श्रीमद् भगवद्-गीता (केवल हिंदी अर्थ)

श्रीमद्भगवद्गीता में कुल 18 अध्याय हैं और 18 अध्यायों में कुल 700 श्लोक हैं। उनमें से 574 श्लोक अकेले परम भगवान् श्री कृष्ण के हैं और अर्जुन के 84 श्लोक जहाँ अर्जुन परम् श्री कृष्ण को अपना सवाल पूछते हैं एवं संजय के 41 श्लोक हैं और 1 श्लोक धृतराष्ट्र के हैं। यह एक सनातन सत्य को आलोकित करने वाली ग्रन्थ हैं, जो स्ययं परम भगवान् श्री कृष्ण की वाणी (आदेश-उपदेश) हैं।

श्रीमद् भगवद्-गीता (Shrimad Bhagwat Geeta)

अध्याय 1: कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में सैन्य निरीक्षण

शक्तिशाली योद्धा अर्जुन युद्धाभिमुख विपक्षी सेनाओं में अपने निकट सम्बन्धियों, शिक्षकों तथा मित्रों को युद्ध में अपना- अपना जीवन उत्सर्ग करने के लिए उद्यत देखता है। वह शोक तथा करुणा से अभिभूत होकर अपनी शक्ति खो देता है, उसका मन मोहग्रस्त हो जाता है और वह युद्ध करने के अपने संकल्प को त्याग देता है।

श्लोक 1: धृतराष्ट्र ने कहा—हे संजय! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में युद्ध की इच्छा से एकत्र हुए मेरे तथा पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया?

श्लोक 2: संजय ने कहा—हे राजन्! पाण्डुपुत्रों द्वारा सेना की व्यूहरचना देखकर राजा दुर्योधन अपने गुरु के पास गया और उसने ये शब्द कहे।

श्लोक 3: हे आचार्य! पाण्डुपुत्रों की विशाल सेना को देखें, जिसे आपके बुद्धिमान् शिष्य द्रुपद के पुत्र ने इतने कौशल से व्यवस्थित किया है।

श्लोक 4: इस सेना में भीम तथा अर्जुन के समान युद्ध करने वाले अनेक वीर धनुर्धर हैं—यथा महारथी युयुधान, विराट तथा द्रुपद।

श्लोक 5: इनके साथ ही धृष्टकेतु, चेकितान, काशिराज, पुरुजित्, कुन्तिभोज तथा शैब्य जैसे महान शक्तिशाली योद्धा भी हैं।

श्लोक 6: पराक्रमी युधामन्यु, अत्यन्त शक्तिशाली उत्तमौजा, सुभद्रा का पुत्र तथा द्रौपदी के पुत्र—ये सभी महारथी हैं।

श्लोक 7: किन्तु हे ब्राह्मणश्रेष्ठ! आपकी सूचना के लिए मैं अपनी सेना के उन नायकों के विषय में बताना चाहूँगा जो मेरी सेना को संचालित करने में विशेष रूप से निपुण हैं।

श्लोक 8: मेरी सेना में स्वयं आप, भीष्म, कर्ण, कृपाचार्य, अश्वत्थामा, विकर्ण तथा सोमदत्त का पुत्र भूरिश्रवा आदि हैं जो युद्ध में सदैव विजयी रहे हैं।

श्लोक 9: ऐसे अन्य अनेक वीर भी हैं जो मेरे लिए अपना जीवन त्याग करने के लिए उद्यत हैं। वे विविध प्रकार के हथियारों से सुसज्जित हैं और युद्धविद्या में निपुण हैं।

श्लोक 10: हमारी शक्ति अपरिमेय है और हम सब पितामह द्वारा भलीभाँति संरक्षित हैं, जबकि पाण्डवों की शक्ति भीम द्वारा भलीभाँति संरक्षित होकर भी सीमित है।

श्लोक 11: अतएव सैन्यव्यूह में अपने-अपने मोर्चों पर खड़े रहकर आप सभी भीष्म पितामह को पूरी-पूरी सहायता दें।

श्लोक 12: तब कुरुवंश के वयोवृद्ध परम प्रतापी एवं वृद्ध पितामह ने सिंह-गर्जना की सी ध्वनि करने वाले अपने शंख को उच्च स्वर से बजाया, जिससे दुर्योधन को हर्ष हुआ।

श्लोक 13: तत्पश्चात् शंख, नगाड़े, बिगुल, तुरही तथा सींग सहसा एकसाथ बज उठे। वह समवेत स्वर अत्यन्त कोलाहलपूर्ण था।

श्लोक 14: दूसरी ओर से श्वेत घोड़ों द्वारा खींचे जाने वाले विशाल रथ पर आसीन कृष्ण तथा अर्जुन ने अपने-अपने दिव्य शंख बजाये।

श्लोक 15: भगवान् कृष्ण ने अपना पाञ्चजन्य शंख बजाया, अर्जुन ने देवदत्त शंख तथा अतिभोजी एवं अतिमानवीय कार्य करने वाले भीम ने पौण्ड्र नामक भयंकर शंख बजाया।

श्लोक 16-18: हे राजन्! कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर ने अपना अनंतविजय नामक शंख बजाया तथा नकुल और सहदेव ने सुघोष एवं मणिपुष्पक शंख बजाये। महान धनुर्धर काशीराज, परम योद्धा शिखण्डी, धृष्टद्युम्न, विराट, अजेय सात्यकि, द्रुपद, द्रौपदी के पुत्र तथा सुभद्रा के महाबाहु पुत्र आदि सबों ने अपने-अपने शंख बजाये।

श्लोक 19: इन विभिन्न शंखों की ध्वनि कोलाहलपूर्ण बन गई जो आकाश तथा पृथ्वी को शब्दायमान करती हुई धृतराष्ट्र के पुत्रों के हृदयों को विदीर्ण करने लगी।

श्लोक 20: उस समय हनुमान से अंकित ध्वजा लगे रथ पर आसीन पाण्डुपुत्र अर्जुन अपना धनुष उठा कर तीर चलाने के लिए उद्यत हुआ। हे राजन्! धृतराष्ट्र के पुत्रों को व्यूह में खड़ा देखकर अर्जुन ने श्रीकृष्ण से ये वचन कहे।

श्लोक 21-22: अर्जुन ने कहा—हे अच्युत! कृपा करके मेरा रथ दोनों सेनाओं के बीच ले चलें जिससे मैं यहाँ उपस्थित युद्ध की अभिलाषा रखने वालों को और शस्त्रों की इस महान परीक्षा में, जिनसे मुझे संघर्ष करना है, उन्हें देख सकूँ।

श्लोक 23: मुझे उन लोगों को देखने दीजिये जो यहाँ पर धृतराष्ट्र के दुर्बुद्धि पुत्र (दुर्योधन) को प्रसन्न करने की इच्छा से लडऩे के लिए आये हुए हैं।

श्लोक 24: संजय ने कहा—हे भरतवंशी! अर्जुन द्वारा इस प्रकार सम्बोधित किये जाने पर भगवान् कृष्ण ने दोनों दलों के बीच में उस उत्तम रथ को लाकर खड़ा कर दिया।

श्लोक 25: भीष्म, द्रोण तथा विश्व भर के अन्य समस्त राजाओं के सामने भगवान् ने कहा कि हे पार्थ! यहाँ पर एकत्र सारे कुरुओं को देखो।

श्लोक 26: अर्जुन ने वहाँ पर दोनों पक्षों की सेनाओं के मध्य में अपने चाचा-ताउओं, पितामहों, गुरुओं, मामाओं, भाइयों, पुत्रों, पौत्रों, मित्रों, ससुरों और शुभचिन्तकों को भी देखा।

श्लोक 27: जब कुन्तीपुत्र अर्जुन ने मित्रों तथा सम्बन्धियों की इन विभिन्न श्रेणियों को देखा तो वह करुणा से अभिभूत हो गया और इस प्रकार बोला।

श्लोक 28: अर्जुन ने कहा—हे कृष्ण! इस प्रकार युद्ध की इच्छा रखने वाले अपने मित्रों तथा सम्बन्धियों को अपने समक्ष उपस्थित देखकर मेरे शरीर के अंग काँप रहे हैं और मेरा मुँह सूखा जा रहा है।

श्लोक 29: मेरा सारा शरीर काँप रहा है, मेरे रोंगटे खड़े हो रहे हैं, मेरा गाण्डीव धनुष मेरे हाथ से सरक रहा है और मेरी त्वचा जल रही है।

श्लोक 30: मैं यहाँ अब और अधिक खड़ा रहने में असमर्थ हूँ। मैं अपने को भूल रहा हूँ और मेरा सिर चकरा रहा है। हे कृष्ण! मुझे तो केवल अमंगल के कारण दिख रहे हैं।

श्लोक 31: हे कृष्ण! इस युद्ध में अपने ही स्वजनों का वध करने से न तो मुझे कोई अच्छाई दिखती है और न, मैं उससे किसी प्रकार की विजय, राज्य या सुख की इच्छा रखता हूँ।

श्लोक 32-35: हे गोविन्द! हमें राज्य, सुख अथवा इस जीवन से क्या लाभ! क्योंकि जिन सारे लोगों के लिए हम उन्हें चाहते हैं वे ही इस युद्धभूमि में खड़े हैं। हे मधुसूदन! जब गुरुजन, पितृगण, पुत्रगण, पितामह, मामा, ससुर, पौत्रगण, साले तथा अन्य सारे सम्बन्धी अपना अपना धन एवं प्राण देने के लिए तत्पर हैं और मेरे समक्ष खड़े हैं तो फिर मैं इन सबको क्यों मारना चाहूँगा, भले ही वे मुझे क्यों न मार डालें? हे जीवों के पालक! मैं इन सबों से लडऩे को तैयार नहीं, भले ही बदले में मुझे तीनों लोक क्यों न मिलते हों, इस पृथ्वी की तो बात ही छोड़ दें। भला धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हमें कौन सी प्रसन्नता मिलेगी?

श्लोक 36: यदि हम ऐसे आततायियों का वध करते हैं तो हम पर पाप चढ़ेगा, अत: यह उचित नहीं होगा कि हम धृतराष्ट्र के पुत्रों तथा उनके मित्रों का वध करें। हे लक्ष्मीपति कृष्ण! इससे हमें क्या लाभ होगा? और अपने ही कुटुम्बियों को मार कर हम किस प्रकार सुखी हो सकते हैं?

श्लोक 37-38: हे जनार्दन! यद्यपि लोभ से अभिभूत चित्त वाले ये लोग अपने परिवार को मारने या अपने मित्रों से द्रोह करने में कोई दोष नहीं देखते किन्तु हम लोग, जो परिवार के विनष्ट करने में अपराध देख सकते हैं, ऐसे पापकर्मों में क्यों प्रवृत्त हों?

श्लोक 39: कुल का नाश होने पर सनातन कुल-परम्परा नष्ट हो जाती है और इस तरह शेष कुल भी अधर्म में प्रवृत्त हो जाता है।

श्लोक 40: हे कृष्ण! जब कुल में अधर्म प्रमुख हो जाता है तो कुल की स्त्रियाँ दूषित हो जाती हैं और स्त्रीत्व के पतन से हे वृष्णिवंशी! अवांछित सन्तानें उत्पन्न होती हैं।

श्लोक 41: अवांछित सन्तानों की वृद्धि से निश्चय ही परिवार के लिए तथा पारिवारिक परम्परा को विनष्ट करने वालों के लिए नारकीय जीवन उत्पन्न होता है। ऐसे पतित कुलों के पुरखे (पितर लोग) गिर जाते हैं क्योंकि उन्हें जल तथा पिण्ड दान देने की क्रियाएँ समाप्त हो जाती हैं।

श्लोक 42: जो लोग कुल-परम्परा को विनष्ट करते हैं और इस तरह अवांछित सन्तानों को जन्म देते हैं उनके दुष्कर्मों से समस्त प्रकार की सामुदायिक योजनाएँ तथा पारिवारिक कल्याण- कार्य विनष्ट हो जाते हैं।

श्लोक 43: हे प्रजापालक कृष्ण! मैंने गुरु-परम्परा से सुना है कि जो लोग कुल-धर्म का विनाश करते हैं, वे सदैव नरक में वास करते हैं।

श्लोक 44: ओह! कितने आश्चर्य की बात है कि हम सब जघन्य पापकर्म करने के लिए उद्यत हो रहे हैं। राज्यसुख भोगने की इच्छा से प्रेरित होकर हम अपने ही सम्बन्धियों को मारने पर तुले हैं।

श्लोक 45: यदि शस्त्रधारी धृतराष्ट्र के पुत्र मुझ निहत्थे तथा रणभूमि में प्रतिरोध न करने वाले को मारें, तो यह मेरे लिए श्रेयस्कर होगा।

श्लोक 46: संजय ने कहा—युद्धभूमि में इस प्रकार कह कर अर्जुन ने अपना धनुष तथा बाण एक ओर रख दिया और शोकसंतप्त चित्त से रथ के आसन पर बैठ गया।

अध्याय 2: गीता का सार

अर्जुन शिष्य-रूप में कृष्ण की शरण ग्रहण करता है और कृष्ण उससे नश्वर भौतिक शरीर तथा नित्य आत्मा के मूलभूत अन्तर की व्याख्या करते हुए अपना उपदेश प्रारम्भ करते हैं। भगवान् उसे देहान्तरण की प्रक्रिया, परमेश्वर की निष्काम सेवा तथा स्वरूपसिद्ध व्यक्ति के गुणों से अवगत कराते हैं।

श्लोक 1: संजय ने कहा—करुणा से व्याप्त, शोकयुक्त, अश्रुपूरित नेत्रों वाले अर्जुन को देख कर मधुसूदन कृष्ण ने ये शब्द कहे।

श्लोक 2: श्रीभगवान् ने कहा—हे अर्जुन! तुम्हारे मन में यह कल्मष आया कैसे? यह उस मनुष्य के लिए तनिक भी अनुकूल नहीं है, जो जीवन के मूल्य को जानता हो। इससे उच्चलोक की नहीं अपितु अपयश की प्राप्ति होती है।

श्लोक 3: हे पृथापुत्र! इस हीन नपुंसकता को प्राप्त मत होओ। यह तुम्हें शोभा नहीं देती। हे शत्रुओं के दमनकर्ता! हृदय की क्षुद्र दुर्बलता को त्याग कर युद्ध के लिए खड़े होओ।

श्लोक 4: अर्जुन ने कहा—हे शत्रुहन्ता! हे मधुसूदन! मैं युद्धभूमि में किस तरह भीष्म तथा द्रोण जैसे पूजनीय व्यक्तियों पर उलट कर बाण चलाऊँगा?

श्लोक 5: ऐसे महापुरुषों को जो मेरे गुरु हैं, उन्हें मार कर जीने की अपेक्षा इस संसार में भीख माँग कर खाना अच्छा है। भले ही वे सांसारिक लाभ के इच्छुक हों, किन्तु हैं तो गुरुजन ही! यदि उनका वध होता है तो हमारे द्वारा भोग्य प्रत्येक वस्तु उनके रक्त से सनी होगी।

श्लोक 6: हम यह भी नहीं जानते कि हमारे लिए क्या श्रेष्ठ है—उनको जीतना या उनके द्वारा जीते जाना। यदि हम धृतराष्ट्र के पुत्रों का वध कर देते हैं तो हमें जीवित रहने की आवश्यकता नहीं है। फिर भी वे युद्धभूमि में हमारे समक्ष खड़े हैं।

श्लोक 7: अब मैं अपनी कृपण-दुर्बलता के कारण अपना कर्तव्य भूल गया हूँ और सारा धैर्य खो चुका हूँ। ऐसी अवस्था में मैं आपसे पूछ रहा हूँ कि जो मेरे लिए श्रेयस्कर हो उसे निश्चित रूप से बताएँ। अब मैं आपका शिष्य हूँ और आपका शरणागत हूँ। कृपया मुझे उपदेश दें।

श्लोक 8: मुझे ऐसा कोई साधन नहीं दिखता जो मेरी इन्द्रियों को सुखाने वाले इस शोक को दूर कर सके। स्वर्ग पर देवताओं के आधिपत्य की तरह इस धनधान्य-सम्पन्न सारी पृथ्वी पर निष्कंटक राज्य प्राप्त करके भी मैं इस शोक को दूर नहीं कर सकूँगा।

श्लोक 9: संजय ने कहा—इस प्रकार कहने के बाद शत्रुओं का दमन करने वाला अर्जुन कृष्ण से बोला, “हे गोविन्द! मैं युद्ध नहीं करूँगा,” और चुप हो गया।

श्लोक 10: हे भरतवंशी (धृतराष्ट्र) ! उस समय दोनों सेनाओं के मध्य शोकमग्न अर्जुन से कृष्ण ने मानो हँसते हुए ये शब्द कहे।

श्लोक 11: श्री भगवान् ने कहा—तुम पाण्डित्यपूर्ण वचन कहते हुए उनके लिए शोक कर रहे हो जो शोक करने योग्य नहीं हैं। जो विद्वान् होते हैं, वे न तो जीवित के लिए, न ही मृत के लिए शोक करते हैं।

श्लोक 12: ऐसा कभी नहीं हुआ कि मैं न रहा होऊँ या तुम न रहे हो अथवा ये समस्त राजा न रहे हों; और न ऐसा है कि भविष्य में हम लोग नहीं रहेंगे।

श्लोक 13: जिस प्रकार शरीरधारी आत्मा इस (वर्तमान) शरीर में बाल्यावस्था से तरुणावस्था में और फिर वृद्धावस्था में निरन्तर अग्रसर होता रहता है, उसी प्रकार मृत्यु होने पर आत्मा दूसरे शरीर में चला जाता है। धीर व्यक्ति ऐसे परिवर्तन से मोह को प्राप्त नहीं होता।

श्लोक 14: हे कुन्तीपुत्र! सुख तथा दुख का क्षणिक उदय तथा कालक्रम में उनका अन्तर्धान होना सर्दी तथा गर्मी की ऋतुओं के आने जाने के समान है। हे भरतवंशी! वे इन्द्रियबोध से उत्पन्न होते हैं और मनुष्य को चाहिए कि अविचल भाव से उनको सहन करना सीखे।

श्लोक 15: हे पुरुषश्रेष्ठ (अर्जुन) ! जो पुरुष सुख तथा दुख में विचलित नहीं होता और इन दोनों में समभाव रहता है, वह निश्चित रूप से मुक्ति के योग्य है।

श्लोक 16: तत्त्वदर्शियों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि असत् (भौतिक शरीर) का तो कोई चिरस्थायित्व नहीं है, किन्तु सत् (आत्मा) अपरिवर्तित रहता है। उन्होंने इन दोनों की प्रकृति के अध्ययन द्वारा यह निष्कर्ष निकाला है।

श्लोक 17: जो सारे शरीर में व्याप्त है उसे ही तुम अविनाशी समझो। उस अव्यय आत्मा को नष्ट करने में कोई भी समर्थ नहीं है।

श्लोक 18: अविनाशी, अप्रमेय तथा शाश्वत जीव के भौतिक शरीर का अन्त अवश्यम्भावी है। अत: हे भरतवंशी! युद्ध करो।

श्लोक 19: जो इस जीवात्मा को मारने वाला समझता है तथा जो इसे मरा हुआ समझता है, वे दोनों ही अज्ञानी हैं, क्योंकि आत्मा न तो मारता है और न मारा जाता है।

श्लोक 20: आत्मा के लिए किसी भी काल में न तो जन्म है न मृत्यु। वह न तो कभी जन्मा है, न जन्म लेता है और न जन्म लेगा। वह अजन्मा, नित्य, शाश्वत तथा पुरातन है। शरीर के मारे जाने पर वह मारा नहीं जाता।

श्लोक 21: हे पार्थ! जो व्यक्ति यह जानता है कि आत्मा अविनाशी, अजन्मा, शाश्वत तथा अव्यय है, वह भला किसी को कैसे मार सकता है या मरवा सकता है?

