Dollars and Sense Book Summary in Hindi – डॉलर्स ऐन्ड सेंस (Dollars and Sense) में हम सीखेंगे कि किस तरह से हम अपनी मानसिकता की वजह से अपने पैसों का इस्तेमाल गलत तरह से करते हैं। यह किताब हमें बताती है कि कैसे कंपनियां हमारी मानसिकता का इस्तेमाल करती हैं ताकि हम ज्यादा पैसे खर्च कर सकें और किस तरह से आप खुद पर काबू पा सकते हैं।
क्या आप अपने पैसे को बेहतर तरीके से खर्च करना सीखना चाहते हैं, क्या आप यह जानना चाहते हैं कि आपकी मानसिकता किस तरह से पैसे को लेकर आपके फैसले पर असर डालती है, क्या आप साइकोलाजी पढ़ना पसंद करते हैं तो यह बुक आपके लिए ही है।
लेखक
डैन एरीलि (Dan Ariely) इसाइल में पैदा हुए थे। वे अमेरिका के ड्यूक यूनिवर्सिटी में साइकोलाजी और बिहेवियोरल इकोनामिक्स के प्रोफेसर हैं। वे एक लेखक हैं जिन्होंने साइकोलाजी पर बहुत सी किताबें लिखीं हैं ।
जेफ क्रीस्लर (Jeff Kreisler) एक कामेडियन हैं जो कि कामेडी सेंट्रल इनडिसिज़न के लिए एक लेखक का काम करते हैं। साथ ही वे जिम क्रेमर की वेबसाइट द स्ट्रीट पर एक कालम भी लिखते हैं। लिखने के अलावा वे अपनी स्टैंड अप कामेडी भी करते हैं।
आज के वक्त में हम इंसानी स्वभाव के बारे में बहुत कुछ जानते हैं। हम जानते हैं कि एक दिए गए हालात में एक व्यक्ति किस तरह से बर्ताव करेगा। अगर कंपनियों को अपने ग्राहकों से कुछ काम करवाना होता है, तो वे उस तरह का माहौल बना देती हैं और हम उनके हिसाब से काम करने लगते हैं। इस तरह से हम हर दिन अपने बहुत से पैसे खर्च कर दे रहे हैं जिससे हमें लम्बे समय में नुकसान हो रहा है।
यह किताब हमें बताती है कि किस तरह से कंपनियां हमारी इस मानसिकता का इस्तेमाल करती है। यह किताब हमें हमारी उस मानसिकता के बारे में बताती है जो हमें अक्सर गलत फैसले लेने पर मजबूर कर देती है। साथ ही, यह किताब हमें बताती है कि किस तरह से हम इस पर काबू पा सकते हैं।
इस किताब के लेखक एरीलि ने एक बार कुछ लोगों से सवाल किया कि वे एक नई गाड़ी खरीदने के लिए अपने कौन से दूसरे खर्चों के साथ समझौता कर सकते हैं। बहुत से लोगों ने कहा कि वे एक गाड़ी नहीं खरीदेंगे। वे लोग अपने हर रोज के खर्चों के साथ समझौता नहीं करना चाहते थे। बहुत कम लोग थे जिन्होंने कहा कि वे इसके लिए होटल में खाना खाना या फिर छुट्टियों पर जाना छोड़ देंगे।
पैसे को लेकर लोगों के बहुत अलग विचार हैं। लेकिन यह सब लोग मानते हैं कि हर दिन की जिन्दगी में पैसा जरूरी होता है। लेकिन फिर भी हम अपने बेकार के खर्चे को कम करने के बारे में नहीं सोचते। हमें जब कुछ खरीदना होता है, तो हम यह नहीं सोचते कि हम उस पैसे को किस दूसरी चीज पर खर्च कर सकते हैं। इकोनामिक्स में इसे अपार्च्यूनिटी कास्ट कहा जाता है, जिसका मतलब होता है बेकार की चीजों पर पैसा खर्च कर के हम जब जरूरी चीज़ों पर पैसे खर्च नहीं करते, तो उससे हमें कितना नुकसान होता है।
इस तरह से जब हम पैसे खर्च करते वक्त दूसरे आप्शन के बारे में नहीं सोचते तो हम बहुत बड़ी गलती कर रहे होते हैं। इसके पीछे दूसरी वजह यह है कि ‘सोचना पसंद नहीं है। इसलिए हम बाहरी चीजों पर ज्यादा ध्यान देकर एक चीज़ की कीमत को पहचानते हैं। हम अपने हर खर्च पर रुक कर यह नहीं सोचते कि उस पैसे को किस बेहतर काम में लगा सकते हैं। हम बस ऐड्स को देखने के बाद सामान खरीदने का फैसला कर लेते हैं।
कंपनियां हमारी इस मानसिकता का इस्तेमाल करती हैं और अपने ऐड्स में हमेशा कहती रहती हैं कि उनका आफर सीमित समय के लिए है। इससे हमें डर लगने लगता है कि कहीं हमारे हाथ से कुछ छूट ना जाए और हम अपने पैसे खर्च कर देते हैं।
एक चीज़ की असल कीमत क्या है, यह हम पता नहीं लगा सकते । अगर आपको एक कपड़ा खरीदना है, तो उसकी असल कीमत का मतलब उसमें लगने वाले सामान की कीमत, उसे बनाने में हुए खर्चे और उसे दुकान तक शिप करने का खर्चे। लेकिन हम में से ज्यादातर लोगों के पास इतनी जानकारी निकालने के लिए समय नहीं होता। इसलिए हम कुछ शार्टकट का इस्तेमाल करते हैं।
इसके लिए हम एक चीज़ की तुलना दूसरे से करते हैं। हम यह देखते हैं कि उसी क्वालिटी का सामान दूसरी जगहों पर कितने दाम में मिल रहा है और इस तरह से हम बेहतर फैसले लेते हैं। लेकिन क्या हो अगर इसमें भी कंपनियां हमें धोखा दे दें?
