इस बारे में बहुत सी किताबें छाप चुकी है। कई कहानियां लिखी जा चुकी है इस विषय पर।
हमारी कहानी उस आम आदमी के बारे में है जो अपना सब कुछ खो चूका था यहाँ तक की अपनी पहचान भी, और ये उस की कहानी है जो खुद की पहचान बनाये रखने की कोशिशों में है, बावजूद उन तमाम ज़ुल्मों सितम के जो उस concentration camp में किये गए थे।
उन बेनाम कैदिओं की कहानी जो सिर्फ एक से ज्यादा और कुछ नहीं थे। उनकी पहचान और इज़्ज़त छीन कर उन्हें सुँवर के नाम से पुकारा जाता था। नहीं, हम कोई hero या शहीद नहीं थे। हम सिर्फ हड्डियों और मांस का ढांचा भर थे.. जिन्हें अपने पेट की भूख मिटाने के लिए रोटी के टुकड़ो के साथ साथ इंसान बने रहने की ज़द्दोज़हद भी करनी पड़ती थी।
ये माना जाता है की psychology की study करने के लिए detachment यानी सख्त दिल दोना पड़ता है। हां, शायद इसीलिए concentration camp के कैदी की दर्द भरी दास्तान कोई भी बाहरी इंसान कभी समझ नहीं सकता। ये वही समझ पायेगा जिसने उस दुनिया को करीब से देखा हो।
मैं इस किताब को गुमनाम तरीकेसे छपवाना चाहता था। मैं नहीं चाहता था की कोई भी मेरे कैदी number के अलावा कुछ और मेरे बारे में जाने। मगर फिर मुझे एहसास हुआ की मुझे हिम्मत करके आगे आकर अपनी पहचान बतानी चाहिए। जिससे ज्यादा से ज्यादा लोग ये किताब पढ़े।
मैंने Camp में psychiatrist के तौर पर काम नहीं किया था। अपनी आज़ादी से कुछ ही हफ्तों पहले तक मैं एक बीमार कैदी था। तीन साल मैंने उस jail में बिताये थे। मैं ज्यादातर railway lines पर काम करता था। मेरा काम था tracks खोदना…. और मैं हमेशा laying और खुदाई का काम करता था।
एक दिन मैंने एक tunnel अकेले ही खोदी। ये 1944 की बात है, उस साल Christmas पर मुझे premium coupons मिले। मेरे पास पूरे 12 coupons थे। इसके बदले में 12 cigarettes या 12 soups ले सकता था।
हमे construction firms में गुलामों की तरह बेचा गया था। जिसके बदले में concentrations camp को firm की तरफ से हर कैदी के हिसाब से पैसे मिलते थे। और इस तरह मैं भी number 119, 104 बनकर रह गया था।
Man’s Search for Meaning Book Summary in Hindi
Phase एक : camp में admission
Camp में रहते हुए मैंने कैदियों के psychological reaction के तीन phases को बारीकी से देखा और समझा। पहला phase होता था camp में admission, दूसरे routine और तीसरा liberation. जब भी कोई कैदी camp में लाया जाता तो वहां के हालात देखकर गहरे सदमे में चला जाता था।
हमने कई दिनों तक train से सफर किया। कैदियों को ठूंस-ठूंस कर carriage में भरा गया था। केवल ऊपरी हिस्से में सांस बाहर लेने की कुछ जगह बची हुई थी। हर coach में 80 के करीब कैदी थे। हमे लगा की हमे Poland में मज़दूरी के लिए ले जाया जा रहा है। मगर हम डर से कांप उठे जब हमारी train Auschwitz पर आके रुकी।
Auschwitz का मतलब था कबरिस्तान और gas chambers. फिर जल्द ही हमे watch towers, कांटेदार तारो वाली ऊँची दीवारे और कैदियों की लम्बी लाइने दिखाई दे गए। हमारे carriage के दरवाजे खुले। धारीदार uniform पहने हुए कुछ कैदी अंदर दाखिल हुए जिनके सिर मूंदे हुए थे और सेहत भी ठीक लग रही थी। उन लोगो के पीछे हम एक shed में पहुंचे।