श्लोक 22: जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर नये वस्त्र धारण करता है, उसी प्रकार आत्मा पुराने तथा व्यर्थ के शरीरों को त्याग कर नवीन भौतिक शरीर धारण करता है।

श्लोक 23: यह आत्मा न तो कभी किसी शस्त्र द्वारा खण्ड-खण्ड किया जा सकता है, न अग्नि द्वारा जलाया जा सकता है, न जल द्वारा भिगोया या वायु द्वारा सुखाया जा सकता है।

श्लोक 24: यह आत्मा अखंडित तथा अघुलनशील है। इसे न तो जलाया जा सकता है, न ही सुखाया जा सकता है। यह शाश्वत, सर्वव्यापी, अविकारी, स्थिर तथा सदैव एक सा रहने वाला है।

श्लोक 25: यह आत्मा अव्यक्त, अकल्पनीय तथा अपरिवर्तनीय कहा जाता है। यह जानकर तुम्हें शरीर के लिए शोक नहीं करना चाहिए।

श्लोक 26: किन्तु यदि तुम यह सोचते हो कि आत्मा (अथवा जीवन का लक्षण) सदा जन्म लेता है तथा सदा मरता है तो भी हे महाबाहु! तुम्हारे शोक करने का कोई कारण नहीं है।

श्लोक 27: जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है और मृत्यु के पश्चात् पुनर्जन्म भी निश्चित है। अत: अपने अपरिहार्य कर्तव्यपालन में तुम्हें शोक नहीं करना चाहिए।

श्लोक 28: सारे जीव प्रारम्भ में अव्यक्त रहते हैं, मध्य अवस्था में व्यक्त होते हैं और विनष्ट होने पर पुन: अव्यक्त हो जाते हैं। अत: शोक करने की क्या आवश्यकता है?

श्लोक 29: कोई आत्मा को आश्चर्य से देखता है, कोई इसे आश्चर्य की तरह बताता है तथा कोई इसे आश्चर्य की तरह सुनता है, किन्तु कोई-कोई इसके विषय में सुनकर भी कुछ नहीं समझ पाते।

श्लोक 30: हे भरतवंशी! शरीर में रहने वाले (देही) का कभी भी वध नहीं किया जा सकता। अत: तुम्हें किसी भी जीव के लिए शोक करने की आवश्यकता नहीं है।

श्लोक 31: क्षत्रिय होने के नाते अपने विशिष्ट धर्म का विचार करते हुए तुम्हें जानना चाहिए कि धर्म के लिए युद्ध करने से बढ़ कर तुम्हारे लिए अन्य कोई कार्य नहीं है। अत: तुम्हें संकोच करने की कोई आवश्यकता नहीं है।

श्लोक 32: हे पार्थ! वे क्षत्रिय सुखी हैं जिन्हें ऐसे युद्ध के अवसर अपने आप प्राप्त होते हैं जिससे उनके लिए स्वर्गलोक के द्वार खुल जाते हैं।

श्लोक 33: किन्तु यदि तुम युद्ध करने के स्वधर्म को सम्पन्न नहीं करते तो तुम्हें निश्चित रूप से अपने कर्तव्य की उपेक्षा करने का पाप लगेगा और तुम योद्धा के रूप में भी अपना यश खो दोगे।

श्लोक 34: लोग सदैव तुम्हारे अपयश का वर्णन करेंगे और सम्मानित व्यक्ति के लिए अपयश तो मृत्यु से भी बढक़र है।

श्लोक 35: जिन-जिन महान योद्धाओं ने तुम्हारे नाम तथा यश को सम्मान दिया है वे सोचेंगे कि तुमने डर के मारे युद्धभूमि छोड़ दी है और इस तरह वे तुम्हें तुच्छ मानेंगे।

श्लोक 36: तुम्हारे शत्रु अनेक प्रकार के कटु शब्दों से तुम्हारा वर्णन करेंगे और तुम्हारी सामर्थ्य का उपहास करेंगे। तुम्हारे लिए इससे दुखदायी और क्या हो सकता है?

श्लोक 37: हे कुन्तीपुत्र! तुम यदि युद्ध में मारे जाओगे तो स्वर्ग प्राप्त करोगे या यदि तुम जीत जाओगे तो पृथ्वी के साम्राज्य का भोग करोगे। अत: दृढ़ संकल्प करके खड़े होओ और युद्ध करो।

श्लोक 38: तुम सुख या दुख, हानि या लाभ, विजय या पराजय का विचार किये बिना युद्ध के लिए युद्ध करो। ऐसा करने पर तुम्हें कोई पाप नहीं लगेगा।

श्लोक 39: यहाँ मैंने वैश्लेषिक अध्ययन (सांख्य) द्वारा इस ज्ञान का वर्णन किया है। अब निष्काम भाव से कर्म करना बता रहा हूँ, उसे सुनो। हे पृथापुत्र! तुम यदि ऐसे ज्ञान से कर्म करोगे तो तुम कर्मों के बन्धन से अपने को मुक्त कर सकते हो।

श्लोक 40: इस प्रयास में न तो हानि होती है न ही ह्रास अपितु इस पथ पर की गई अल्प प्रगति भी महान भय से रक्षा कर सकती है।

श्लोक 41: जो इस मार्ग पर (चलते) हैं वे प्रयोजन में दृढ़ रहते हैं और उनका लक्ष्य भी एक होता है। हे कुरुनन्दन! जो दृढ़प्रतिज्ञ नहीं हैं उनकी बुद्धि अनेक शाखाओं में विभक्त रहती है।

श्लोक 42-43: अल्पज्ञानी मनुष्य वेदों के उन अलंकारिक शब्दों के प्रति अत्यधिक आसक्त रहते हैं, जो स्वर्ग की प्राप्ति, अच्छे जन्म, शक्ति इत्यादि के लिए विविध सकाम कर्म करने की संस्तुति करते हैं। इन्द्रियतृप्ति तथा ऐश्वर्यमय जीवन की अभिलाषा के कारण वे कहते हैं कि इससे बढक़र और कुछ नहीं है।

श्लोक 44: जो लोग इन्द्रियभोग तथा भौतिक ऐश्वर्य के प्रति अत्यधिक आसक्त होने से ऐसी वस्तुओं से मोहग्रस्त हो जाते हैं, उनके मनों में भगवान् के प्रति भक्ति का दृढ़ निश्चय नहीं होता।

श्लोक 45: वेदों में मुख्यतया प्रकृति के तीनों गुणों का वर्णन हुआ है। हे अर्जुन! इन तीनों गुणों से ऊपर उठो। समस्त द्वैतों और लाभ तथा सुरक्षा की सारी चिन्ताओं से मुक्त होकर आत्म-परायण बनो।

श्लोक 46: एक छोटे से कूप का सारा कार्य एक विशाल जलाशय से तुरन्त पूरा हो जाता है। इसी प्रकार वेदों के आन्तरिक तात्पर्य जानने वाले को उनके सारे प्रयोजन सिद्ध हो जाते हैं।

श्लोक 47: तुम्हें अपना कर्म (कर्तव्य) करने का अधिकार है, किन्तु कर्म के फलों के तुम अधिकारी नहीं हो। तुम न तो कभी अपने आपको अपने कर्मों के फलों का कारण मानो, न ही कर्म न करने में कभी आसक्त होओ।

श्लोक 48: हे अर्जुन! जय अथवा पराजय की समस्त आसक्ति त्याग कर समभाव से अपना कर्म करो। ऐसी समता योग कहलाती है।

श्लोक 49: हे धनंजय! भक्ति के द्वारा समस्त गर्हित कर्मों से दूर रहो और उसी भाव से भगवान् की शरण ग्रहण करो। जो व्यक्ति अपने सकाम कर्म-फलों को भोगना चाहते हैं, वे कृपण हैं।

श्लोक 50: भक्ति में संलग्न मनुष्य इस जीवन में ही अच्छे तथा बुरे कार्यों से अपने को मुक्त कर लेता है। अत: योग के लिए प्रयत्न करो क्योंकि सारा कार्य-कौशल यही है।

श्लोक 51: इस तरह भगवद्भक्ति में लगे रहकर बड़े-बड़े ऋषि, मुनि अथवा भक्तगण अपने आपको इस भौतिक संसार में कर्म के फलों से मुक्त कर लेते हैं। इस प्रकार वे जन्म-मृत्यु के चक्र से छूट जाते हैं और भगवान् के पास जाकर उस अवस्था को प्राप्त करते हैं, जो समस्त दुखों से परे है।

श्लोक 52: जब तुम्हारी बुद्धि मोह रूपी सघन वन को पार कर जायेगी तो तुम सुने हुए तथा सुनने योग्य सब के प्रति अन्यमनस्क हो जाओगे।

श्लोक 53: जब तुम्हारा मन वेदों की अलंकारमयी भाषा से विचलित न हो और वह आत्म-साक्षात्कार की समाधि में स्थिर हो जाय, तब तुम्हें दिव्य चेतना प्राप्त हो जायेगी।

श्लोक 54: अर्जुन ने कहा—हे कृष्ण! अध्यात्म में लीन चेतना वाले व्यक्ति (स्थितप्रज्ञ) के क्या लक्षण हैं? वह कैसे बोलता है तथा उसकी भाषा क्या है? वह किस तरह बैठता और चलता है?

श्लोक 55: श्रीभगवान् ने कहा—हे पार्थ! जब मनुष्य मनोधर्म से उत्पन्न होने वाली इन्द्रियतृप्ति की समस्त कामनाओं का परित्याग कर देता है और जब इस तरह से विशुद्ध हुआ उसका मन आत्मा में सन्तोष प्राप्त करता है तो वह विशुद्ध दिव्य चेतना को प्राप्त (स्थितप्रज्ञ) कहा जाता है।

श्लोक 56: जो त्रय तापों के होने पर भी मन में विचलित नहीं होता अथवा सुख में प्रसन्न नहीं होता और जो आसक्ति, भय तथा क्रोध से मुक्त है, वह स्थिर मन वाला मुनि कहलाता है।

श्लोक 57: इस भौतिक जगत् में जो व्यक्ति न तो शुभ की प्राप्ति से हर्षित होता है और न अशुभ के प्राप्त होने पर उससे घृणा करता है, वह पूर्ण ज्ञान में स्थिर होता है।

श्लोक 58: जिस प्रकार कछुवा अपने अंगों को संकुचित करके खोल के भीतर कर लेता है, उसी तरह जो मनुष्य अपनी इन्द्रियों को इन्द्रियविषयों से खींच लेता है, वह पूर्ण चेतना में दृढ़तापूर्वक स्थिर होता है।

श्लोक 59: देहधारी जीव इन्द्रियभोग से भले ही निवृत्त हो जाय पर उसमें इन्द्रियभोगों की इच्छा बनी रहती है। लेकिन उत्तम रस के अनुभव होने से ऐसे कार्यों को बन्द करने पर वह भक्ति में स्थिर हो जाता है।

श्लोक 60: हे अर्जुन! इन्द्रियाँ इतनी प्रबल तथा वेगवान हैं कि वे उस विवेकी पुरुष के मन को भी बलपूर्वक हर लेती हैं, जो उन्हें वश में करने का प्रयत्न करता है।

श्लोक 61: जो इन्द्रियों को पूर्णतया वश में रखते हुए इन्द्रिय-संयमन करता है और अपनी चेतना को मुझमें स्थिर कर देता है, वह मनुष्य स्थिरबुद्धि कहलाता है।

श्लोक 62: इन्द्रियविषयों का चिन्तन करते हुए मनुष्य की उनमें आसक्ति उत्पन्न हो जाती है और ऐसी आसक्ति से काम उत्पन्न होता है और फिर काम से क्रोध प्रकट होता है।

श्लोक 63: क्रोध से पूर्ण मोह उत्पन्न होता है और मोह से स्मरणशक्ति का विभ्रम हो जाता है। जब स्मरणशक्ति भ्रमित हो जाती है, तो बुद्धि नष्ट हो जाती है और बुद्धि नष्ट होने पर मनुष्य भव-कूप में पुन: गिर जाता है।

श्लोक 64: किन्तु समस्त राग तथा द्वेष से मुक्त एवं अपनी इन्द्रियों को संयम द्वारा वश में करने में समर्थ व्यक्ति भगवान् की पूर्ण कृपा प्राप्त कर सकता है।

श्लोक 65: इस प्रकार से कृष्णभावनामृत में तुष्ट व्यक्ति के लिए संसार के तीनों ताप नष्ट हो जाते हैं और ऐसी तुष्ट चेतना होने पर उसकी बुद्धि शीघ्र ही स्थिर हो जाती है।

श्लोक 66: जो कृष्णभावनामृत में परमेश्वर से सम्बन्धित नहीं है उसकी न तो बुद्धि दिव्य होती है और न ही मन स्थिर होता है जिसके बिना शान्ति की कोई सम्भावना नहीं है। शान्ति के बिना सुख हो भी कैसे सकता है?

श्लोक 67: जिस प्रकार पानी में तैरती नाव को प्रचण्ड वायु दूर बहा ले जाती है उसी प्रकार विचरणशील इन्द्रियों में से कोई एक जिस पर मन निरन्तर लगा रहता है, मनुष्य की बुद्धि को हर लेती है।

श्लोक 68: अत: हे महाबाहु! जिस पुरुष की इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों से सब प्रकार से विरत होकर उसके वश में हैं, उसी की बुद्धि निस्सन्देह स्थिर है।

श्लोक 69: जो सब जीवों के लिए रात्रि है, वह आत्मसंयमी के जागने का समय है और जो समस्त जीवों के जागने का समय है वह आत्मनिरीक्षक मुनि के लिए रात्रि है।

श्लोक 70: जो पुरुष समुद्र में निरन्तर प्रवेश करती रहने वाली नदियों के समान इच्छाओं के निरन्तर प्रवाह से विचलित नहीं होता और जो सदैव स्थिर रहता है, वही शान्ति प्राप्त कर सकता है, वह नहीं, जो ऐसी इच्छाओं को तुष्ट करने की चेष्टा करता हो।

श्लोक 71: जिस व्यक्ति ने इन्द्रियतृप्ति की समस्त इच्छाओं का परित्याग कर दिया है, जो इच्छाओं से रहित रहता है और जिसने सारी ममता त्याग दी है तथा अहंकार से रहित है, वही वास्तविक शान्ति को प्राप्त कर सकता है।

श्लोक 72: यह आध्यात्मिक तथा ईश्वरीय जीवन का पथ है, जिसे प्राप्त करके मनुष्य मोहित नहीं होता। यदि कोई जीवन के अन्तिम समय में भी इस तरह स्थित हो, तो वह भगवद्धाम में प्रवेश कर सकता है।

अध्याय 3: कर्मयोग

इस भौतिक जगत में हर व्यक्ति को किसी न किसी प्रकार के कर्म में प्रवृत्त होना पड़ता है। किन्तु ये ही कर्म उसे इस जगत से बाँधते या मुक्त कराते हैं। निष्काम भाव से परमेश्वर की प्रसन्नता के लिए कर्म करने से मनुष्य कर्म के नियम से छूट सकता है और आत्मा तथा परमेश्वर विषयक दिव्य ज्ञान प्राप्त कर सकता है।

श्लोक 1: अर्जुन ने कहा—हे जनार्दन, हे केशव! यदि आप बुद्धि को सकाम कर्म से श्रेष्ठ समझते हैं तो फिर आप मुझे इस घोर युद्ध में क्यों लगाना चाहते हैं?

श्लोक 2: आपके व्यामिश्रित (अनेकार्थक) उपदेशों से मेरी बुद्धि मोहित हो गई है। अत: कृपा करके निश्चयपूर्वक मुझे बतायें कि इनमें से मेरे लिए सर्वाधिक श्रेयस्कर क्या होगा?

