अध्याय 14: राजा चित्रकेतु का शोक
संक्षेप विवरण: इस चौदहवें अध्याय में परीक्षित महाराज अपने गुरु शुकदेव गोस्वामी से पूछते हैं कि वृत्रासुर जैसा असुर परम भक्त कैसे बना। इस प्रसंग में वृत्रासुर के पूर्वजन्म…
श्लोक 1: राजा परीक्षित ने शुकदेव गोस्वामी से पूछा—हे विद्वान ब्राह्मण! रजो तथा तमो गुणों से आविष्ट होने के कारण असुर सामान्यत: पापी होते हैं। तो फिर वृत्रासुर भगवान् नारायण के प्रति इतना परम प्रेम किस प्रकार प्राप्त कर सका?
श्लोक 2: प्राय: सत्त्वमय देवता तथा भौतिक सुख-रूपी रज से निष्कलंक ऋषि अत्यन्त कठिनाई से मुकुन्द के चरण-कमलों की शुद्ध भक्ति कर पाते हैं। [तो फिर वृत्रासुर इतना बड़ा भक्त किस प्रकार बन सका?]
श्लोक 3: इस भौतिक जगत में जीवात्माओं की संख्या उतनी ही है जितने कि धूल कण। इन जीवात्माओं में से कुछ ही मनुष्य होते हैं और उनमें से कुछ ही धार्मिक नियमों के पालन में रुचि दिखलाते हैं।
श्लोक 4: ब्राह्मण-श्रेष्ठ हे शुकदेव गोस्वामी! धार्मिक नियमों का पालन करने वाले अनेक मनुष्यों में से कुछ ही भौतिक जगत से मुक्ति पाने के इच्छुक रहते हैं। मुक्ति चाहने वाले हजारों में से किसी एक को वास्तव में मुक्ति-लाभ होता है और वह समाज, मित्रता, प्यार, देश, घर, स्त्री तथा सन्तान के प्रति अपनी आसक्ति का परित्याग कर पाता है। ऐसे हजारों मुक्त पुरुषों में से मुक्ति का वास्तविक अर्थ जानने वाला कोई विरला ही होता है।
श्लोक 5: हे परम साधु! लाखों मुक्त तथा मुक्ति के ज्ञान में पूर्ण पुरुषों में से कोई एक भगवान् नारायण अथवा कृष्ण का भक्त हो सकता है। ऐसे भक्त, जो परम शान्त हों, अत्यन्त दुर्लभ हैं।
श्लोक 6: वृत्रासुर युद्ध की धधकती ज्वाला में स्थित था और पापी असुर अन्यों को सदैव कष्ट तथा चिन्ता पहुँचाने के लिए कुख्यात था। ऐसा असुर किस प्रकार इतना बड़ा कृष्ण भक्त हो सका?
श्लोक 7: हे प्रभो, शुकदेव गोस्वामी! यद्यपि वृत्रासुर पापी असुर था, किन्तु उसने सर्वाधिक उन्नत क्षत्रिय का पराक्रम दिखाकर युद्ध में इन्द्र को प्रसन्न कर लिया। ऐसा असुर भगवान् कृष्ण का महान् भक्त क्योंकर हो सका? इन विरोधी बातों से मेरे मन में अत्यधिक सन्देह उत्पन्न हो गया है, अत: मैं इस सम्बन्ध में आपसे सुनने के लिए अत्यधिक उत्सुक हूँ।
श्लोक 8: श्री सूत गोस्वामी ने कहा—महाराज परीक्षित के इस उत्तम प्रश्न को सुनकर परम शक्तिमान ऋषि शुकदेव गोस्वामी अपने शिष्य को अत्यन्त प्रेमपूर्वक उत्तर देने लगे।
श्लोक 9: श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा—हे राजन्! मैं उस इतिहास को तुमसे कहूँगा जिसे मैंने व्यासदेव, नारद तथा देवल के मुखों से सुना है। इसे ध्यानपूर्वक सुनो।
श्लोक 10: हे राजा परीक्षित! शूरसेन प्रदेश में चित्रकेतु नाम का एक चक्रवर्ती राजा था। उसके राज्य में पृथ्वी से जीवन की समस्त आवश्यक वस्तुएँ उत्पन्न होती थीं।
