Thinking Fast and Slow Book Summary in Hindi

Thinking Fast and Slow Book Summary in Hindi – Hello दोस्तों, इस बुक समरी में आपको Daniel Kahneman की बेस्ट सेलर बुक थिंकिग फ़ास्ट एंड स्लोमें से लिए गए कुछ बेहद इम्पोर्टेन्ट आईडियाज मिलेंगे। क्या आप जानना चाहते है कि इन्हें economy में क्यों noble prize मिला जबकि ये psychologist है ? अगर हाँ तो आगे इस बुक समरी को पढ़ें।

 


Thinking Fast and Slow Book Summary in Hindi



इससे पहले कि हम स्टार्ट करे, एक बात हम यहाँ क्लियर कर देते है। “ह्यूरिसटिक्स” वर्ड बहुत इम्पोर्टेन्ट है और अपनी ये समरी शुरू करने से पहले इसका मतलब पता होना हमारे लिए ज़रूरी है।

हालांकि बोलने में ये थोडा सा मुश्किल लगता है पर इसका मतलब बहुत सिम्पल है – ह्यूरिसटिक्स वो रूल्स और मेंटल शोर्ट कट्स होते है जो लोग किसी इन्फोर्मेशन को ज्यादा एफिशियेंटली से प्रोसेस करने के लिए यूज़ करते है।

जैसे कि कोई सेट ऑफ़ प्र्ज़ुयुमप्श्न जिससे सही ढंग से प्रेडिक्शन की जा सके।




इस बुक को पढ़कर जो सबसे इम्पोर्टेन्ट आईडिया आप ड्रा कर पाएंगे वो फेक्ट है कि ह्यूमन brain दो modes में काम करता है।


पहला वाला है फ़ास्ट, इंट्यूटिव मगर कभी-कभी इरेशनल मोड यानी जब हमारा brain बिना सोचे काम करता है…. बस react कर देता है।

दूसरी तरफ जो दूसरा वाला मोड है वो रेशनल, स्लो, केल्कुलेटिव और प्रूडेंट है। इस बुक का पॉइंट यही है कि हम दोनों मोड्स में से एक mode की तारीफ करे और दूसरे को प्रेज़ करे।

बल्कि गोल ये है कि दोनों मोड्स के गुड और बैड साइड्स को समझा जाये।

 

चलो पहले रेशनल साइड से शुरू करते है। अब हम में से कई लोग ये कह सकते है की रेशनल साइड यानी हमारा सोच विचार के action लेने वाला brain का function हमेशा इंट्यूटिव साइड यानी reactive mind से सुपीरियर है।

हालांकि हर बार ऐसा नहीं होता। इसके एक्जेक्ट और डिफरेंसेस इस टेक्स्ट के बाद वाले पार्ट में डिटेल्स से बताये गए है। पर अभी के लिए हम ऐसा बोल सकते है कि इंट्यूटिव साइड यानी FAST MIND रोज़ की लाइफ में हमारी एनर्जी सेव करती है जैसे कुछ ऐसी रूटीन सिचुएशन जहाँ हमें स्लो और केल्कुलेटिव मोड ऑफ़ फंक्शनिंग की ज़रूरत नहीं पड़ती।

 

बेशक लाइफ में ऐसे भी मौके होते है जब हमें किसी प्रॉब्लम के बारे में तसल्ली से बैठकर सोचना पड़ता है।

ऐसी सिचुएशन में हम अपना रेशनल एस्पेक्ट यानी slow mind जो सोच विचार कर action लेता है उसे इस्तेमाल करते है।

फाइनली ये रेशनल, यानी स्लो mind और इंट्यूटिव यानी फ़ास्ट mind ये सब आपस में दुश्मन नहीं है। अक्सर ये सब मिलकर काम करते है।

अब जैसे कि फ़ास्ट, इंट्यूटिव सिस्टम की मदद से “रॉ” डेटा कलेक्ट और ओर्गेनाइज़ किया जा सकता है। मगर उसके बाद हमारे ब्रेन का ज्यादा केयर फुल और स्लो साइड अपना काम करना शुरू कर देता है।