जो ख़ास कैदी हमे अपने साथ ले गए इन्हे capos कहा जाता था, ये लोग camp में guard की हैसियत से रहते थे। आम कैदियों की तरह इन्हे भूखा प्यासा नहीं रखा जाता था। इनमे से कई तो ऐसे भी थे जो यहाँ रहकर पहले की जिंदगी से ज्यादा खुश थे। ये सारे capos असली guards से ज्यादा जल्लाद होते थे।
हर shed में 200 कैदियों को रखा गया था। हमारी train में कुल 1,500 मुसाफिर थे जो यहाँ लाये गए थे। हम सब यहाँ सही सलामत रहने की दुआ कर रहे थे।
हमे अपना सामान train में छोड़ने का हुक्म मिला फिर हमे line में खड़ा किया गया। आदमी और औरतों की अलग अलग line बनायीं गयी। एक officer ने हम सबकी जांच की। वो हमको left या right में जाने का इशारा कर रहा था। हम में से ज्यादातर left की तरफ रखे गए।
उस एक इशारे ने हमारी जिंदगी का फैसला कर दिया था। मुझे किसी ने कान में बताया की जो में भेजे गए है उनसे काम right लिया जायेगा और जो left में वे बीमार और बेकार है। जब मेरी बारी आई तो मैंने हर तरह से चुस्त-दुरुस्त देखने की कोशिश की, और मेरे सामने खड़े आदमी ने मुझे right का इशारा दे दिया।
Left का मतलब था मौत, और हममे से 90 % लोगो की किस्मत का फैसला यही था, और कुछ ही घंटो बाद उन्हें station से crematorium में ले जाया गया जहाँ एक ईमारत थी जिसके बड़े दरवाजे में अलग अलग यूरोपियन भाषाओ में “bath” लिखा हुआ था। हर कैदी को एक छोटा साबुन तो दिया गया मगर shower में पानी नहीं था।
उसी शाम मुझे सच्चाई पता चली जब मैं एक दूसरे कैदी से अपने साथी के बारे में पूछताछ की जिसे left में जाने का order मिला था। उस कैदी ने चिमनी की तरफ इशारा करते हुए कहा “तुम्हारा दोस्त वहां से ज़न्नत की सेर करेगा।”
हाँ, मेरा दोस्त सच में ज़न्नत पहुँच गया था क्यूंकि Germans ने उसे जिन्दा ही जला डाला था उस gas chamber के अंदर। जो लोग कमज़ोर थे उन्हें camp के लिए बोझ समझा गया और उनकी किस्मत में मौत लिख दी गयी थी। यही उनका तरीका था और इसीलिए वहां इंसानी जान की कोई कीमत नहीं थी।
हम में से जो लोग right में गए उन्हें guards अपने साथ काम पर लेकर गए। हमे cleaning station की तरफ भागने को कहा गया। हम camp के चारो तरफ लगी कांटेदार तारो के पास से गुज़रे। इन कांटेदार तारो में बिजली दौड़ता था। Guards ने हम सब को बारी-बारी जांचा। उनकी आँखे हमारी घड़ियों और जेवरों पर थी। फिर हमे एक कम्बल दिया गया जिसमे हमे अपनी सभी चीज़ें डालनी थी। कुछ लोगो ने अपने medal या शादी की अंगूठी रखने की गुहार की मगर किसी को भी अपने पास कुछ भी रखने की इज़ाज़त नहीं मिली।
फिर एक guard ने चिल्लाकर 2 minute के अंदर सभी को अपने कपडे उतारने को बोला सिर्फ जूते छोड़कर। हम सबको वही पर line में खड़े खड़े नंगे कर दिए गए। जिन्होंने belt नहीं उतारी थी guards ने उनपर कोड़े बरसाए।
हमे एक कमरे में ले जाकर shave कराया गया। हमारे बदन पर एक बल तक नहीं छोड़ा गया हम खुद को ही नहीं पहचान पा रहे थे। उसके बाद फिर से हम सब line में लगे नहाने के लिए। ये गनमत थी की sprays से सच में पानी आ रहा था न की कोई gas.