श्लोक 11: राजा चित्रकेतु के एक करोड़ पत्नियाँ थीं और यद्यपि वह सन्तान उत्पन्न करने में समर्थ था, किन्तु उनसे उसे कोई सन्तान प्राप्त नहीं हुई। संयोगवश सभी पत्नियां बाँझ थीं।
श्लोक 12: इन करोड़ पत्नियों का पति चित्रकेतु अत्यन्त रूपवान उदार तथा तरुण था। वह उच्च कुल में उत्पन्न हुआ था, उसे पूर्ण शिक्षा प्राप्त हुई थी और वह सम्पत्तिवान् एवं ऐश्वर्यवान् था। फिर भी इन समस्त गुणों के होते हुए किन्तु कोई पुत्र न होने से वह अत्यन्त चिन्तायुक्त रहता था।
श्लोक 13: उनकी सभी रानियाँ सुमुखी एवं आकर्षक नेत्रों वाली थीं, फिर भी न तो उसका ऐश्वर्य तथा सैकड़ों-हजारों रानियाँ, न वे प्रदेश, जिनका वह सर्वोच्च स्वामी था, उसे प्रसन्न कर सकते थे।
श्लोक 14: एक बार समस्त ब्रह्माण्ड में विचरण करते हुए अंगिरा नामक शक्तिशाली ऋषि अकस्मात् अपनी शुभेच्छा से राजा चित्रकेतु के महल में पधारे।
श्लोक 15: चित्रकेतु तुरन्त ही अपने सिंहासन से उठकर खड़ा हो गया और उनकी अर्चना की। उसने जल तथा खाद्य सामग्री भेंट की और इस प्रकार अपने परम अतिथि के प्रति मेजवान का अपना कर्तव्य पूरा किया। जब अंगिरा ऋषि सुखपूर्वक आसन ग्रहण कर चुके तो राजा अपने मन तथा इन्द्रियों को संयमित करके ऋषि के चरणों के निकट भूमि पर बैठ गया।
श्लोक 16: हे राजा परीक्षित! जब चित्रकेतु विनीत भाव से नत होकर ऋषि के चरण-कमलों के निकट बैठ गया तो ऋषि ने उसकी विनयशीलता तथा उनके आतिथ्य के लिए साधुवाद दिया और उसे निम्नलिखित शब्दों से सम्बोधित किया।
श्लोक 17: ऋषि अंगिरा ने कहा—हे राजन्! आशा है कि तुम अपने शरीर तथा मन और अपने राज्य-पार्षदों तथा सामग्री सहित कुशल से हो। जब प्रकृति के सातों गुण [सम्पूर्ण भौतिक शक्ति (माया), अहंकार तथा इन्द्रियतृप्ति के पाँचों पदार्थ] अपने-अपने क्रम में ठीक रहते हैं, तो भौतिक तत्त्वों के भीतर जीवात्मा सुखी रहता है। इन सात तत्त्वों के बिना कोई रह नहीं सकता। इसी प्रकार राजा सात तत्त्वों द्वारा सदा आरक्षित रहता है। ये तत्त्व हैं—उसका उपदेशक (स्वामी या गुरु), उसके मंत्री, उसका राज्य, उसका दुर्ग, उसका कोष, उसके राज्याधिकार तथा उसके मित्र।
श्लोक 18: हे राजन्, हे मानवता के ईश! जब राजा अपने पार्षदों पर प्रत्यक्षत: आश्रित रहता है और उनके आदेशों का पालन करता है, तो वह सुखी रहता है। इसी प्रकार जब पार्षद राजा को भेंटें प्रदान करते हैं और उसकी आज्ञाओं का पालन करते हैं, तो वे भी सुखी रहते हैं।
श्लोक 19: हे राजन्! तुम्हारी पत्नियाँ, नागरिक, सचिव तथा सेवक एवं मसाले तथा तेल के विक्रेता व्यापारी तुम्हारे वश में तो हैं? तुमने अपने मंत्रियों, महल के निवासियों (पुरवासियों), अपने राज्यपालों, अपने पुत्रों तथा अन्य आश्रितों को अपने नियंत्रण में तो कर रखा है?