हम इस समरी में ह्यूरिसटिक्स और बाइसेस के ऊपर ज्यादा फोकस करेंगे। जैसा कि हमने बताया ह्यूरिसटिक्स कुछ रूल्स का ग्रुप होता है।

यानी एक तरह से हमारे mind में habit जिसकी वजह से हम बहुत सी situation में बिना कुछ सोचे हुए जल्दी से action लेते है, जैसे की brush करना, shoes पहनना, और इसकी वजह से हमारी energy कम खर्च होती है।

अब ऐसा ज़रूरी नहीं कि हर बार इससे हमे फायदे ही हो, कई बार हम इन ह्यूरिसटिक्स पर डिपेंड होकर सिल्ली मिस्टेक्स भी कर लेते है।




ये बुक आपको ऐसी सिचुएशन को समझने में हेल्प करेगी जब हमारे यूजअल presumptions काम नहीं करते यानी FAST MIND गलती कर देता है और जब हमें और भी स्लो और गहरी प्रोसेसिंग की ज़रुरत होती है।

 

 

फ़ास्ट और स्लो थिंकिंग

 

इसमें पहले concept आता है anchoring (एंकरिंग)

 

 

ये एक टाइप का ह्यूरिस्टिक है जो हम तब एम्प्लोय करते है जब हमारे पास एक reference पॉइंट होता है।

जैसे कि एक्जाम्पल के लिए अगर कोई हमसे पूछे कि नेल्सन मंडेला ने जेल में 30 साल से कम गुज़ारे थे या ज्यादा” तो हो सकता है कि आप कहे “मुझे नहीं पता”, और यूँ ही कोई ज़वाब दे दे।

लेकिन इंट्रेस्टिंग बात तो ये है कि अगर कोई उसके तुरंत बाद आपसे पूछे कि नेल्सन मंडेला ने कितने साल जेल में बिताये थे तो आप ज़रूर 30 के आस-पास का टाइम लिखेंगे।

क्योंकि जो पहला सवाल आपसे पुछा गया था उसके बेस पर आप इस ज़वाब पर पहुंचे।

अब होता ये है कि जब एंकर्स रेंडमली सेट नहीं होते तो हर चीज़ सही काम करती है।

नेल्सन मंडेला वाले एक्जाम्पल में एंकर रेंडमली सेट नहीं था क्योंकि मंडेला ने 30 साल जेल में काटे थे।

इस तरीके से anchoring आपको बेस्ट एस्टीमेशन का अंदाज़ा लगाने में हेल्प करता है।

अब एक दूसरी सिचुएशन देखते है जहाँ ये एंकरिंग ह्यूरिस्टिक आपके खिलाफ यूज़ की गयी हो। कुछ लोग pawn (पान) शॉप्स यानी ऐसे दुकाने जहा पर पुराना सामान बिकता है, में जाकर अपना कुछ पर्सनल सामान काफी कोस्टली बताकर बेचने की कोशिश करते है।

जैसे कि स्टीव ये हमेशा करता था और कई बार तो काफी सारा पैसा घर लेकर आता था। हालांकि इस बार वो एक ऐसी शॉप में गया जिसका ओनर बड़ा ही लालची टाइप का था, चालबाजी में एकदम जीनियस।

स्टीव बेचने के लिए मामूली सामान लेकर गया था, जैसा सामान अक्सर हम अपने घर की छत पर रखते है। एक छोटा सा सोल्ज़र का स्टेच्यू. देखने में ये अच्छा था और स्टीव को लगा कि शायद उसे इसके बदले कुछ डॉलर मिल जायेंगे।

तो वो ये स्टेच्यू लेकर pawn शॉप पे गया और उसका प्राइस लगाने लगा। और अचानक दूकान वाले ने उससे पूछ लिया – तुम्हे क्या लगता है कि इस स्टेच्यू के तुम्हे 25 डॉलर से ज्यादा मिलेंगे या कम ?

इस सवाल ने स्टीव को चकरा दिया, उसने मज़ाकिया अंदाज़ में कहा कि इसकी कीमत तो 25 डॉलर से कहीं ज्यादा है। दुकानदार ने उसके ज़वाब पर ध्यान नहीं दिया और फिर पुछा तुम्हे इस छोटे से टॉय के कितने पैसे चाहिए ?

