अध्याय 4: गजेन्द्र का वैकुण्ठ गमन
संक्षेप विवरण: इस अध्याय में गजेन्द्र तथा घडिय़ाल के पूर्व जन्मों का वर्णन हुआ है। इसमें बताया गया है कि किस तरह घडिय़ाल गन्धर्व और गजेन्द्र भगवान् का पार्षद बना। गन्धर्व…
श्लोक 1: श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा : जब भगवान् ने गजेन्द्र का उद्धार कर दिया तो सारे ऋषियों, गन्धर्वों तथा ब्रह्मा, शिव इत्यादि देवताओं ने भगवान् के इस कार्य की प्रशंसा की और भगवान् तथा गजेन्द्र दोनों के ऊपर पुष्पवर्षा की।
श्लोक 2: स्वर्ग लोक में दुन्दुभियाँ बजने लगीं, गन्धर्वलोक के वासी नाचने और गाने लगे तथा महान् ऋषियों और चारणलोक एवं सिद्धलोक के निवासियों ने भगवान् पुरुषोत्तम की स्तुतियाँ कीं।
श्लोक 3-4: गन्धर्वों में श्रेष्ठ राजा हूहू देवल मुनि द्वारा शापित होने के बाद घडिय़ाल बन गया था। अब भगवान् द्वारा उद्धार किये जाने पर उसने एक सुन्दर गन्धर्व का रूप धारण कर लिया। यह समझकर कि यह सब किसकी कृपा से सम्भव हो सका, उसने तुरन्त सिर के बल प्रणाम किया और श्रेष्ठ श्लोकों से पूजित होने वाले परम नित्य भगवान् के लिए उपयुक्त स्तुतियाँ कीं।
श्लोक 5: भगवान् की अहैतुकी कृपा से अपने पूर्व रूप को पाकर राजा हूहू ने भगवान् की प्रदक्षिणा की और उन्हें नमस्कार किया। तब ब्रह्मा इत्यादि समस्त देवताओं की उपस्थिति में वह गन्धर्व लोक लौट गया। वह सारे पापफलों से मुक्त हो चुका था।
श्लोक 6: चूँकि गजेन्द्र का प्रत्यक्ष स्पर्श भगवान् ने अपने करकमलों से किया था अतएव वह समस्त भौतिक अज्ञान तथा बन्धन से तुरन्त मुक्त हो गया। इस प्रकार उसे सारूप्य-मुक्ति प्राप्त हुई जिसमें उसे भगवान् जैसा ही शारीरिक स्वरूप प्राप्त हुआ। वह पीत वस्त्र धारण किये चार भुजाओं वाला बन गया।
श्लोक 7: यह गजेन्द्र पहले वैष्णव था और द्रविड़ (दक्षिण भारत) प्रान्त के पाण्डय नामक देश का राजा था। अपने पूर्व जन्म में वह इन्द्रद्युम्न महाराज कहलाता था।
श्लोक 8: इन्द्रद्युम्न महाराज ने गृहस्थ जीवन से वैराग्य ले लिया और मलय पर्वत चला गया जहाँ उसका आश्रम एक छोटी सी कुटिया के रूप में था। उसके सिर पर जटाएँ थीं और वह सदैव तपस्या में लगा रहता था। एक बार वह मौन व्रत धारण किये भगवान् की पूजा में तल्लीन था और भगवत्प्रेम के आनंद में डूबा हुआ था।
श्लोक 9: जब इन्द्रद्युम्न महाराज भगवान् की पूजा करते हुए ध्यान में तल्लीन थे तो अगस्त्य मुनि अपनी शिष्य-मण्डली समेत वहाँ पधारे। जब मुनि ने देखा कि राजा इन्द्रद्युम्न एकान्त स्थान में बैठकर मौन साधे हैं और उनके स्वागत के शिष्टाचार का पालन नहीं कर रहे हैं, तो वे अत्यन्त क्रुद्ध हुए।
श्लोक 10: तब अगस्त्य मुनि ने राजा को यह शाप दे डाला—“इन्द्रद्युम्न तनिक भी भद्र नहीं है। नीच तथा अशिक्षित होने के कारण इसने ब्राह्मण का अपमान किया है। अतएव यह अंधकार प्रदेश में प्रवेश करे और आलसी मूक हाथी का शरीर प्राप्त करे।”
श्लोक 11-12: श्री शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : हे राजा! अगस्त्य मुनि राजा इन्द्रद्युम्न को इस तरह शाप देने के बाद अपने शिष्यों समेत उस स्थान से चले गये। चूँकि राजा भक्त था अतएव उसने अगस्त्य मुनि के शाप का स्वागत किया क्योंकि भगवान् की ऐसी ही इच्छा थी। अतएव अगले जन्म में हाथी का शरीर प्राप्त करने पर भी भक्ति के कारण उसे यह स्मरण रहा कि भगवान् की पूजा और स्तुति किस तरह की जाती है।
