Hello दोस्तों, टाटा, एक ऐसा नाम जो हिन्दुस्तान का बच्चा-बच्चा जानता है. देश की तरक्की और बेहतरी के लिए टाटा ने काफी कुछ किया है जिसे देशवासी हमेशा याद रखेंगे. इस बुक में आप सीखेंगे कि एक बिजनेसमेन के अंदर वो कौन सी क्वालिटीज होती है जो उसे अपना बिजनेस सस्टेन रखने में हेल्प करती है. ये बुक The Tatas : How a Family Built a Business and A Nation गिरीश कुबेर जी ने लेखी है।
The Tatas Book Summary in Hindi
परिचय
टाटा ग्रुप एक इन्डियन ग्लोबल बिजनेस है और ये बात हम प्राउड से बोल सकते है. लेकिन,
- टाटा ग्रुप की इस फेनामोंनल सक्सेस का राज़ क्या है?
- कैसे उनका सफर शुरू हुआ?
- टाटा कल्चर क्या है?
- नाम, पॉवर, पैसा और सक्सेस- टाटा के पास सबकुछ है. लेकिन ऐसा क्या है जो उन्हें दुनिया के बाकि बिलेनियर्स से अलग बनाता है?
आपके इन्ही सब सवालों के जवाब और बाकि और भी बहुत सी बाते आप इस बुक में पढेंगे.
Nusserwanji of Navsari
टाटा ग्रुप की शुरुवात एक इंसान ने की थी जिनका नाम था नुस्सरवान (Nusserwan). 1822 में जब उनका जन्म हुआ था तो एक एस्ट्रोलोजर ने कहा था कि एक दिन नुसरवान सारी दुनिया में राज़ करेगा. वो बहुत अमीर आदमी बनेगा लेकिन नवसारी में पैदा हुआ हर एक बच्चा अच्छी किस्मत लेकर ही पैदा होता था.
लेकिन नुसरवांजी टाटा औरो से अलग थे क्योंकि उन्होंने उस एस्ट्रोलोज़र की बात को सच कर दिखाया था. जैसा कि उन दिनों रिवाज़ था, नुसरवांजी टाटा की भी बचपन में ही शादी करा दी गई थी. और 17 साल की उम्र में वो एक बेटे के बाप भी बन गए थे. बच्चे का नाम जमशेद रखा गया. वो 1839 में पैदा हुआ था. नवसारी के ज्यादातर लोग अपने गावं से बाहर जाना पसंद नहीं करते थे.
उनके लिए उनका गाँव ही पूरी उनकी पूरी दुनिया था. लेकिन नुसरवांजी डिफरेंट थे, वो मुंबई जाकर कोई बिजनेस स्टार्ट करना चाहते थे. वो अपनी फेमिली के पहले इंसान थे जो नवसारी से बाहर गया हो. नुसरवांजी ना तो ज्यादा पढ़े-लिखे थे और ना ही उनके पास बिजनेस के लायक पैसा था, यहाँ तक कि उन्हें बिजनेस की कोई नॉलेज भी नहीं थी. लेकिन हाँ, उनके अंदर कुछ कर गुजरने का पैशन ज़रूर था.
उनके सपने काफी बड़े थे और यही सपने उन्हें मुंबई लेकर आए. अपने साथ वो अपनी वाइफ और बेटे को भी ले गए. मुंबई जाकर उन्होंने एक फ्रेंड की हेल्प से कॉटन का बिजनेस शुरू किया. नुसरवांजी अपने बेटे के लिए बड़े-बड़े सपने देखते थे.
उनका बिजनेस अच्छा चल पड़ा था और अपने बेटे को बेस्ट एजुकेशन देने के लिए उनसे जो बन पड़ा उन्होंने सब कुछ किया. फिर कुछ ही सालो बाद जमेशदजी ने अपनी कॉलेज की पढ़ाई पूरी कर ली. नुसरवांजी चाहते थे कि उनके बेटे को इंटरनेशनल बिजनेस एक्सपोजर मिले इसलिए उन्होंने अपने बेटे को होंग-कोंग की ब्रिटिश कॉलोनी में भेज दिया. होंग-कोंग जाकर जमेशद जी ने तीन पार्टनर्स के साथ मिलकर के बिजनेस शुरू किया. और इस तरह टाटा कॉटन और ओपियम के डीलर बन गए.
नुसरवांजी का एक ब्रदर-इन-लॉ भी होंग-कोंग में ओपियम का डीलर था. उसका नाम था दादा भाई टाटा. दादा भाई टाटा का बेटा रतनजी दादाभॉय टाटा यानि आरडी जमेशदजी से 17 साल बड़ा था. आरडी एक ओपियम डीलर था, साथ ही वो परफ्यूम्स और पर्ल्स का भी बिजनेस करता था. वो अक्सर बिजनेस के सिलसिले में फ्रांस जाता रहता था.
आरडी को बिजनेस पर्पज के लिए फ्रेंच आनी ज़रूरी थी इसलिए जमेशदजी ने उसके लिए एक फ्रेंच टीचर रखा. लेकिन आरडी को ना सिर्फ फ्रेंच पसंद आई बल्कि उसे टीचर की बेटी से भी प्यार हो गया था.
उस लड़की का नाम था सुजाने. आरडी एक विडो था और उम्र में सुजाने से बड़ा भी था फिर भी सुजाने को आरडी अच्छा लगा. दोनों एक दुसरे को चाहते थे. फिर जल्दी ही दोनों की शादी भी हो गयी. लेकिन आरडी को डर था कि उसकी क्न्जेर्वेटिव पारसी कम्यूनिटी सुजाने को एक्सेप्ट नहीं करेगी.