श्लोक 20: यदि राजा का मन अपने वश में रहता है, तो उसके समस्त पारिवारिक प्राणी एवं राज- अधिकारी उसके अधीन रहते हैं। उसके प्रान्तपालक (राज्यपाल) समय पर अवरोध-रहित कर प्रस्तुत करते हैं, छोटे-छोटे सेवकों की तो कोई बात ही नहीं है।
श्लोक 21: हे राजा चित्रकेतु! मैं देख रहा हूँ कि तुम्हारा मन सन्तुष्ट नहीं है। ऐसा लगता है तुम्हें वांच्छित लक्ष्य प्राप्त नहीं हो पाया है। यह स्वत: तुम्हारे अपने कारण अथवा अन्य किसी कारण से ऐसा हुआ है? तुम्हारे पीले मुख से तुम्हारी गहरी चिन्ता झलकती है।
श्लोक 22: शुकदेव गोस्वामी ने कहा—हे राजा परीक्षित! यद्यपि महर्षि अंगिरा को सब कुछ ज्ञात था फिर भी उन्होंने राजा से इस प्रकार पूछा। अत: पुत्र के इच्छुक राजा चित्रकेतु अत्यन्त विनीत भाव से नीचे झुक गये और महर्षि से इस प्रकार बोले।
श्लोक 23: राजा चित्रकेतु ने कहा—हे महाप्रभु अंगिरा! तपस्या, ज्ञान तथा दिव्य समाधि से आप पापमय जीवन के समस्त बन्धनों से मुक्त हैं; अत: आप सिद्ध योगी के रूप में हम जैसे बद्धजीवों के अन्दर और बाहर की प्रत्येक बात को जान सकते हैं।
श्लोक 24: हे परम आत्मन्! आप सब कुछ जानते हैं, तो भी आप मुझसे पूछ रहे हैं कि मैं चिन्ता से पूर्ण क्यों हूँ। अत: मैं आपकी आज्ञा के प्रत्युत्तर में कारण को प्रकट कर रहा हूँ।
श्लोक 25: जिस प्रकार भूखा तथा प्यासा व्यक्ति फूल की मालाओं या चंदन-लेप जैसी बाह्य तृप्ति से संतुष्ट नहीं होता, उसी प्रकार पुत्र न होने से मैं अपने साम्राज्य, ऐश्वर्य या सम्पदा से, जिनके लिए बड़े-बड़े देवता भी लालायित रहते हैं, सन्तुष्ट नहीं हूँ।
श्लोक 26: अत: हे परम साधु! मेरी तथा मेरे पितरों की रक्षा कीजिये (उबारिये), क्योंकि मेरे संतान न होने से वे नरक के अंधकार में धँसते जा रहे हैं। कृपया कुछ ऐसा करें जिससे मुझे पुत्र प्राप्त हो, जो हम सबों को नारकीय दशाओं से उबार सके।
श्लोक 27: महाराज चित्रकेतु द्वारा प्रार्थना किये जाने पर भगवान् ब्रह्मा के मन से उत्पन्न (मानसपुत्र) अंगिरा ऋषि राजा के प्रति अत्यन्त दयाद्र हो उठे। अपने अत्यन्त शक्तिशाली व्यक्तित्व के कारण ऋषि ने त्वष्टा नामक देवता को खीर का पिण्डदान करके यज्ञ सम्पन्न किया।
श्लोक 28: हे महाराज परीक्षित! अंगिरा ऋषि ने यज्ञ के अवशेष प्रसाद को चित्रकेतु की लाखों रानियों में सबसे बड़ी तथा परम गुणवती रानी को प्रदान किया, जिसका नाम कृतद्युति था।
श्लोक 29: तत्पश्चात् ऋषि ने राजा से कहा—“हे राजन्! अब तुम्हारे एक पुत्र होगा जो हर्ष तथा शोक दोनों का कारण बनेगा।” ऐसा कहकर चित्रकेतु के उत्तर की प्रतीक्षा न करके ऋषि चले गये।
श्लोक 30: अंगिरा द्वारा सम्पन्न यज्ञ के अवशेष को खाकर कृतद्युति ने चित्रकेतु के वीर्य से उस प्रकार गर्भ धारण किया जिस प्रकार कृत्तिकादेवी ने अग्नि से भगवान् शिव का वीर्य प्राप्त करके स्कन्द (कार्तिकेय) नामक पुत्र को गर्भ में धारण किया था।
