अध्याय 5: देवताओं द्वारा भगवान् से सुरक्षा याचना
संक्षेप विवरण: इस अध्याय में पाँचवे तथा छठे मनुओं का वर्णन है। साथ ही इसमें देवताओं की स्तुतियों एवं दुर्वासा मुनि के शाप का भी वर्णन हुआ है। चतुर्थ मनु तामस जिसका वर्णन पहले…
श्लोक 1: श्री शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : हे राजा! मैंने तुमसे गजेन्द्रमोक्षण लीला का वर्णन किया है, जो सुनने में अत्यन्त पवित्र है। भगवान् की ऐसी लीलाओं के विषय में सुनकर मनुष्य सारे पापों के फलों से छूट सकता है। अब मैं रैवत मनु का वर्णन कर रहा हूँ, कृपया उसे सुनो।
श्लोक 2: तामस मनु का भाई रैवत पाँचवाँ मनु था। उसके पुत्रों में अर्जुन, बलि तथा विन्ध्य प्रमुख थे।
श्लोक 3: हे राजा! रैवत मनु के युग में स्वर्ग का राजा (इन्द्र) विभु था, देवताओं में भूतरय इत्यादि थे और सप्त लोकों के अधिपति सात ब्राह्मण हिरण्यरोमा, वेदशिरा तथा ऊर्ध्वबाहु इत्यादि थे।
श्लोक 4: शुभ्र तथा उसकी पत्नी विकुण्ठा के संयोग से भगवान् वैकुण्ठ अपने स्वांश देवताओं सहित प्रकट हुए।
श्लोक 5: धन की लक्ष्मी (रमा) को प्रसन्न करने के लिए भगवान् वैकुण्ठ ने उनकी प्रार्थना पर एक अन्य वैकुण्ठ लोक की रचना की जो सब के द्वारा पूजा जाता है।
श्लोक 6: यद्यपि भगवान् के विविध अवतारों के महान् कार्यों तथा दिव्य गुणों का अद्भुत रीति से वर्णन किया जाता है, किन्तु कभी-कभी हम उन्हें नहीं समझ पाते। किन्तु भगवान् विष्णु के लिए सब कुछ सम्भव है। यदि कोई ब्रह्माण्ड के सारे परमाणुओं को गिन सके तो वह भगवान् के गुणों की गणना कर सकता है। किन्तु ऐसा कर पाना सम्भव नहीं है। अत: कोई भी भगवान् के दिव्य गुणों को नहीं गिन सकता।
श्लोक 7: चक्षु का पुत्र चाक्षुष कहलाया जो छठा मनु था। उसके कई पुत्र थे जिनमें पूरु, पूरुष तथा सुद्युम्न प्रमुख थे।
श्लोक 8: चाक्षुष मनु के राज्यकाल में स्वर्ग का राजा मंत्रद्रुम के नाम से विख्यात था। देवताओं में आप्यगण तथा सप्तर्षियों में हविष्मान् तथा वीरक प्रमुख थे।
श्लोक 9: इस छठे मन्वन्तर में ब्रह्माण्ड के स्वामी भगवान् विष्णु अपने अंश रूप में प्रकट हुए। वे वैराज की पत्नी देवसम्भूति के गर्भ से उत्पन्न हुए और उनका नाम अजित था।
श्लोक 10: क्षीरसागर का मंथन करके अजित ने देवताओं के लिए अमृत उत्पन्न किया। कछुवे के रूप में वे महान् मन्दर पर्वत को अपनी पीठ पर धारण किये इधर-उधर हिल-डुल रहे थे।
श्लोक 11-12: राजा परीक्षित ने पूछा : हे परम ब्राह्मण, शुकदेव गोस्वामी! भगवान् विष्णु ने क्षीरसागर का मंथन क्यों और कैसे किया? वे कच्छप रूप में जल के भीतर किसलिए रहे और मन्दर पर्वत को क्यों धारण किये रहे? देवताओं ने किस तरह अमृत प्राप्त किया? और सागर मन्थन से अन्य कौन-कौन सी वस्तुएँ उत्पन्न हुईं? कृपा करके भगवान् के इन सारे अद्भुत कार्यों का वर्णन करें।
श्लोक 13: मेरा हृदय भौतिक जीवन के तीन तापों से विचलित है, किन्तु वह अब भी आपके द्वारा वर्णित किये जा रहे भक्तों के स्वामी भगवान् के यशस्वी कार्यकलापों को सुनकर तृप्त नहीं हुआ है।