स्टीव फिर अटक गया लेकिन उसने धीरे से 30 डॉलर जैसा कुछ कहा। और दूकान वाले ने बिना किसी बारगेनिंग के उसे पैसे दे दिए।

उसकी इस हरकत पे स्टीव को थोडा शक हुआ लेकिन फिर उसने पैसे ले लिए और शॉप से बाहर निकल गया।

अगले दिन उसने उस दुकान में वही टॉय देखा जिसपे 200$ प्राइस लिखा हुआ था। ये बात साफ़ हो गयी थी कि उस दूकान वाले ने उसे उल्लू बनाया था कि उस टॉय का प्राइस 25 डॉलर है, और इस तरह उस धोखेबाज़ एंकर ने लास्ट में स्टीव को बुद्धू बना ही लिया।
 
 

 

 

next concept आता है availability (अवेलेबिलिटी)

 

 

ये concept कहता है की “अगर आप इसके बारे में सोच सकते है तो ये इम्पोर्टेन्ट होना ही चाहिए” किसी भी दुसरे ह्यूरिसटिक की तरह जिस पर फ़ास्ट सिस्टम टिका है, ज़्यादातर ह्यूरिसटिक ऑफ़ अवलेबिलिटी बड़ा यूजफुल होता है।

जैसे एक्जाम्प्ल के लिए जब कोई आपसे पूछे – योरोप की सबसे बड़ी सिटी कौनसी है ? आप शायद जल्दी से ज़वाब देंगे लन्दन” इसलिए नहीं कि आपको श्योर है कि यही सबसे बड़ा शहर है, बल्कि इसलिए क्योंकि ये नाम सबसे पहले आपका दिमाग में आया, और आपका ज़वाब सही जवाब के काफी नज़दीक था, क्योंकि लन्दन योरोप में मोस्को के बाद दूसरी बड़ी सिटी है।

इस सिचुएशन में अवलेबिलीटी ह्यूरिस्टिक आपके फेवर में काम करती है। वही दूसरी तरफ ऐसे कई एक्जाम्प्ल मिलेंगे जहाँ इस ह्यूरिस्टिक ने लोगो को चक्कर में डाल दिया जिसकी वजह से उनके कनक्ल्यूजन अननेसेसरी और इररेशनल निकले।

दुनिया में सबसे ज्यादा शोकिंग और मिडिया कवर्ड इवेंट्स बड़े-बड़े प्लेन crashes ही है। इस तरह की बड़ी दर्दनाक घटनाओं के बाद कई दिनो तक न्यूज में इसकी रिपोर्ट्स आती रहती है,

और जब आप लोगो से कार crashes या प्लेन crashes की पोसिबिलिटी पूछेंगे खासकर उनसे जो दिन-रात न्यूज़ और रिपोर्ट्स देखते है तो लोग प्लेन क्रेश के कम्पेयर में कार क्रेश को बहुत कम बताएँगे।

क्योंकि उनके माइंड में दिन-रात न्यूज़ में देखी हुई प्लेन क्रेश की ईमेजेस होती है इसलिए उन्हें लगता है कि प्लेन ज्यादा क्रेश होते है बल्कि इसके रियल में कार क्रेशेस की घटनाएं कॉमन है और ज्यादा डेडली भी होती है।

एक और एक्जाम्पल लेते है। हम सबको पता है कि शार्क् बहुत डेंजरस होती है। अगर हम Steven Spielberg की मूवी “शार्क” को देखकर शार्क्स के बारे में नेगेटिव इम्पेक्ट को नेगलेक्ट कर भी दे तो भी लोगो की ह्यूरिस्टिक ऑफ अवेलेबिलिटी का एक्जाम्पल इस बात से दे सकते है कि ज़्यादातर लोगो को शार्क बाकि एनीमल से ज्यादा डेडली लगती है।

हम में बहुत से लोगो की शार्क के अटैक को लेकर गलत थिंकिंग भी हो सकती है क्योंकि हमने इसे बड़े ड्रामेटिक graphics, खतरनाक रूप में देखा है, जिसे कई न्यूज़ एन्जेंसिज़ बड़े “forced” तरीके से पेश करती है क्योंकि ऐसी न्यूज़ ज्यादा लोग देखते है।

जिसकी वजह से शार्क अटैक की एक खतरनाक पिक्चर हमारे माइंड में बन जाती है, और यही वजह है कि हम शार्क अटैक को ओवरएस्टीमेट करते है। हमें लगता है कि शार्क अटैक से ज्यादा लोगो की मौत होती है। लेकिन रियल में प्लेन से गिरकर मरने के चांसेस ज्यादा है..