इसलिए उसने सुजाने को बोला कि वो ज़ोरोंएस्थ्रेनिज्म में क्न्वेर्ट हो जाए. सुजाने पारसी बनने को रेडी थी उसने कन्वर्ट कर लिया और अपना नाम बदलकर सूनी रख लिया. आरडी और सूनी के पांच बच्चे हुए. उनके दुसरे बच्चे का नाम जहाँगीर था जिसे सारी दुनिया जेआरडी के नाम से जानती है.
टाटा फेमिली का बिजनेस अच्छा चल रहा था. वो लोग चाइना और यूरोप को ओपियम और कॉटन एक्सपोर्ट करते थे और इंडिया में चाय, टेक्सटाइल और गोल्ड इम्पोर्ट करते थे. उनका बिजनेस तेज़ी से ग्रो कर रहा था, और जल्द ही जमेशदजी ने शंघाई में अपना सेकंड ऑफिस खोल लिया था.
जमशेद जी ने ही यूरोप में टाटा बिजनेस को योरोप में एस्टेब्लिश किया था. उस टाइम पैसेंजर एयरलाइन्स नहीं होती थी इसलिए उन्हें शिप से ट्रेवल करना पड़ता था. तब क्रूज़ शिप्स भी नहीं चलते थे इसलिए लोग अपने कार्गो के साथ ही ट्रेवल करते थे. इन फैक्ट, जमशेद जी को कभी-कभी लाइवस्टॉक के साथ भी ट्रेवल करना पड़ता था. चिकेन्स, पिग्स, गोट्स वगैरह को फ्रेश मीट के लिए ट्रांसपोर्ट किया जाता था.
लेकिन जमशेदजी ने सब कुछ बर्दाश्त किया, जानवरों की बदबू, लॉन्ग जर्नीज और सी-सिकनेस, सब कुछ क्योंकि उनकी नज़र अपने गोल पर थी. उनका सपना था लंदन में एक टाटा ऑफिस खोलना.
A Man Who Sowed Dreams (एक आदमी जिसने सपने बुने)
इंग्लैण्ड जाकर जमशेदजी ने मेन्यूफेक्चरिंग के बारे में काफी कुछ सीखा. अब वो कॉटन ट्रेडिंग के साथ-साथ मेन्यूफेक्चरिंग बिजनेस भी करना चाहते थे. 1873 में जमेशदजी ने अपनी खुद की स्पिनिंग और वीविंग मिल खोली. उस ज़माने में ज्यादातर बिजनेसमेन बोम्बे या अहमदाबाद में मिल्स खोलते थे लेकिन जमशेदजी ने नागपुर सिटी चूज़ की जो कॉटन फार्स के नज़दीक थी.
जमशेदजी ने इंग्लैण्ड से बेस्ट क्वालिटी की मशीनरी आर्डर की और मशीनरी ऑपरेशन के एक्सपर्ट भी हायर किये. अपनी इस नए बिजनेस का नाम उन्होंने एम्प्रेस मिल्स रखा था. लेकिन मिल चलाने में सबसे बड़ा चेलेंज था नागपुर का वर्क कल्चर, नागपुर के लोग आरामपंसद ज्यादा थे जबकि बॉम्बे में लोग छुट्टी वाले दिन भी काम करते थे.
लेकिन नागपुर में रोज़ सिर्फ 80% लोग ही काम पर आते थे. लोग छोटी-छोटी बातो पे छुट्टी मार लेते थे. ऐसे में एम्प्लोईज को पनिशमेंट देने के बजाये जमशेदजी ने एक पोजिटिव सोल्यूशन निकाला. उन्होंने एम्प्लोईज के लिए प्रोविडेंट फंड स्कीम या कहे कि पेंशन प्लान निकाला ताकि रीटायरमेंट के बाद भी लोगो की जिंदगी आराम से चल सके. जमशेदजी ने एक इंश्योरेंस स्कीम भी शुरू की.
अगर कोई एम्प्लोई काम के दौरान घायल हो जाए या उसकी डेथ हो जाए तो उसे और उसकी फेमिली को मेडिकल एक्सपेंस मिल सके. वो अपने वर्कर्स के लिए स्पेशल इवेंट्स जैसे स्पोर्ट्स डे और फेमिली डे भी ऑर्गेनाइज़ कराते थे जहाँ पर गेम्स के विनर को ईनाम के तौर पर कैश, रिस्टवाचेस, या गोल्ड चेन्स मिलती थी.
ये जमशेदजी के इनोवेटिव आईडियाज का ही कमाल था जो एम्प्रेस मिल के वर्कर्स अपने काम को लेकर और ज्यादा मोटीवेटेड फील करने लगे थे. और उनके वर्क एथिक्स में भी काफी चेंजेस आये थे.
इस तरह के पेंशन्स प्लान और इंश्योरेंस बहुत इम्पोर्टेंट थे और उस टाइम में तो इंग्लैण्ड में भी वर्कर्स को इस तरह की फेसिलिटी नहीं दी जा रही थी. जमशेदजी के इस इनिशिएटिव से ना सिर्फ उनके गुडविल नेचर का पता चलता है बल्कि ये भी ज़ाहिर होता कि वो दूर की सोचते थे.
