गोवर्धन पूजा
एक बार पूरा वृंदावन सजाया गया था। उत्सव का माहौल था। कृष्ण और बलराम अपने सखाओं के साथ गाँव में चारों ओर घूम रहे थे। लोगों ने नए और अच्छे वस्त्र पहन रखे थे, तरह-तरह के पकवान बन रहे थे। उन्होंने सभी से कारण जानना चाहा पर उन्हें किसी ने भी संतोषजनक उत्तर नहीं दिया। उत्सुकतावश कृष्ण ने नंद से पूछा. “पिता जी, हम लोग यह कैसा उत्सव मना रहे हैं?” नंद ने कृष्ण को बताया कि इन्द्र का आशीर्वाद पाने के लिए वृंदावन को सजाया गया था। कृष्ण ने पुनः पूछा, “कैसा आशीर्वाद पिता जी?” नंद ने कृष्ण को समझाया, “इन्द्र देव तो मेघों के देव हैं। वे हमें बारिश देते हैं। वर्षा से मनुष्य और पशुओं को भोजन तथा जीवन मिलता है। इसलिए आज सभी लोग इन्द्र भगवान की पूजा करेंगे और उन्होंने जो भी हमें दिया है उसके लिए उन्हें धन्यवाद देंगे।” यह कहकर नंद अपनी दिनचर्या पूरी करने चले गए पर कृष्ण पिता की कही बातों को सोचने लग गए।
नंद जब अपना काम समाप्त कर भीतर आए तो कृष्ण को गहन सोच में डूबा पाया। कृष्ण ने अपने पिता से गाँव के सभी बड़े-बुजुगों को तुरंत वहाँ बुलाने के लिए कहा क्योंकि कृष्ण उनसे कुछ कहना चाहते थे। गाँव के बुजुर्गों के आते ही कृष्ण ने उनसे कहा, “फसल अच्छी होने से लोगों को धन और समृद्धि प्राप्त होती है। अच्छी फसल लोगों के परिश्रम का परिणाम है न कि वर्षा का। इसलिए हमें इन्द्र भगवान की पूजा छोड़कर गोवर्धन पर्वत की पूजा करनी चाहिए। पर्वत ही बादलों को रोककर हमें वर्षा देता है उसी से गाँव वालों और मवेशियों की रक्षा होती है।” गाँव वालों को कृष्ण की बात समझ में आ गई। अतः उन्होंने गोवर्धन पर्वत की पूजा करने का निश्चय किया। सभी लोग पर्वत के पास एकत्रित हुए और घी, दूध और दही से सबने पूजा करी । कृष्ण अपना दिव्य रूप धारण कर पर्वत पर प्रकट हुए। उन्होंने कहा कि वही पर्वत देव हैं और उन्होंने प्रसाद रूप में चढ़ावा ग्रहण किया।
वृंदावन वासियों को गोवर्धन पर्वत की पूजा अर्चना करते देखकर इन्द्र भगवान रुष्ट हो गए वहाँ के लोगों को सबक सिखाने के लिए उन्होंने काले मेघों को घनघोर वर्षा के साथ भेजा। भारी बारिश हुई। ओले गिरे। लोग त्राहि-त्राहि कर उठे। उन्होंने कृष्ण से मदद मांगी। कृष्ण ने अपनी कानी उंगली पर गोवर्धन पर्वत को उठा लिया। सभी लोगों ने अपने मवेशियों के साथ पर्वत के नीचे आकर शरण लिया। सात दिनों तक लगातार भयंकर बारिश होती रही। इस पूरे समय कृष्ण बिना हिले डुले पर्वत उठाए खड़े रहे। पर्वत उठाए कृष्ण को देखकर इन्द्र को विश्वास हुआ कि अवश्य ही कृष्ण ही भगवान विष्णु हैं। इन्द्र का मद चूर हो गया। अंतत: बारिश रुकी, लोग अपने-अपने घरों को लौटे और कृष्ण ने पर्वत नीचे रखा। कृष्ण की शक्ति देखकर वृंदावनवासी अचंभित थे। उन्होंने नंद से जाकर कहा कि उनका पुत्र अवश्य ही ईश्वर है। इन्द्र ने भी आकर कृष्ण से क्षमा याचना करी।