 

 

next topic आता है sunk cost fallacy (संक कोस्ट फालेसी) –

इसका सिम्पल मतलब है एक ऐसी सिचुएशन जहाँ लोग किसी बेकार के एसेट में बार-बार इन्वेस्ट करते रहते है ये जानने के बावजूद कि उनकी पहली इन्वेस्टमेंट इररेशनल थी और हर बार फिर से एक और इन्वेस्टमेंट करना उनकी बेवकूफी है।

हालांकि बड़े समझदार लोग भी कई बार ऐसा करते है और उन्हें लगता है ऐसे वो खुद को रिग्रेट की फीलिंग से बाहर निकाल रहे है या फिर ये उसे गलती मानने से ही इंकार कर देते है। बेशक ऐसा करने से उनकी इगो बनी रहती है और खुद पे एक झूठा यकीन भी।

एक ऐसी चीज़ है जिसे “The Concorde Fallacy” “कोंकोर्ड फालेसी” कहते है। ऐसे रियल लाइफ सिचुएशन जो रेवोल्यूशनरी मॉडल ऑफ़ एयरप्लेन के दौरान हुए थे।

कोंकोर्ड जो यूके और फ्रेंच गवर्नमेंट का जॉइंट प्रोजेक्ट था। दोनों गवर्नमेंट ने इस प्रोजेक्ट में अपनी इन्वेस्टिगेटिंग ज़ारी रखी, ये जानते हुए कि इसकी इकोनोमिक ससटेनेबिलिटी बिलकुल नल है और कोई भी इन कोंकोर्ड एयरप्लेन को अनसेफ होने की वजह से यूज़ नहीं करना चाहेगा।

हालांकि इस प्रोजेक्ट की इनिशियल इन्वेस्टमेंट में ही एक काफी बड़ी रकम खर्च हुई थी फिर भी हाई ऑफिशियल के लिए अपनी गलती को एक्सेप्ट करना इम्पोसिबल था और ना ही वे इस प्रोजेक्ट को band करने को तैयार थे। इसलिए इस project में और investment करके अपने पैसा डुबाते गए।

next topic आता है – Framing

फ्रेमिंग एक बड़ा ही इंट्रेस्टिंग टाइप का ह्यूरिस्टिक और बाइसेस है जिसे मीडिया magnates और न्यूज़ एजेंसीज ने बड़ा use करता है। फ्रेमिंग का बेस्ट एक्जाम्पल है जब हम क्वेशचन थोडा change कर देते है ताकि जो हमें चाहिए उसी चीज पर audience को focus करने में मजबूर कर सके।

 

जैसे एक्जाम्पल के लिए नीचे दिए गए दो एकदम मिलते-जुलते सवालों पर लोग डिफरेंट तरीके से रिसपोंड करेंगे :



1. “क्या आप ऐसे मेडिकल प्रोसीज़र को हाँ बोलेंगे जिसमे सरवाइववल के 90% चांसेस हो ?
जब हम सेम क्वेश्चन को फर्स्ट तरीके से पूछते है तो हम सुनने वाले को इसके गुड साइड पर फोकस कराते है।




2. “क्या आप ऐसे मेडिकल प्रोसीज़र को हाँ बोलेंगे जिसमे डेथ होने के 10% चांसेस हो ?