और टाटा कल्चर में हमेशा इन्ही छोटी छोटी बातो का ध्यान रखा जाता है. एम्प्रेस मिल टाटा ग्रुप की फाउंडेशन बनी. ये मिल पूरे 100 सालो तक चली. एक सक्सेसफुल बिजनेसमेन के तौर पर जमेशदजी की हमेशा तारीफ़ होती रही. लेकिन वो कभी भी सारा क्रेडिट खुद नहीं लेते थे बल्कि अपने एम्प्लोईज के साथ शेयर करते थे.
Baptism by Fire
जेआरडी फ्रांस में पला बढा था. ये 1925 की बात है जब उसने टाटा स्टील में काम करना शुरू किया. उन दिनों बोम्बे हाउस नया-नया बना था. उसके फादर आरडी ने उसे जॉन पीटरसन से इंट्रोड्यूस कराया जो टाटा स्टील का मैनेजिंग डायरेक्टर था.
पीटरसन जेआरडी का मेंटर बन गया. कुछ महीनो बाद जेआरडी को जमशेदपुर भेजा गया जिसे इंडियन इंडस्ट्री का मक्का कहा जाता है. टाटा की पहले से वहां पर एक फेक्ट्री थी. जेआरडी को हर डिपार्टमेंट में एक दिन स्पेंड करना था और देखना था कि वहां पर कैसे काम होता है. जब गर्मियां आई तो आरडी बाकि फेमिली के साथ फ़्रांस चले गए.
वो लोग गर्मी की छुटियों में फ्रांस के अपने होलीडे होम जाते थे. लेकिन जेआरडी को उनके फादर ने ट्रेनिंग के लिए जमशेदपुर में रहने को बोला. आरडी उस वक्त तक 70 साल के हो चुके थे. एक रात उनकी सबसे बड़ी बेटी ने उन्हें डांस करने को बोला.
आरडी उठकर डांस करने लगे लेकिन थोड़ी देर बाद ही थककर बैठ गए. उन्हें सीने में हल्का सा दर्द उठा और वो कोलाप्स हो गए. उन्हें सीवियर हार्ट अटैक आया था, आरडी की उसी वक्त डेथ हो गयी थी. डॉक्टर को बुलाने तक मौका तक नहीं मिला. आरडी, जिन्होंने जमशेदजी के साथ टाटा बिजनेस खड़ा किया था, अब इस दुनिया से जा चुके थे.
जेआरडी के लिए ये एक शॉकिंग न्यूज़ थी. अपने 4 भाई-बहनों की रिस्पोंसेबिलिटी अब उनके कंधो पर थी. एक और बड़ा चेलेंज उनके सामने ये था कि आरडी की कंपनीज डूब रही थी और उन पर काफी क़र्ज़ था.
जेआरडी को अपनी कुछ प्रोपर्टीज बेचनी पड़ी. उन्होंने सुनीता हाउस, पुणे वाला बंगला और फ़्रांस का होलीडे होम बेच दिया. जेआरडी और उनके भाई-बहन ताज महल होटल में जाकर रहने लगे. फेमिली बिजनेस चलाने के लिए जेआरडी ने अपनी फ्रेंच सिटीजनशिप छोड़ दी. और उन्हें इंग्लिश सीखनी पड़ी क्योंकि फ्रेंच उनकी नेटिव लेंगुएज थी. 1973 में बोर्ड मेंबर्स ने जेआरडी को टाटा एम्पायर का लीडर डिक्लेयर कर दिया.
एक मोटर कार का जन्म
The Birth of a Motor Car रोल्स रॉयस (Rolls-Royce) इंग्लैण्ड की है. मर्सिडीज़ बेंज जेर्मन कार है और फोर्ड अमेरिकन. टोयोटा जापान की है और वॉल्वो स्वीडन की. उन दिनों कोई भी कार इंडिया में नहीं बनती थी.
टेल्को ने ट्रक्स बनाने शुरू किये. और इसी से रतन टाटा ने टाटा सिएरा और टाटा एस्टेट दो गाड़ियाँ निकाली. लेकिन ये मॉडल्स इतने महंगे थे कि सिर्फ अमीर और फेमस लोग ही खरीद सकते थे. तब रतन टाटा को एक 100% इन्डियन फेमिली कार बनाने का ख्याल आया.
1993 में उन्होंने एक ऑटोमोबाइल पार्ट्स मेकर की मीटिंग में पब्लिकली अपना प्लान अनाउंस किया. उन्होंने लोकल मेन्यूफेक्चर्स को इस प्रोजेक्ट में पार्ट लेने के लिए एंकरेज किया. रतन टाटा का अगला स्टेप था टेल्को में एक इंजीनियरिंग टीम क्रियेट करना.
मगर कई लोगो को डाउट था कि ये प्लान सक्सेसफुल होगा. फर्स्ट, इसके लिए बहुत ज्यादा पैसे की ज़रूरत थी और सेकंड, लोगो को लगता था कि इण्डिया में फेमिली कार की कोई मार्किट नहीं है. और थर्ड, क्या वाकई में कोई कार 100% इन्डियन हो सकती है. लेकिन रतन टाटा एक विजेनरी थे, वो ऐसी कार चाहते थे जिसमे पांच लोगो के बैठने लायक जगह हो.
क्योंकि आम इन्डियन फेमिली काफी ट्रेवल करती है तो सामान की भी जगह होनी चाहिए और इसके साथ ही गाडी इतनी स्ट्रोंग हो कि इन्डियन रोड्स पे सर्वाइव कर सके. रतन टाटा काम में जुट गए, उन्होंने बेस्ट इंजीनियर्स चूज़ किये.