श्लोक 3: श्रीभगवान् ने कहा—हे निष्पाप अर्जुन! मैं पहले ही बता चुका हूँ कि आत्म-साक्षात्कार का प्रयत्न करने वाले दो प्रकार के पुरुष होते हैं। कुछ इसे ज्ञानयोग द्वारा समझने का प्रयत्न करते हैं, तो कुछ भक्ति-मय सेवा के द्वारा।

श्लोक 4: न तो कर्म से विमुख होकर कोई कर्मफल से छुटकारा पा सकता है और न केवल संन्यास से सिद्धि प्राप्त की जा सकती है।

श्लोक 5: प्रत्येक व्यक्ति को प्रकृति से अर्जित गुणों के अनुसार विवश होकर कर्म करना पड़ता है, अत: कोई भी एक क्षणभर के लिए भी बिना कर्म किये नहीं रह सकता।

श्लोक 6: जो कर्मेन्द्रियों को वश में तो करता है, किन्तु जिसका मन इन्द्रियविषयों का चिन्तन करता रहता है, वह निश्चित रूप से स्वयं को धोखा देता है और मिथ्याचारी कहलाता है।

श्लोक 7: दूसरी ओर यदि कोई निष्ठावान व्यक्ति अपने मन के द्वारा कर्मेन्द्रियों को वश में करने का प्रयत्न करता है और बिना किसी आसक्ति के कर्मयोग (कृष्णभावनामृत में) प्रारम्भ करता है, तो वह अति उत्कृष्ट है।

श्लोक 8: अपना नियत कर्म करो, क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है। कर्म के बिना तो शरीर-निर्वाह भी नहीं हो सकता।

श्लोक 9: श्रीविष्णु के लिए यज्ञ रूप में कर्म करना चाहिए, अन्यथा कर्म के द्वारा इस भौतिक जगत् में बन्धन उत्पन्न होता है। अत: हे कुन्तीपुत्र! उनकी प्रसन्नता के लिए अपने नियत कर्म करो। इस तरह तुम बन्धन से सदा मुक्त रहोगे।

श्लोक 10: सृष्टि के प्रारम्भ में समस्त प्राणियों के स्वामी (प्रजापति) ने विष्णु के लिए यज्ञ सहित मनुष्यों तथा देवताओं की सन्ततियों को रचा और उनसे कहा, “तुम इस यज्ञ से सुखी रहो क्योंकि इसके करने से तुम्हें सुखपूर्वक रहने तथा मुक्ति प्राप्त करने के लिए समस्त वांछित वस्तुएँ प्राप्त हो सकेंगी।”

श्लोक 11: यज्ञों के द्वारा प्रसन्न होकर देवता तुम्हें भी प्रसन्न करेंगे और इस तरह मनुष्यों तथा देवताओं के मध्य सहयोग से सबों को सम्पन्नता प्राप्त होगी।

श्लोक 12: जीवन की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाले विभिन्न देवता यज्ञ सम्पन्न होने पर प्रसन्न होकर तुम्हारी सारी आवश्यकताओं की पूर्ति करेंगे। किन्तु जो इन उपहारों को देवताओं को अर्पित किये बिना भोगता है, वह निश्चित रूप से चोर है।

श्लोक 13: भगवान् के भक्त सभी प्रकार के पापों से मुक्त हो जाते हैं, क्योंकि वे यज्ञ में अर्पित किये भोजन (प्रसाद) को ही खाते हैं। अन्य लोग, जो अपने इन्द्रियसुख के लिए भोजन बनाते हैं, वे निश्चित रूप से पाप खाते हैं।

श्लोक 14: सारे प्राणी अन्न पर आश्रित हैं, जो वर्षा से उत्पन्न होता है। वर्षा यज्ञ सम्पन्न करने से होती है और यज्ञ नियत कर्मों से उत्पन्न होता है।

श्लोक 15: वेदों में नियमित कर्मों का विधान है और ये वेद साक्षात् श्रीभगवान् (परब्रह्म) से प्रकट हुए हैं। फलत: सर्वव्यापी ब्रह्म यज्ञकर्मों में सदा स्थित रहता है।

श्लोक 16: हे प्रिय अर्जुन! जो मानव जीवन में इस प्रकार वेदों द्वारा स्थापित यज्ञ-चक्र का पालन नहीं करता वह निश्चय ही पापमय जीवन व्यतीत करता है। ऐसा व्यक्ति केवल इन्द्रियों की तुष्टि के लिए व्यर्थ ही जीवित रहता है।

श्लोक 17: किन्तु जो व्यक्ति आत्मा में ही आनन्द लेता है तथा जिसका जीवन आत्म-साक्षात्कार युक्त है और जो अपने में ही पूर्णतया सन्तुष्ट रहता है उसके लिए कुछ करणीय (कर्तव्य) नहीं होता।

श्लोक 18: स्वरूपसिद्ध व्यक्ति के लिए न तो अपने नियत कर्मों को करने की आवश्यकता रह जाती है, न ऐसा कर्म न करने का कोई कारण ही रहता है। उसे किसी अन्य जीव पर निर्भर रहने की आवश्यकता भी नहीं रह जाती।

श्लोक 19: अत: कर्मफल में आसक्त हुए बिना मनुष्य को अपना कर्तव्य समझ कर निरन्तर कर्म करते रहना चाहिए क्योंकि अनासक्त होकर कर्म करने से उसे परब्रह्म (परम) की प्राप्ति होती है।

श्लोक 20: जनक जैसे राजाओं ने केवल नियत कर्मों को करने से ही सिद्धि प्राप्त की। अत: सामान्य जनों को शिक्षित करने की दृष्टि से तुम्हें कर्म करना चाहिए।

श्लोक 21: महापुरुष जो जो आचरण करता है, सामान्य व्यक्ति उसी का अनुसरण करते हैं। वह अपने अनुसरणीय कार्यों से जो आर्दश प्रस्तुत करता है, सम्पूर्ण विश्व उसका अनुसरण करता है।

श्लोक 22: हे पृथापुत्र! तीनों लोकों में मेरे लिए कोई भी कर्म नियत नहीं है, न मुझे किसी वस्तु का अभाव है और न आवश्यकता ही है। तो भी मैं नियतकर्म करने में तत्पर रहता हूँ।

श्लोक 23: क्योंकि यदि मैं नियत कर्मों को सावधानीपूर्वक न करूँ तो हे पार्थ! यह निश्चित है कि सारे मनुष्य मेरे पथ का ही अनुगमन करेंगे।

श्लोक 24: यदि मैं नियतकर्म न करूँ तो ये सारे लोग नष्ट हो जायँ। तब मैं अवांछित जनसमुदाय (वर्णसंकर) को उत्पन्न करने का कारण हो जाऊँगा और इस तरह सम्पूर्ण प्राणियों की शान्ति का विनाशक बनूँगा।

श्लोक 25: जिस प्रकार अज्ञानी-जन फल की आसक्ति से कार्य करते हैं, उसी तरह विद्वान् जनों को चाहिए कि वे लोगों को उचित पथ पर ले जाने के लिए अनासक्त रहकर कार्य करें।

श्लोक 26: विद्वान व्यक्ति को चाहिए कि वह सकाम कर्मों में आसक्त अज्ञानी पुरुषों को कर्म करने से रोके नहीं ताकि उनके मन विचलित न हों। अपितु भक्तिभाव से कर्म करते हुए वह उन्हें सभी प्रकार के कार्यों में लगाये (जिससे कृष्णभावनामृत का क्रमिक विकास हो)।

श्लोक 27: जीवात्मा अहंकार के प्रभाव से मोहग्रस्त होकर अपने आपको समस्त कर्मों का कर्ता मान बैठता है, जब कि वास्तव में वे प्रकृति के तीनों गुणों द्वारा सम्पन्न किये जाते हैं।

श्लोक 28: हे महाबाहो! भक्तिभावमय कर्म तथा सकाम कर्म के भेद को भलीभाँति जानते हुए जो परमसत्य को जानने वाला है, वह कभी भी अपने आपको इन्द्रियों में तथा इन्द्रियतृप्ति में नहीं लगाता।

श्लोक 29: माया के गुणों से मोहग्रस्त होने पर अज्ञानी पुरुष पूर्णतया भौतिक कार्यों में संलग्न रहकर उनमें आसक्त हो जाते हैं। यद्यपि उनके ये कार्य उनमें ज्ञानाभाव के कारण अधम होते हैं, किन्तु ज्ञानी को चाहिए कि उन्हें विचलित न करे।

श्लोक 30: अत: हे अर्जुन! अपने सारे कार्यों को मुझमें समर्पित करके मेरे पूर्ण ज्ञान से युक्त होकर, लाभ की आकांक्षा से रहित, स्वामित्व के किसी दावे के बिना तथा आलस्य से रहित होकर युद्ध करो।

श्लोक 31: जो व्यक्ति मेरे आदेशों के अनुसार अपना कर्तव्य करते रहते हैं और ईर्ष्यारहित होकर इस उपदेश का श्रद्धापूर्वक पालन करते हैं, वे सकाम कर्मों के बन्धन से मुक्त हो जाते हैं।

श्लोक 32: किन्तु जो ईर्ष्यावश इन उपदेशों की उपेक्षा करते हैं और इनका पालन नहीं करते उन्हें समस्त ज्ञान से रहित, दिग्भ्रमित तथा सिद्धि के प्रयासों में नष्ट-भ्रष्ट समझना चाहिए।

श्लोक 33: ज्ञानी पुरुष भी अपनी प्रकृति के अनुसार कार्य करता है, क्योंकि सभी प्राणी तीनों गुणों से प्राप्त अपनी प्रकृति का ही अनुसरण करते हैं। भला दमन से क्या हो सकता है?

श्लोक 34: प्रत्येक इन्द्रिय तथा उसके विषय से सम्बन्धित राग-द्वेष को व्यवस्थित करने के नियम होते हैं। मनुष्य को ऐसे राग तथा द्वेष के वशीभूत नहीं होना चाहिए क्योंकि ये आत्म- साक्षात्कार के मार्ग में अवरोधक हैं।

श्लोक 35: अपने नियतकर्मों को दोषपूर्ण ढंग से सम्पन्न करना भी अन्य के कर्मों को भलीभाँति करने से श्रेयस्कर है। स्वीय कर्मों को करते हुए मरना पराये कर्मों में प्रवृत्त होने की अपेक्षा श्रेष्ठतर है, क्योंकि अन्य किसी के मार्ग का अनुसरण भयावह होता है।

श्लोक 36: अर्जुन ने कहा—हे वृष्णिवंशी! मनुष्य न चाहते हुए भी पापकर्मों के लिए प्रेरित क्यों होता है? ऐसा लगता है कि उसे बलपूर्वक उनमें लगाया जा रहा हो।

श्लोक 37: श्रीभगवान् ने कहा—हे अर्जुन! इसका कारण रजोगुण के सम्पर्क से उत्पन्न काम है, जो बाद में क्रोध का रूप धारण करता है और जो इस संसार का सर्वभक्षी पापी शत्रु है।

श्लोक 38: जिस प्रकार अग्नि धुएँ से, दर्पण धूल से अथवा भ्रूण गर्भाशय से आवृत रहता है, उसी प्रकार जीवात्मा इस काम की विभिन्न मात्राओं से आवृत रहता है।

श्लोक 39: इस प्रकार ज्ञानमय जीवात्मा की शुद्ध चेतना उसके काम रूपी नित्य शत्रु से ढकी रहती है जो कभी भी तुष्ट नहीं होता और अग्नि के समान जलता रहता है।

श्लोक 40: इन्द्रियाँ, मन तथा बुद्धि इस काम के निवासस्थान हैं। इनके द्वारा यह काम जीवात्मा के वास्तविक ज्ञान को ढक कर उसे मोहित कर लेता है।

श्लोक 41: इसलिए हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! प्रारम्भ में ही इन्द्रियों को वश में करके इस पाप के महान प्रतीक (काम) का दमन करो और ज्ञान तथा आत्म-साक्षात्कार के इस विनाशकर्ता का वध करो।

श्लोक 42: कर्मेन्द्रियाँ जड़ पदार्थ की अपेक्षा श्रेष्ठ हैं, मन इन्द्रियों से बढक़र है, बुद्धि मन से भी उच्च है और वह (आत्मा) बुद्धि से भी बढक़र है।

श्लोक 43: इस प्रकार हे महाबाहु अर्जुन! अपने आपको भौतिक इन्द्रियों, मन तथा बुद्धि से परे जान कर और मन को सावधान आध्यात्मिक बुद्धि (कृष्णभावनामृत) से स्थिर करके आध्यात्मिक शक्ति द्वारा इस काम-रूपी दुर्जेय शत्रु को जीतो।

अध्याय 4: दिव्य ज्ञान

आत्मा, ईश्वर तथा इन दोनों से सम्बन्धित दिव्य ज्ञान शुद्ध करने, तथा मोक्ष प्रदान करने वाला है। ऐसा ज्ञान कर्मयोग का फल है। भगवान् गीता के प्राचीन इतिहास, इस भौतिक जगत में बारम्बार अपने अवतरण की महत्ता तथा गुरु के पास जाने की आवश्यकता का उपदेश देते हैं।

श्लोक 1: भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा—मैंने इस अमर योगविद्या का उपदेश सूर्यदेव विवस्वान् को दिया और विवस्वान् ने मनुष्यों के पिता मनु को उपदेश दिया और मनु ने इसका उपदेश इक्ष्वाकु को दिया।

श्लोक 2: इस प्रकार यह परम विज्ञान गुरु-परम्परा द्वारा प्राप्त किया गया और राजर्षियों ने इसी विधि से इसे समझा। किन्तु कालक्रम में यह परम्परा छिन्न हो गई, अत: यह विज्ञान यथारूप में लुप्त हो गया लगता है।

श्लोक 3: आज मेरे द्वारा वही यह प्राचीन योग यानी परमेश्वर के साथ अपने सम्बन्ध का विज्ञान, तुमसे कहा जा रहा है, क्योंकि तुम मेरे भक्त तथा मित्र हो, अत: तुम इस विज्ञान के दिव्य रहस्य को समझ सकते हो।

श्लोक 4: अर्जुन ने कहा—सूर्यदेव विवस्वान् आप से पहले हो चुके (ज्येष्ठ) हैं, तो फिर मैं कैसे समझूँ कि प्रारम्भ में भी आपने उन्हें इस विद्या का उपदेश दिया था।

श्लोक 5: श्रीभगवान् ने कहा—तुम्हारे तथा मेरे अनेकानेक जन्म हो चुके हैं। मुझे तो उन सबका स्मरण है, किन्तु हे परंतप! तुम्हें उनका स्मरण नहीं रह सकता है।

श्लोक 6: यद्यपि मैं अजन्मा तथा अविनाशी हूँ और यद्यपि मैं समस्त जीवों का स्वामी हूँ, तो भी प्रत्येक युग में मैं अपने आदि दिव्य रूप में प्रकट होता हूँ।

श्लोक 7: हे भरतवंशी! जब भी और जहाँ भी धर्म का पतन होता है और अधर्म की प्रधानता होने लगती है, तब तब मैं अवतार लेता हूँ।

श्लोक 8: भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ।

श्लोक 9: हे अर्जुन! जो मेरे आविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को छोडऩे पर इस भौतिक संसार में पुन: जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है।

श्लोक 10: आसक्ति, भय तथा क्रोध से मुक्त होकर, मुझमें पूर्णतया तन्मय होकर और मेरी शरण में आकर बहुत से व्यक्ति भूत काल में मेरे ज्ञान से पवित्र हो चुके हैं। इस प्रकार से उन सबों ने मेरे प्रति दिव्यप्रेम को प्राप्त किया है।

श्लोक 11: जिस भाव से सारे लोग मेरी शरण ग्रहण करते हैं, उसी के अनुरूप मैं उन्हें फल देता हूँ। हे पार्थ! प्रत्येक व्यक्ति सभी प्रकार से मेरे पथ का अनुगमन करता है।

श्लोक 12: इस संसार में मनुष्य सकाम कर्मों में सिद्धि चाहते हैं, फलस्वरूप वे देवताओं की पूजा करते हैं। निस्सन्देह इस संसार में मनुष्यों को सकाम कर्म का फल शीघ्र प्राप्त होता है।

श्लोक 13: प्रकृति के तीनों गुणों और उनसे सम्बद्ध कर्म के अनुसार मेरे द्वारा मानव समाज के चार विभाग रचे गये। यद्यपि मैं इस व्यवस्था का स्रष्टा हूँ, किन्तु तुम यह जान लो कि मैं इतने पर भी अव्यय अकर्ता हूँ।

श्लोक 14: मुझ पर किसी कर्म का प्रभाव नहीं पड़ता, न ही मैं कर्मफल की कामना करता हूँ। जो मेरे सम्बन्ध में इस सत्य को जानता है, वह भी कर्मों के फल के पाश में नहीं बँधता।

श्लोक 15: प्राचीन काल में समस्त मुक्तात्माओं ने मेरी दिव्य प्रकृति को जान करके ही कर्म किया, अत: तुम्हें चाहिए कि उनके पदचिन्हों का अनुसरण करते हुए अपने कर्तव्य का पालन करो।

श्लोक 16: कर्म क्या है और अकर्म क्या है, इसे निश्चित करने में बुद्धिमान् व्यक्ति भी मोहग्रस्त हो जाते हैं। अतएव मैं तुमको बताऊँगा कि कर्म क्या है, जिसे जानकर तुम सारे अशुभ से मुक्त हो सकोगे।

श्लोक 17: कर्म की बारीकियों को समझना अत्यन्त कठिन है। अत: मनुष्य को चाहिए कि वह यह ठीक से जाने कि कर्म क्या है, विकर्म क्या है और अकर्म क्या है।

श्लोक 18: जो मनुष्य कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखता है, वह सभी मनुष्यों में बुद्धिमान् है और सब प्रकार के कर्मों में प्रवृत्त रहकर भी दिव्य स्थिति में रहता है।

श्लोक 19: जिस व्यक्ति का प्रत्येक प्रयास (उद्यम) इन्द्रियतृप्ति की कामना से रहित होता है, उसे पूर्णज्ञानी समझा जाता है। उसे ही साधु पुरुष ऐसा कर्ता कहते हैं, जिसने पूर्णज्ञान की अग्नि से कर्मफलों को भस्मसात् कर दिया है।

श्लोक 20: अपने कर्मफलों की सारी आसक्ति को त्याग कर सदैव संतुष्ट तथा स्वतन्त्र रहकर वह सभी प्रकार के कार्यों में व्यस्त रहकर भी कोई सकाम कर्म नहीं करता।