 

 
 
इसीलिए जब हम लोगो से पूछते है कि क्या वो ऐसा ओपरेशन चाहेंगे करेंगे जिसमे बचने के 90% चांसेस हो तो ज्यादा लोग इस बात को एक्सेप्ट करेंगे।

 

 

वही दूसरी तरफ दुसरे वाले क्वेश्चन में हम बैड साइड यानी मोर्टेलिटी रेट पर जोर देते हुए सवाल पूछ रहे है।

इस तरह लोग इसके नेगेटिव केरेक्टरस्टिक पर फोकस करने लगते है और इस बात के ज्यादा चांसेस है कि वे ओपरेशन रिजेक्ट कर दे।




शोर्ट में कहे तो हमारे सवाल पूछने का तरीका बहुत मायने रखता है और आंसर को भी change कर सकता है।

एक और एक्जाम्पल लेते है। क्रिस को पार्टीज़ में जाना बड़ा पसंद है। लेकिन वो ऐसे ही हर किसी पार्टी में जाने से कतराता है क्योंकि उसे पार्टी का पूरा मज़ा चाहिए इसलिए उसके फ्रेंड्स को बड़ी मुश्किल होती है उसे हर जगह अपने साथ ले जाने में।

लेकिन फिर उन्हें इसका एक सोल्यूशन मिला। वे उसे क्लब में साथ चलने के लिए बोलते थे और उसके सामने डिस्कस करते थे कि लास्ट टाइम इस क्लब में उन्हें कितना मज़ा आया था, वे कभी भी क्रिस को उनके साथ हुए बैड एक्स्पेरियेंश नहीं बताते थे, और chris भी इससे काफी impress होता था।




अब एक और एक्जाम्पल है। शायद पहले वाले से ज्यादा इम्पोर्टेन्ट। जिस तरह से हमें न्यूज़ दिखाई जाती है ओबियस है कि उसका मकसद यही है कि हम पर उस न्यूज़ का पूरा इफेक्ट पड़े।

अब जैसे कि किसी टाउन में कोई रेस्क्यू मिशन चलाया गया जो अच्छी तरह निपट गया. टाउन के ज़्यादातर लोग बचा लिए गए, हालांकि कुछ लोग टेरेरिस्ट्स के हाथो मारे भी गए।

अब हमारे पास दो तरीके है इस न्यूज़ को फ़ैलाने के। अगर हम रेस्क्यू टीम की तारीफ करना चाहते है तो हम कुछ इस तरह कहेंगे: टाउन को बचा लिया गया। रेस्क्यू टीम ने 10,000 से ज्यादा लोगो की जान बचाई!

वही दूसरी तरफ अगर हम इस मिशन की बेइज़ती करना चाहेंगे तो बिना झूठ बोले कुछ इस तरह बोल सकते है : क्या हम मासूम लोगो की मौत से किसी की जान बचा सकते है ? एक फेल्ड रेस्क्यू मिशन में 50 से ज्यादा सिविलियंस ने अपनी जान गंवाई ?

अब इसमें कुछ चेंज नहीं किया क्योंकि अगर कुछ सिविलियंस की जान गयी है तो मिशन 100% सक्सेसफुल नहीं माना जा सकता। फेक्ट्स के सेलेक्शन और थोडा कुछ बड़ा-चढ़ा कर बोलने का इसमें इम्पोर्टेन्ट रोल है।

तो नेक्स्ट टाइम जब आप न्यूज़ देखे, तो ये बाते माइंड में रखे कि फेक्ट्स को डिफरेंट फॉर्म में लपेट के पेश किया जा सकता है।

उन्हें प्लानिंग के साथ चुन-चुन कर न्यूज़ एजेंसीज आपके सामने इस तरह रखती है ताकि वो जो मैसेज देना चाहे आप तक पंहुचे।

न्यूज़ और मार्केटिंग एजेंसीज बड़ी चालाकी से मोरल और जूडीसरी नोर्म्स को ताक पर रखते हुए अपना काम करती है।

एक तरफ तो वो कह सकते है कि हम सच बताते है मगर दूसरी तरफ वो वही फेक्ट्स जनता को दिखाते है जो वो दिखाना चाहते है ताकि लोगो पर उनके मैसेज का मैक्सिमम इफेक्ट पड़े।

 

 

next topic आता है – Optimism and loss of aversion (overconfidence)

 

 

हम पहले ही sunk cost (संक-कोस्ट) फालेसी के बारे में एक्सप्लेन कर चुके है जोकि (unreasonable optimism) अनरीजनेबल ओप्टीमिस्म और लोस ऑफ़ एवरजन से क्लोज़ली लिंक्ड है।

