्थगित करते। सूर्यास्त के बाद नियमित रूप से ऐसा किया जाता।