मेरे बदन में चश्मे के अलावा और कुछ नहीं था एक बाल तक नहीं। हम खुद पुरे नागनेपन के साथ देख रहे थे। इसके सिवा और चारा भी क्या था हमारे पास ? बदन पर एक भी रेशा नहीं, अपनी कोई भी चीज अपने पास नहीं, अपने नंगेपन को छुपाने की खातिर बदन के बाल तक नहीं। हम नंगे गीले यूँ ही खड़े थे “अब आगे क्या होगा” यही सोचते हुए।
Phase दो: routine और निराशा से भरे दिन
उस रात मैंने दूसरे आठ कैदियों के साथ आठ feet की एक कोठरी में रहा। वही हमारा बिस्तर था जिसमे हम सब एक दूसरे से चिपके हुए लेट गए थे। हमे आठ लोगो को ओढ़ने के लिए दो कम्बल दिए गए थे। ये बात झूठ है जब कोई बोलता है की वो इसके या उसके बगैर नहीं सो सकता। हम उस तंग जगह पर किसी तरह नींद भर सोने की जद्दोजहद कर रहे थे। अगले कुछ घंटो के लिए हम दर्द से आज़ाद थे।
हम बगैर दांत मांजे अपने दिन की शुरुवात किया करते थे। महीनों तक हमे कपडे बदलने का मौका नहीं मिलता था, क्यूंकि बुरे तरीकेसे फटे हुए कपड़ों के अलावा हमारे पास और कुछ नहीं था। नहाने भी हमे मुश्किल से ही नसीब होता था। काम करते करते हमारे हाथो पर छले पड़ जाते थे, लेकिन दवा का कहीं कोई नाम तक नहीं था। सही कहता था दोस्त की इंसान कुछ भी झेल सकता है।
बिजली के तारो को छु कर खुदखुशी ख्याल हम सबके ज़ेहन में आया था। हमे हर वक्त ये डर सताता था की कहीं हमे भी बाकियों की तरह gas chamber में ले जाकर जिन्दा न जला दे। ऊपर से guards अक्सर बिना वजह हमे पीटा करते थे। हम जिंदगी से पूरी तरह नाउम्मीद हो चुके थे। हमे हर वक्त ऐसा लगता था की मौत हमारे सर पर नाच रही है और कब किस वक़्त हमे दबोच लेगी कुछ पता नहीं।
हमारे साथ एक दूसरे doctor भी था जो मेरा ही साथी था। वो अपने कोठरी से बचकर हमारी कोठरी में आ गया था। वो हमारे Auschwitz पहुंचने के हफ्ते भर पहले ही आया था, और उसी ने हमे बताया की “अगर जिन्दा रहना चाहते हो तो एक ही रास्ता है, यहाँ काम करने के लिए खुद को fit दिखाते रहो” यहाँ ऐसे बहुत से कैदी है जो बीमार है, बहुत निराश और दुखी लगते है, ऐसे लोगों को gas chamber में ले जाकर मार दिया जाता है, इन्हे ये लोग “मोसलेमस” कहकर बुलाते है।
Concentration camp में रहते हुए हम सब अपनी जिंदगियों से बहुत मायूस हो चुके थे। बचने का कोई रास्ता नज़र नहीं आता था। जिस दिन से हम camp में आये थे, अपने घर और परिवार वालों की याद में तड़प रहे थे।
जो हमने देखा वो हमारे लिए एक भयानक सपने की तरह था, बेहद घिनौना और दयावना। मगर आने के बाद धीरे-धीरे हम उन सब चीजों के आदि होते गए। हम इतने निराश थे जिंदगी से की अब हमे कुछ भी महसूस नहीं होता था।
एक भिखारी के कपडे भी शायद हमसे बेहतर होते होंगे। जो uniform हमे मिली थी वो सिर्फ चेथरे थे और कुछ नहीं। हमे रहने के लिए कोठरिया दी गयी थी। अगर कोई दूसरी कोठरी में जाता दिखता तो उसे कड़ी सजा मिलती थी। उन कोठरियों में हम अपने सारे काम करते थे, खाना, सोना यहाँ तक की टट्टी भी। हमारी कोठरियां एक तरह नर्क से भी बदतर हालत में थी।
जो नए कैदी लाये गए उनकी हालत और भी ख़राब थी। उनसे लैट्रिन साफ़ करवाई जाती थी। मना करने की कोई गुंजाइश नहीं थी, जो मना करता उसके मुंह पर टट्टी मल दी जाती, और जो उस गंदगी को हटाने की कोशिश करता, उसे capos की मार झेलनी पड़ती थी।
अक्सर कैदिओं की punishment parades निकाली जाती थी। उन्हें camp के चारो और कई-कई घण्टे guards की मार खाते हुए march करना होता था। एक 12 साल के लड़के को सजा के तौर पर बर्फ पर नंगे पैर खड़े होने का हुक्म मिला। बहुत देर तक उसी हालत में रहने से उसे frostbite और gangrene हो गया था।
ये हर रोज की बात थी जब हम लोगो को दर्द से तड़पते हुए और मरते देखते थे। ये अब हमे बेहद आम लगने लगा था, हमे अब कुछ भी महसूस नहीं होता था। न कोई दर्द, न दुःख, न दया और न ही हमारे मन में डर था। गहरे सदमे की हालत में हम इन सब इंसानी ज़ज़्बातों को भूल चुके थे, सिर्फ एक खालीपन था जो हमारे भीतर बसा हुआ था। ऐसा खालीपन जिसमें अब ज़ज़्बातों के लिए कोई जगह नहीं थी।
मुझे एक बार typhus के बीमार कैदिओं की कोठरी में रखा गया। उनकी हालत बहुत ख़राब थी। सबको तेज बुखार चढ़ा हुआ था और वो बहुत ज़ोरो से कांप रहे थे। कई लोग तो मेरी आँखों के सामने ही मर गए। हर मौत के बाद दूसरे कैदी मरने वाले की लाश पर टूट पड़ते थे। कोई मरे हुए का coat झपट लेता था तो कोई उसके जूते और कोई उस कैदी का बचा हुआ खाना खा जाता था।
सिर्फ दो घंटे पहले ही तो मैं उस आदमी से बाते कर रहा था और अब उसके मरते ही वहां हड़बड़ मच गयी। उसकी चीजों को हथियाने की छीन-झपट चल रही थी। उस शोरगुल के बीच मैं भी चुपचाप अपना soup पीटा रहा….