कम वर्ड्स में बड़ी बात कहे तो, कोई भी बिजनेस या कमर्शियल शुरुवात की प्लानिंग करते वक्त लोग अक्सर थोड़े से factors को ही माइंड में रखते है जबकि ज्यादा इम्पोर्टेन्ट फेक्टर्स को underestimate कर लेते है।




जैसा कि हमने ये पहले बताया है कि संक कोस्ट फालेसी और ओवर कोंफीडेंस दोनों बहुत क्लोज़ फेनामोना है।

चलो एक बार फिर से कोंकोर्ड एक्जाम्पल यूज़ करते है। ओवरकोंफीडेंस का सबसे इम्पोर्टेन्ट फीचर ये है कि ये बेनीफिशियल इवेंट्स को ओवरएस्टीमेट करता है और बैड इवेंट्स को अंडरएस्टीमेट।

ये पोसिबल है कि संक कोस्ट फालेसी मिस्टेक से पहले कोंकोर्ड के डिज़ाईनर्स ने यही मिस्टेक की होगी।




एक्जाम्पल के लिए ये बहुत हद तक पोसिबल है कि कोंकोर्ड के डिजाइनर्स एक नए प्लेन के बनने की पोसिबिलिटी से कुछ ज्यादा ही खुश हो गए होंगे। ये एक्सेपशनली फास्ट था, ये आपको कुछ ही घंटो में दुनिया के किसी भी कोने में पहुंचा सकता था, ये लक्जूरियस था, ये sound की double speed पर चल सकता था, वगैरह- वगैरह।

वही दूसरी तरफ इसमें बैड इवेंट्स की पोसिबिलीटीज़ को अंडरएस्टीमेट किया गया था जैसे कि – सेफ्टी इश्यूज, अमाउंट ऑफ़ डिमांड को पूरी तरह नेगलेक्ट किया गया था जो इसके फेल होने का बहुत बड़ा रीजन थी।

और इसके बावजूद अपनी ओवरकोंफ़ीडेंस की गलती एक्सेप्ट करने के बजाये उन्होंने एक और बड़ी मिस्टेक की इस आलरेडी फेल्ड प्रोजेक्ट में फिर से इन्वेस्ट करके।

 

Effective forecasting (अफेक्टिव फोरकास्टिंग )

 

 

अफेक्टिव फोरकास्टिंग एक काम्प्लेक्स फेनोमेनन है। सिंपल तरीके से कहे तो ये तब होता है जब हम फीलिंग के बेस पे फ्यूचर के बारे में प्रेडिक्ट करते है।

हालांकि ये प्रेडिक्शन करते वक्त हम कई तरह की मिस्टेक करते है और इस अब हम इनमे कुछ मिस्टेक मेंशन करेंगे..

 



पहली mistake है – Impact bias (इम्पेक्ट बायेस)

 

वेकेशन की प्लानिंग करते टाइम इसका बेस्ट एक्जाम्पल देखा जा सकता है। काम से ब्रेक लेकर एक वेल डिजर्वड वेकेशन पे जाने की ख़ुशी ही कुछ और होती है।

एक तो हमारे माइंड में एक बढ़िया वेकेशन की इमेज होती है और दूसरा ये भी कि हमें इस बात की ख़ुशी होती है कि चलो इस बहाने कुछ टाइम तो काम से ब्रेक मिलेगा।

हम उस ख़ुशी को ओवरएस्टीमेट करने लगते है जो हमें मिलने वाली है। यही हमारे डिसअपोइन्टमेंट और एक्सपेक्टेशन पूरी ना होने की सबसे बड़ी वजह है।

ये सो काल्ड “पेरिस सिंड्रोम” या पारी शोकोगुन” जो जापानीज़ टूरिस्ट्स में बहुत प्रोमिनियेंट है जो ख़ासतौर पे देखा जा सकता है।

उन्हें फ़्रांस में अपनी वेकेशन से इतनी ज्यादा एक्सपेक्टेशन होती है कि कई बार इन एक्सपेक्टेशन का पूरा होना इम्पोसिबल होता है।

जिसकी चलते कुछ जापानीज़ टूरिस्ट्स डिप्रेशन, डीजीनेस, टेकीकार्डिया, स्वेटिंग या वोमिटिंग तक फील करने लगते है। बेशक वे लोग बड़े हार्ड वर्किंग होते है, कई-कई घंटो तक काम करते रहते है, ये सोचकर कि काम से ब्रेक लेकर वे एक परफेक्ट वेकेशन पर जायेंगे जो वे डीजर्व करते है।

