प्रलंबासुर वध
एक दिन कृष्ण और बलराम अपने मित्रों के साथ वृंदावन के वन में चप्पे-चप्पे को जानने के लिए धूम रहे थे। उन्होंने मयूर पंख, फूलों की माला तथा फूलों से अपनी विशेष सज्जा बना रखी थी। वे सभी नाच-गा और दौड़-धूप कर रहे थे। तभी वहाँ कंस के द्वारा भेजा गया प्रलम्ब नामक असुर पहुँचा। वह कृष्ण और बलराम को मारना चाहता था। उसने ढेरों बच्चों को कृष्ण और बलराम के साथ खेलता देखा। कृष्ण और बलराम को मारने का उसे यह अवसर बहुत अच्छा लगा। उसे एक युक्ति सूझी। एक गोप का रूप धरकर उसने उनके साथ खेलना चाहा। सभी बच्चे खुशी-खुशी सहमत हो गए। हालांकि, कृष्ण और बलराम उस गोप की असलियत पहचान गए थे पर वे चुप रहे। कृष्ण ने चुप-चाप प्रलंब पर कड़ी दृष्टि रखनी शुरु कर दी जिससे वह किसी भी मित्र को कोई हानि न पहुँचा सके।
कृष्ण, बलराम तथा अन्य बालकों के साथ छद्म वेषधारी प्रलंब भी खेलने लगा। कृष्ण ने कहा, “चलो, हम सब दो दलों में बंट जाते हैं।” एक दल के नेता कृष्ण बने और दूसरे दल के बलराम। उन्होंने यह नियम बनाया कि हारा हुआ दल जीते हुए दल को अपनी पीठ पर उठाकर जंगल में एक छोर से दूसरे छोर तक ले जाएगा। खेल शुरु हुआ और काफी देर तक चलता रहा। अंत में बलराम का दल विजयी हुआ। फलतः कृष्ण ने सुदामा को उठाया, भद्रसेन ने वृषभान को अपने कंधे पर उठाया। प्रलंब कृष्ण के दल में था। उसने बलराम को उठाया। प्रलंब बलराम को अपनी पीठ पर लेकर बहुत तेज भागने लगा और शीघ्र ही निश्चित रेखा से दूर निकल गया। फिर अचानक ही उसने अपना असुर रूप धारण कर लिया। बलराम ने तुरंत अपने मुक्के से उसके सिर पर वार करा । वार इतना तेज था कि वह सह न सका और तत्काल उसकी मृत्यु हो गई। बालकों की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा और वे सभी बलराम को अपनी पीठ पर बैठाकर लौट गए।
बकासुर वध
एक दिन कृष्ण और बलराम अपने सभी ग्वाले मित्रों के साथ अपनी गायों को चराने यमुना नदी के किनारे लेकर गए थे। वे सभी अपने साथ खेलने के लिए तरह- तरह के सामान भी ले गए थे। जब उनकी गाएं हरी-हरी घास चरने लगीं तब वे सभी अपने खेलों में रम गए थे। बीच-बीच में जाकर वे अपने पशुओं को देख लिया करते थे। अपना समय बिताने के लिए वे बांसुरी बजाते, नृत्य करते और कभी बैल बनकर आपस में लड़ने लगते थे। मोर, कोयल और बंदर की आवाजें निकालकर वे आपस में बातें भी करते थे। सभी गोप अपने खेल में पूरी तरह रमे हुए थे। इधर कंस ने एक असुर को कृष्ण को मारने भेजा था। वह चुपचाप एक वृक्ष के पीछे छिपा हुआ इनके खेल को देख रहा था और मन ही मन कृष्ण और बलराम को मारने की योजना भी बना रहा था। एक बछड़े का रूप धरकर वह पशुओं के साथ चरने लगा। अवसर देखकर उसने बगुले का रूप धारण करने का निश्चय किया और फिर वहीं बैठे-बैठे एक बड़े से बगुले का रूप धर लिया।
जहाँ गाएँ चर रही थीं वहाँ से थोड़ी दूर यमुना नदी के किनारे, कृष्ण तथा गोपों ने एक बड़े से पर्वत के आकार की कोई वस्तु देखी। कृष्ण ने तुरंत समझ लिया कि वह बकासुर नामक दैत्य बैठा हुआ है। उसने एक बड़े से बगुले का रूप धारण कर रखा था जिसकी चोंच बहुत ही लंबी और पैनी थीं। कृष्ण को अपने थोड़े पास देख बकासुर ने झपटकर कृष्ण को अपनी चोंच के बीच में पकड़कर अपने मुँह में रख लिया। सभी गोप यह देख अत्यंत भयभीत हो गए। कुछ तो भय से कांपते हुए वहीं बेसुध होकर गिर पड़े। इधर मुँह के भीतर बंद कृष्ण ने अपने शरीर का तापमान बढ़ाना प्रारम्भ किया। बगुले का मुँह जलने लगा और उसने अपना मुँह खोलकर कृष्ण को बाहर फेंक दिया। थोड़ी देर में फिर उसने कृष्ण को अपनी चोंच से पकड़ना चाहा पर कृष्ण ने गन्ने की तरह उसकी चोंच को पकड़कर दो भागों में चीर डाला। बकासुर का अंत हो गया। सबने शांति की सांस ली और गाँव लौट गए।