120 करोड़ रूपये उन्होंने सीएडी यानी कंप्यूटर ऐडेड डिजाईन में इन्वेस्ट किये. वैसे ये काफी बड़ी इन्वेस्टमेंट थी लेकिन उन्हें पता था कि कार के बढियां डिजाईन के लिए सीएडी कितने काम आ सकती है. डिजाईन फाइनल होने के बाद नेस्क्ट स्टेप था प्रोटोटाइप को रीप्रोड्यूस करना.
रतन ने टेल्को फेक्ट्री के अंदर 6 एकर की जगह अलोट कर दी. कई लोगों ने इस बात पे उनका मजाक भी उड़ाया कि रतन टाटा का एक पूरी तरह से इंडीजीनियस कार बनाने का सपना क्या सच में पूरा होगा? लेकिन वो रतन टाटा थे, उनके सोच भी बड़ी थी और सपने भी.
उन्हें ये समझ आ गया था कि लोकल कार की डिमांड रहेगी. और इसके लिए फैक्टरी में एक काफी बड़ी जगह और टॉप क्वालिटी की मशीनरी की ज़रूरत पड़ेगी. रतन को निसान ऑस्ट्रेलिया की एक कम्प्लीट लेकिन अनयूज्ड असेम्बली लाइन के बारे में पता चला.
जापानीज कार मेन्यूफेक्चरर इन्वेस्टमेंट के तौर पे रीटर्न पाने की बात से ही खुश हो गया था. रतन को ये सारी मशीनरी काफी लो प्राइस यानी कि 100 करोड़ में मिल गयी. लेकिन अभी एक चेलेंज और बाकि था. उन्हें ये सारा असेम्बली मटिरियल ऑस्ट्रेलिया से इंडिया ट्रांसपोर्ट करना था.
और ये काम बड़ा मुश्किल था क्योंकि पहली बात तो उनके इंजीनियर्स को ये सारे पार्ट्स बड़े ध्यान से डिसमेंटल करने होंगे और लेबल्स के लेआउट को बड़ी ही केयरफूली स्टडी करना होगा ताकि उन्हें सिक्वेंस में असेम्बल कर सके. फिर हर एक पीस को अच्छे से पैक करके इंडिया भेजना था.
असेम्बली लाइन का टोटल वेट करीब 14,800 था जिसके लिए 650 कंटेनर्स लगे थे. ये सारी मशीनरी ऑस्ट्रेलिया से इण्डिया लाने में उन्हें करीब 6 महीने लगे. फाइनली असेम्बली लाइन को टेल्को फेक्ट्री में सेट किया गया. ये 500 मीटर लम्बा था और 450 रोबोट्स इस पर काम कर रहे थे.
रतन टाटा पर्सनली विजिट करने आए. उन्होंने एक पार्ट देखा जिसे असेम्बल करने के लिए एक इंजीनियर को अप एंड डाउन जाना पड़ रहा था. अगर फेक्ट्री में रोज़ की 300 कारे बनेंगी तो इसका मतलब था कि उस इंजीनियर को 600 बार ऊपर नीचे जाना पड़ेगा.
रतन टाटा ने एक रोबोट को उस पर्टीक्यूलर पार्ट को मोडीफाई करने का आर्डर दिया. “हम नहीं चाहते कि हमारे लोग इस तरह की कमर तोड़ वाला काम करे” रतन टाटा बोले. उन्होंने ये भी नोटिस किया कि उनके कुछ इंजीनियर्स को हर रोज़ 500 मीटर की असेम्बली लाइन के उपर से जाना पड़ता है तो उन्होंने उन लोगो के लिए साइकल्स आर्डर कर दी ताकि आने-जाने में उनकी एनेर्जी वेस्ट ना हो.
1998 के कार एक्जीबिशन में रतन टाटा ने खुद कार चलाई जो पूरी तरह से इन्डियन मेक थी. दूसरी कार ब्रांड्स ने ब्रांडिंग के लिए खूबसूरत मॉडल्स को रखा हुआ था. और उनके प्रोडक्ट्स रोटेटिंग प्लेटफॉर्म्स पर डिस्प्ले के लिए रखे गए थे. मगर टाटा वालों का स्टाल सबसे अलग था.
मेल मॉडल्स ने पगड़ी और फिमेल मॉडल्स ने साड़ी पहनी हुई थी. कुछ स्कूली बच्चे भी हाथो में तिरंगा लिए खड़े थे. उसके बाद रतन टाटा ने बड़े प्राउड से इन्डियन कार में एंट्री की. एक आदमी ने कमेन्ट किया” वाओ! ऐसा लग रहा है जैसे कोहिनूर गाडी में बैठ के आ रहा है”.
रतन टाटा ने अपनी इस नयी कार का नाम रखा” इंडिका”. लाँच के एक महीने बाद ही इंडिका ने 14% मार्किट शेयर पे होल्ड कर लिया था. लेकिन एक बड़ी प्रोब्लम आ रही थी. कई सारे यूनिट्स डिफेक्टिव निकल रहे थे.
टाटा मोटर्स ने पूरे 500 करोड़ खर्च करके इस प्रोब्लम को फिक्स किया. उन्होंने पूरी कंट्री के अंदर कस्टमर केयर कैंप खोले जहाँ कस्टमर्स फ्री में डिफेक्टिव पार्ट्स रिपेयर करवा सकते थे. रतन टाटा ने अपने सारे कस्टमर्स को यकीन दिलाया कि उनकी गाड़ियों को ठीक कर दिया जायेगा.