श्लोक 31: हे राजा परीक्षित! शूरसेन के राजा महाराज चित्रकेतु के वीर्य से कृतद्युति का गर्भ उसी प्रकार क्रमश: बढऩे लगा, जिस प्रकार शुक्ल पक्ष में चन्द्रमा बढ़ता जाता है।
श्लोक 32: तदनन्तर समय आने पर राजा के पुत्र उत्पन्न हुआ। इस समाचार को सुनकर शूरसेन देश के समस्त वासी अत्यधिक प्रसन्न हुए।
श्लोक 33: राजा चित्रकेतु विशेष रूप से प्रसन्न थे। स्नान करके, पवित्र होकर तथा आभूषणों से सज्जित होकर उन्होंने विद्वान ब्राह्मणों से स्वस्तिवाचन और आशीर्वाद लेकर पुत्र का जातकर्म-संस्कार करवाया।
श्लोक 34: राजा ने इस अनुष्ठान में भाग लेने वाले समस्त ब्राह्मणों को दान में सोना, चाँदी, वस्त्र, आभूषण, गाँव, घोड़े, हाथी और साठ करोड़ गौएँ दीं।
श्लोक 35: जिस प्रकार बादल बिना पक्षपात के पृथ्वी पर वर्षा करता है, उसी तरह उदारचेता राजा चित्रकेतु ने अपने पुत्र के यश, ऐश्वर्य तथा आयु की वृद्धि के लिए सबों को मुँहमाँगी वस्तुएँ दीं।
श्लोक 36: जिस प्रकार किसी निर्धन व्यक्ति को बड़ी कठिनाई से कुछ धन मिलता है, तो उसमें प्रतिदिन उसकी आसक्ति बढ़ती जाती है, इसी प्रकार जब राजा चित्रकेतु को अत्यन्त कठिनाई से पुत्र की प्राप्ति हुई तो दिन प्रति दिन पुत्र के प्रति उसका स्नेह बढ़ता गया।
श्लोक 37: पिता की ही भाँति माँ का भी आकर्षण एवं स्नेह पुत्र के प्रति बढ़ता गया। कृतद्युति के पुत्र को देख देख कर राजा की अन्य पत्नियाँ पुत्र की कामना से अत्यधिक क्षुब्ध रहने लगीं, मानो उन्हें उच्च ज्वर हो।
श्लोक 38: ज्यों-ज्यों राजा चित्रेकेतु अपने पुत्र का बड़ी सावधानी से लाड़-प्यार करने लगे त्यों-त्यों रानी कृतद्युति के प्रति भी उनका प्रेम प्रगाढ़ होता गया और पुत्रहीन अन्य रानियों के प्रति उनका प्रेम क्रमश: घटने लगा।
श्लोक 39: अन्य रानियाँ निपूती होने के कारण अत्यन्त अप्रसन्न थीं। अपने प्रति राजा की उपेक्षा से वे डाहवश अपने आपको धिक्कारने और पश्चात्ताप करने लगीं।
श्लोक 40: जिस पत्नी के पुत्र नहीं होते वह घर में अपने पति द्वारा उपेक्षित रहती है और सौतों द्वारा दासी के समान अनादृत होती है। निश्चय ही ऐसी स्त्री अपने पापी जीवन के कारण सब तरह से धिक्कारी जाती है।
श्लोक 41: यहाँ तक कि जो दासियाँ अपने पति की निरन्तर सेवा करती हैं, वे भी अपने पति का सम्मान पाती रहती हैं, अत: उनको किसी बात के लिए पश्चाताप नहीं करना पड़ता। किन्तु हमारी स्थिति तो दासी की दासियों के समान है, अत: हम सर्वाधिक हतभाग्या हैं।
श्लोक 42: श्री शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा—अपने पति द्वारा उपेक्षित होने तथा कृतद्युति की गोद भरी हुई देखकर, सभी सौतें द्वेष से अधिकाधिक जलने लगीं।
श्लोक 43: द्वेष बढ़ जाने से रानियों की मति मारी गई। अत्यधिक कठोर हृदय होने तथा राजा की उपेक्षा को न सह सकने के कारण उन्होंने अन्त में बालक को विष खिला दिया।