श्लोक 14: श्रीसूत गोस्वामी ने कहा : यहाँ नैमिषारण्य में एकत्रित हे विद्वान ब्राह्मणो! जब द्वैपायन पुत्र शुकदेव गोस्वामी से राजा ने इस तरह से प्रश्न पूछा तो उन्होंने राजा को बधाई दी और भगवान् के यश को और भी आगे वर्णन करने का प्रयास किया।
श्लोक 15-16: श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा : जब असुरों ने अपने-अपने सर्प-आयुधों से युद्ध में देवताओं पर घमासान आक्रमण कर दिया तो अनेक देवता धराशायी हो गये और मर गये। वे फिर से जीवित नहीं किये जा सके। हे राजा! उस समय देवताओं को दुर्वासा मुनि ने शाप दिया हुआ था, तीनों लोक दरिद्रता से पीडि़त थे; इसीलिए अनुष्ठान सम्पन्न नहीं हो पा रहे थे। इसके प्रभाव अत्यन्त गम्भीर थे।
श्लोक 17-18: अपने जीवनों को ऐसी स्थिति में देखकर इन्द्र, वरुण तथा अन्य देवताओं ने परस्पर विचार विमर्श किया, किन्तु उन्हें कोई हल न मिल सका। तब सारे देवता एकत्र हुए और वे एकसाथ सुमेरु पर्वत की चोटी पर गये। वहाँ पर ब्रह्मा जी की सभा में सब ने ब्रह्मा जी को साष्टांग प्रणाम किया और जितनी सारी घटनाओं से अवगत कराया।
श्लोक 19-20: यह देखकर कि सारे देवता प्रभावहीन तथा बलहीन हो गये हैं जिसके फलस्वरूप तीनों लोक अमंगलमय हो चुके हैं तथा यह देखकर कि देवताओं की स्थिति अटपटी है, किन्तु असुरगण फल-फूल रहे हैं ब्रह्मा ने, जो समस्त देवताओं के ऊपर हैं और अत्यन्त शक्तिशाली हैं अपना मन भगवान् पर केन्द्रित किया। इस प्रकार प्रोत्साहित होने से उनका मुख चमक उठा और वे देवताओं से इस प्रकार बोले।
श्लोक 21: ब्रह्माजी ने कहा : मैं, शिवजी, तुम सारे देवता, असुर, स्वेदज प्राणी, अण्डज, पृथ्वी से उत्पन्न पेड़-पौधे तथा भ्रूण से उत्पन्न सारे जीव—सभी भगवान् से उन के रजोगुण अवतार (ब्रह्मा, गुणअवतार) से तथा ऋषियों से जो मेरे ही अंश हैं। अतएव हम सभी उन भगवान् के पास चलें और उनके चरणकमलों की शरण ग्रहण करें।
श्लोक 22: भगवान् के लिए न तो कोई वध्य है, न रक्षणीय, न उपेक्षणीय और न पूजनीय। फिर भी समयानुसार सृष्टि, पालन तथा संहार के लिए वे सतो, रजो या तमो गुण में विभिन्न रूपों में अवतार लेना स्वीकार करते हैं।
श्लोक 23: देहधारी जीवों के सतोगुण का आह्वान करने का यही अवसर है। सतोगुण भगवान् के शासन की स्थापना करने के निमित्त होता है, जो सृष्टि के अस्तित्व का पालन करेगा। अतएव भगवान् की शरण ग्रहण करने के लिए यह उपयुक्त समय है। चूँकि वे देवताओं पर स्वभावत: अत्यन्त दयालु हैं और उन्हें प्रिय हैं अतएव वे हमें निश्चय ही सौभाग्य प्रदान करेंगे।
श्लोक 24: हे समस्त शत्रुओं का दमन करने वाले महाराज परीक्षित! देवताओं से बातें करने के बाद ब्रह्माजी उन्हें भगवान् के धाम ले गये जो इस भौतिक जगत से परे है। भगवान् का धाम श्वेतद्वीप नामक टापू में है, जो क्षीर सागर में स्थित है।
श्लोक 25: वहाँ (श्वेतद्वीप में) ब्रह्माजी ने भगवान् की स्तुति की, यद्यपि उन्होंने परमेश्वर को इसके पूर्व कभी नहीं देखा था। चूँकि उन्होंने वैदिक वाङ्मय से भगवान् के विषय में सुना हुआ था अतएव उन्होंने स्थिरचित्त होकर भगवान् की उसी तरह स्तुति की जिस प्रकार वैदिक साहित्य में लिखी हुई या मान्य है।