guards हम लोगो को जब चाहे तब पीट देते थे। एक दिन जब मैं railway track पर काम कर रहा था तो बड़ी ज़ोर का बर्फीला तूफ़ान आया। मैं झुककर दो पल के लिए सुस्त ही रहा था की वहां खड़े एक guard की नज़र मुझ पर पड़ी। उसे न जाने क्या लगा की उसने एक पत्थर उठाकर मुझ पर फेंका। मुझे उस दिन अपनी हालत उस जानवर जैसी लगी जो खेतो में काम करता है।
मुझे एक बार सर पर सिर्फ इस वजह से दो बार मारा गया क्यूंकि मेरे पीछे वाला कैदी line पर नहीं चल रहा था। ऐसे मौको पर मार खाने से उतनी तकलीफ नहीं होती थी जितना बेइज़्ज़ती और ज़ुल्म की इंतेहा से होती थी। हर वक़्त बेवजह की मार ने हमारे आत्म सम्मान का गला घोंट दिया था। हमारी इंसानियत छीनकर जानवर बनाया जा रहा था।
लगभग हम सभी को बहुत ज्यादा काम करने की वजह से edema हो गया था। हम सबके हाथ-पैर बुरी तरह सूजे हुए थे। हमारी skin इतनी सख्त हो चुकी थी की घुटनो को मोड़ने में हमे तकलीफ होती थी। पैर इतने बड़े हो चुके थे की उनमे जूते नहीं आ पाते थे। मगर जूते पहनना हमारी मज़बूरी थी क्यूंकि marching के लिए और बर्फ में काम करते वक्त हम नंगे पाँव नहीं रह सकते थे। बहुत दफा ऐसा भी हुआ की marching करते हुए कोई कैदी बर्फ में फिसल पड़ा और पीछे के बाकि लोग उस पर गिर परे। ऐसे में guard एक पल की भी देरी नहीं करता था अपने rifle के पिछले हिस्से से हमे मारने में।
हमे कहा जाता की normal labour हमसे भी कम वक़्त में बहुत सारा काम कर लेते है। मगर क्या normal labour को हमारी तरह ही रोटी का छोटा सा टुकड़ा और पतला soup मिलता था? वे हमारी तरह अपने परिवार और घर के लिए नहीं तड़पते है और न ही उन्हें बात-बात पर जानवरो की तरह पीटा जाता है।
हमारी ये उदासी एक तरह से हमारा self defence थी। हमे सिर्फ किसी तरह जिन्दा रहने की चाह थी। हम में से हर कोई अक्सर दिन ढल जाने के बाद यही कहते की “चलो, आज का दिन दिन भी बीत गया।”
अब हमारे ख्याल और ज़ज़्बात सिर्फ जिन्दा रहने और खूख प्यास मिटाने तक सिमित थे। जो भी कैदी सोता था तो सिर्फ रोटी, cake और गर्म पानी से नहाने के सपने देखता था। काम के दौरान guards की आँख बचाकर अक्सर हम सब अपने पसंदीदा खाने का ज़िक्र किया करते। हम अक्सर आपस में recipes share किया करते थे। अपनी आज़ादी की उम्मीद दिल में लिए हम इस कैद से छूटने के बाद re-union के planning भी करते थे। सभी लोग उसी दिन का इंतज़ार कर रहे थे जब वे यहाँ से रिहा होकर अपने अपने घर लौटेंगे और अपने परिवार वालो के साथ बैठकर हंसी-ख़ुशी खाना खाएंगे।
हमारे ये खूबसूरत अपना हमारी इस रोटी के चंद टुकड़ो और पानी से बने soup की हकीकत से बहुत दूर था। कभी कभी हमे cheese और margarine खाने को मिल जाता था, और कभी घटिया किस्म के सॉसेज या पतला सा जाम भी। हमारी भारी भरकम काम के हिसाब से ये खुराक बहुत हलकी थी, खासकर तब जब हमारे पास पहनने को सिर्फ चीथड़े थे।