श्लोक 13: गजेन्द्र को घडिय़ाल के चंगुल से तथा इस भौतिक संसार से जो घडिय़ाल जैसा लगता है। घडिय़ाल जैसे ही इस भौतिक जगत छुड़ाकर भगवान् ने उसे सारूप्य मुक्ति प्रदान की। भगवान् के अद्भुत दिव्य कार्यकलापों का यश बखान करने वाले गन्धर्वों, सिद्धों तथा अन्य देवताओं की उपस्थिति में, भगवान् अपने वाहन गरुड़ की पीठ पर बैठकर अपने अद्भुत धाम को लौट गये और अपने साथ गजेन्द्र को भी लेते गये।
श्लोक 14: हे राजा परीक्षित! अब मैंने तुमसे कृष्ण की अद्भुत शक्ति का वर्णन कर दिया है, जिसे भगवान् ने गजेन्द्र का उद्धार करके प्रदर्शित किया था। हे कुरुश्रेष्ठ! जो लोग इस कथा को सुनते हैं, वे उच्चलोकों में जाने के योग्य बनते हैं। इस कथा के श्रवण मात्र से वे भक्त के रूप में ख्याति अर्जित करते हैं, वे कलियुग के कल्मष से अप्रभावित रहते हैं और कभी दु:स्वप्न नहीं देखते।
श्लोक 15: अतएव जो लोग अपना कल्याण चाहते हैं—विशेष रूप से ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य और इनमें से भी मुख्यत: ब्राह्मण वैष्णव—उन्हें प्रात:काल बिस्तर से उठकर अपने दु:स्वप्नों के कष्टों को दूर करने के लिए इस कथा का बिना विचलित हुए यथारूप पाठ करना चाहिए।
श्लोक 16: हे कुरुश्रेष्ठ! इस प्रकार हरएक के परमात्मा अर्थात् भगवान् ने प्रसन्न होकर सबों के समक्ष गजेन्द्र को सम्बोधित किया। उन्होंने निम्नलिखित आशीष दिए।
श्लोक 17-24: भगवान् ने कहा : समस्त पापपूर्ण कर्मों के फलों से ऐसे व्यक्ति मुक्त हो जाते हैं, जो रात्रि बीतने पर प्रात:काल ही जग जाते हैं, अत्यन्त ध्यानपूर्वक अपने मनों को मेरे रूप, तुम्हारे रूप, इस सरोवर, इस पर्वत, कन्दराओं, उपवनों, बेंत के वृक्षों, बाँस के वृक्षों, कल्पतरु, मेरे, ब्रह्मा तथा शिव के निवास स्थानों, सोना, चाँदी तथा लोहे से बनी त्रिकूट पर्वत की तीन चोटियों, मेरे सुहावने धाम (क्षीरसागर), आध्यात्मिक किरणों से नित्य चमचमाते श्वेत द्वीप, मेरे चिन्ह श्रीवत्स, कौस्तुभ मणि, मेरी वैजयन्ती माला, कौमोदकी नामक मेरी गदा, मेरे सुदर्शन चक्र, तथा पाञ्चजन्य शंख, मेरे वाहन पक्षीराज गरुड़, मेरी शय्या शेषनाग, मेरी शक्ति का अंश लक्ष्मीजी, ब्रह्मा, नारद मुनि, शिवजी, प्रह्लाद, मेरे सारे अवतारों यथा मत्स्य, कूर्म तथा वराह, मेरे अनन्त शुभ कार्यकलापों में जो सुनने वाले को पवित्रता प्रदान करते हैं, मेरे सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि, ओङ्कार मंत्र, परम सत्य, समग्र भौतिक शक्तियों, गायों तथा ब्राह्मणों में, भक्ति, सोम तथा कश्यप की पत्नियों में जो राजा दक्ष की पुत्रियाँ हैं, गंगा, सरस्वती, नन्दा तथा यमुना नदियों, ऐरावत हाथी, ध्रुव महाराज, सप्तर्षि तथा पवित्र मनुओं में एकाग्र करते हैं।
श्लोक 25: हे प्रिय भक्त! जो लोग रात्रि बीतने पर बिस्तर से उठकर तुम्हारे द्वारा अर्पित इस स्तुति से मेरी प्रार्थना करते हैं मैं उन्हें उनके जीवन के अन्त में वैकुण्ठ लोक में नित्य आवास प्रदान करता हूँ।
श्लोक 26: श्री शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : इस उपदेश को देकर हृषीकेश भगवान् ने अपना पाञ्चजन्य शंख बजाया और इस प्रकार ब्रह्मा इत्यादि सारे देवताओं को हर्षित किया। तब वे अपने वाहन गरुड़ की पीठ पर चढ़ गये।