श्लोक 21: ऐसा ज्ञानी पुरुष पूर्णरूप से संयमित मन तथा बुद्धि से कार्य करता है, अपनी सम्पत्ति के सारे स्वामित्व को त्याग देता है और केवल शरीर-निर्वाह के लिए कर्म करता है। इस तरह कार्य करता हुआ वह पाप रूपी फलों से प्रभावित नहीं होता है।

श्लोक 22: जो स्वत: होने वाले लाभ से संतुष्ट रहता है, जो द्वन्द्व से मुक्त है और ईर्ष्या नहीं करता, जो सफलता तथा असफलता दोनों में स्थिर रहता है, वह कर्म करता हुआ भी कभी बँधता नहीं।

श्लोक 23: जो पुरुष प्रकृति के गुणों के प्रति अनासक्त है और जो दिव्य ज्ञान में पूर्णतया स्थित है, उसके सारे कर्म ब्रह्म में लीन हो जाते हैं।

श्लोक 24: जो व्यक्ति कृष्णभावनामृत में पूर्णतया लीन रहता है, उसे अपने आध्यात्मिक कर्मों के योगदान के कारण अवश्य ही भगवद्धाम की प्राप्ति होती है, क्योंकि उसमें हवन आध्यात्मिक होता है और हवि भी आध्यात्मिक होती है।

श्लोक 25: कुछ योगी विभिन्न प्रकार के यज्ञों द्वारा देवताओं की भलीभाँति पूजा करते हैं और कुछ परब्रह्म रूपी अग्नि में आहुति डालते हैं।

श्लोक 26: इनमें से कुछ (विशुद्ध ब्रह्मचारी) श्रवणादि क्रियाओं तथा इन्द्रियों को मन की नियन्त्रण रूपी अग्नि में स्वाहा कर देते हैं तो दूसरे लोग (नियमित गृहस्थ) इन्द्रियविषयों को इन्द्रियों की अग्नि में स्वाहा कर देते हैं।

श्लोक 27: दूसरे, जो मन तथा इन्द्रियों को वश में करके आत्म- साक्षात्कार करना चाहते हैं, सम्पूर्ण इन्द्रियों तथा प्राणवायु के कार्यों को संयमित मन रूपी अग्नि में आहुति कर देते हैं।

श्लोक 28: कठोर व्रत अंगीकार करके कुछ लोग अपनी सम्पत्ति का त्याग करके, कुछ कठिन तपस्या द्वारा, कुछ अष्टांग योगपद्धति के अभ्यास द्वारा अथवा दिव्यज्ञान में उन्नति करने के लिए वेदों के अध्ययन द्वारा प्रबुद्ध बनते हैं।

श्लोक 29: अन्य लोग भी हैं जो समाधि में रहने के लिए श्वास को रोके रहते हैं (प्राणायाम)। वे अपान में प्राण को और प्राण में अपान को रोकने का अभ्यास करते हैं और अन्त में प्राण- अपान को रोककर समाधि में रहते हैं। अन्य योगी कम भोजन करके प्राण की प्राण में ही आहुति देते हैं।

श्लोक 30: ये सभी यज्ञ करने वाले यज्ञों का अर्थ जानने के कारण पापकर्मों से मुक्त हो जाते हैं और यज्ञों के फल रूपी अमृत को चखकर परम दिव्य आकाश की ओर बढ़ते जाते हैं।

श्लोक 31: हे कुरुश्रेष्ठ! जब यज्ञ के बिना मनुष्य इस लोक में या इस जीवन में ही सुखपूर्वक नहीं रह सकता, तो फिर अगले जन्म में कैसे रह सकेगा?

श्लोक 32: ये विभिन्न प्रकार के यज्ञ वेदसम्मत हैं और ये सभी विभिन्न प्रकार के कर्मों से उत्पन्न हैं। इन्हें इस रूप में जानने पर तुम मुक्त हो जाओगे।

श्लोक 33: हे परंतप! द्रव्ययज्ञ से ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ है। हे पार्थ! अन्ततोगत्वा सारे कर्मयज्ञों का अवसान दिव्य ज्ञान में होता है।

श्लोक 34: तुम गुरु के पास जाकर सत्य को जानने का प्रयास करो। उनसे विनीत होकर जिज्ञासा करो और उनकी सेवा करो। स्वरूपसिद्ध व्यक्ति तुम्हें ज्ञान प्रदान कर सकते हैं, क्योंकि उन्होंने सत्य का दर्शन किया है।

श्लोक 35: स्वरूपसिद्ध व्यक्ति से वास्तविक ज्ञान प्राप्त कर चुकने पर तुम पुन: कभी ऐसे मोह को प्राप्त नहीं होगे क्योंकि इस ज्ञान के द्वारा तुम देख सकोगे कि सभी जीव परमात्मा के अंशस्वरूप हैं, अर्थात् वे सब मेरे हैं।

श्लोक 36: यदि तुम्हें समस्त पापियों में भी सर्वाधिक पापी समझा जाये तो भी तुम दिव्यज्ञान रूपी नाव में स्थित होकर दुख-सागर को पार करने में समर्थ होगे।

श्लोक 37: जैसे प्रज्ज्वलित अग्नि ईंधन को भस्म कर देती है, उसी तरह हे अर्जुन! ज्ञान रूपी अग्नि भौतिक कर्मों के समस्त फलों को जला डालती है।

श्लोक 38: इस संसार में दिव्यज्ञान के समान कुछ भी उदात्त तथा शुद्ध नहीं है। ऐसा ज्ञान समस्त योग का परिपक्व फल है। जो व्यक्ति भक्ति में सिद्ध हो जाता है, वह यथासमय अपने अन्तर में इस ज्ञान का आस्वादन करता है।

श्लोक 39: जो श्रद्धालु दिव्यज्ञान में समर्पित है और जिसने इन्द्रियों को वश में कर लिया है, वह इस ज्ञान को प्राप्त करने का अधिकारी है और इसे प्राप्त करते ही वह तुरन्त आध्यात्मिक शान्ति को प्राप्त होता है।

श्लोक 40: किन्तु जो अज्ञानी तथा श्रद्धाविहीन व्यक्ति शास्त्रों में संदेह करते हैं, वे भगवद्भावनामृत नहीं प्राप्त करते, अपितु नीचे गिर जाते हैं। संशयात्मा के लिए न तो इस लोक में, न ही परलोक में कोई सुख है।

श्लोक 41: जो व्यक्ति अपने कर्मफलों का परित्याग करते हुए भक्ति करता है और जिसके संशय दिव्यज्ञान द्वारा विनष्ट हो चुके होते हैं वही वास्तव में आत्मपरायण है। हे धनञ्जय! वह कर्मों के बन्धन से नहीं बँधता।

श्लोक 42: अतएव तुम्हारे हृदय में अज्ञान के कारण जो संशय उठे हैं उन्हें ज्ञानरूपी शस्त्र से काट डालो। हे भारत! तुम योग से समन्वित होकर खड़े होओ और युद्ध करो।

अध्याय 5: कर्मयोग—कृष्णभावनाभावित कर्म

ज्ञानी पुरुष दिव्य ज्ञान की अग्नि से शुद्ध होकर बाह्यत: सारे कर्म करता है, किन्तु अन्तर में उन कर्मों के फल का परित्याग करता हुआ शान्ति, विरक्ति, सहिष्णुता, आध्यात्मिक दृष्टि तथा आनन्द की प्राप्ति करता है।

श्लोक 1: अर्जुन ने कहा—हे कृष्ण! पहले आप मुझसे कर्म त्यागने के लिए कहते हैं और फिर भक्तिपूर्वक कर्म करने का आदेश देते हैं। क्या आप अब कृपा करके निश्चित रूप से मुझे बताएँगे कि इन दोनों में से कौन अधिक लाभप्रद है?

श्लोक 2: श्रीभगवान् ने उत्तर दिया—मुक्ति के लिए तो कर्म का परित्याग तथा भक्तिमय-कर्म (कर्मयोग) दोनों ही उत्तम हैं। किन्तु इन दोनों में से कर्म के परित्याग से भक्तियुक्त कर्म श्रेष्ठ है।

श्लोक 3: जो पुरुष न तो कर्मफलों से घृणा करता है और न कर्मफल की इच्छा करता है, वह नित्य संन्यासी जाना जाता है। हे महाबाहु अर्जुन! ऐसा मनुष्य समस्त द्वन्द्वों से रहित होकर भवबन्धन को पार कर पूर्णतया मुक्त हो जाता है।

श्लोक 4: अज्ञानी ही भक्ति (कर्मयोग) को भौतिक जगत् के विश्लेषणात्मक अध्ययन (सांख्य) से भिन्न कहते हैं। जो वस्तुत: ज्ञानी हैं वे कहते हैं कि जो इनमें से किसी एक मार्ग का भलीभाँति अनुसरण करता है, वह दोनों के फल प्राप्त कर लेता है।

श्लोक 5: जो यह जानता है कि विश्लेषणात्मक अध्ययन (सांख्य) द्वारा प्राप्य स्थान भक्ति द्वारा भी प्राप्त किया जा सकता है, और इस तरह जो सांख्ययोग तथा भक्तियोग को एकसमान देखता है, वही वस्तुओं को यथारूप में देखता है।

श्लोक 6: भक्ति में लगे बिना केवल समस्त कर्मों का परित्याग करने से कोई सुखी नहीं बन सकता। परन्तु भक्ति में लगा हुआ विचारवान व्यक्ति शीघ्र ही परमेश्वर को प्राप्त कर लेता है।

श्लोक 7: जो भक्तिभाव से कर्म करता है, जो विशुद्ध आत्मा है और अपने मन तथा इन्द्रियों को वश में रखता है, वह सबों को प्रिय होता है और सभी लोग उसे प्रिय होते हैं। ऐसा व्यक्ति कर्म करता हुआ भी कभी नहीं बँधता।

श्लोक 8-9: दिव्य भावनामृत युक्त पुरुष देखते, सुनते, स्पर्श करते, सूँघते, खाते, चलते-फिरते, सोते तथा श्वास लेते हुए भी अपने अन्तर में सदैव यही जानता रहता है कि वास्तव में वह कुछ भी नहीं करता। बोलते, त्यागते, ग्रहण करते या आँखें खोलते-बन्द करते हुए भी वह यह जानता रहता है कि भौतिक इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों में प्रवृत्त हैं और वह इन सबसे पृथक् है।

श्लोक 10: जो व्यक्ति कर्मफलों को परमेश्वर को समर्पित करके आसक्तिरहित होकर अपना कर्म करता है, वह पापकर्मों से उसी प्रकार अप्रभावित रहता है, जिस प्रकार कमलपत्र जल से अस्पृश्य रहता है।

श्लोक 11: योगीजन आसक्तिरहित होकर शरीर, मन, बुद्धि तथा इन्द्रियों के द्वारा भी केवल शुद्धि के लिए कर्म करते हैं।

श्लोक 12: निश्चल भक्त शुद्ध शान्ति प्राप्त करता है क्योंकि वह समस्त कर्मफल मुझे अर्पित कर देता है, किन्तु जो व्यक्ति भगवान् से युक्त नहीं है और जो अपने श्रम का फलकामी है, वह बँध जाता है।

श्लोक 13: जब देहधारी जीवात्मा अपनी प्रकृति को वश में कर लेता है और मन से समस्त कर्मों का परित्याग कर देता है तब वह नौ द्वारों वाले नगर (भौतिक शरीर) में बिना कुछ किये कराये सुखपूर्वक रहता है।

श्लोक 14: शरीर रूपी नगर का स्वामी देहधारी जीवात्मा न तो कर्म का सृजन करता है, न लोगों को कर्म करने के लिए प्रेरित करता है, न ही कर्मफल की रचना करता है। यह सब तो प्रकृति के गुणों द्वारा ही किया जाता है।

श्लोक 15: परमेश्वर न तो किसी के पापों को ग्रहण करता है, न पुण्यों को। किन्तु सारे देहधारी जीव उस अज्ञान के कारण मोहग्रस्त रहते हैं, जो उनके वास्तविक ज्ञान को आच्छादित किये रहता है।

श्लोक 16: किन्तु जब कोई उस ज्ञान से प्रबुद्ध होता है, जिससे अविद्या का विनाश होता है, तो उसके ज्ञान से सब कुछ उसी तरह प्रकट हो जाता है, जैसे दिन में सूर्य से सारी वस्तुएँ प्रकाशित हो जाती हैं।

श्लोक 17: जब मनुष्य की बुद्धि, मन, श्रद्धा तथा शरण सब कुछ भगवान् में स्थिर हो जाते हैं, तभी वह पूर्णज्ञान द्वारा समस्त कल्मष से शुद्ध होता है और मुक्ति के पथ पर अग्रसर होता है।

श्लोक 18: विनम्र साधुपुरुष अपने वास्तविक ज्ञान के कारण एक विद्वान् तथा विनीत ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ता तथा चाण्डाल को समान दृष्टि (समभाव) से देखते हैं।

श्लोक 19: जिनके मन एकत्व तथा समता में स्थित हैं उन्होंने जन्म तथा मृत्यु के बन्धनों को पहले ही जीत लिया है। वे ब्रह्म के समान निर्दोष हैं और सदा ब्रह्म में ही स्थित रहते हैं।

श्लोक 20: जो न तो प्रिय वस्तु को पाकर हर्षित होता है और न अप्रिय को पाकर विचलित होता है, जो स्थिरबुद्धि है, जो मोहरहित है और भगवद्विद्या को जानने वाला है वह पहले से ही ब्रह्म में स्थित रहता है।

श्लोक 21: ऐसा मुक्त पुरुष भौतिक इन्द्रियसुख की ओर आकृष्ट नहीं होता, अपितु सदैव समाधि में रहकर अपने अन्तर में आनन्द का अनुभव करता है। इस प्रकार स्वरूपसिद्ध व्यक्ति परब्रह्म में एकाग्रचित्त होने के कारण असीम सुख भोगता है।

श्लोक 22: बुद्धिमान् मनुष्य दुख के कारणों में भाग नहीं लेता जो कि भौतिक इन्द्रियों के संसर्ग से उत्पन्न होते हैं। हे कुन्तीपुत्र! ऐसे भोगों का आदि तथा अन्त होता है, अत: चतुर व्यक्ति उनमें आनन्द नहीं लेता।

श्लोक 23: यदि इस शरीर को त्यागने के पूर्व कोई मनुष्य इन्द्रियों के वेगों को सहन करने तथा इच्छा एवं क्रोध के वेग को रोकने में समर्थ होता है, तो वह इस संसार में सुखी रह सकता है।

श्लोक 24: जो अन्त:करण में सुख का अनुभव करता है, जो कर्मठ है और अन्त:करण में ही रमण करता है तथा जिसका लक्ष्य अन्तर्मुखी होता है वह सचमुच पूर्ण योगी है। वह परब्रह्म में मुक्ति पाता है और अन्ततोगत्वा ब्रह्म को प्राप्त होता है।

श्लोक 25: जो लोग संशय से उत्पन्न होने वाले द्वैत से परे हैं, जिनके मन आत्म-साक्षात्कार में रत हैं, जो समस्त जीवों के कल्याणकार्य करने में सदैव व्यस्त रहते हैं और जो समस्त पापों से रहित हैं, वे ब्रह्मनिर्वाण (मुक्ति) को प्राप्त होते हैं।

श्लोक 26: जो क्रोध तथा समस्त भौतिक इच्छाओं से रहित हैं, जो स्वरूपसिद्ध, आत्मसंयमी हैं और संसिद्धि के लिए निरन्तर प्रयास करते हैं उनकी मुक्ति निकट भविष्य में सुनिश्चित है।

श्लोक 27-28: समस्त इन्द्रियविषयों को बाहर करके, दृष्टि को भौंहों के मध्य में केन्द्रित करके, प्राण तथा अपान वायु को नथुनों के भीतर रोककर और इस तरह मन, इन्द्रियों तथा बुद्धि को वश में करके जो मोक्ष को लक्ष्य बनाता है वह योगी इच्छा, भय तथा क्रोध से रहित हो जाता है। जो निरन्तर इस अवस्था में रहता है, वह अवश्य ही मुक्त है।

श्लोक 29: मुझे समस्त यज्ञों तथा तपस्याओं का परम भोक्ता, समस्त लोकों तथा देवताओं का परमेश्वर एवं समस्त जीवों का उपकारी एवं हितैषी जानकर मेरे भावनामृत से पूर्ण पुरुष भौतिक दुखों से शान्ति लाभ-करता है।

अध्याय 6: ध्यानयोग

अष्टांगयोग मन तथा इन्द्रियों को नियन्त्रित करता है और ध्यान को परमात्मा पर केन्द्रित करता है। इस विधि की परिणति समाधि में होती है।

श्लोक 1: श्रीभगवान् ने कहा—जो पुरुष अपने कर्मफल के प्रति अनासक्त है और जो अपने कर्तव्य का पालन करता है, वही संन्यासी और असली योगी है। वह नहीं, जो न तो अग्नि जलाता है और न कर्म करता है।

श्लोक 2: हे पाण्डुपुत्र! जिसे संन्यास कहते हैं उसे ही तुम योग अर्थात् परब्रह्म से युक्त होना जानो क्योंकि इन्द्रियतृप्ति के लिए इच्छा को त्यागे बिना कोई कभी योगी नहीं हो सकता।

श्लोक 3: अष्टांगयोग के नवसाधक के लिए कर्म साधन कहलाता है और योगसिद्ध पुरुष के लिए समस्त भौतिक कार्यकलापों का परित्याग ही साधन कहा जाता है।

श्लोक 4: जब कोई पुरुष समस्त भौतिक इच्छाओं का त्याग करके न तो इन्द्रियतृप्ति के लिए कार्य करता है और न सकामकर्मों में प्रवृत्त होता है तो वह योगारूढ कहलाता है।

श्लोक 5: मनुष्य को चाहिए कि अपने मन की सहायता से अपना उद्धार करे और अपने को नीचे न गिरने दे। यह मन बद्धजीव का मित्र भी है और शत्रु भी।

श्लोक 6: जिसने मन को जीत लिया है उसके लिए मन सर्वश्रेष्ठ मित्र है, किन्तु जो ऐसा नहीं कर पाया उसके लिए मन सबसे बड़ा शत्रु बना रहेगा।