श्लोक 26: ब्रह्माजी ने कहा : हे परमेश्वर, हे अविकारी, असीम परम सत्य! आप हर वस्तु के उद्गम हैं। सर्वव्यापी होने के कारण आप प्रत्येक के हृदय में और परमाणु में भी रहते हैं। आपमें कोई भौतिक गुण नहीं पाये जाते। निस्सन्देह, आप अचिन्त्य हैं। मन आपको कल्पना से नहीं ग्रहण कर सकता और शब्द आपका वर्णन करने में असमर्थ हैं। आप सब के परम स्वामी हैं; अतएव आप हर एक के आराध्य हैं। हम आपको सादर नमस्कार करते हैं।
श्लोक 27: भगवान् प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से जानते रहते हैं कि किस प्रकार प्राण, मन तथा बुद्धि समेत प्रत्येक वस्तु उनके नियंत्रण में कार्य करती है। वे हर वस्तु के प्रकाशक हैं और अज्ञान उन्हें छू तक नहीं गया। उनका भौतिक शरीर नहीं होता जो पूर्वकर्मों के फलों से प्रभावित हो। वे पक्षपात तथा भौतिकतावादी विद्या के अज्ञान से मुक्त हैं। अतएव मैं उन भगवान् के चरणकमलों की शरण ग्रहण करता हूँ जो नित्य, सर्वव्यापक तथा आकाश के समान विशाल हैं और तीनों युगों (सत्य, त्रेता तथा द्वापर) में अपने षड्ऐश्वर्यों समेत प्रकट होते हैं।
श्लोक 28: भौतिक कार्यों के चक्र में, भौतिक शरीर मानसिक रथ के पहिये जैसा होता है। दस इन्द्रियाँ (पाँच कर्मेन्द्रियाँ तथा पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ) तथा शरीर के भीतर के पाँच प्राण मिलकर रथ के पहिये के पन्द्रह अरे (तीलियाँ) बनाते हैं। प्रकृति के तीन गुण (सत्त्व, रजस् तथा तमस्) कार्यकलापों के केन्द्रबिन्दु हैं और प्रकृति के आठ अवयव (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि तथा मिथ्या अहंकार) इस पहिए की बाहरी परिधि बनाते हैं। बहिरंगा भौतिक शक्ति इस पहिए को विद्युत् शक्ति की भाँति घुमाती है। इस प्रकार यह पहिया बड़ी तेजी से अपनी धुरी या केन्द्रीय आधार अर्थात् भगवान् के चारों ओर घूमता है, जो परमात्मा तथा चरम सत्य हैं। हम उन्हें सादर नमस्कार करते हैं।
श्लोक 29: भगवान् शुद्ध सत्त्व में स्थित हैं; अतएव वे एकवर्ण—ओङ्कार (प्रणव) हैं। चूँकि भगवान् अंधकार माने जाने वाले दृश्य जगत से परे हैं, अतएव वे भौतिक नेत्रों से नहीं दिखते। फिर भी वे दिक् या काल द्वारा हमसे पृथक् नहीं होते, अपितु वे सर्वत्र उपस्थित रहते हैं। अपने वाहन गरुड़ पर आसीन उनकी पूजा क्षोभ से मुक्ति पा चुके व्यक्तियों के द्वारा योग शक्ति से की जाती है। हम सभी उनको सादर नमस्कार करते हैं।
श्लोक 30: कोई भी व्यक्ति भगवान् की माया का पार नहीं पा सकता जो इतनी प्रबल होती है कि हर व्यक्ति इससे भ्रमित होकर जीवन के लक्ष्य को समझने की बुद्धि खो देता है। किन्तु वही माया उन भगवान् के वश में रहती है, जो सब पर शासन करते हैं और सभी जीवों पर समान दृष्टि रखते हैं। हम उन्हें नमस्कार करते हैं।
श्लोक 31: चूँकि हमारे शरीर सत्त्वगुण से निर्मित हैं इसलिए हम देवगण भीतर तथा बाहर से सतोगुण में स्थित हैं। सारे सन्त पुरुष भी इसी प्रकार स्थित हैं। अतएव यदि हम भगवान् को न भी समझ सकते हों तो उन नगण्य प्राणियों के विषय में क्या कहा जाये जो रजो तथा तमो गुणों में स्थित हैं? भला वे भगवान् को कैसे समझ सकते हैं? हम उन भगवान् को सादर नमस्कार करते हैं।