एक्ज़ाम्पल के लिए जेसीपेन्नी नाम के एक चेन स्टोर को ले लीजिए। 2012 तक वे अपने स्टोर के सामान का दाम बढ़ा देते थे और फिर उसे काट कर उस पर डिस्काउंट लिख कर उसे फिर से रीटेल प्राइस पर ले आते थे। इस तरह से वहाँ पर सामान खरीदने वालों को लगता था कि वहां के जूते की कीमत 1200 है, लेकिन डिस्काउंट के चलते उन्हें वो आज सिर्फ 1,000 का मिल रहा है। इस तरह से वे वहाँ पर खूब शापिंग किया करते थे।
लेकिन इसके बाद रान जानसन वहाँ के सीईओ बन गए और उन्हें अपने ग्राहकों से इस तरह से झूठ बोलना अच्छा नहीं लगा। उन्होंने यह सारे काम बंद कर दिए। लेकिन इससे ग्राहकों को लगने लगा कि उन्हें अब डिस्काउंट नहीं मिल रहा है, जिससे उन्होंने वहाँ से सामान खरीदना बंद कर दिया। उस साल उन्हें लगभग 985 मिलियन डॉलर का नुकसान हुआ।
सामान खरीदने के लिए हम डिस्काउंट का सहारा लेते हैं, लेकिन फिर भी हम यह नहीं पता कर सकते कि उस सामान की असल कीमत क्या है। अगर कुछ डिस्काउंट पर मिल रहा है, तो हमें लगता है वो सस्ता है। इसी तरह से हम अपनी जिन्दगी के दूसरे हिस्सों में भी शार्टकट का इस्तेमाल करते हैं।
एक एक्पेरिमेंट में कुछ लोगों के सामने एक टेबल पर एक सूप का कटोरा रखा गया। उस कटोरे में नीचे से सूप फिर से भरा जा सकता था, लेकिन उसे खाने वाले को इसका पता नहीं चलता। जब लोग उस सूप को खाने लगे, तो कुछ लोग बस खाते ही गए। वे खा रहे थे, लेकिन उनके कटोरे का सूप खत्म नहीं हो रहा था क्योंकि उसे नीचे से फिर से भर दिया जा रहा था। उन्हें तब तक भूख लगी रही जब तक कटोरा खाली नहीं हुआ।
इस तरह से हम कटोरे के खाली हो जाने को अपनी भूख के शांत हो जाने से देखते हैं।
जरा इन दो हालातों पर गौर कीजिए। एक हालात में आप 100 रुपए का एक टिकट खरीदने के लिए जाते हैं, लेकिन बाद में आपका वो टिकट खो जाता है। क्या आप फिर से वो टिकट खरीदने के लिए जाएंगे? दूसरे हालात में आप टिकट लेने के लिए जा रहे थे लेकिन रास्ते में आपका 100 रुपया खो जाता है। अब, क्या आप 100 रुपए और निकाल कर टिकटे लेने जाएंगे?