शरीर से जब सारा fat खत्म हो जाता है तो शरीर खुद को खाने लगता है। भरपूर खुराक न मिलने पर muscles गायब हो जाती है। जब बाहर से protein नहीं मिलता तो शरीर अपने अंदर जमा fat को ही जलाने लगता है। हम हर दिन खुद को हड्डियों का ढांचा बनते हुए देख रहे थे। हमारी हालत ये थी की कोठरी में भुखमरी से अब किसकी मौत होगी, ये हम यकीन के साथ कह सकते थे। रात को सोने से पहले मैं खुद से ही कहता था “ये शरीर, मेरा ये शरीर अब बस पिंजर बनकर रह गया है। मैं क्या था और अब क्या हो गया हूँ ”
हर सुबह सूरज निकलने ने से भी पहले तेज़ आवाज़ में तीन सीटियां बजायी जाती जिनकी आवाज़ सुनते ही हमे उठना होता था। हम जैसे तैसे अपने पैरो पर खड़े हो जाते थे, काम पर जाने के लिए सूजे हुए पैरो के साथ गीले जूते पहनने की जद्दोजहद करते हुए। फिर उसी तरह लड़खड़ाते कदमो के साथ बाहर निकल आते बर्फ पर march करने के लिए।
हर रोज railway track खोदते हुए हम अपने दोपहर के खाने का बेसब्री से इंतजार करते थे की कब siren बजे और कब हमे खाने को मिले। हमे सुबह 9:30 से 10:00 बजे के बीच खाना दिया जाता था। यही हमारे पूरे दिन का सबसे ख़ास वक़्त होता था। सब इतने भूखे होते थे की हममें से कुछ लोग तो पलक झपकते ही पुरे खाना खा जाते थे। मगर मैं खाने का एक हिस्सा बचाकर अपनी जेबो में भर लेता और फिर उसे थोड़ा-थोड़ा करके खाया करते था।
मेरा तबादला Auschwitz से dachau के concentration camp में कर दिया गया। वहां हल 2,000 कैदी थे। जाते वक़्त हमारी train Vienna से होकर गुज़री। वही शहर, जहाँ मेरा घर था।
Prison चार के अंदर हम सब कुल 50 लोग थे। हमे ठूंस कर डब्बे में भरा गया था जिसमे एक भी कैदी नहीं थी। हममे से कुछ लोग जमीन पर बैठ गए जबकि कुछ पुरे सफर में खड़े रहे। उस डब्बे में दो बड़े छेद थे जिससे हमे बाहर का नज़ारा दिख रहा था।
Train की पटरियां मेरे वतन से होकर गुज़री थी और उस घर के पास से भी जहाँ कभी मैं रहा करता था। अपने घर की याद आते ही मैं तड़प उठा, मैंने बाकियों से मिन्नत की कि वे मुझे थोड़ी सी जगह दे दे ताकि छेद में से मैं अपना घर देख सकू। मगर मेरी बातो और मेरे ज़ज़्बात का उनपर कोई असर नहीं हुआ। किसी को भी कोई फर्क नहीं पड़ता था की मैं अपना घर देख सकू कुछ पल के लिए ही सही। मगर उन लोगो ने मुझे छेद तक पहुँचने की जगह नहीं दी। बल्कि उनमे से एक कैदी ने ताना मारा “तुम इतने साल तक यहाँ रह चुके हो ? अच्छा, फिर तो तुम पहले ही इस जगह को अच्छी तरह देख चुके होंगे।”
जीवन का अर्थ समझने की कोशिश करता इंसान
1945 की सर्दियों से लेकर बसंत का मौसम आने तक Auschwitz camp में typhus कहर फैला हुआ था। लगभग सभी कैदी इसका शिकार बन चुके थे। कई लोग इस बीमारी से मर भी गए थे। जो बीमार थे उनके लिए अलग quarters का इंतज़ाम किया गया था मगर वहां किसी भी तरह की दवा या कोई doctor नहीं था।