श्लोक 7: जिसने मन को जीत लिया है, उसने पहले ही परमात्मा को प्राप्त कर लिया है, क्योंकि उसने शान्ति प्राप्त कर ली है। ऐसे पुरुष के लिए सुख-दुख, सर्दी-गर्मी एवं मान-अपमान एक से हैं।

श्लोक 8: वह व्यक्ति आत्म-साक्षात्कार को प्राप्त तथा योगी कहलाता है जो अपने अर्जित ज्ञान तथा अनुभूति से पूर्णतया सन्तुष्ट रहता है। ऐसा व्यक्ति अध्यात्म को प्राप्त तथा जितेन्द्रिय कहलाता है। वह सभी वस्तुओं को—चाहे वे कंकड़ हों, पत्थर हों या कि सोना—एकसमान देखता है।

श्लोक 9: जब मनुष्य निष्कपट हितैषियों, प्रिय मित्रों, तटस्थों, मध्यस्थों, ईर्ष्यालुओं, शत्रुओं तथा मित्रों, पुण्यात्माओं एवं पापियों को समान भाव से देखता है, तो वह और भी उन्नत माना जाता है।

श्लोक 10: योगी को चाहिए कि वह सदैव अपने शरीर, मन तथा आत्मा को परमेश्वर में लगाए, एकान्त स्थान में रहे और बड़ी सावधानी के साथ अपने मन को वश में करे। उसे समस्त आकांक्षाओं तथा संग्रहभाव की इच्छाओं से मुक्त होना चाहिए।

श्लोक 11-12: योगाभ्यास के लिए योगी एकान्त स्थान में जाकर भूमि पर कुशा बिछा दे और फिर उसे मृगछाला से ढके तथा ऊपर से मुलायम वस्त्र बिछा दे। आसन न तो बहुत ऊँचा हो, न बहुत नीचा। यह पवित्र स्थान में स्थित हो। योगी को चाहिए कि इस पर दृढ़तापूर्वक बैठ जाय और मन, इन्द्रियों तथा कर्मों को वश में करते हुए तथा मन को एक बिन्दु पर स्थिर करके हृदय को शुद्ध करने के लिए योगाभ्यास करे।

श्लोक 13-14: योगाभ्यास करने वाले को चाहिए कि वह अपने शरीर, गर्दन तथा सिर को सीधा रखे और नाक के अगले सिरे पर दृष्टि लगाए। इस प्रकार वह अविचलित तथा दमित मन से, भयरहित, विषयीजीवन से पूर्णतया मुक्त होकर अपने हृदय में मेरा चिन्तन करे और मुझे ही अपना चरमलक्ष्य बनाए।

श्लोक 15: इस प्रकार शरीर, मन तथा कर्म में निरन्तर संयम का अभ्यास करते हुए संयमित मन वाले योगी को इस भौतिक अस्तित्व की समाप्ति पर भगवद्धाम की प्राप्ति होती है।

श्लोक 16: हे अर्जुन! जो अधिक खाता है या बहुत कम खाता है, जो अधिक सोता है अथवा जो पर्याप्त नहीं सोता उसके योगी बनने की कोई सम्भावना नहीं है।

श्लोक 17: जो खाने, सोने, आमोद-प्रमोद तथा काम करने की आदतों में नियमित रहता है, वह योगाभ्यास द्वारा समस्त भौतिक क्लेशों को नष्ट कर सकता है।

श्लोक 18: जब योगी योगाभ्यास द्वारा अपने मानसिक कार्यकलापों को वश में कर लेता है और अध्यात्म में स्थित हो जाता है अर्थात् समस्त भौतिक इच्छाओं से रहित हो जाता है, तब वह योग में सुस्थिर कहा जाता है।

श्लोक 19: जिस प्रकर वायुरहित स्थान में दीपक हिलता-डुलता नहीं, उसी तरह जिस योगी का मन वश में होता है, वह आत्मतत्त्व के ध्यान में सदैव स्थिर रहता है।

श्लोक 20-23: सिद्धि की अवस्था में, जिसे समाधि कहते हैं, मनुष्य का मन योगाभ्यास के द्वारा भौतिक मानसिक क्रियाओं से पूर्णतया संयमित हो जाता है। इस सिद्धि की विशेषता यह है कि मनुष्य शुद्ध मन से अपने को देख सकता है और अपने आपमें आनन्द उठा सकता है। उस आनन्दमयी स्थिति में वह दिव्य इन्द्रियों द्वारा असीम दिव्यसुख में स्थित रहता है। इस प्रकार स्थापित मनुष्य कभी सत्य से विपथ नहीं होता और इस सुख की प्राप्ति हो जाने पर वह इससे बड़ा कोई दूसरा लाभ नहीं मानता। ऐसी स्थिति को पाकर मनुष्य बड़ी से बड़ी कठिनाई में भी विचलित नहीं होता। यह निस्सन्देह भौतिक संसर्ग से उत्पन्न होने वाले समस्त दुखों से वास्तविक मुक्ति है।

श्लोक 24: मनुष्य को चाहिए कि संकल्प तथा श्रद्धा के साथ योगाभ्यास में लगे और पथ से विचलित न हो। उसे चाहिए कि मनोधर्म से उत्पन्न समस्त इच्छाओं को निरपवाद रूप से त्याग दे और इस प्रकार मन के द्वारा सभी ओर से इन्द्रियों को वश में करे।

श्लोक 25: धीरे-धीरे, क्रमश: पूर्ण विश्वासपूर्वक बुद्धि के द्वारा समाधि में स्थित होना चाहिए और इस प्रकार मन को आत्मा में ही स्थित करना चाहिए तथा अन्य कुछ भी नहीं सोचना चाहिए।

श्लोक 26: मन अपनी चंचलता तथा अस्थिरता के कारण जहाँ कहीं भी विचरण करता हो, मनुष्य को चाहिए कि उसे वहाँ से खींचे और अपने वश में लाए।

श्लोक 27: जिस योगी का मन मुझ में स्थिर रहता है, वह निश्चय ही दिव्यसुख की सर्वोच्च सिद्धि प्राप्त करता है। वह रजोगुण से परे हो जाता है, वह परमात्मा के साथ अपनी गुणात्मक एकता को समझता है और इस प्रकार अपने समस्त विगत कर्मों के फल से निवृत्त हो जाता है।

श्लोक 28: इस प्रकार योगाभ्यास में निरन्तर लगा रहकर आत्मसंयमी योगी समस्त भौतिक कल्मष से मुक्त हो जाता है और भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति में परमसुख प्राप्त करता है।

श्लोक 29: वास्तविक योगी समस्त जीवों में मुझको तथा मुझमें समस्त जीवों को देखता है। निस्सन्देह स्वरूपसिद्ध व्यक्ति मुझ परमेश्वर को सर्वत्र देखता है।

श्लोक 30: जो मुझे सर्वत्र देखता है और सब कुछ मुझमें देखता है उसके लिए न तो मैं कभी अदृश्य होता हूँ और न वह मेरे लिए अदृश्य होता है।

श्लोक 31: जो योगी मुझे तथा परमात्मा को अभिन्न जानते हुए परमात्मा की भक्तिपूर्वक सेवा करता है, वह हर प्रकार से मुझमें सदैव स्थित रहता है।

श्लोक 32: हे अर्जुन! वह पूर्णयोगी है जो अपनी तुलना से समस्त प्राणियों की उनके सुखों तथा दुखों में वास्तविक समानता का दर्शन करता है।

श्लोक 33: अर्जुन ने कहा—हे मधुसूदन! आपने जिस योगपद्धति का संक्षेप में वर्णन किया है, वह मेरे लिए अव्यावहारिक तथा असहनीय है, क्योंकि मन चंचल तथा अस्थिर है।

श्लोक 34: हे कृष्ण! चूँकि मन चंचल (अस्थिर), उच्छृंखल, हठीला तथा अत्यन्त बलवान है, अत: मुझे इसे वश में करना वायु को वश में करने से भी अधिक कठिन लगता है।

श्लोक 35: भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा—हे महाबाहु कुन्तीपुत्र! निस्सन्देह चंचल मन को वश में करना अत्यन्त कठिन है, किन्तु उपयुक्त अभ्यास द्वारा तथा विरक्ति द्वारा ऐसा सम्भव है।

श्लोक 36: जिसका मन उच्छृंखल है, उसके लिए आत्म-साक्षात्कार कठिन कार्य होता है, किन्तु जिसका मन संयमित है और जो समुचित उपाय करता है उसकी सफलता ध्रुव है। ऐसा मेरा मत है।

श्लोक 37: अर्जुन ने कहा: हे कृष्ण! उस असफल योगी की गति क्या है जो प्रारम्भ में श्रद्धापूर्वक आत्म-साक्षात्कार की विधि ग्रहण करता है, किन्तु बाद में भौतिकता के कारण उससे विचलित हो जाता है और योगसिद्धि को प्राप्त नहीं कर पाता?

श्लोक 38: हे महाबाहु कृष्ण! क्या ब्रह्म-प्राप्ति के मार्ग से भ्रष्ट ऐसा व्यक्ति आध्यात्मिक तथा भौतिक दोनों ही सफलताओं से च्युत नहीं होता और छिन्नभिन्न बादल की भाँति विनष्ट नहीं हो जाता जिसके फलस्वरूप उसके लिए किसी लोक में कोई स्थान नहीं रहता?

श्लोक 39: हे कृष्ण! यही मेरा सन्देह है, और मैं आपसे इसे पूर्णतया दूर करने की प्रार्थना कर रहा हूँ। आपके अतिरिक्त अन्य कोई ऐसा नहीं है, जो इस सन्देह को नष्ट कर सके।

श्लोक 40: भगवान् ने कहा—हे पृथापुत्र! कल्याण-कार्यों में निरत योगी का न तो इस लोक में और न परलोक में ही विनाश होता है। हे मित्र! भलाई करने वाला कभी बुराई से पराजित नहीं होता।

श्लोक 41: असफल योगी पवित्रात्माओं के लोकों में अनेकानेक वर्षों तक भोग करने के बाद या तो सदाचारी पुरुषों के परिवार में या कि धनवानों के कुल में जन्म लेता है।

श्लोक 42: अथवा (यदि दीर्घकाल तक योग करने के बाद असफल रहे तो) वह ऐसे योगियों के कुल में जन्म लेता है जो अति बुद्धिमान हैं। निश्चय ही इस संसार में ऐसा जन्म दुर्लभ है।

श्लोक 43: हे कुरुनन्दन! ऐसा जन्म पाकर वह अपने पूर्वजन्म की दैवी चेतना को पुन: प्राप्त करता है और पूर्ण सफलता प्राप्त करने के उद्देश्य से वह आगे उन्नति करने का प्रयास करता है।

श्लोक 44: अपने पूर्वजन्म की दैवी चेतना से वह न चाहते हुए भी स्वत: योग के नियमों की ओर आकर्षित होता है। ऐसा जिज्ञासु योगी शास्त्रों के अनुष्ठानों से परे स्थित होता है।

श्लोक 45: और जब योगी समस्त कल्मष से शुद्ध होकर सच्ची निष्ठा से आगे प्रगति करने का प्रयास करता है, तो अन्ततोगत्वा अनेकानेक जन्मों के अभ्यास के पश्चात् सिद्धि-लाभ करके वह परम गन्तव्य को प्राप्त करता है।

श्लोक 46: योगी पुरुष तपस्वी से, ज्ञानी से तथा सकामकर्मी से बढक़र होता है। अत: हे अर्जुन! तुम सभी प्रकार से योगी बनो।

श्लोक 47: और समस्त योगियों में से जो योगी अत्यन्त श्रद्धापूर्वक मेरे परायण है, अपने अन्त:करण में मेरे विषय में सोचता है और मेरी दिव्य प्रेमाभक्ति करता है वह योग में मुझसे परम अन्तरंग रूप में युक्त रहता है और सबों में सर्वोच्च है। यही मेरा मत है।

अध्याय 7: भगवद्ज्ञान

भगवान् कृष्ण समस्त कारणों के कारण, परम सत्य हैं। महात्मागण भक्तिपूर्वक उनकी शरण ग्रहण करते हैं, किन्तु अपवित्र जन पूजा के अन्य विषयों की ओर अपने मन को मोड़ देते हैं।

श्लोक 1: श्रीभगवान् ने कहा—हे पृथापुत्र! अब सुनो कि तुम किस तरह मेरी भावना से पूर्ण होकर और मन को मुझमें आसक्त करके योगाभ्यास करते हुए मुझे पूर्णतया संशयरहित जान सकते हो।

श्लोक 2: अब मैं तुमसे पूर्णरूप से व्यावहारिक तथा दिव्यज्ञान कहूँगा। इसे जान लेने पर तुम्हें जानने के लिए और कुछ भी शेष नहीं रहेगा।

श्लोक 3: कई हजार मनुष्यों में से कोई एक सिद्धि के लिए प्रयत्नशील होता है और इस तरह सिद्धि प्राप्त करने वालों में से विरला ही कोई एक मुझे वास्तव में जान पाता है।

श्लोक 4: पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि तथा अहंकार—ये आठ प्रकार से विभक्त मेरी भिन्ना (अपरा) प्रकृतियाँ हैं।

श्लोक 5: हे महाबाहु अर्जुन! इनके अतिरिक्त मेरी एक अन्य परा शक्ति है जो उन जीवों से युक्त है, जो इस भौतिक अपरा प्रकृति के साधनों का विदोहन कर रहे हैं।

श्लोक 6: सारे प्राणियों का उद्गम इन दोनों शक्तियों में है। इस जगत् में जो कुछ भी भौतिक तथा आध्यात्मिक है, उसकी उत्पत्ति तथा प्रलय मुझे ही जानो।

श्लोक 7: हे धनञ्जय! मुझसे श्रेष्ठ कोई सत्य नहीं है। जिस प्रकार मोती धागे में गुँथे रहते हैं, उसी प्रकार सब कुछ मुझ पर ही आश्रित है।

श्लोक 8: हे कुन्तीपुत्र! मैं जल का स्वाद हूँ, सूर्य तथा चन्द्रमा का प्रकाश हूँ, वैदिक मन्त्रों में ओंकार हूँ, आकाश में ध्वनि हूँ तथा मनुष्य में सामर्थ्य हूँ।

श्लोक 9: मैं पृथ्वी की आद्य सुगंध और अग्नि की ऊष्मा हूँ। मैं समस्त जीवों का जीवन तथा तपस्वियों का तप हूँ।

श्लोक 10: हे पृथापुत्र! यह जान लो कि मैं ही समस्त जीवों का आदि बीज हूँ, बुद्धिमानों की बुद्धि तथा समस्त तेजस्वी पुरुषों का तेज हूँ।

श्लोक 11: मैं बलवानों का कामनाओं तथा इच्छा से रहित बल हूँ। हे भरतश्रेष्ठ (अर्जुन) ! मैं वह काम हूँ, जो धर्म के विरुद्ध नहीं है।

श्लोक 12: तुम जान लो कि मेरी शक्ति द्वारा सारे गुण प्रकट होते हैं, चाहे वे सतोगुण हों, रजोगुण हों या तमोगुण हों। एक प्रकार से मैं सब कुछ हूँ, किन्तु हूँ स्वतन्त्र। मैं प्रकृति के गुणों के अधीन नहीं हूँ, अपितु वे मेरे अधीन हैं।

श्लोक 13: तीन गुणों (सतो, रजो तथा तमो) के द्वारा मोहग्रस्त यह सारा संसार मुझ गुणातीत तथा अविनाशी को नहीं जानता।

श्लोक 14: प्रकृति के तीन गुणों वाली इस मेरी दैवी शक्ति को पार कर पाना कठिन है। किन्तु जो मेरे शरणागत हो जाते हैं, वे सरलता से इसे पार कर जाते हैं।

श्लोक 15: जो निपट मूर्ख हैं, जो मनुष्यों में अधम हैं, जिनका ज्ञान माया द्वारा हर लिया गया है तथा जो असुरों की नास्तिक प्रकृति को धारण करने वाले हैं, ऐसे दुष्ट मेरी शरण ग्रहण नहीं करते।

श्लोक 16: हे भरतश्रेष्ठ! चार प्रकार के पुण्यात्मा मेरी सेवा करते हैं— आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी तथा ज्ञानी।

श्लोक 17: इनमें से जो परमज्ञानी है और शुद्धभक्ति में लगा रहता है वह सर्वश्रेष्ठ है, क्योंकि मैं उसे अत्यन्त प्रिय हूँ और वह मुझे प्रिय है।

श्लोक 18: निस्सन्देह ये सब उदारचेता व्यक्ति हैं, किन्तु जो मेरे ज्ञान को प्राप्त है, उसे मैं अपने ही समान मानता हूँ। वह मेरी दिव्यसेवा में तत्पर रहकर मुझ सर्वोच्च उद्देश्य को निश्चित रूप से प्राप्त करता है।

श्लोक 19: अनेक जन्म-जन्मान्तर के बाद जिसे सचमुच ज्ञान होता है, वह मुझको समस्त कारणों का कारण जानकर मेरी शरण में आता है। ऐसा महात्मा अत्यन्त दुर्लभ होता है।

श्लोक 20: जिनकी बुद्धि भौतिक इच्छाओं द्वारा मारी गई है, वे देवताओं की शरण में जाते हैं और वे अपने-अपने स्वभाव के अनुसार पूजा के विशेष विधि-विधानों का पालन करते हैं।

श्लोक 21: मैं प्रत्येक जीव के हृदय में परमात्मा स्वरूप स्थित हूँ। जैसे ही कोई किसी देवता की पूजा करने की इच्छा करता है, मैं उसकी श्रद्धा को स्थिर करता हूँ, जिससे वह उसी विशेष देवता की भक्ति कर सके।

श्लोक 22: ऐसी श्रद्धा से समन्वित वह देवता विशेष की पूजा करने का यत्न करता है और अपनी इच्छा की पूर्ति करता है। किन्तु वास्तविकता तो यह है कि ये सारे लाभ केवल मेरे द्वारा प्रदत्त हैं।