श्लोक 44: अपनी सौतों द्वारा विष दिये जाने की घटना को न जानती हुई रानी कृतद्युति यह सोचकर कि उसका पुत्र गहरी निद्रा में सो रहा है घर में इधर-उधर विचरती रही। उसे पता न चल पाया कि वह मर चुका है।
श्लोक 45: यह सोचकर कि उसका पुत्र बड़ी देर से सो रहा है—उस अत्यन्त बुद्धिमान रानी कृतद्युति ने धाय को आज्ञा दी, “हे सखी! मेरे पुत्र को यहाँ ले आओ।”
श्लोक 46: जब धाय उस सोते हुए बच्चे के पास पहुँची तो उसने देखा कि उसकी आँखें ऊपर की ओर उलट गई हैं, उसके शरीर में प्राण का कोई संचार नहीं है और उसकी समस्त इन्द्रियाँ निष्क्रिय हो गई हैं। अत: वह समझ गई कि बालक मर चुका है। यह देखकर वह तुरन्त चिल्ला उठी, ‘हाय मैं मारी गई’ और पृथ्वी पर गिर पड़ी।
श्लोक 47: अत्यन्त विक्षुब्ध होकर वह धाय अपने दोनों हाथों से अपनी छाती पीटने लगी और आर्तस्वर में जोर-जोर से चिल्लाने लगी। उसकी तेज आवाज सुनकर रानी तुरन्त आ गई और जब वह अपने पुत्र के पास पहुँची, तो देखा कि वह सहसा ही मर चुका है।
श्लोक 48: अगाध शोक के कारण रानी मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर ऐसे गिर पड़ी कि उस के बाल तथा वस्त्र बिखर गये ।
श्लोक 49: हे राजा परीक्षित! रानी का जोर-जोर से विलखना सुनकर, रनिवास के सभी स्त्री-पुरुष आ पहुँचे। समान रूप से संतप्त होने के कारण रोने लगे। जिन रानियों ने विष दिया था, अपने अपराध को भलीभाँति जानती हुई, वे भी झूठमूठ रोने का ढोंग करने लगीं।
श्लोक 50-51: जब राजा चित्रकेतु ने सुना कि न जाने कैसे उसका पुत्र मर गया है, तो वह प्राय: अन्धासा हो गया। पुत्र के प्रति अगाध स्नेह के कारण उसका विलाप जलती हुई अग्नि के समान बढ़ता गया और रास्ते भर वह भूमि पर लगातार गिरता-पड़ता तथा लुढक़ता हुआ उस मृत बालक को देखने गया। अपने मंत्रियों तथा अन्य अधिकारियों एवं विद्वान ब्राह्मणों से घिरा हुआ वह राजा वहाँ पहुँचा और उस बालक के चरणों पर अचेत होकर गिर पड़ा। उसके बाल तथा वस्त्र अस्त-व्यस्त हो गये। जब दीर्घ श्वास लेते हुए राजा को होश आया तो उसके नेत्र आसुओं से भरे हुए थे और वह बोल नहीं पा रहा था।
श्लोक 52: जब रानी ने अपने पति राजा चित्रकेतु को अत्यधिक शोकाकुल और अपने एकलौते पुत्र को मरा हुआ देखा तो वह अनेत प्रकार से शोक प्रकट करने लगी। इससे रनिवास के समस्त वासियों, मंत्रियों तथा समस्त ब्राह्मणों के हृदय की व्यथा बढ़ गई।
श्लोक 53: रानी के सिर को सुशोभित करने वाली फूलों की माला गिर पड़ी और उसके बाल बिखर गये। उसके आँसुओं से नेत्रों में लगा अंजन धुल गया और कुंकुम चूर्ण से लेपित उसके स्तन भीग गये। पुत्र की मृत्यु पर शोक करती हुई उस रानी का दारुण विलाप कुररी पक्षी के आर्त स्वर की तरह लग रहा था।