लेकिन इसके बावजूद बहुत से लोगो को अभी भी अपने देश की बनी हुई चीज़ पर डाउट था. लोग बोल रहे थे इंडिका देश में बनी है इसलिए इसके पार्ट्स डिफेक्टिव निकल रहे है.
आम जनता की राय से रतन टाटा को बेहद मायूसी हुई. फिर टाटा मोटर्स इंडिका का न्यू वर्जन इंडिका 2.0 यानी इंडिका V2 लेकर आया. और इस नयी कार के साथ ही रतन टाटा ने ये प्रूव कर दिया था कि हम लोग भी 100% इन्डियन लेकिन वर्ल्ड क्लास क्वालिटी की कार बनाने की काबिलियत रखते है. ये नया मॉडल पहले वाले से हर हाल में बैटर था. बीबीसी ने इसे बेस्ट कार का अवार्ड दिया. इसने कई सारे मार्किट सर्वे भी जीते.
इस पॉइंट पे आके टाटा मोटर्स फुल फॉर्म में चलने लगी थी. रतन टाटा लोगो को ये मैसेज देना चाहते थे कि अगर हमे खुद पे यकीन है तो नामुमकिन कुछ भी नहीं है. वो देश के यंग इंजीनियर्स को ये विशवास दिलाना चाहते थे कि हम इन्डियन भी वर्ल्ड क्लास चीज़े बना सकते है.
वो सारे हिन्दुस्तानीयों को खुद पे यकीन रखना सिखाना चाहते है. रतन टाटा से पहले किसी ने भी एक फुली इन्डियन मेड कार के बारे में नहीं सोचा था. लेकिन आज टाटा मोटर्स पूरी दुनिया में इंडिया का झंडा फहरा रहा है.
The Tata Culture
कैप्टिलिज्म विद अ हार्ट (Capitalism with a heart)टाटा कल्चर का मकसद सिर्फ चैरिटी करना नहीं बल्कि सोशल वेल्थ बिल्ड करना है. टाटा ग्रुप ये मानता है कि अगर कम्यूनिटी ग्रो करती है तो बिजनेस भी ग्रो करेगा. 1982 में जमशेदजी ने कुछ लोकल डॉक्टर्स को फाईनेंशियल हेल्प दी ताकि वो लोग इंग्लैण्ड जाकर हायर एजुकेशन ले सके.
उन लोगो से जमशेद जी ने कहा ये पैसा लोन समझ कर ले लो और बाद में धीरे-धीरे वापस कर सकते हो. जमशेदजी ने ये भी बोला कि जो लोन मिलेगा वो पैसा दुसरे लोकल डॉक्टर्स के काम आएगा. और इस तरह जेएन टाटा एंडोमेंट फॉर हायर एजुकेशन ऑफ़ इंडियंस की नींव रखी गयी और इन 100 सालो में करीब 5000 से भी ज्यादा लोगो को इंस्टीटयूट ने वाहर जाकर स्टडी करने का मौका दिया है. और ये लोग खुद को जेएन टाटा स्कोलर कहलाने में प्राउड फील करते है.
तो टाटा ग्रुप बाकी बिजनेसेस से डिफरेंट कैसे है जो अपनी कॉर्पोरेट रिस्पोंसेबिलिटी को पूरा करते है? क्योंकि टाटा ग्रुप का कभी भी ये गोल नहीं रहा कि वो दुनिया का सबसे अमीर या सबसे बड़ा बिजनेस ग्रुप बने.
टाटा ने हमेशा ही लोगो को देने में यकीन रखा है. जब उन्होंने नागपुर में एम्प्रेस मिल खोली थी तो जमशेद जी ने कुछ ऐसा किया था जो वेस्टर्न कंट्रीज में भी नहीं होता था. उन्होंने अपने एम्प्लोईज को पेंशन प्लान देने की एक नयी शुरुवात की थी. क्योंकि वो हमेशा यही मानते थे कि सोसाइटी की भलाई में ही उनकी भलाई है.
टाटा ग्रुप का मकसद सिर्फ पैसा कमाना नहीं है, जमशेदजी ने हमेशा सोसाइटी में कंट्रीब्यूट करने की कोशिश की. हमारे देश को बाहर से चीज़े इम्पोर्ट ना करनी पड़ी यही सोचकर उन्होंने एक स्टील प्लांट भी खोला था. उनका आर्टीफिशियल लेक एक बड़ा ही एमबीशियस प्रोजेक्ट था.
वो चाहते तो उस पैसे से कोई दूसरा बिजनेस खोल सकते थे लेकिन उन्हें पता था कि इंडिया को हाइड्रोइलेक्ट्रीसिटी पॉवर में इंडीपेंडेंट होने की कितनी ज़रूरत है. उन्हें ये भी पता था कि कंट्री को इंजीनियर्स और साइंटिस्ट की बेहद ज़रूरत है, इसीलिए तो उन्होंने अपनी प्रोपर्टीज बेचकर एक साइंस इंस्टीटयूट स्टार्ट किया.