इन दोनों ही हालातों में आपको नुकसान बराबर का हुआ है। अगर हम लाजिक की बात करें, तो दोनों में कोई अंतर नहीं है और आपका जवाब दोनों हालातों में एक ही होना चाहिए था। लेकिन फिर भी बहुत से लोग कहते हैं कि टिकट के खो जाने पर वे फिर से दूसरा नहीं लेने जाएंगे, लेकिन अगर पैसा खो जाए, तो वे और पैसा निकाल कर टिकट लेने जाएंगे।
ऐसे हालात में हम अपने मेंटल अकाउंटिंग का सहारा लेते हैं, जो कि कभी कभी हमें गलत फैसले लेने पर मजबूर कर सकता है। यहाँ पर हम दोनों हालात में अलग फैसला ले रहे हैं जबकि दोनों में नुकसान एक जैसा हो रहा है। हम यह काम हर रोज करते हैं। अगर हमें कुछ खरीदना होता है, तो हम सारे आप्शन के बारे में नही सोचते, हम यह नहीं देखते कि वो सामान हमें किस तरह से सस्ता मिल सकता है। हम बस अपने मेंटल अकाउंटिंग का सहारा लेते हैं और जिस तरह से आज तक काम करते आए हैं, वैसे ही फिर से काम कर देते हैं।
इसके अलावा एक दूसरी तरह की अकाउंटिंग भी होती है, जिसे ईमोशनल अकाउंटिंग कहा जाता है। यह भी हमारे लिए नुकसानदायक हो सकती है।
कभी कभी हम अलग अलग जगह से मिले हुए पैसे को अलग अलग नजर से देखते हैं। शादी में एक महिला को अपने घर से जो पैसे मिलते हैं, वो उसे सारी उम्र बचा कर रखती है क्योंकि वो उसे उसके घर वालों की याद दिलाता है। लेकिन वही पैसा अगर उसे किसी ऐसे व्यक्ति ने दिया है जिसे वो पसंद नहीं करती, तो वो उसे जल्दी से जल्दी खर्च कर के उससे छुटकारा पाने के बारे में सोचती है।
इसलिए यह जरूरी है कि आप पैसो से अपनी भावनाओं को मत जोड़िए। उसका इस्तेमाल हमेशा सोच समझ कर कीजिए।
फिर से इन दो लाइनों पर पर ध्यान दीजिए।
एक आपदा में पुलिस कर्मचारी बिल्डिंग में फँसे 33% लोगों को नहीं बचा सके।
एक आपदा में पुलिस कर्मचारियों ने बिल्डिंग में फँसे 66% लोगों को बचा लिया।
इन दोनों लाइनों में दूसरी लाइन को पढ़ने पर आपको लगा होगा कि पुलिस ज्यादा काबिल है। लेकिन असल में यह दोनों लाइनें एक ही बात बोल रही हैं।
दूसरे एक्ज़ाम्पल में, फिर से इन दो लाइनों पर ध्यान दीजिए।
अगर आपकी सैलरी 20% कम कर दी जाए, तो आपको कैसा लगेगा?
अगर आपको सिर्फ अपनी सैलरी का 80% भाग खर्च कर कर अपना महीना बिताने के लिए कहा जाए, तो आपको कैसा लगेगा?
1988 में जर्नल ऑफ कंस्यूमर रीसर्च की एक स्टडी में पाया गया कि ज्यादातर लोगों का जवाब था कि वे दूसरे आप्शन के हिसाब से जीना पसंद करेंगे, लेकिन असल में इन दोनों ही हालातों में कुछ अंतर नहीं है। यह दो लाइनें एक ही बात को अलग अलग तरह से बोल रही हैं ।
इस तरह से अगर हम शब्दों का इस्तेमाल कुछ अलग तरह से करें, तो हमारा दिमाग उसे कुछ अलग तरह से देखने लगता है। रेस्तरां में और होटल में इस तरह के शब्दों का इस्तेमाल खाने की क्वालिटी को दिखाने के लिए किया जाता है। वे लोग कुछ इस तरह के शब्दों का इस्तेमाल करते हैं कि उनके ग्राहकों को लगे कि वह खाना बहुत अच्छी क्वालिटी का है और वे उसके लिए ज्यादा पैसे दें।
एक्ज़ाम्पल के लिए, जब कंपनियां अपने ग्राहकों को अपने किसी प्रोडक्ट से संबंधित ईमेल भेजती हैं, तो वे कुछ इस तरह से लिखती हैं – “हमारी सूर्या टीम आपके लिए लेकर आई है…”
यहाँ पर सूर्या कंपनी का नाम है। अगर हम उसके आगे टीम लिख दें, तो लोगों को लगता है कि बहुत समझदार लोग एक साथ मिलकर उनके लिए काम कर रहे हैं। लेकिन वह इसे कुछ इस तरह से लिख दे – “सूर्या कंपनी आपके लिए लेकर आई है…”, तो लोग उसे कुछ – अलग तरह से देखते हैं। उन्हें लगता है कि कंपनी उन्हें अपना सामान बेचना चाहती है।