मैं भी इस बीमारी के चपेट में आ गया था। इसके असर से बचने के लिए मैं सोते नहीं था बल्कि अपने दिमाग में lectures तैयार करता रहता था। जिस दिन हमे camp लाया गया था उस वक़्त मैंने अपनी सभी manuscript वहां जमा करवा दी थी। वहां जमा करवा दी थी। खुद को busy रखने के लिए मैं कागज़ के छोटे-छोटे टुकड़ो पर लिखा करता था।
कोई कैदी भले ही शारीरिक और मानसिक तौर पर टूट जाये मगर उसकी आत्मा को आप मार नहीं सकते। विस्वास में वो ताकत है जो हमे बदतर हालत में भी जिन्दा रखती है। हम में से कुछ लोग दिन भर काम के बाद अपनी कोठरी में prayer करने के लिए इकट्ठा होते थे।
Camp survival के बारे में एक गलत धारणा है, वो ये की जो survive कर लेते है वे शरीर से मजबूत होते है मगर ये सच नहीं है। यहाँ वही survive कर सकता है जिसकी रूह ताकतवर होती है। जो उपरवाले पर पूरा विश्वास रखता है की उसके घर में देर है अंधेर नहीं। Sensitive, intellectuals और thinkers जैसे लोग ही अकेलापन और निराशा के पलो में खुद को संभाल सकते है। क्यूंकि उन्हें अपनी आत्मा की गहराइयों में सुकून का एहसास होता है। भले ही बाहर से उन्हें दर्द या तकलीफ झेलनी पड़े मगर उनके उनकी आत्मा आकाश में उड़ते पंछियों की तरह आज़ाद होती है।
जब कोई तुमसे तुम्हारी हर चीज़ छीन ले, तुम्हारा काम, तुम्हारी खुशियां, तुम्हारा परिवार यहाँ तक की तुम्हारी पहचान भी, तो आप कैसे जिंदगी के मायने ढूंढ सकते हो ? जब सर पर हर वक़्त मौत का खतरा मंडरा रहा हो तो शरीर भी सूख कर कांटे होने लगता है। ऐसे में कहीं भी उम्मीद की किरण नज़र नहीं आती है। तो ऐसे जिंदगी के मायने ही क्या है ? एक camp prisoner ऐसी जिंदगी से भला क्या उम्मीद कर सकता है ? क्या उसके पास अब भी कुछ बचा है जो उसके जिन्दा रहने की वजह बन सके ? या इससे बेहतर तो वो हार मान कर जीने की आशा ही छोड़ दे ?
जैसा मैंने कहा की मैं camp में कोई psychiatrist नहीं था पर मैंने वहां रहते हुए उन कैदियों को बहुत करीब से देखा था। उनके हर psychological reaction को बारीकी से समझा था। हमारे रोज़ मर्रा के भूख,ज़ुल्म और मौत की जंग से मैं अपनी logo therapy की पढाई भूल गया था, और मैंने ये भी जान लिया था की ये प्यार भरी यादे और कुदरत की ख़ूबसूरती का ही कमाल है जो ऐसी ज़िल्लत भरी जिंदगी में भी कैदियों को जीने की एक वजह दे रही थी।
मैंने अपनी कोठरी में बैठकर इस किताब का manuscript लिखना शुरू कर दिया था। कई बार जरुरत पड़ती तो मैं अपने साथियों की counselling भी करता था। आखिर हम सब आज़ादी की उम्मीद का चिराग अपने दिलों में जलाये बैठे थे। यहाँ से निकल कर दुबारा जिंदगी जीने का ख्वाब हम सब देखते रहते थे और अगर आज़ाद होने के बाद कुछ न बन सकता तो जिंदगी की नई शुरुवात करने का सपना भी हमारे मन में था, और सबसे जरुरी बात तो ये थी की हम अभी जिन्दा थे, हमारी सांसे सही सलामत थी, और जब तक जिंदगी है तब तक उम्मीद है।