1986 में, जमशेदजी ने फंड जमा करने के लिए बोम्बे में चार लैंड टाइटल्स और 17 बिल्डिंग्स बेच दी थी. और इस तरह बैंगलोर के इंडियन इंस्टीटयूट ऑफ़ साइंस का जन्म हुआ. दुनिया में कई और भी बिलेनियर्स है, बिल गेट्स, हेनरी फोर्ड और जॉन डी. रॉकफेलर जैसे. ये लोग भी काफी चैरिटी वर्क करते रहते है. लेकिन टाटा की तो बात ही अलग है.
ये लोग सिर्फ सोशल वर्क में यकीन नहीं करते बल्कि ये लोग सोसाइटी में इन्वेस्ट करते है, ये लोगो में इन्वेस्ट करते है. टाटा ग्रुप की हमेशा यही कोशिश रही है कि हमारे देश की हर सोशल प्रोब्लम दूर हो.
तभी तो टाटा ने हमेशा लोकल टेलेंट को ही प्रोमोट किया है जबकि बाकी बिजनेस ग्रुप कोस्ट टिंग के लिए बाहर से लोग बुलाते है. लेकिन टाटा का मानना है कि हमे लोकल टेलेंट को बढ़ावा देना चाहिए और हमारी यंग जेनरेशन की स्किल्स डेवलप करके ही हम उन्हें एम्पॉवर कर सकते है.
तामिल नाडू के होसुर में गरीब लोगो की तादाद काफी ज्यादा थी. ये लोग सबसिसटेंस एग्रीकल्चर पे गुज़ारा करते है. इन लोगो के पास ना तो कोई खास स्किल है और ना ही पैसे कमाने का कोई जरिया.
टाटा ने 1987 में होसुर में एक प्लांट खोला. टाटा चाहता तो ईजिली बैंगलोर से स्किल्ड वर्कर्स हायर कर लेता लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. टाटा ग्रुप ने होसुर के 400 लोकल स्टूडेंट्स को सेलेक्ट किया जो 12th पास थे.
इन 400 स्टूडेंट्स को बैंगलोर ट्रेनिंग के लिए भेजा गया. इनमे से कई तो ऐसे थे जो फर्स्ट टाइम किसी सिटी में जा रहे थे. इन लोगो को ट्रेनिंग देकर स्किल्ड बनाया गया और फिर होसुर फेक्ट्री में इन्हें काम पे रख लिया गया. शुरू में इन यंगस्टर्स को मालूम ही नहीं था कि इन्हें करना क्या है या टाटा कौन है.
लेकिन होसुर प्लांट का आईडिया काफी सक्सेसफुल रहा. यहाँ पर स्टूडेंट्स आते है और वर्ल्ड क्लास वाचेस बनाना सीखते है जोकि टाटा का टाईटन वाच ब्रांड है.
The Search for a Successor
टाटा ग्रुप के तीनो चेयरमेन काफी इन्फ्लूएंशल तो है, एक दुसरे से काफी डिफरेंट भी है. जमशेदजी टिपिकल पारसी थे, शक्लो सूरत से भी और तौर-तरीको से भी. और वो दाड़ी भी रखते थे जैसा कि उस टाइम पर पारसी मर्दों में कस्टम था.
जेआरडी टाटा डिफरेंट थे, वो एकदम फॉरनर लगते थे और हमेशा सूट पहनते थे. वो क्लीन शेव रहते थे इसलिए थोड़ा फ्रेंडली जेस्चर भी देते थे. और रतन टाटा एक इंट्रोवेर्ट है, वो काफी रिज़र्व नेचर के है लेकिन जेंटल और हम्बल है. तीनो का लीडरशिप स्टाइल भी एक दुसरे से काफी डिफरेंट है.
जमशेदजी देश की आजादी से कोई एक सेंचुरी पहले पैदा हुए थे. उन्होंने जो सपना देखा था, वो उनके जाने के बाद पूरा हो पाया था. जेआरडी हमेशा सोसाइटी के वेलफेयर की बात सोचते थे, उनका मानना था कि लोगो में इन्वेस्ट करो तो कंपनी ग्रो करेगी.
वो समाज के छोटे-बड़े हर क्लास को साथ लेकर चलने में यकीन रखते थे. रतन टाटा मेंथोडीकल है. इतने बड़े टाटा ग्रुप की सारी कंपनीज को एक साथ एक कल्चर में रखना, ये उनका ही कमाल है.
जब अपना सक्सेसर चुनने की बात आई तो रतन टाटा अपनी तरह एक मेंथोडीकल और मेहनती आदमी चाहते थे. 1991 में वो 54 साल के थे जब वो टाटा ग्रुप चेयरमेन बने. टाटा ग्रुप में एक जर्नल रुल है कि कोई भी चेयरमेन 75 की एज के बाद पोस्ट पर नहीं रहेगा.
तो इसलिए रतन टाटा ने 73 साल की उम्र से ही अपना सक्सेसर ढूँढना शुरू कर दिया था. उन्होंने 5 मेम्बर्स की एक सेलेक्टिंग कमिटी बनाई जिसमे वो खुद भी शामिल थे.
इस कमिटी के सारे मेंबर्स काफी सीक्रेटिव है. ये लोग कभी भी मिडिया से बात नहीं करते. हालाँकि प्रेस के लोग अंदाजा लगाने में माहिर होते है और पॉसिबल स्कसेसर का नाम पता सामने आ ही जाता है. लेकिन बात जब सक्सेसर की आई तो रतन टाटा के अपने कुछ स्टैंडर्ड थे.