ठीक इसी तरह से, अगर हम रिवाजों को किसी चीज़ से जोड़ दें, तो लोग उसे ज्यादा अहमियत देने लगते हैं। आदिवासियों में यह एक पुरानी परंपरा है कि अगर वहाँ के लड़कों को झुंड का एक हिस्सा बनना है, तो उन्हें बहुत सी मुश्किल परीक्षाएँ पास करनी होगी। यह इतना मुश्किल होता था कि इसमें उन लड़कों की मौत भी हो जाती थी।
उनके झुंड के लोग ही उन्हें टार्चर करते थे। लेकिन इस तरह के रिवाज से होकर गुजरने के बाद वो लड़का झुंड का एक जिम्मेदार सदस्य बन जाता है और अपने लोगों की सेवा पूरे मन से करता है। इसी तरह के रिवाज जब हम किसी भी दूसरे सामान के साथ जोड़ देते हैं, तो लोग उसे ज्यादा अहमियत देने लगते हैं।
हमने देखा किस किस तरह से हमारी मानसिकता का इस्तेमाल कंपनियां करती हैं ताकि हम ज्यादा पैसा खर्च करें। इससे बचने के लिए बजट बनाना बहुत जरूरी है लेकिन वो तब तक काम नहीं करेगा जब तक आपको खुद को काबू करना नहीं आता।
खुद को काबू करने के लिए अपने भविष्य से बात करने की कोशिश कीजिए। यह सोचिए कि 20 साल बाद आप भविष्य में से वापस इस समय में आकर खुद से बात कर रहे हैं और खुद से कह रहे हैं कि किस तरह से आपके आज के फैसले ने उसे कामयाब बनाया है। इस तरह से आप अपनी गलत आदतों को काबू कर सकेंगे।
इसके अलावा आप खुद के रिटायर होने के लिए खुद को एक डेट भी दे सकते हैं। यह मत कहिए कि आप 10 साल के बाद रिटायर होना चाहेंगे, बल्कि यह कहिए कि आप जुलाई, 2029 तक रिटायर होना चाहेंगे। इस तरह की डेडलाइन रखने से आप खुद पर काबू पा सकेंगे।
खुद पर काबू पाने का तीसरा तरीका है यूलाइसेस काट्रेक्ट बनाने का। इसमें आप खुद को कुछ इस तरह के हालात में डाल देते हैं जहां पर आप गलत काम कर ही ना पाएं। एक्ज़ाम्पल के लिए अगर आपको अपना क्रेडिट कार्ड इस्तेमाल करने की आदत है, तो आप सिर्फ डेबिट कार्ड इस्तेमाल कीजिए। आप अपने क्रेडिट कार्ड को काट दीजिए। इस तरह से वो ना तो रहेगा और आप ना उसे इस्तेमाल कर पाएंगे।
इसके अलावा आप अपनी सेंविंग को आटोमैटिक कर सकते हैं। इसके लिए आप अपना एक ऐसा अकाउंट बना सकते हैं जहां पर से आपकी सैलरी का एक हिस्सा अपने आप कट कर चला जाएगा। आप अपने एम्पलायर से बात कर सकते हैं कि वो आपकी सैलरी का एक हिस्सा किसी दूसरे अकाउंट में डाल दे।
2010 की एक स्टडी में यह पाया गया कि जो लोग इस तरह से सेविंग करते हैं, वे 81% ज्यादा सेविंग करते हैं।
अब आप यह जान गए हैं कि आप हर रोज की जिन्दगी में किस तरह से गलत फैसले ले रहे थे और किस तरह से आप खुद को वैसा करने से रोक सकते हैं। अब वक्त आ गया है कि आप कुछ बेहतर फैसले लें।
ज्यादातर हालात में हम सोच समझ कर फैसला नहीं करते बल्कि शार्टकट का इस्तेमाल कर के फैसला लेते हैं। हमारी इस मानसिकता का इस्तेमाल कंपनियां करती हैं ताकि हम ज्यादा पैसे खर्च कर सकें। शब्द और रिवाज हमें एक ही चीज़ को अलग नजर से देखने पर मजबूर कर देते हैं। लेकिन खुद पर काबू पाकर और एक बजट बनाकर आप इन आदतों को सुधार सकते हैं।
अपने भारी बजट को आसान बजट में बदलिए।
अगर आपका बजट बहुत बड़ा और उलझा हुआ है तो आपको इससे बहुत परेशानी होगी और आप अंत में बजट बनाना छोड़ देंगे। आप अपने बजट को आसान बनाइए। यह तय कीजिए कि आप एक महीने में बेकार की चीजों पर कितना खर्च कर सकते हैं। इस पैसे को अपने प्रीपेड डेबिट कार्ड के ऊपर डाल दीजिए, ताकि आप एक महीने के लिए इससे छुटकारा पा सकें।
दोस्तों आपको आज की हमारी यह Dollars and Sense Book Summary in Hindi कैसी लगी ?
आपने इस बुक समरी से क्या सीखा ?
अगर आपके मन में कोई भी सवाल या सुझाव है तो मुझे नीचे कमेंट करके जरूर बताये।
आपका बहुमूल्य समय देने के लिए दिल से धन्यवाद,
Wish You All The Very Best.