लेकिन अपने “सिटी ऑफ़ लाइट” में परफेक्ट वेकेशन का सपना लेकर जब वे जाते है तो उन्हें मिलती है डर्टी स्ट्रीट्स, लोगों की लम्बी lines (कभी-कभी) बैड वेदर, महँगी चीज़े वगैरह जिसकी वजह से उनका परफेक्ट वेकेशन की ख़ुशी डिप्रेशन में बदल जाती है।



दूसरी mistake है – immune neglect (इम्यून नेगलेक्ट )

 

 

ये इम्पेक्ट बयेस की दूसरी साइड है। इसे साइकोलोजिकल इम्यून सिस्टम का सबसे इम्पोर्टेन्ट फंक्शन माना जा सकता है।

टर्म नेगलेक्ट को इसलिए यूज़ किया गया है क्योंकि अक्सर लोग अपने इम्यून सिस्टम की इस टेंडेसी से बेखबर होते है कि ये फ्यूचर इमोशनल रिसपोंसेस को बड़ा कर सकती है।

ये देखा गया है कि जो किसी इवेंट के सिर्फ बैड एस्पेक्ट को बड़ा करके सोचते है उनमे स्ट्रेस रिस्पोंस कम होता है जब उन्हें रियल में ऐसे इवेंट फेस करने पड़ते है।

ऐसा देखा गया है कि किसी बैड इवेंट के बारे में सिर्फ बात करने से ही बॉडी अलर्ट हो जाती है जिसका रिजल्ट ये होता है कि जब ये रियेल इवेंट सच में होते है तो लोग पहले से ही अच्छी तरह प्रीपेयर्ड होते है।

इसलिए जो जजमेंट एक्चुअली रोंग होता है हमारे साइकोलोजिकल इम्यून सिस्टम को अलर्ट कर देता है और कई बार हमें बहुत सारी प्रोब्लम से भी बचा लेता है।

हम अब एक ऐसी सिचुएशन के बारे में बात करेंगे जो अक्सर होती है ताकि ये कॉम्प्लेक्स प्रोसेस इज़ीली समझ आये।

हम सब जानते है कि अक्सर कुछ लोग डेंटिस्ट के पास जाने से डरते है। यहाँ तक कि डेंटिस्ट के क्लिनिक की स्मेल ही इन लोगो में डर पैदा कर देती है। उनके लिए डेंटिस्ट के पास जाना मौत से भी भयानक है।

वे बुरे से बुरे situation की इमेजीनेशन करते रहते है। “क्या होगा अगर कुछ गलत हो गया तो ? अगर मुझे कोई इन्फेक्शन हो गया तो ? अगर डेंटिस्ट से कोई गलती हो जाए तो ? उनकी ये अगर-मगर की लिस्ट बहुत लम्बी होती है।

लेकिन अगर ये लोग हिम्मत जुटा कर डेंटिस्ट के पास अपनी प्रॉब्लम लेकर जाते है तो डेंटल प्रोसीज़र के दौरान उन्हें फील होता है कि वे तो बेकार में ही इतना डर रहे थे।

एक छोटी सी चीज़ पर ओवररिएक्ट कर रहे थे। वो इसलिए क्योंकि उनकी एक्सपेक्टेशन के हिसाब से उनके साथ कुछ बुरा ही होना था, ये वो मानकर चल रहे थे।

उनके साइकोलोजिकल इम्यून सिस्टम ने उनकी बॉडी को किसी भी स्ट्रेसफुल इवेंट के लिए पहले की प्रीपेयर कर दिया था। Focalism (फोकेलिस्म) एक और तरीका है जिसमे लोग फ्यूचर इवेंट प्रेडिक्ट करते वक्त मिस्टेक करते है।

फोकेलिस्म तब होता है जब कोई इंसान किसी इवेंट की स्पेसिफिक डिटेल पर इतना ज्यादा फोकस करता है कि ये डिटेल्स बाकी एस्पेक्ट के मुकाबले सबसे ज्यादा प्रोमियेंट बन जाती है ये ऐसी सिचुएशन में देखा जा सकता है जब लोग कन्फ्यूज़ होते है कि कहाँ मूव किया जाए- कैलीफोर्निया या मिडवेस्ट।