टाटा ग्रुप काफी बड़ा और डाईवर्स ग्रुप है जिसे कोई विज़नरी, डेडीकेटेड और कमिटेड इन्सान ही आगे ले जा सकता है. कोई ऐसा जो एरोगेंट और इगोइस्टिक ना हो.
ये बात तो कन्फर्म है कि सक्सेसर इन्डियन ही होगा क्योंकि टाटा की जो फिलोसफी है, उनकी जो आइडेंटिटी है वो एकदम इन्डियन है और टाटा को इस पर पूरा प्राउड भी है. ग्रुप को कोई ऐसा चाहिए जो 20 से 30 सालो तक काम कर सके.
और एक इन्सान है जिसमे ये सारी क्वालिटीज है और वो है साइरस पलोंजी मिस्त्री. टाटा ग्रुप का 18% साइरस की फेमिली का है. जैगुआर लैंड रोवर और करुस स्टील कंपनी को टाटा के अंडर में लाने के पीछे साइरस ही मेन डिसीजन मेकर है.
साइरस पलोंजी 43 साल के है यानी वो ग्रुप को 20 से 30 साल और चला सकते है. रतन टाटा की तरह वो भी काफी माइल्ड नेचर के है और उन्ही की तरह इंट्रोवेर्ट भी, उन्हें भी पार्टी वगैरह में जाना ज्यादा पसंद नहीं है. सेप्टेम्बर 2017 में कमिटी ने साइरस पलोंजी मिस्त्री को अपना सक्सेसर चुना.
साइरस बोम्बे की पारसी फेमिली से है. वो पलोंजी मिस्त्री के बेटे है जो एक कंस्ट्रकशन मैगनेट और एक बिलेनियर है. साइरस की मदर आयरलैंड से है. मिस्त्री फेमिली 100 सालो से भी ज्यादा टाटा ग्रुप का एक हिस्सा रही है.
अफवाहों का दौर जल्द ही खत्म हो गया जब टाटा ग्रुप के नेक्स्ट चेयरमेन के तौर पर साइरस का नाम अनाउंस किया गया. हालाँकि लोगो ने साइरस की क्रेडिबिलिटी पे सवाल भी उठाये. करता है. खुद रतन टाटा पर लोगो को डाउट हुआ जब उन्होंने जेआरडी की जगह ली थी. लेकिन उन्होंने एक स्ट्रोंग लीडर बनकर खुद को प्रूव कर दिखाया था. अब साइरस पलोंजी का टाइम है कि वो खुद को प्रूव करे.
The Storm and a New Beginning
टाटा ग्रुप अपनी दूर की सोच और लॉन्ग टर्म थिंकिंग के लिए जाना जाता है. टाटा ग्रुप के डिसीजन कभी भी पिछले साल के स्टेटिसस्टिक्स पर बेस्ड नहीं होते. टाटा की फाउंडेशन हमेशा इंटेग्रीटि की रही है. वैसे साइरस पलोंजी मिस्त्री डिफरेंट अप्रोच रखते है.
वो परफोर्मेंस को नम्बर्स से मेजर करते है. हर चीज़ को लोस और प्रॉफिट के टर्म में देखना उनकी आदत है. साइरस का फर्स्ट मेजर डिसीजन था उन बिजनेसेस को क्लोज करना जो अब प्रॉफिट नहीं दे रहे थे. उन्होंने इंगलैंड का स्टील बिजनेस बेच दिया था. उन्होंने बरमूडा के ओरिएंट एक्सप्रेस होटल की डील भी कैंसल कर दी थी.
न्यू चेयरमेन फाइनेंशियल सर्विसेस, रीटेल, टूरिज्म, लेजर और डिफेन्स जैसे कामो पर फोकस करना चाहते थे. साइरस पलोंजी मिस्त्री मानते है कि टाटा ग्रुप को फोकस्ड रहकर रेवेन्यू जेनरेट करना है और सोच-समझ कर इन्वेस्टमेंट करनी होगी.
फिर टाइम आया सारी टाटा कंपनीज के लीडर की एनुअल मीटिंग का. साइरस सबके बिजनेस परफोर्मेंस और फ्यूचर प्लान्स के बारे में सुनना चाहते थे. अपने इन्वेस्टर्स के सवालों का जवाब देने के लिए भी वो पूरी तरह तैयार थे. अभी इस सबकी तैयारी चल ही रही थी कि साइरस ने सुना कि कुछ बोर्ड मेंबर्स इवेंट से पहले एक इनफॉर्मल मीटिंग कर रहे है.
उन्हें कुछ नहीं पता था कि ये मीटिंग क्यों हो रही है या उन्हें इस बारे में क्यों नहीं बताया गया. एक्चुअल एनुवल मीटिंग पर दो अनएक्सपेक्टेड गेस्ट्स को देखकर साइरस थोडा हैरान हुए. एक थे, नितिन नोहरिया, एक बोर्ड मेंबर और दुसरे थे खुद रतन टाटा.
साइरस जानते थे कि इस तरह के इवेंट्स में रतन कभी नहीं आते. ये एक कस्टम था टाटा ग्रुप में कि चेयरमेन रिटायर होने के बाद इंटरफेयर नहीं करते थे. साइरस को इस बात से काफी सरप्राइज़ हो गए थे कि आखिर ये सब क्या चल रहा है.
जल्दी ही नितिन नोहरिया ने एक अनाउंसमेंट की” बोर्ड मेंबर्स चाहते थे कि साइरस मिस्त्री रीजाइन कर ले.”पहले वाली मीटिंग का एजेंडा था उन्हें पोस्ट से रीमूव करना. रतन टाटा ने सिर्फ इतना बोला” सॉरी साइरस, ये सब कुछ नहीं होना चाहिए था”.