श्लोक 54: हे विधाता, हे सृष्टिकर्ता! तू निश्चय ही अपने सृष्टि-कार्य में अनुभव-हीन है क्योंकि पिता के रहते हुए तूने उसके पुत्र की मृत्यु होने दी और इस तरह से अपनी ही सृष्टि के नियमों के विपरीत कार्य किया है। यदि तू नियमभंग करने पर ही तुला है, तो तू निश्चय ही समस्त जीवात्माओं का शत्रु है और निर्दयी है।
श्लोक 55: हे ईश्वर! आप यह कह सकते हैं कि ऐसा कोई नियम नहीं है कि पुत्र के जीवनकाल में ही पिता की मृत्यु हो और पिता के जीवन काल में ही पुत्र उत्पन्न हो, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्मों के अनुसार जीता और मरता है। फिर भी, यदि कर्म इतना प्रबल है कि जन्म तथा मृत्यु उसी पर निर्भर करते हों तो फिर नियन्ता या ईश्वर की आवश्यकता नहीं है? पुन: यदि तू कहे कि नियन्ता की आवश्यकता इसलिए है, क्योंकि माया में कार्य करने की शक्ति नहीं होती, तो कोई यह भी तो कह सकता है कि यदि कर्म के द्वारा तेरे बनाये हुए स्नेह-बंधन टूटते हैं, तो कोई भी संतान को स्नेहपूर्वक नहीं पालेगा वरन् सभी लोग अपनी संतानों की निर्दयता से उपेक्षा करने लगेंगे। चूँकि तूने स्नेह के उन बंधनों को काटा है, जिसके वशीभूत होकर माता-पिता अपनी सन्तान का पालन-पोषण करने के लिए विवश हो जाते हैं, इसलिए तू अनुभवहीन एवं बुद्धिहीन प्रतीत होता है।
श्लोक 56: प्यारे बेटे! मैं असहाय एवं अत्यधिक शोकाकुल हूँ? तुम्हें मेरा साथ नहीं छोडऩा चाहिए। तुम अपने शोकाकुल पिता की ओर तो देखो। हम (दोनों) असहाय हैं क्योंकि पुत्र के बिना हमें घोर नरक में यातनाएँ सहनी पड़ेंगी। तुम्हीं एकमात्र सहारा हो जिसके बल पर हम इस अंधकारमय प्रदेश से उबर सकते हैं; अत: मेरी प्रार्थना है कि तुम निर्दयी यमराज के साथ और आगे न जाओ।
श्लोक 57: प्यारे बेटे! तुम बहुत देर से सो रहे हो। अब उठ जाओ। तुम्हारे संगी तुम्हें खेलने के लिए बुला रहे हैं। चूँकि तुम्हें बहुत भूख लगी होगी इसलिए उठो, मेरे स्तनों से दूध पिओ और हमारा शोक दूर करो।
श्लोक 58: प्रिय पुत्र! मैं सचमुच अभागिनी हूँ क्योंकि मैं अब तुम्हारे मुख पर मन्द हँसी नहीं देख सकती हूं। तुमने सदा के लिए आँखें बन्द कर ली हैं; अत: मैं इस निष्कर्ष पर पहुँची हूँ कि तुम इस लोक से दूसरे लोक में ले जाये गये हो जहाँ से तुम लौट नहीं पाओगे। बेटे! मैं तुम्हारी मनमोहक वाणी अब और आगे नहीं सुन सकती हूँ।
श्लोक 59: श्री शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा—इस प्रकार अपने प्रिय पुत्र के लिए विलाप करती हुई अपनी पत्नी के साथ ही राजा चित्रकेतु भी अत्यन्त शोक से संतप्त होकर फूट-फूट कर रोने लगा।
श्लोक 60: राजा तथा रानी को विलाप करते देखकर उनके समस्त अनुयायी स्त्री तथा पुरुष भी रोने लगे। इस आकस्मिक घटना से राज्य-भर के सभी नागरिक अचेत-से हो गये।
श्लोक 61: जब ऋषि अंगिरा ने समझ लिया कि राजा शोक-समुद्र में मृत-प्राय हो चुका है, तो वे नारद ऋषि के साथ वहाँ गये।