एक दिन सुबह बहुत जल्द ही हम अपने काम पर निकल गए थे। Guards हम पर चिल्ला रहे थे “टुकड़ी, आगे बढ़ो! बाए-2-3-4, बाए-2-3-4, बाए-2-3-4, बाए-2-3-4..” जो धीरे चल रहे थे उन्हें लाते पड़ रही थी। हम पानी से भरे हुए गड्ढो और बड़े-बड़े पथरो से टकराते हुए उस अँधेरे में चलते रहे।
तभी अचानक मेरे आगे वाला आदमी मेरे कान में फुसफुसाया “क्या होगा अगर हमारी बीवियां हमे ऐसे देख ले! यही अच्छा होगा अगर उन्हें ये सब पता ही न चले।”
उस आदमी की बात सुनकर मुझे मेरी पत्नी की याद आ गयी। मैंने आसमान की तरफ देखा, उसका चेहरा मेरी आँखों के सामने तैरने लगा सूरज की पहली किरण के साथ उसकी मुस्कुराहट मेरे चेहरे पर फ़ैल गयी थी।
उस दिन पहली बार मुझे प्रेम भरी कविताओं और गानो का अर्थ समझ आया।
“इंसान की मुक्ति प्रेम में है, केवल प्रेम में”
मैं वो आदमी था जिसके पास कुछ नहीं था, जो इस वीराने में इतनी तकलीफे झेल रहा था, फिर भी मेरी प्यारी बीवी की याद ने उस एक पल को खुशियों से भर दिया था।
मैं दिल ही दिल उससे बाते करने लगा। उसके बारे में सोचते हुए मैं सवाल पूछता रहा वो उन सवालों के जवाब देती रही। मेरे आगे चलते हुए लोग गिर रहे थे, guards से कोड़े खा रहे थे मगर मैं अपने ख्यालों में डूबा था।
जल्द ही हम worksite पर पहुंचे। सब अच्छे tools लेने के लिए कोठरियों की तरफ भाग रहे थे। हमने काम शुरू कर दिया। पीछे से Peeche se guards का चिल्लाना जारी था – ज़रा तेज हाथ नहीं चला सकते क्या, जनवरो….
मैं अपनी पत्नी के ख्यालो में खोया रहा। वो जिन्दा भी है या नहीं, ये तक मुझे मालूम नहीं था। मगर मेरी उम्मीद बरकरार रखने के लिए सिर्फ उसकी याद ही काफी नहीं थी। मेरी रूह, मेरा अस्तित्व, उसके प्यार से सरोबर था, फिर चाहे वो मेरे पास थी या दूर, जिन्दा थी या नहीं इस बात से क्या फर्क पड़ता था। जिसे हम बहुत चाहते है, उसका प्यार ही उसे हमारी यादो में जिन्दा रखता है हमेशा हमेशा के लिए।
यही तो logotherapy का मतलब था। ये बहुत जरूरी था की आज़ाद होने के बाद भी एक prisoner अपने जिंदगी के सही मायने तलाश करे। अपने होने का अर्थ समझे, चाहे उसका कोई भी अपना जिन्दा न बचा हो। चाहे वो अकेला हो। चाहे उसका घर उजाड़ चूका हो और उसकी रोज़ीरोटी चीन गयी हो। फिर भी उसे जीने की नयी वजह ढूंढनी है। चाहे ये जिंदगी हमे कुछ भी दे, हमे अपने जीने की असली वजह ढूंढनी ही होगी।
Auschwitz से dachau जाते हुए हमने कुदरत को जी भर के निहारा। हमने हरे-भरे पहाड़ देखे। सूरज हमारी train की बंद खिड़कियों में भी पूरी तरह रोशन था। हमने आसमान को अनेक रूपों में देखा नीले से लाल रंग बदलते हुए। कुदरत को इतना खूबसूरत हमने पहले कभी नहीं पाया था। कुछ पलों के लिए ही सही पर हम इन नाज़ारों को देखकर बेहद खुश थे। मेरा एक साथी ने ख़ुशी से बोला “ये दुनिया कितनी सुन्दर है!”