मीटिंग में साइरस को बताया गया कि सारे बोर्ड मेम्बेर्स की मर्जी के बाद ही ये डिसीजन लिया गया है क्योंकि साइरस पर अब उन्हें कांफिडेंस नहीं रहा है. साइरस को हटाने का क्लियर रीजन क्या है, ये कोई नहीं जानता. मीटिंग के सिर्फ 30 मिनट बाद ही ये न्यूज़ आग की तरह फ़ैल गयी थी.
हर न्यूज़पेपर की हेडलाइन में टाटा ग्रुप का ही नाम था. हर कोई साइरस मिस्त्री को हटाये जाने के बारे में अंदाज़े लगा रहा था. कुछ लोगो ने बोला शायद उसने अनप्रोफिटेबल बिजनेस बेचे इसलिए उसे हटाया गया.
कुछ का मानना था कि साइरस ने टाटा ट्रस्ट फंड को इग्नोर किया इसलिए उसे हटाया गया. मगर रतन टाटा चुप रहे, उन्होंने कोई भी बात कन्फर्म या मना नहीं की. ये माना जाता था कि हर न्यू चेयरमेन 20 से 30 सालो तक लीड करेगा. लेकिन साइरस सिर्फ 4 साल ही पोस्ट पर रहे. उन्होंने नेशनल कंपनी लॉ ट्रीब्यूनल में एक कंप्लेंट भी फ़ाइल कर दी.
साइरस ने टाटा ग्रुप पर अपने साथ हुई नाइंसाफी का इलज़ाम लगाया. खैर, जो भी हो टाटा ग्रुप एक नया रीप्लेसमेंट ढूढने में लगा रहा. उन्हें जल्द ही नया प्रोस्पेक्ट मिला. नटराजन चन्द्रशेखरन टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेस के सीईओ.
वो एक आर्टिस्टिक और सॉफ्ट स्पोकन इंसान है. अपने करियर की शुरुवात से ही वो टीएससी में है. फरवरी 2017 में चन्द्रशेखरन को ऑफिशियली टाटा ग्रुप का चेयरमेन अनाउंस किया गया.
जापानीज़ टेलीकोम कंपनी डोकोमो (DoCoMo ) टाटा ग्रुप के अगेंस्ट एक लॉसूट करने जा रही थी लेकिन चन्द्रशेखर के इंटरफेयर से ये इश्यूज रीज़ोल्व हो गया था. उनका स्टील बिजनेस योरोप में घाटे में चल रहा था तो नए चेयरमेन ने टाटा स्टील योरोप को जर्मन कारपोरेशन के साथ मर्ज कर दिया.
उन्होंने टाटा टेलीसर्विस भी एयरटेल को बेच दी थी. दिसम्बर 2017 तक टाटा ग्रुप एक बार फिर से स्टेबल हो गया था. नटराजन चन्द्रशेखरन अब टाटा ग्रुप को और आगे लेकर जायेंगे, यही उनसे उम्मीद है.
Conclusion
आपने टाटा ग्रुप के बारे में पढ़ा. आपने इस बुक में जमशेद जी, जेआरडी और रतन टाटा के बारे में भी पढ़ा. आपने इस बुक में एम्प्रेस मिल्स और इंडिका के बारे में पढ़ा. आपने यहाँ टाटा कल्चर की इंटेग्रीटी, गुडविल और सोशल वेल्थ के बारे में भी पढ़ा.
टाटा बिजनेस को लेकर काफी इंटेलीजेंट और दूर की सोचने वाले लोग है. मगर वो अपनी एबिलिटी का यूज़ देश को हेल्प करने के लिए भी करते है. वो मानते है कि कम्यूनिटी को हेल्प करना ज़रूरी है और लोगो की भलाई में ही कंपनी की भलाई छुपी है. शायद यही उनके सक्सेस का सीक्रेट हो. जितनी बड़ी टाटा कंपनी है उनका पर्पज उनसे काफी बड़ा है.
अगर आप टेल्को में इंजीनियर होते तो क्या आप रतन टाटा पे ट्रस्ट करते जब उन्होंने कहा था कि एक इंडीजीनियस कार इंडिया में बन सकती है? जब पहली वाली इंडिका फेल हुई थी तो क्या आप भी उन लोगो में शामिल होते जिन्हें अपने देश की एबिलिटी पर डाउट है कि हम भी कोई पूरी मेक इन इंडिया वर्ल्ड क्लास कार बना सकते है?
खुद पे यकीन करो -यही लेंसन रतन टाटा हर एक इन्डियन को देना चाहते है. इंडिया में मल्टी बिलियन डॉलर कंपनीज भी है, फ्लिपकर्ट, पे-टीएम्. माइक्रोसॉफ्ट में एक इन्डियन सीईओ है. तो कौन कहता है कि इंडिया नई उंचाईयों को नहीं छू सकता है?
लेकिन सबसे पहले आपको खुद पे यकीन रखना होगा कि आप भी कुछ कर सकते है. चाहे जो भी आपका करियर हो, खुद पे बिलीव करो कि आप कर सकते हो. जब आप ये बीलीव करोगे कि इम्पोसिब्ल कुछ भी नहीं है तो आप एक ऐसी लाइफ जियोगे जहाँ कोई लिमिट नहीं होगी.