श्लोक 32: इस पृथ्वी पर चार प्रकार के जीव हैं और ये सारे के सारे उन्हीं के द्वारा उत्पन्न किये गये हैं। यह भौतिक सृष्टि उनके चरणकमलों पर टिकी है। वे एश्वर्य तथा शक्ति से पूर्ण परम पुरुष हैं। वे हम पर प्रसन्न हों।
श्लोक 33: सारा विराट जगत जल से निकला है और जल ही के कारण सारे जीव स्थित हैं, जीवित रहते तथा विकसित होते हैं। यह जल भगवान् के वीर्य के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। अतएव इतनी महान् शक्ति वाले भगवान् हम पर प्रसन्न हों।
श्लोक 34: सोम (चन्द्रमा) समस्त देवताओं के लिए अन्न, बल तथा दीर्घायु का स्रोत है। वह सारी वनस्पतियों का स्वामी तथा सारे जीवों की उत्पत्ति का स्रोत भी है। जैसा कि विद्वानों ने कहा है, चन्द्रमा भगवान् का मन है। ऐसे समस्त ऐश्वर्यों के स्रोत भगवान् हम पर प्रसन्न हों।
श्लोक 35: अनुष्ठानों की आहुति ग्रहण करने के लिए उत्पन्न अग्नि भगवान् का मुख है। सागर की गहराइयों के भीतर भी सम्पत्ति उत्पन्न करने के लिए अग्नि रहती है और उदर में भोजन पचाने के लिए तथा शरीर पालन हेतु विभिन्न स्रावों को उत्पन्न करने के लिए भी अग्नि उपस्थित रहती है। ऐसे परम शक्तिमान भगवान् हम पर प्रसन्न हों।
श्लोक 36: सूर्यदेव मुक्ति के मार्ग को चिन्हित करते हैं, जो अर्चिरादि वर्त्म कहलाता है। वे वेदों के ज्ञान के प्रमुख स्रोत हैं; वे परम सत्य के पूजे जाने वाले धाम हैं। वे मोक्ष के द्वार हैं; वे नित्य जीवन के स्रोत हैं; वे मृत्यु के भी कारण हैं। वे भगवान् की आँख हैं। ऐसे परम ऐश्वर्यवान् भगवान् हम पर प्रसन्न हों।
श्लोक 37: सारे चर तथा अचर प्राणी अपनी जीवनी शक्ति (प्राण), अपनी शारीरिक शक्ति तथा अपना जीवन तक वायु से प्राप्त करते हैं। हम सभी अपने प्राण के लिए वायु का उसी तरह अनुसरण करते हैं जिस प्रकार नौकर राजा का अनुसरण करता है। वायु की जीवनी शक्ति भगवान् की मूल जीवनी शक्ति से उत्पन्न होती है। ऐसे भगवान् हम पर प्रसन्न हों।
श्लोक 38: परम शक्तिशाली भगवान् हम पर प्रसन्न हों। विभिन्न दिशाएँ उनके कानों से उत्पन्न होती है, शरीर के छिद्र उनके हृदय से निकलते हैं एवं प्राण, इन्द्रियाँ, मन, शरीर के भीतर की वायु तथा शरीर आश्रय रूपी शून्य (आकाश) उनकी नाभि से निकलते हैं।
श्लोक 39: स्वर्ग का राजा महेन्द्र भगवान् के बल से उत्पन्न हुआ था, देवतागण भगवान् की कृपा से उत्पन्न हुए थे, शिवजी भगवान् के क्रोध से उत्पन्न हुए थे और ब्रह्माजी उनकी गम्भीर बुद्धि से उत्पन्न हुए थे। सारे वैदिक मंत्र भगवान् के शरीर के छिद्रों से उत्पन्न हुए थे तथा ऋषि और प्रजापतिगण उनकी जननेन्द्रियों से उत्पन्न हुए थे। ऐसे परम शक्तिशाली भगवान् हम पर प्रसन्न हों!
श्लोक 40: लक्ष्मी उनके वक्षस्थल से उत्पन्न हुई, पितृलोक के वासी उनकी छाया से, धर्म उनके स्तन से तथा अधर्म उनकी पीठ से उत्पन्न हुआ। स्वर्ग लोक उनके सिर की चोटी से तथा अप्सराएँ उनके इन्द्रिय भोग से उत्पन्न हुईं। ऐसे परम शक्तिमान भगवान् हम पर प्रसन्न हों!