Phase 3: आज़ादी
जो कैदी बीमार थे उनपर सिर्फ इतना रहम किया जाता था की वे एक कोठरी में जाकर सारा दिन boards पर लेते रहते थे। उनसे कोई काम नहीं लिया जाता था। इसके बदले में उन्हें बाकियों के मुकाबले ना सिर्फ घातिया दर्ज़े का खाना दिया जाता बल्कि कोई दवा या दूसरी medical supply भी नहीं मिलती थी।
एक doctor ने typhus के रोगियों के इलाज़ में मेरी मदद मांगी। मुझे bavaria में बीमार लोगो के camp में भेजा गया। वहां मुझे 50 मरीज़ो से भरे हुए एक कोठरी में मदद के लिए रखा गया। वे सब बुखार से तप रहे थे और अपने होश में नहीं थे।
अपने कोठरी के लिए medical supply लाना भी मेरा ही काम था, जो केवल 10 बुखार की गोलिया थी। जो बहुत serius होते थे केवल उन्हें ही aspirin की आधी गोली दी जाती थी। लाइलाज मरीज़ो के लिए कोई दवा नहीं थी।
मैं हर बीमार कैदी की नब्ज़ check करता था। अपना round पूरा करने के बाद मैं एक कोने में बैठ जाता था जहाँ से मुझे landscape नज़र आया करता। मेरे चारो तरफ कीड़ो से भरी हुई लाशें पड़ी रहती थी मगर मैं बाहर के नज़ारे देखता हुआ उन लम्हो में खो जाता था।
Concentration camp में हालात बद से बदतर होते जा रहे थे। कुछ कैदी अपनी भूख मिटाने के लिए नरभक्षी बन चुके थे। हम लड़ाई के मैदान में खड़े थे।
उसी दौरान मैंने अपने एक साथी के साथ मिलकर भागने की कोशिश की। Camp के बाहर उसका एक साथी हमे नकली documents और uniforms के साथ मिलने वाला था जिससे हम वहां से निकल सके। हम कुछ एक सामान चुराने के लिए अपनी कोठरी में वापस आये। मैंने एक bag में toothbrush, खाना खाने का बर्तन और फटे हुए दस्ताने दाल लिए।
पहली कोशिश में ही मैं पछतावे से भर गया। मैं ऐसे कैसे अपने बीमार साथियो को छोड़ सकता था। मैंने आखिरी बार एक round लगाने का फैसला किया और जब मैं round लगा रहा था तो उनमे से एक बीमार कैदी ने पूछा “क्या तुम भी बाहर निकल रहे हो ?”
मैंने उसकी आँखों में गहरी उदासी और ढेर सारा दर्द देखा। मैंने बाहर इंतज़ार कर रहे अपने साथी से कहा की मैं नहीं भाग पाउँगा। लेकिन camp में मेरा आखिरी दिन भी आया जब battlefront हम तक पहुंच गया था। सारे guards और capos भाग चुके थे। सभी कैदियों को बड़ी तादाद में वहां से ले जाया जा रहा था। सबको सूरज डूबने से पहले वहां से निकलना था क्योंकि वे लोग पूरे camp जलाने वाले थे।
बस केवल वही लोग camp में बच गए थे जो बीमार थे। वे अभी भी कोठरियों में बुखार और बेहोशी की हालत में पड़े हुए थे। मैं और मेरा साथी वहां से निकलने के लिए तैयार थे। हमे तीन लाशो को camp के बाहर दफ़नाने का आदेश दिया गया। हम दोनों बारी बारी से अपना rucksacks ले आये।
हम भागने ही वाले थे की तभी camp के gate खुले। बड़ा सा red cross के झंडा वाली एक car अंदर दाखिल हुई। ये international red cross का delegation था। उन्होंने कहा की हम सब अब सुरक्षित है। सबको दवाईया और cigarettes बांटी गयी।
सबको वहां से बाहर निकाला जा रहा था। मगर मैं और मेरा साथी पीछे छूट गए थे। हम typhus के मरीज़ो के साथ कोठरी में रुके रहे। आधी रात को doctors आये और चिल्लाये की हम खुद को cover कर ले। हमारे gunshots, canon और rifles की आवाज़े सुनाई पड़ रही थी। हम जंग के मैदान के बीचो बीच थे। मगर सुबह की पहली किरण के साथ ही सब कुछ थम गया था। Camp के बाहर एक सफ़ेद झंडा फहरा दिया गया था। मेरा number 119,104 के सफर का वो आखिरी दिन था।
तो दोस्तों आपको आज का हमारा ये समरी (Man’s Search for Meaning Book Summary in Hindi) कैसा लगा नीचे कमेंट करके जरूर बताये, और इस समरी (Man’s Search for Meaning Book Summary in Hindi) को अपने दोस्तों के साथ शेयर करना न भूले।
Kitne vive aate hai in sb ko
Haan Ji, Mayuri ji bilkul sahi keh rahe hain aap. aur ise padhne ke liye apko bhut bhut dhanyavad. aap aur bhi book summary padh sakte hain humare.