सुदामा और कृष्ण की मुलाकात
कृष्ण जब गुरुकुल में पढ़ रहे थे तब सुदामा नामक उनका एक मित्र था। उसका असली नाम कुचेला था और वह अत्यंत गरीब ब्राह्मण परिवार से था। कृष्ण राजसी परिवार से थे फिर भी यह असमानता दोनों की मित्रता में बाधा नहीं बनी थी। गुरुकुल की शिक्षा पूरी होने के बाद सुदामा एक गरीब गृहस्थ का जीवन व्यतीत कर रहा था। भिक्षाटन से जो भी मिल जाता था उससे किसी तरह गुजर-बसर हो जाता था। वह अपने आपसे संतुष्ट था। उसकी पत्नी ने द्वारका के राजा कृष्ण के विषय में सुन रखा था। अपनी गरीबी से परेशान होकर जब बच्चों का भूखा रहना उससे न देखा गया तब उसने सुदामा से कृष्ण से जाकर सहायता मांगने के लिए कहा। पत्नी के बहुत अनुरोध करने पर सुदामा कृष्ण के पास जाने के लिए सहमत हुआ। अपने मित्र के पास सुदामा खाली हाथ नहीं जाना चाहता था। एक कपड़े में उसने थोड़े चावल बांधे और छोटी सी गठरी लेकर कृष्ण से मिलने चल दिया। कई दिनों की लंबी यात्रा करने के बाद वह द्वारका पहुँचा।
सुदामा द्वारका पहुँचा। वह वहाँ की भव्यता देखकर अचंभित था। बड़ी-बड़ी ऊँची अट्टालिकाएँ… वह देखता ही रह गया। चलता चलता वह कृष्ण के महल पहुँचा। उसके आने की सूचना पाते ही कृष्ण भागे आए और सुदामा को गले लगा लिया। दोनों एक दूसरे के गले मिले। कृष्ण सुदामा को लेकर भीतर गए और उसे अपने ही आसन पर बैठाया। कृष्ण ने बड़े ही प्रेम से सुदामा के चरण धोए। सुदामा के आने का समाचार रुक्मिणी को मिला। वह भी बाहर आईं। कृष्ण ने रुक्मिणी का परिचय कराकर सुदामा से उसकी पत्नी तथा बच्चों का समाचार पूछा। कृष्ण ने सुदामा से पूछा कि वह उसके लिए क्या उपहार लाया है। सुदामा अपनी गठरी छिपाने की चेष्टा कर रहा था जिसे कृष्ण ने ले लिया। खोलकर उन्होंने दो मुट्ठी चावल खा लिया। तभी रुक्मिणी ने उनका हाथ पकड़ लिया और कृष्ण को रोकती हुई बोली, “बस, अब थोड़ा मेरे लिए भी रहने दीजिए।” कृष्ण मुस्कराए और रुक्मिणी ने वह चावल ने लिया।
सारे दिन कृष्ण और सुदामा ने जी भरकर बातें करी, अपने पुराने दिनों को याद किया। रात में विश्राम कर अगले दिन सुदामा ने कृष्ण से वापस जाने की अनुमति मांगी। कृष्ण स्वयं महल के द्वार तक अपने मित्र को विदा करने आए। न तो उन्होंने सुदामा को कोई उपहार दिया और न ही सुदामा ने कोई सहायता मांगी। घर वापस पहुँचते ही सुदामा के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। उसे अपनी कुटिया कहीं दिखाई नहीं दी। उसकी कुटिया की जगह पर महल खड़ा था, सजे-धजे सेवक घर में आ जा रहे थे तथा पड़ोस के घर भी वहाँ पर नहीं थे। अभी सुदामा आश्चर्य में डूबा घर के बाहर खड़ा ही था कि उसकी पत्नी अच्छे वस्त्र तथा आभूषण पहने बाहर आई। कृष्ण से सहायता मांगकर अपनी दरिद्रता दूर कराने के लिए उसने पति को धन्यवाद दिया। सुदामा समझ गया कि यह सब कृष्ण की ही माया है। उसकी समस्याओं का कृष्ण को अच्छी तरह पता था। सुदामा ने मन ही मन कृष्ण का आभार व्यक्त किया पर समृद्ध होते हुए भी स्वयं सदा सादगी का जीवन व्यतीत किया।