श्लोक 23: अल्पबुद्धि वाले व्यक्ति देवताओं की पूजा करते हैं और उन्हें प्राप्त होने वाले फल सीमित तथा क्षणिक होते हैं। देवताओं की पूजा करने वाले देवलोक को जाते हैं, किन्तु मेरे भक्त अन्तत: मेरे परमधाम को प्राप्त होते हैं।

श्लोक 24: बुद्धिहीन मनुष्य मुझको ठीक से न जानने के कारण सोचते हैं कि मैं (भगवान् कृष्ण) पहले निराकार था और अब मैंने इस स्वरूप को धारण किया है। वे अपने अल्पज्ञान के कारण मेरी अविनाशी तथा सर्वोच्च प्रकृति को नहीं जान पाते।

श्लोक 25: मैं मूर्खों तथा अल्पज्ञों के लिए कभी भी प्रकट नहीं हूँ। उनके लिए तो मैं अपनी अन्तरंगा शक्ति द्वारा आच्छादित रहता हूँ, अत: वे यह नहीं जान पाते कि मैं अजन्मा तथा अविनाशी हूँ।

श्लोक 26: हे अर्जुन! श्रीभगवान् होने के नाते मैं जो कुछ भूतकाल में घटित हो चुका है, जो वर्तमान में घटित हो रहा है और जो आगे होने वाला है, वह सब कुछ जानता हूँ। मैं समस्त जीवों को भी जानता हूँ, किन्तु मुझे कोई नहीं जानता।

श्लोक 27: हे भरतवंशी! हे शत्रुविजेता! समस्त जीव जन्म लेकर इच्छा तथा घृणा से उत्पन्न द्वन्द्वों से मोहग्रस्त होकर मोह को प्राप्त होते हैं।

श्लोक 28: जिन मनुष्यों ने पूर्वजन्मों में तथा इस जन्म में पुण्यकर्म किये हैं और जिनके पापकर्मों का पूर्णतया उच्छेदन हो चुका होता है, वे मोह के द्वन्द्वों से मुक्त हो जाते हैं और वे संकल्पपूर्वक मेरी सेवा में तत्पर होते हैं।

श्लोक 29: जो जरा तथा मृत्यु से मुक्ति पाने के लिए यत्नशील रहते हैं, वे बुद्धिमान व्यक्ति मेरी भक्ति की शरण ग्रहण करते हैं। वे वास्तव में ब्रह्म हैं क्योंकि वे दिव्य कर्मों के विषय में पूरी तरह से जानते हैं।

श्लोक 30: जो मुझ परमेश्वर को मेरी पूर्ण चेतना में रहकर मुझे जगत् का, देवताओं का तथा समस्त यज्ञविधियों का नियामक जानते हैं, वे अपनी मृत्यु के समय भी मुझ भगवान् को जान और समझ सकते हैं।

अध्याय 8: भगवत्प्राप्ति

भक्तिपूर्वक भगवान् कृष्ण का आजीवन स्मरण करते रहने से और विशेषतया मृत्यु के समय ऐसा करने से मनुष्य परम धाम को प्राप्त कर सकता है।

श्लोक 1: अर्जुन ने कहा—हे भगवान्! हे पुरुषोत्तम! ब्रह्म क्या है? आत्मा क्या है? सकाम कर्म क्या है? यह भौतिक जगत् क्या है? तथा देवता क्या हैं? कृपा करके यह सब मुझे बताइये।

श्लोक 2: हे मधुसूदन! यज्ञ का स्वामी कौन है और वह शरीर में कैसे रहता है? और मृत्यु के समय भक्ति में लगे रहने वाले आपको कैसे जान पाते हैं?

श्लोक 3: भगवान् ने कहा—अविनाशी और दिव्य जीव ब्रह्म कहलाता है और उसका नित्य स्वभाव अध्यात्म या आत्म कहलाता है। जीवों के भौतिक शरीर से सम्बन्धित गतिविधि कर्म या सकाम कर्म कहलाती है।

श्लोक 4: हे देहधारियों में श्रेष्ठ! निरन्तर परिवर्तनशील यह भौतिक प्रकृति अधिभूत (भौतिक अभिव्यक्ति) कहलाती है। भगवान् का विराट रूप, जिसमें सूर्य तथा चन्द्र जैसे समस्त देवता सम्मिलित हैं, अधिदैव कहलाता है। तथा प्रत्येक देहधारी के हृदय में परमात्मा स्वरूप स्थित मैं परमेश्वर अधियज्ञ (यज्ञ का स्वामी) कहलाता हूँ।

श्लोक 5: और जीवन के अन्त में जो केवल मेरा स्मरण करते हुए शरीर का त्याग करता है, वह तुरन्त मेरे स्वभाव को प्राप्त करता है। इसमें रंचमात्र भी सन्देह नहीं है।

श्लोक 6: हे कुन्तीपुत्र! शरीर त्यागते समय मनुष्य जिस-जिस भाव का स्मरण करता है, वह उस उस भाव को निश्चित रूप से प्राप्त होता है।

श्लोक 7: अतएव, हे अर्जुन! तुम्हें सदैव कृष्ण रूप में मेरा चिन्तन करना चाहिए और साथ ही युद्ध करने के कर्तव्य को भी पूरा करना चाहिए। अपने कर्मों को मुझे समर्पित करके तथा अपने मन एवं बुद्धि को मुझमें स्थिर करके तुम निश्चित रूप से मुझे प्राप्त कर सकोगे।

श्लोक 8: हे पार्थ! जो व्यक्ति मेरा स्मरण करने में अपना मन निरन्तर लगाये रखकर अविचलित भाव से भगवान् के रूप में मेरा ध्यान करता है, वह मुझको अवश्य ही प्राप्त होता है।

श्लोक 9: मनुष्य को चाहिए कि परमपुरुष का ध्यान सर्वज्ञ, पुरातन, नियन्ता, लघुतम से भी लघुतर, प्रत्येक का पालनकर्ता, समस्त भौतिकबुद्धि से परे, अचिन्त्य तथा नित्य पुरुष के रूप में करे। वे सूर्य की भाँति तेजवान हैं और इस भौतिक प्रकृति से परे, दिव्य रूप हैं।

श्लोक 10: मृत्यु के समय जो व्यक्ति अपने प्राण को भौहों के मध्य स्थिर कर लेता है और योगशक्ति के द्वारा अविचलित मन से पूर्णभक्ति के साथ परमेश्वर के स्मरण में अपने को लगाता है, वह निश्चित रूप से भगवान् को प्राप्त होता है।

श्लोक 11: जो वेदों के ज्ञाता हैं, जो ओंकार का उच्चारण करते हैं और जो संन्यास आश्रम के बड़े-बड़े मुनि हैं, वे ब्रह्म में प्रवेश करते हैं। ऐसी सिद्धि की इच्छा करने वाले ब्रह्मचर्यव्रत का अभ्यास करते हैं। अब मैं तुम्हें वह विधि बताऊँगा, जिससे कोई भी व्यक्ति मुक्ति-लाभ कर सकता है।

श्लोक 12: समस्त ऐन्द्रिय क्रियाओं से विरक्ति को योग की स्थिति (योगधारणा) कहा जाता है। इन्द्रियों के समस्त द्वारों को बन्द करके तथा मन को हृदय में और प्राणवायु को सिर पर केन्द्रित करके मनुष्य अपने को योग में स्थापित करता है।

श्लोक 13: इस योगाभ्यास में स्थित होकर तथा अक्षरों के परम संयोग यानी ओंकार का उच्चारण करते हुए यदि कोई भगवान् का चिन्तन करता है और अपने शरीर का त्याग करता है, तो वह निश्चित रूप से आध्यात्मिक लोकों को जाता है।

श्लोक 14: हे अर्जुन! जो अनन्य भाव से निरन्तर मेरा स्मरण करता है उसके लिए मैं सुलभ हूँ, क्योंकि वह मेरी भक्ति में प्रवृत्त रहता है।

श्लोक 15: मुझे प्राप्त करके महापुरुष, जो भक्तियोगी हैं, कभी भी दुखों से पूर्ण इस अनित्य जगत् में नहीं लौटते, क्योंकि उन्हें परम सिद्धि प्राप्त हो चुकी होती है।

श्लोक 16: इस जगत् में सर्वोच्च लोक से लेकर निम्नतम सारे लोक दुखों के घर हैं, जहाँ जन्म तथा मरण का चक्कर लगा रहता है। किन्तु हे कुन्तीपुत्र! जो मेरे धाम को प्राप्त कर लेता है, वह फिर कभी जन्म नहीं लेता।

श्लोक 17: मानवीय गणना के अनुसार एक हजार युग मिलकर ब्रह्मा का एक दिन बनता है और इतनी ही बड़ी ब्रह्मा की रात्रि भी होती है।

श्लोक 18: ब्रह्मा के दिन के शुभारम्भ में सारे जीव अव्यक्त अवस्था से व्यक्त होते हैं और फिर जब रात्रि आती है तो वे पुन: अव्यक्त में विलीन हो जाते हैं।

श्लोक 19: जब-जब ब्रह्मा का दिन आता है तो सारे जीव प्रकट होते हैं और ब्रह्मा की रात्रि होते ही वे असहायवत् विलीन हो जाते हैं।

श्लोक 20: इसके अतिरिक्त एक अन्य अव्यक्त प्रकृति है, जो शाश्वत है और इस व्यक्त तथा अव्यक्त पदार्थ से परे है। यह परा (श्रेष्ठ) और कभी नाश न होने वाली है। जब इस संसार का सब कुछ लय हो जाता है, तब भी उसका नाश नहीं होता।

श्लोक 21: जिसे वेदान्ती अप्रकट तथा अविनाशी बताते हैं, जो परम गन्तव्य है, जिसे प्राप्त कर लेने पर कोई वापस नहीं आता, वही मेरा परमधाम है।

श्लोक 22: भगवान्, जो सबसे महान हैं, अनन्य भक्ति द्वारा ही प्राप्त किये जा सकते हैं। यद्यपि वे अपने धाम में विराजमान रहते हैं, तो भी वे सर्वव्यापी हैं और उनमें सब कुछ स्थित है।

श्लोक 23: हे भरतश्रेष्ठ! अब मैं तुम्हें उन विभिन्न कालों को बताऊँगा, जिनमें इस संसार से प्रयाण करने के बाद योगी पुन: आता है अथवा नहीं आता।

श्लोक 24: जो परब्रह्म के ज्ञाता हैं, वे अग्निदेव के प्रभाव में, प्रकाश में, दिन के शुभक्षण में, शुक्लपक्ष में या जब सूर्य उत्तरायण में रहता है, उन छह मासों में इस संसार से शरीर त्याग करने पर उस परब्रह्म को प्राप्त करते हैं।

श्लोक 25: जो योगी धुएँ, रात्रि, कृष्णपक्ष में या सूर्य के दक्षिणायन रहने के छह महीनों में दिवंगत होता है, वह चन्द्रलोक को जाता है, किन्तु वहाँ से पुन: (पृथ्वी पर) चला आता है।

श्लोक 26: वैदिक मतानुसार इस संसार से प्रयाण करने के दो मार्ग हैं—एक प्रकाश का तथा दूसरा अंधकार का। जब मनुष्य प्रकाश के मार्ग से जाता है तो वह वापस नहीं आता, किन्तु अंधकार के मार्ग से जाने वाला पुन: लौटकर आता है।

श्लोक 27: हे अर्जुन! यद्यपि भक्तगण इन दोनों मार्गो को जानते हैं, किन्तु वे मोहग्रस्त नहीं होते। अत: तुम भक्ति में सदैव स्थिर रहो।

श्लोक 28: जो व्यक्ति भक्तिमार्ग स्वीकार करता है, वह वेदाध्ययन, तपस्या, दान, दार्शनिक तथा सकाम कर्म करने से प्राप्त होने वाले फलों से वंचित नहीं होता। वह मात्र भक्ति सम्पन्न करके इन समस्त फलों की प्राप्ति करता है और अन्त में परम नित्यधाम को प्राप्त होता है।

अध्याय 9: परम गुह्य ज्ञान

भगवान् श्रीकृष्ण परमेश्वर हैं और पूज्य हैं। भक्ति के माध्यम से जीव उनसे शाश्वत सम्बद्ध है। शुद्ध भक्ति को जागृत करके मनुष्य कृष्ण के धाम को वापस जाता है।

श्लोक 1: श्रीभगवान् ने कहा—हे अर्जुन! चूँकि तुम मुझसे कभी ईर्ष्या नहीं करते, इसलिए मैं तुम्हें यह परम गुह्यज्ञान तथा अनुभूति बतलाऊँगा, जिसे जानकर तुम संसार के सारे क्लेशों से मुक्त हो जाओगे।

श्लोक 2: यह ज्ञान सब विद्याओं का राजा है, जो समस्त रहस्यों में सर्वाधिक गोपनीय है। यह परम शुद्ध है और चूँकि यह आत्मा की प्रत्यक्ष अनुभूति कराने वाला है, अत: यह धर्म का सिद्धान्त है। यह अविनाशी है और अत्यन्त सुखपूर्वक सम्पन्न किया जाता है।

श्लोक 3: हे परन्तप! जो लोग भक्ति में श्रद्धा नहीं रखते, वे मुझे प्राप्त नहीं कर पाते। अत: वे इस भौतिक जगत् में जन्म-मृत्यु के मार्ग पर वापस आते रहते हैं।

श्लोक 4: यह सम्पूर्ण जगत् मेरे अव्यक्त रूप द्वारा व्याप्त है। समस्त जीव मुझमें हैं, किन्तु मैं उनमें नहीं हूँ।

श्लोक 5: तथापि मेरे द्वारा उत्पन्न सारी वस्तुएँ मुझमें स्थित नहीं रहतीं। जरा, मेरे योग-ऐश्वर्य को देखो! यद्यपि मैं समस्त जीवों का पालक (भर्ता) हूँ और सर्वत्र व्याप्त हूँ, लेकिन मैं इस विराट अभिव्यक्ति का अंश नहीं हूँ, क्योंकि मैं सृष्टि का कारणस्वरूप हूँ।

श्लोक 6: जिस प्रकार सर्वत्र प्रवहमान प्रबल वायु सदैव आकाश में स्थित रहती है, उसी प्रकार समस्त उत्पन्न प्राणियों को मुझमें स्थित जानो।

श्लोक 7: हे कुन्तीपुत्र! कल्प का अन्त होने पर सारे प्राणी मेरी प्रकृति में प्रवेश करते हैं और अन्य कल्प के आरम्भ होने पर मैं उन्हें अपनी शक्ति से पुन: उत्पन्न करता हूँ।

श्लोक 8: सम्पूर्ण विराट जगत मेरे अधीन है। यह मेरी इच्छा से बारम्बार स्वत: प्रकट होता रहता है और मेरी ही इच्छा से अन्त में विनष्ट होता है।

श्लोक 9: हे धनञ्जय! ये सारे कर्म मुझे नहीं बाँध पाते हैं। मैं उदासीन की भाँति इन सारे भौतिक कर्मों से सदैव विरक्त रहता हूँ।

श्लोक 10: हे कुन्तीपुत्र! यह भौतिक प्रकृति मेरी शक्तियों में से एक है और मेरी अध्यक्षता में कार्य करती है, जिससे सारे चर तथा अचर प्राणी उत्पन्न होते हैं। इसके शासन में यह जगत् बारम्बार सृजित और विनष्ट होता रहता है।

श्लोक 11: जब मैं मनुष्य रूप में अवतरित होता हूँ, तो मूर्ख मेरा उपहास करते हैं। वे मुझ परमेश्वर के दिव्य स्वभाव को नहीं जानते।

श्लोक 12: जो लोग इस प्रकार मोहग्रस्त होते हैं, वे आसुरी तथा नास्तिक विचारों के प्रति आकृष्ट रहते हैं। इस मोहग्रस्त अवस्था में उनकी मुक्ति-आशा, उनके सकाम कर्म तथा ज्ञान का अनुशीलन सभी निष्फल हो जाते हैं।

श्लोक 13: हे पार्थ! मोहमुक्त महात्माजन दैवी प्रकृति के संरक्षण में रहते हैं। वे पूर्णत: भक्ति में निमग्न रहते हैं क्योंकि वे मुझे आदि तथा अविनाशी भगवान् के रूप में जानते हैं।

श्लोक 14: ये महात्मा मेरी महिमा का नित्य कीर्तन करते हुए दृढसंकल्प के साथ प्रयास करते हुए, मुझे नमस्कार करते हुए, भक्तिभाव से निरन्तर मेरी पूजा करते हैं।

श्लोक 15: अन्य लोग जो ज्ञान के अनुशीलन द्वारा यज्ञ में लगे रहते हैं, वे भगवान् की पूजा उनके अद्वय रूप में, विविध रूपों में तथा विश्व रूप में करते हैं।

श्लोक 16: किन्तु मैं ही कर्मकाण्ड, मैं ही यज्ञ, पितरों को दिया जाने वाला तर्पण, औषधि, दिव्य ध्वनि (मन्त्र), घी, अग्नि तथा आहुति हूँ।

श्लोक 17: मैं इस ब्रह्माण्ड का पिता, माता, आश्रय तथा पितामह हूँ। मैं ज्ञेय (जानने योग्य), शुद्धिकर्ता तथा ओंकार हूँ। मैं ऋग्वेद, सामवेद तथा यजुर्वेद भी हूँ।

श्लोक 18: मैं ही लक्ष्य, पालनकर्ता, स्वामी, साक्षी, धाम, शरणस्थली तथा अत्यन्त प्रिय मित्र हूँ। मैं सृष्टि तथा प्रलय, सबका आधार, आश्रय तथा अविनाशी बीज भी हूँ।

श्लोक 19: हे अर्जुन! मैं ही ताप प्रदान करता हूँ और वर्षा को रोकता तथा लाता हूँ। मैं अमरत्व हूँ और साक्षात् मृत्यु भी हूँ। आत्मा तथा पदार्थ (सत् तथा असत्) दोनों मुझ ही में हैं।