बहुत से लोग सिर्फ वेदर डिफ़रेंस पर ही फोकस करते है और एक बस इसी फैक्टर पर स्टिक रहते है। क्योंकि ये स्पेसिफिक डिटेल उनके फोकस का सेंटर है और बाकि ज़रूरी काम की बाते नेगलेक्ट कर दी जाती है। जैसे कि चीजों की प्राइस या फिर क्वालिटी ऑफ़ लाइफ।
 
 
 

कनक्ल्यूजन –

 

यहाँ आपके पास है अब काहनेमेन की बुक “थिंकिंग, फ़ास्ट एंड स्लो” के मोस्ट इम्पोर्टेन्ट आईडियाज जो इस बुक का एक्सट्रेक्ट है और एक्जाम्पल के साथ पेश किया गया है।

 

इस समरी से आप कुछ इम्पोर्टेन्ट बाते सीख सकते है :

 

1. थिंकिंग एक यूनीफाईड प्रोसेस नहीं है। ऐट लीस्ट दो डिफरेंट टाइप की थिंकिंग होती है FAST THINKING AUR SLOW THINKING और दोनों के एस्पेक्ट में एक दुसरे से बिलकुल डिफरेंट है..

 

 

2. स्लो टाइप की थिंकिंग हाइली रेशनल और केलकुलेटिव होती है जिसमें हम ज्यादा time लगाते है चीजों को evaluate करने के लिए। ये सारी पोसिबिलिटी को कंसीडर करती है और अक्सर ये इमोशंस से इन्फ्लुयेसं नहीं होती। ये वाली थिंकिंग हम तब एम्प्लोय करते है जब हमें मैथमेटिक्स की कोई काम्प्लेक्स प्रॉब्लम सोल्व करनी होती है या फिर अपने फ्यूचर के लाइफ प्लान्स बनाने होते है।

 

 

3. फ़ास्ट थिंकिंग बहुत सी सिचुएशन में अच्छी होती है क्योंकि ये presumption (प्रीज्युमपशन) के हिसाब से एक्ट करती है जो एक तरह से थोडा रियल इवेंट्स पर बेस्ड होते है। ये बायेसेस हमेशा सही हो ये ज़रूरी नहीं मगर ज़्यादातर हालात में ये काम करते है इसलिए ये यूजफुल भी है। फ़ास्ट थिंकिंग ऑटोमेटिक और सबकोंशेस होती है और इन फ़ास्ट प्रोसेसेस से अवेयर होना बहुत हार्ड होता है।

 

 

4. स्लो और फ़ास्ट थिंकिंग एक दुसरे के अपोजिट नहीं है। ये दोनों अक्सर साथ में एक्ट करती है।

 

 

5. कुछ न्यूज़ और मार्केटिंग एजेंसीज आपकी फ़ास्ट थिंकिंग प्रोसेस को पर्पजली इन्फ्लुयेंश करने की कोशिश कर सकती है क्योंकि ये आपके conscious से छुपा हुआ रहता है।

 

 

6. जब भी आप कुछ पढ़े, खासकर न्यूज़ आर्टिकल्स या ऐसी ही कोई चीज़, तो सो काल्ड फ्रेमिंग से बचकर रहे। कंटेंट से ज्यादा इम्पोर्टेन्ट है उनके क्वेश्चन का तरीका।

 

 

तो दोस्तों आपको Thinking Fast and Slow Book Summary in Hindi कैसी लगी नीचे कमेंट करके जरूर बताये। और इस बुक समरी को अपने दोस्तों के शेयर करें।


आपका बहुमूल्य समय देने के लिए दिल से धन्यवाद।
 
Wish You All The Very Best.

2 thoughts on “Thinking Fast and Slow Book Summary in Hindi”

  1. हिंदी शब्दों में लिखा होता तो बहतेर होता। यहाँ तो अंग्रेज़ी शब्द ही देवनगरी में लिखा है। इसे पढ़ने से आसान तो अंग्रेज़ी पढ़ना होगा।

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