श्लोक 41: ब्राह्मण तथा वैदिक ज्ञान भगवान् के मुख से निकले, क्षत्रिय तथा शारीरिक शक्ति उनकी भुजाओं से, वैश्य तथा उत्पादकता एवं सम्पत्ति सम्बन्धी उनका दक्ष ज्ञान उनकी जाँघों से तथा वैदिक ज्ञान से विलग रहने वाले शूद्र उनके चरणों से निकले। ऐसे भगवान्, जो पराक्रम से पूर्ण हैं, हम पर प्रसन्न हों।
श्लोक 42: लोभ उनके निचले होठ से, प्यार उनके ऊपरी होठ से, शारीरिक कान्ति उनकी नाक से, पाशविक वासनाएँ उनकी स्पर्शेन्द्रियों से, यमराज उनकी भौहों से तथा नित्यकाल उनकी पलकों से उत्पन्न होते हैं। वे भगवान् हम सबों पर प्रसन्न हों।
श्लोक 43: सभी विद्वान लोग कहते हैं कि पाँचों तत्त्व, नित्यकाल, सकाम कर्म, प्रकृति के तीनों गुण तथा इन गुणों से उत्पन्न विभिन्न किस्में—ये सब योगमाया की सृष्टियाँ हैं। अतएव इस भौतिक जगत को समझ पाना अत्यन्त कठिन है, किन्तु जो लोग अत्यन्त विद्वान हैं उन्होंने इसका तिरस्कार कर दिया है। जो सभी वस्तुओं के नियन्ता हैं ऐसे भगवान् हम सब पर प्रसन्न हों।
श्लोक 44: हम उन भगवान् को सादर नमस्कार करते हैं, जो पूर्णतया शान्त, प्रयास से मुक्त तथा अपनी उपलब्धियों से पूर्णतया सन्तुष्ट हैं। वे अपनी इन्द्रियों द्वारा भौतिक जगत के कार्यों में लिप्त नहीं होते। निस्सन्देह, इस भौतिक जगत में अपनी लीलाएँ सम्पन्न करते समय वे अनासक्त वायु की तरह रहते हैं।
श्लोक 45: हे भगवान्! हम आपके शरणागत हैं फिर भी हम आपका दर्शन करना चाहते हैं। कृपया अपने आदि रूप को तथा अपने मुस्काते मुख को हमारे नेत्रों को दिखलाइये और अन्य इन्द्रियों द्वारा अनुभव करने दीजिये।
श्लोक 46: हे भगवान्! आप विभिन्न युगों में अपनी इच्छा से विभिन्न अवतारों में प्रकट होते हैं और ऐसे असामान्य कार्य आश्चर्यजनक ढंग से करते हैं, जिन्हें हम सब के लिए कर पाना दुष्कर है।
श्लोक 47: कर्मीजन अपनी इन्द्रियतृप्ति के लिए सदैव धनसंग्रह करने के लिए लालायित रहते हैं, किन्तु इसके लिए उन्हें अत्यधिक श्रम करना पड़ता है। इतने कठोर श्रम के बावजूद भी उन्हें सन्तोषप्रद फल नहीं मिल पाता। निस्सन्देह ही कभी-कभी तो उनके कर्मफल से निराशा ही उत्पन्न होती है। किन्तु जिन भक्तों ने भगवान् की सेवा में अपना जीवन अर्पित कर रखा है वे कठोर श्रम किये बिना ही पर्याप्त फल प्राप्त कर सकते हैं। ये फल भक्तों की आशा से बढक़र होते हैं।
श्लोक 48: भगवान् को समर्पित कार्य, भले ही छोटे पैमाने पर क्यों न किये जाँए, कभी भी व्यर्थ नहीं जाते। अतएव स्वाभाविक है कि परम पिता होने के कारण भगवान् अत्यन्त प्रिय हैं और वे जीवों के कल्याण के लिए सदैव कर्म करने के लिए तैयार रहते हैं।
श्लोक 49: जब वृक्ष की जड़ में पानी डाला जाता है, तो वृक्ष का तना तथा शाखाएँ स्वत: तुष्ट हो जाती हैं। इसी प्रकार जब कोई भगवान् विष्णु का भक्त बन जाता है, तो इससे हर एक की सेवा हो जाती है क्योंकि भगवान् हर एक के परमात्मा हैं।
श्लोक 50: हे भगवान्! आपको नमस्कार है क्योंकि आप नित्य हैं, भूत, वर्तमान तथा भविष्य की काल सीमा से परे हैं। आप अपने कार्यकलापों में अचिन्त्य हैं, आप भौतिक प्रकृति के तीनों गुणों के स्वामी हैं और समस्त भौतिक गुणों से परे रहने के कारण आप भौतिक कल्मष से मुक्त हैं। आप प्रकृति के तीनों गुणों के नियन्ता हैं, किन्तु इस समय आप सतोगुण में स्थित हैं। मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।