श्लोक 20: जो वेदों का अध्ययन करते तथा सोमरस का पान करते हैं, वे स्वर्ग प्राप्ति की गवेषणा करते हुए अप्रत्यक्ष रूप से मेरी पूजा करते हैं। वे पापकर्मों से शुद्ध होकर, इन्द्र के पवित्र स्वर्गिक धाम में जन्म लेते हैं, जहाँ वे देवताओं का सा आनन्द भोगते हैं।

श्लोक 21: इस प्रकार जब वे (उपासक) विस्तृत स्वर्गिक इन्द्रियसुख को भोग लेते हैं और उनके पुण्यकर्मों के फल क्षीण हो जाते हैं तो वे इस मृत्युलोक में पुन: लौट आते हैं। इस प्रकार जो तीनों वेदों के सिद्धान्तों में दृढ रहकर इन्द्रियसुख की गवेषणा करते हैं, उन्हें जन्म-मृत्यु का चक्र ही मिल पाता है।

श्लोक 22: किन्तु जो लोग अनन्यभाव से मेरे दिव्यस्वरूप का ध्यान करते हुए निरन्तर मेरी पूजा करते हैं, उनकी जो आवश्यकताएँ होती हैं, उन्हें मैं पूरा करता हूँ और जो कुछ उनके पास है, उसकी रक्षा करता हूँ।

श्लोक 23: हे कुन्तीपुत्र! जो लोग अन्य देवताओं के भक्त हैं और उनकी श्रद्धापूर्वक पूजा करते हैं, वास्तव में वे भी मेरी ही पूजा करते हैं, किन्तु वे यह त्रुटिपूर्ण ढंग से करते हैं।

श्लोक 24: मैं ही समस्त यज्ञों का एकमात्र भोक्ता तथा स्वामी हूँ। अत: जो लोग मेरे वास्तविक दिव्य स्वभाव को नहीं पहचान पाते, वे नीचे गिर जाते हैं।

श्लोक 25: जो देवताओं की पूजा करते हैं, वे देवताओं के बीच जन्म लेंगे, जो पितरों को पूजते हैं, वे पितरों के पास जाते हैं, जो भूत-प्रेतों की उपासना करते हैं, वे उन्हीं के बीच जन्म लेते हैं और जो मेरी पूजा करते हैं वे मेरे साथ निवास करते हैं।

श्लोक 26: यदि कोई प्रेम तथा भक्ति के साथ मुझे पत्र, पुष्प, फल या जल प्रदान करता है, तो मैं उसे स्वीकार करता हूँ।

श्लोक 27: हे कुन्तीपुत्र! तुम जो कुछ करते हो, जो कुछ खाते हो, जो कुछ अर्पित करते हो या दान देते हो और जो भी तपस्या करते हो, उसे मुझे अर्पित करते हुए करो।

श्लोक 28: इस तरह तुम कर्म के बन्धन तथा इसके शुभाशुभ फलों से मुक्त हो सकोगे। इस संन्यासयोग में अपने चित्त को स्थिर करके तुम मुक्त होकर मेरे पास आ सकोगे।

श्लोक 29: मैं न तो किसी से द्वेष करता हूँ, न ही किसी के साथ पक्षपात करता हूँ। मैं सबों के लिए समभाव हूँ। किन्तु जो भी भक्तिपूर्वक मेरी सेवा करता है, वह मेरा मित्र है, मुझमें स्थित रहता है और मैं भी उसका मित्र हूँ।

श्लोक 30: यदि कोई जघन्य से जघन्य कर्म करता है, किन्तु यदि वह भक्ति में रत रहता है तो उसे साधु मानना चाहिए, क्योंकि वह अपने संकल्प में अडिग रहता है।

श्लोक 31: वह तुरन्त धर्मात्मा बन जाता है और स्थायी शान्ति को प्राप्त होता है। हे कुन्तीपुत्र! निडर होकर घोषणा कर दो कि मेरे भक्त का कभी विनाश नहीं होता है।

श्लोक 32: हे पार्थ! जो लोग मेरी शरण ग्रहण करते हैं, वे भले ही निम्नजन्मा स्त्री, वैश्य (व्यापारी) तथा शूद्र (श्रमिक) क्यों न हों, वे परमधाम को प्राप्त करते हैं।

श्लोक 33: फिर धर्मात्मा ब्राह्मणों, भक्तों तथा राजर्षियों के लिए तो कहना ही क्या है! अत: इस क्षणिक दुखमय संसार में आ जाने पर मेरी प्रेमाभक्ति में अपने आपको लगाओ।

श्लोक 34: अपने मन को मेरे नित्य चिन्तन में लगाओ, मेरे भक्त बनो, मुझे नमस्कार करो और मेरी ही पूजा करो। इस प्रकार मुझमें पूर्णतया तल्लीन होने पर तुम निश्चित रूप से मुझको प्राप्त होगे।

अध्याय 10: श्रीभगवान् का ऐश्वर्य

बल, सौन्दर्य, ऐश्वर्य या उत्कृष्टता प्रदर्शित करने वाली समस्त अद्भुत घटनाएँ, चाहे वे इस लोक में हों या आध्यात्मिक जगत में, कृष्ण की दैवी शक्तियों एवं ऐश्वर्यों की आंशिक अभिव्यक्तियाँ हैं। समस्त कारणों के कारण-स्वरूप तथा सर्वस्वरूप कृष्ण समस्त जीवों के परम पूजनीय हैं।

श्लोक 1: श्रीभगवान् ने कहा—हे महाबाहु अर्जुन! और आगे सुनो। चूँकि तुम मेरे प्रिय सखा हो, अत: मैं तुम्हारे लाभ के लिए ऐसा ज्ञान प्रदान करूँगा, जो अभी तक मेरे द्वारा बताये गये ज्ञान से श्रेष्ठ होगा।

श्लोक 2: न तो देवतागण मेरी उत्पत्ति या ऐश्वर्य को जानते हैं और न महर्षिगण ही जानते हैं, क्योंकि मैं सभी प्रकार से देवताओं और महर्षियों का भी कारणस्वरूप (उद्गम) हूँ।

श्लोक 3: जो मुझे अजन्मा, अनादि, समस्त लोकों के स्वामी के रूप में जानता है, मनुष्यों में केवल वही मोहरहित और समस्त पापों से मुक्त होता है।

श्लोक 4-5: बुद्धि, ज्ञान, संशय तथा मोह से मुक्ति, क्षमाभाव, सत्यता, इन्द्रियनिग्रह, मननिग्रह, सुख तथा दुख, जन्म, मृत्यु, भय, अभय, अहिंसा, समता, तुष्टि, तप, दान, यश तथा अपयश—जीवों के ये विविध गुण मेरे ही द्वारा उत्पन्न हैं।

श्लोक 6: सप्तर्षिगण तथा उनसे भी पूर्व चार अन्य महर्षि एवं सारे मनु (मानवजाति के पूर्वज) सब मेरे मन से उत्पन्न हैं और विभिन्न लोकों में निवास करने वाले सारे जीव उनसे अवतरित होते हैं।

श्लोक 7: जो मेरे इस ऐश्वर्य तथा योग से पूर्णतया आश्वस्त है, वह मेरी अनन्य भक्ति में तत्पर होता है। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।

श्लोक 8: मैं समस्त आध्यात्मिक तथा भौतिक जगतों का कारण हूँ, प्रत्येक वस्तु मुझ ही से उद्भूत है। जो बुद्धिमान यह भलीभाँति जानते हैं, वे मेरी प्रेमाभक्ति में लगते हैं तथा हृदय से पूरी तरह मेरी पूजा में तत्पर होते हैं।

श्लोक 9: मेरे शुद्धभक्तों के विचार मुझमें वास करते हैं, उनके जीवन मेरी सेवा में अर्पित रहते हैं और वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते तथा मेरे विषय में बातें करते हुए परम सन्तोष तथा आनन्द का अनुभव करते हैं।

श्लोक 10: जो प्रेमपूर्वक मेरी सेवा करने में निरन्तर लगे रहते हैं, उन्हें मैं ज्ञान प्रदान करता हूँ, जिसके द्वारा वे मुझ तक आ सकते हैं।

श्लोक 11: मैं उन पर विशेष कृपा करने के हेतु उनके हृदयों में वास करते हुए ज्ञान के प्रकाशमान दीपक के द्वारा अज्ञानजन्य अंधकार को दूर करता हूँ।

श्लोक 12-13: अर्जुन ने कहा—आप परम भगवान्, परमधाम, परमपवित्र, परमसत्य हैं। आप नित्य, दिव्य, आदि पुरुष, अजन्मा तथा महानतम हैं। नारद, असित, देवल तथा व्यास जैसे ऋषि आपके इस सत्य की पुष्टि करते हैं और अब आप स्वयं भी मुझसे प्रकट कह रहे हैं।

श्लोक 14: हे कृष्ण! आपने मुझसे जो कुछ कहा है, उसे मैं पूर्णतया सत्य मानता हूँ। हे प्रभु! न तो देवतागण, न असुरगण ही आपके स्वरूप को समझ सकते हैं।

श्लोक 15: हे परमपुरुष, हे सबके उद्गम, हे समस्त प्राणियों के स्वामी, हे देवों के देव, हे ब्रह्माण्ड के प्रभु! निस्सन्देह एकमात्र आप ही अपने को अपनी अन्तरंगाशक्ति से जानने वाले हैं।

श्लोक 16: कृपा करके विस्तारपूर्वक मुझे अपने उन दैवी ऐश्वर्यों को बतायें, जिनके द्वारा आप इन समस्त लोकों में व्याप्त हैं।

श्लोक 17: हे कृष्ण, हे परम योगी! मैं किस तरह आपका निरन्तर चिन्तन करूँ और आपको कैसे जानूँ? हे भगवान्! आपका स्मरण किन-किन रूपों में किया जाय?

श्लोक 18: हे जनार्दन! आप पुन: विस्तार से अपने ऐश्वर्य तथा योगशक्ति का वर्णन करें। मैं आपके विषय में सुनकर कभी तृप्त नहीं होता हूँ, क्योंकि जितना ही आपके विषय में सुनता हूँ, उतना ही आपके शब्द-अमृत को चखना चाहता हूँ।

श्लोक 19: श्रीभगवान् ने कहा—हाँ, अब मैं तुमसे अपने मुख्य-मुख्य वैभवयुक्त रूपों का वर्णन करूँगा, क्योंकि हे अर्जुन! मेरा ऐश्वर्य असीम है।

श्लोक 20: हे अर्जुन! मैं समस्त जीवों के हृदयों में स्थित परमात्मा हूँ। मैं ही समस्त जीवों का आदि, मध्य तथा अन्त हूँ।

श्लोक 21: मैं आदित्यों में विष्णु, प्रकाशों में तेजस्वी सूर्य, मरुतों में मरीचि तथा नक्षत्रों में चन्द्रमा हूँ।

श्लोक 22: मैं वेदों में सामवेद हूँ, देवों में स्वर्ग का राजा इन्द्र हूँ, इन्द्रियों में मन हूँ, तथा समस्त जीवों में जीवनीशक्ति (चेतना) हूँ।

श्लोक 23: मैं समस्त रुद्रों में शिव हूँ, यक्षों तथा राक्षसों में सम्पत्ति का देवता (कुबेर) हूँ, वसुओं में अग्नि हूँ और समस्त पर्वतों में मेरु हूँ।

श्लोक 24: हे अर्जुन! मुझे समस्त पुरोहितों में मुख्य पुरोहित बृहस्पति जानो। मैं ही समस्त सेनानायकों में कार्तिकेय हूँ और समस्त जलाशयों में समुद्र हूँ।

श्लोक 25: मैं महर्षियों में भृगु हूँ, वाणी में दिव्य ओंकार हूँ, समस्त यज्ञों में पवित्र नाम का कीर्तन (जप) तथा समस्त अचलों में हिमालय हूँ।

श्लोक 26: मैं समस्त वृक्षों में अश्वत्थ वृक्ष हूँ और देवर्षियों में नारद हूँ। मैं गन्धर्वों में चित्ररथ हूँ और सिद्ध पुरुषों में कपिल मुनि हूँ।

श्लोक 27: घोड़ों में मुझे उच्चै:श्रवा जानो, जो अमृत के लिए समुद्र मन्थन के समय उत्पन्न हुआ था। गजराजों में मैं ऐरावत हूँ तथा मनुष्यों में राजा हूँ।

श्लोक 28: मैं हथियारों में वज्र हूँ, गायों में सुरभि, सन्तति उत्पत्ति के कारणों में प्रेम का देवता कामदेव तथा सर्पों में वासुकि हूँ।

श्लोक 29: अनेक फणों वाले नागों में मैं अनन्त हूँ और जलचरों में वरुणदेव हूँ। मैं पितरों में अर्यमा हूँ तथा नियमों के निर्वाहकों में मैं मृत्युराज यम हूँ।

श्लोक 30: दैत्यों में मैं भक्तराज प्रह्लाद हूँ, दमन करने वालों में काल हूँ, पशुओं में सिंह हूँ, तथा पक्षियों में गरुड़ हूँ।

श्लोक 31: समस्त पवित्र करने वालों में मैं वायु हूँ, शस्त्रधारियों में राम, मछलियों में मगर तथा नदियों में गंगा हूँ।

श्लोक 32: हे अर्जुन! मैं समस्त सृष्टियों का आदि, मध्य और अन्त हूँ। मैं समस्त विद्याओं में अध्यात्म विद्या हूँ और तर्कशास्त्रियों में मैं निर्णायक सत्य हूँ।

श्लोक 33: अक्षरों में मैं अकार हूँ और समासों में द्वन्द्व समास हूँ। मैं शाश्वत काल भी हूँ और स्रष्टाओं में ब्रह्मा हूँ।

श्लोक 34: मैं सर्वभक्षी मृत्यु हूँ और मैं ही आगे होने वालों को उत्पन्न करने वाला हूँ। स्त्रियों में मैं कीर्ति, श्री, वाक्, स्मृति, मेघा, धृति तथा क्षमा हूँ।

श्लोक 35: मैं सामवेद के गीतों में बृहत्साम हूँ और छन्दों में गायत्री हूँ। समस्त महीनों में मैं मार्गशीर्ष (अगहन) तथा समस्त ऋतुओं में फूल खिलाने वाली वसन्त ऋतु हूँ।

श्लोक 36: मैं छलियों में जुआ हूँ और तेजस्वियों में तेज हूँ। मैं विजय हूँ, साहस हूँ और बलवानों का बल हूँ।

श्लोक 37: मैं वृष्णिवंशियों में वासुदेव और पाण्डवों में अर्जुन हूँ। मैं समस्त मुनियों में व्यास तथा महान विचारकों में उशना हूँ।

श्लोक 38: अराजकता को दमन करने वाले समस्त साधनों में से मैं दण्ड हूँ और जो विजय के आकांक्षी हैं उनकी मैं नीति हूँ। रहस्यों में मैं मौन हूँ और बुद्धिमानों में ज्ञान हूँ।

श्लोक 39: यही नहीं, हे अर्जुन! मैं समस्त सृष्टि का जनक बीज हूँ। ऐसा चर तथा अचर कोई भी प्राणी नहीं है, जो मेरे बिना रह सके।

श्लोक 40: हे परन्तप! मेरी दैवी विभूतियों का अन्त नहीं है। मैंने तुमसे जो कुछ कहा, वह तो मेरी अनन्त विभूतियों का संकेत मात्र है।

श्लोक 41: तुम जान लो कि सारा ऐश्वर्य, सौन्दर्य तथा तेजस्वी सृष्टियाँ मेरे तेज के एक स्फुलिंग मात्र से उद्भूत हैं।

श्लोक 42: किन्तु हे अर्जुन! इस सारे विशद ज्ञान की आवश्यकता क्या है? मैं तो अपने एक अंश मात्र से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त होकर इसको धारण करता हूँ।

अध्याय 11: विराट रूप

भगवान् कृष्ण अर्जुन को दिव्य दृष्टि प्रदान करते हैं और विश्व-रूप में अपना अद्भुत असीम रूप प्रकट करते हैं। इस प्रकार वे अपनी दिव्यता स्थापित करते हैं। कृष्ण बतलाते हैं कि उनका सर्व आकर्षक मानव-रूप ही ईश्वर का आदि रूप है। मनुष्य शुद्ध भक्ति के द्वारा ही इस रूप का दर्शन कर सकता है।

श्लोक 1: अर्जुन ने कहा—आपने जिन अत्यन्त गुह्य आध्यात्मिक विषयों का मुझे उपदेश दिया है, उसे सुनकर अब मेरा मोह दूर हो गया है।

श्लोक 2: हे कमलनयन! मैंने आपसे प्रत्येक जीव की उत्पत्ति तथा लय के विषय में विस्तार से सुना है और आपकी अक्षय महिमा का अनुभव किया है।

श्लोक 3: हे पुरुषोत्तम, हे परमेश्वर! यद्यपि आपको मैं अपने समक्ष आपके द्वारा वर्णित आपके वास्तविक रूप में देख रहा हूँ, किन्तु मैं यह देखने का इच्छुक हूँ कि आप इस दृश्य जगत में किस प्रकार प्रविष्ट हुए हैं। मैं आपके उसी रूप का दर्शन करना चाहता हूँ।

श्लोक 4: हे प्रभु! हे योगेश्वर! यदि आप सोचते हैं कि मैं आपके विश्वरूप को देखने में समर्थ हो सकता हूँ, तो कृपा करके मुझे अपना असीम विश्वरूप दिखलाइये।

श्लोक 5: भगवान् ने कहा—हे अर्जुन, हे पार्थ! अब तुम मेरे ऐश्वर्य को, सैकड़ों-हजारों प्रकार के दैवी तथा विविध रंगों वाले रूपों को देखो।

श्लोक 6: हे भारत! लो, तुम आदित्यों, वसुओं, रुद्रों, अश्विनीकुमारों तथा अन्य देवताओं के विभिन्न रूपों को यहाँ देखो। तुम ऐसे अनेक आश्चर्यमय रूपों को देखो, जिन्हें पहले किसी ने न तो कभी देखा है, न सुना है।

श्लोक 7: हे अर्जुन! तुम जो भी देखना चाहो, उसे तत्क्षण मेरे इस शरीर में देखो। तुम इस समय तथा भविष्य में भी जो भी देखना चाहते हो, उसको यह विश्वरूप दिखाने वाला है। यहाँ एक ही स्थान पर चर-अचर सब कुछ है।

श्लोक 8: किन्तु तुम मुझे अपनी इन आँखों से नहीं देख सकते। अत: मैं तुम्हें दिव्य आँखें दे रहा हूँ। अब मेरे योग ऐश्वर्य को देखो।

श्लोक 9: संजय ने कहा—हे राजा! इस प्रकार कहकर महायोगेश्वर भगवान् ने अर्जुन को अपना विश्वरूप दिखलाया।

श्लोक 10-11: अर्जुन ने उस विश्वरूप में असंख्य मुख, असंख्य नेत्र तथा असंख्य आश्चर्यमय दृश्य देखे। यह रूप अनेक दैवी आभूषणों से अलंकृत था और अनेक दैवी हथियार उठाये हुए था। यह दैवी मालाएँ तथा वस्त्र धारण किये था और उस पर अनेक दिव्य सुगन्धियाँ लगी थीं। सब कुछ आश्चर्यमय, तेजमय, असीम तथा सर्वत्र व्याप्त था।

श्लोक 12: यदि आकाश में हजारों सूर्य एकसाथ उदय हों, तो उनका प्रकाश शायद परमपुरुष के इस विश्वरूप के तेज की समता कर सके।

श्लोक 13: उस समय अर्जुन भगवान् के विश्वरूप में एक ही स्थान पर स्थित हजारों भागों में विभक्त ब्रह्माण्ड के अनन्त अंशों को देख सका।

श्लोक 14: तब मोहग्रस्त एवं आश्चर्यचकित रोमांचित हुए अर्जुन ने प्रणाम करने के लिए मस्तक झुकाया और वह हाथ जोडक़र भगवान् से प्रार्थना करने लगा।

श्लोक 15: अर्जुन ने कहा—हे भगवान् कृष्ण! मैं आपके शरीर में सारे देवताओं तथा अन्य विविध जीवों को एकत्र देख रहा हूँ। मैं कमल पर आसीन ब्रह्मा, शिवजी तथा समस्त ऋषियों एवं दिव्य सर्पों को देख रहा हूँ।

श्लोक 16: हे विश्वेश्वर, हे विश्वरूप! मैं आपके शरीर में अनेकानेक हाथ, पेट, मुँह तथा आँखें देख रहा हूँ, जो सर्वत्र फैले हैं और जिनका अन्त नहीं है। आपमें न अन्त दीखता है, न मध्य और न आदि।

श्लोक 17: आपके रूप को उसके चकाचौंध तेज के कारण देख पाना कठिन है, क्योंकि वह प्रज्ज्वलित अग्नि की भाँति अथवा सूर्य के अपार प्रकाश की भाँति चारों ओर फैल रहा है। तो भी मैं इस तेजोमय रूप को सर्वत्र देख रहा हूँ, जो अनेक मुकुटों, गदाओं तथा चक्रों से विभूषित है।

श्लोक 18: आप परम आद्य ज्ञेय वस्तु हैं। आप इस ब्रह्माण्ड के परम आधार (आश्रय) हैं। आप अव्यय तथा पुराण पुरुष हैं। आप सनातन धर्म के पालक भगवान् हैं। यही मेरा मत है।

श्लोक 19: आप आदि, मध्य तथा अन्त से रहित हैं। आपका यश अनन्त है। आपकी असंख्य भुजाएँ हैं और सूर्य तथा चन्द्रमा आपकी आँखें हैं। मैं आपके मुख से प्रज्ज्वलित अग्नि निकलते और आपके तेज से इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को जलते हुए देख रहा हूँ।

श्लोक 20: यद्यपि आप एक हैं, किन्तु आप आकाश तथा सारे लोकों एवं उनके बीच के समस्त अवकाश में व्याप्त हैं। हे महापुरुष! आपके इस अद्भुत तथा भयानक रूप को देखकर सारे लोक भयभीत हैं।

श्लोक 21: देवों का सारा समूह आपकी शरण ले रहा है और आपमें प्रवेश कर रहा है। उनमें से कुछ अत्यन्त भयभीत होकर हाथ जोड़े आपकी प्रार्थना कर रहे हैं। महर्षियों तथा सिद्धों के समूह “कल्याण हो” कहकर वैदिक स्तोत्रों का पाठ करते हुए आपकी स्तुति कर रहे हैं।

श्लोक 22: शिव के विविध रूप, आदित्यगण, वसु, साध्य, विश्वेदेव, दोनों अश्विनीकुमार, मरुद्गण, पितृगण, गन्धर्व, यक्ष, असुर तथा सिद्धदेव सभी आपको आश्चर्यपूर्वक देख रहे हैं।

श्लोक 23: हे महाबाहु! आपके इस अनेक मुख, नेत्र, बाहु, जंघा, पाँव, पेट तथा भयानक दाँतों वाले विराट रूप को देखकर देवतागण सहित सभी लोक अत्यन्त विचलित हैं और उन्हीं की तरह मैं भी हूँ।

श्लोक 24: हे सर्वव्यापी विष्णु! नाना ज्योतिर्मय रंगों से युक्त आपको आकाश का स्पर्श करते, मुख फैलाये तथा बड़ी-बड़ी चमकती आँखें निकाले देखकर भय से मेरा मन विचलित है। मैं न तो धैर्य धारण कर पा रहा हूँ, न मानसिक संतुलन ही पा रहा हूँ।

श्लोक 25: हे देवेश! हे जगन्निवास! आप मुझ पर प्रसन्न हों। मैं इस प्रकार से आपके प्रलयाग्नि स्वरूप मुखों को तथा विकराल दाँतों को देखकर अपना सन्तुलन नहीं रख पा रहा। मैं सब ओर से मोहग्रस्त हो रहा हूँ।

श्लोक 26-27: धृतराष्ट्र के सारे पुत्र अपने समस्त सहायक राजाओं सहित तथा भीष्म, द्रोण, कर्ण एवं हमारे प्रमुख योद्धा भी आपके विकराल मुख में प्रवेश कर रहे हैं। उनमें से कुछ के शिरों को तो मैं आपके दाँतों के बीच चूर्णित हुआ देख रहा हूँ।

श्लोक 28: जिस प्रकार नदियों की अनेक तरंगें समुद्र में प्रवेश करती हैं, उसी प्रकार ये समस्त महान योद्धा भी आपके प्रज्ज्वलित मुखों में प्रवेश कर रहे हैं।

श्लोक 29: मैं समस्त लोगों को पूर्ण वेग से आपके मुख में उसी प्रकार प्रविष्ट होते देख रहा हूँ, जिस प्रकार पतिंगे अपने विनाश के लिए प्रज्ज्वलित अग्नि में कूद पड़ते हैं।

श्लोक 30: हे विष्णु! मैं देखता हूँ कि आप अपने प्रज्ज्वलित मुखों से सभी दिशाओं के लोगों को निगले जा रहे हैं। आप सारे ब्रह्माण्ड को अपने तेज से आपूरित करके अपनी विकराल झुलसाती किरणों सहित प्रकट हो रहे हैं।

श्लोक 31: हे देवेश! कृपा करके मुझे बतलाइये कि इतने उग्ररूप में आप कौन हैं? मैं आपको नमस्कार करता हूँ, कृपा करके मुझपर प्रसन्न हों। आप आदि-भगवान् हैं। मैं आपको जानना चाहता हूँ, क्योंकि मैं नहीं जान पा रहा हूँ कि आपका प्रयोजन क्या है।

श्लोक 32: भगवान् ने कहा—समस्त जगतों को विनष्ट करने वाला काल मैं हूँ और मैं यहाँ समस्त लोगों का विनाश करने के लिए आया हूँ। तुम्हारे (पाण्डवों के) सिवा दोनों पक्षों के सारे योद्धा मारे जाएँगे।

श्लोक 33: अत: उठो! लडऩे के लिए तैयार होओ और यश अर्जित करो। अपने शत्रुओं को जीतकर सम्पन्न राज्य का भोग करो। ये सब मेरे द्वारा पहले ही मारे जा चुके हैं और हे सव्यसाची! तुम तो युद्ध में केवल निमित्तमात्र हो सकते हो।

श्लोक 34: द्रोण, भीष्म, जयद्रथ, कर्ण तथा अन्य महान योद्धा पहले ही मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं। अत: तुम उनका वध करो और तनिक भी विचलित न होओ। तुम केवल युद्ध करो। युद्ध में तुम अपने शत्रुओं को परास्त करोगे।

श्लोक 35: संजय ने धृतराष्ट्र से कहा—हे राजा! भगवान् के मुख से इन वचनों को सुनकर काँपते हुए अर्जुन ने हाथ जोडक़र उन्हें बारम्बार नमस्कार किया। फिर उसने भयभीत होकर अवरुद्ध स्वर में कृष्ण से इस प्रकार कहा।

श्लोक 36: अर्जुन ने कहा—हे हृषीकेश! आपके नाम के श्रवण से संसार हर्षित होता है और सभी लोग आपके प्रति अनुरक्त होते हैं। यद्यपि सिद्धपुरुष आपको नमस्कार करते हैं, किन्तु असुरगण भयभीत हैं और इधर-उधर भाग रहे हैं। यह ठीक ही हुआ है।

श्लोक 37: हे महात्मा! आप ब्रह्मा से भी बढक़र हैं, आप आदि स्रष्टा हैं। तो फिर वे आपको सादर नमस्कार क्यों न करें? हे अनन्त, हे देवेश, हे जगन्निवास! आप परम स्रोत, अक्षर, कारणों के कारण तथा इस भौतिक जगत् से परे हैं।

श्लोक 38: आप आदि देव, सनातन पुरुष तथा इस दृश्यजगत के परम आश्रय हैं। आप सब कुछ जानने वाले हैं और आप ही वह सब कुछ हैं, जो जानने योग्य है। आप भौतिक गुणों से परे परम आश्रय हैं। हे अनन्त रूप! यह सम्पूर्ण दृश्यजगत आपसे व्याप्त है।

श्लोक 39: आप वायु हैं तथा परम नियन्ता भी हैं। आप अग्नि हैं, जल हैं तथा चन्द्रमा हैं। आप आदि जीव ब्रह्मा हैं और आप प्रपितामह हैं। अत: आपको हजार बार नमस्कार है और पुन:पुन: नमस्कार है।

श्लोक 40: आपको आगे, पीछे तथा चारों ओर से नमस्कार है। हे असीम शक्ति! आप अनन्त पराक्रम के स्वामी हैं। आप सर्वव्यापी हैं, अत: आप सब कुछ हैं।

श्लोक 41-42: आपको अपना मित्र मानते हुए मैंने हठपूर्वक आपको हे कृष्ण, हे यादव, हे सखा जैसे सम्बोधनों से पुकारा है, क्योंकि मैं आपकी महिमा को नहीं जानता था। मैंने मूर्खतावश या प्रेमवश जो कुछ भी किया है, कृपया उसके लिए मुझे क्षमा कर दें। यही नहीं, मैंने कई बार आराम करते समय, एकसाथ लेटे हुए या साथ-साथ खाते या बैठे हुए, कभी अकेले तो कभी अनेक मित्रों के समक्ष आपका अनादर किया है। हे अच्युत! मेरे इन समस्त अपराधों को क्षमा करें।

श्लोक 43: आप इस चर तथा अचर सम्पूर्ण दृश्यजगत के जनक हैं। आप परम पूज्य महान आध्यात्मिक गुरु हैं। न तो कोई आपके तुल्य है, न ही कोई आपके समान हो सकता है। हे अतुल शक्ति वाले प्रभु! भला तीनों लोकों में आपसे बढक़र कोई कैसे हो सकता है?

श्लोक 44: आप प्रत्येक जीव द्वारा पूजनीय भगवान् हैं। अत: मैं गीरकर सादर प्रणाम करता हूँ और आपकी कृपा की याचना करता हूँ। जिस प्रकार पिता अपने पुत्र की ढिठाई सहन करता है, या मित्र अपने मित्र की घृष्टता सह लेता है, या प्रिय अपनी प्रिया का अपराध सहन कर लेता है, उसी प्रकार आप कृपा करके मेरी त्रुटियों को सहन कर लें।

श्लोक 45: पहले कभी न देखे गये आपके इस विराट रूप का दर्शन करके मैं पुलकित हो रहा हूँ, किन्तु साथ ही मेरा मन भयभीत हो रहा है। अत: आप मुझ पर कृपा करें और हे देवेश, हे जगन्निवास! अपना पुरुषोत्तम भगवत् स्वरूप पुन: दिखाएँ।

श्लोक 46: हे विराट रूप! हे सहस्रभुज भगवान्! मैं आपके मुकुटधारी चतुर्भुज रूप का दर्शन करना चाहता हूँ, जिसमें आप अपने चारों हाथों में शंख, चक्र, गदा तथा पद्म धारण किये हुए हों। मैं उसी रूप को देखने की इच्छा करता हूँ।

श्लोक 47: भगवान् ने कहा—हे अर्जुन! मैंने प्रसन्न होकर अपनी अन्तरंगा शक्ति के बल पर तुम्हें इस संसार में अपने इस परम विश्वरूप का दर्शन कराया है। इसके पूर्व अन्य किसी ने इस असीम तथा तेजोमय आदि-रूप को कभी नहीं देखा था।

श्लोक 48: हे कुरुश्रेष्ठ! तुमसे पूर्व मेरे इस विश्वरूप को किसी ने नहीं देखा, क्योंकि मैं न तो वेदाध्ययन के द्वारा, न यज्ञ, दान, पुण्य या कठिन तपस्या के द्वारा इस रूप में, इस संसार में देखा जा सकता हूँ।

श्लोक 49: तुम मेरे इस भयानक रूप को देखकर अत्यन्त विचलित एवं मोहित हो गये हो। अब इसे समाप्त करता हूँ। हे मेरे भक्त! तुम समस्त चिन्ताओं से पुन: मुक्त हो जाओ। तुम शान्त चित्त से अब अपना इच्छित रूप देख सकते हो।

श्लोक 50: संजय ने धृतराष्ट्र से कहा—अर्जुन से इस प्रकार कहने के बाद भगवान् कृष्ण ने अपना असली चतुर्भुज रूप प्रकट किया और अन्त में दो भुजाओं वाला अपना रूप प्रदर्शित करके भयभीत अर्जुन को धैर्य बँधाया।

श्लोक 51: जब अर्जुन ने कृष्ण को उनके आदि रूप में देखा तो कहा—हे जनार्दन! आपके इस अतीव सुन्दर मानवी रूप को देखकर मैं अब स्थिरचित्त हूँ और मैंने अपनी प्राकृत अवस्था प्राप्त कर ली है।

श्लोक 52: श्रीभगवान् ने कहा—हे अर्जुन! तुम मेरे जिस रूप को इस समय देख रहे हो, उसे देख पाना अत्यन्त दुष्कर है। यहाँ तक कि देवता भी इस अत्यन्त प्रिय रूप को देखने की ताक में रहते हैं।

श्लोक 53: तुम अपने दिव्य नेत्रों से जिस रूप का दर्शन कर रहे हो, उसे न तो वेदाध्ययन से, न कठिन तपस्या से, न दान से, न पूजा से ही जाना जा सकता है। कोई इन साधनों के द्वारा मुझे मेरे रूप में नहीं देख सकता।

श्लोक 54: हे अर्जुन! केवल अनन्य भक्ति द्वारा मुझे उस रूप में समझा जा सकता है, जिस रूप में मैं तुम्हारे समक्ष खड़ा हूँ और इसी प्रकार मेरा साक्षात् दर्शन भी किया जा सकता है। केवल इसी विधि से तुम मेरे ज्ञान के रहस्य को पा सकते हो।

श्लोक 55: हे अर्जुन! जो व्यक्ति सकाम कर्मों तथा मनोधर्म के कल्मष से मुक्त होकर, मेरी शुद्ध भक्ति में तत्पर रहता है, जो मेरे लिए ही कर्म करता है, जो मुझे ही जीवन-लक्ष्य समझता है और जो प्रत्येक जीव से मैत्रीभाव रखता है, वह निश्चय ही मुझे प्राप्त करता है।

अध्याय 12: भक्तियोग

कृष्ण के शुद्ध प्रेम को प्राप्त करने का सबसे सुगम एवं सर्वोच्च साधन भक्तियोग है। इस परम पथ का अनुसरण करने वालों में दिव्य गुण उत्पन्न होते हैं।

श्लोक 1: अर्जुन ने पूछा—जो आपकी सेवा में सदैव तत्पर रहते हैं, या जो अव्यक्त निर्विशेष ब्रह्म की पूजा करते हैं, इन दोनों में से किसे अधिक पूर्ण (सिद्ध) माना जाय?

श्लोक 2: श्रीभगवान् ने कहा—जो लोग अपने मन को मेरे साकार रूप में एकाग्र करते हैं, और अत्यन्त श्रद्धापूर्वक मेरी पूजा करने में सदैव लगे रहते हैं, वे मेरे द्वारा परम सिद्ध माने जाते हैं।

श्लोक 3-4: लेकिन जो लोग अपनी इन्द्रियों को वश में करके तथा सबों के प्रति समभाव रखकर परम सत्य की निराकार कल्पना के अन्तर्गत उस अव्यक्त की पूरी तरह से पूजा करते हैं, जो इन्द्रियों की अनुभूति के परे है, सर्वव्यापी है, अकल्पनीय है, अपरिवर्तनीय है, अचल तथा ध्रुव है, वे समस्त लोगों के कल्याण में संलग्न रहकर अन्तत: मुझे प्राप्त करते है।

श्लोक 5: जिन लोगों के मन परमेश्वर के अव्यक्त, निराकार स्वरूप के प्रति आसक्त हैं, उनके लिए प्रगति कर पाना अत्यन्त कष्टप्रद है। देहधारियों के लिए उस क्षेत्र में प्रगति कर पाना सदैव दुष्कर होता है।

श्लोक 6-7: जो अपने सारे कार्यों को मुझमें अर्पित करके तथा अविचलित भाव से मेरी भक्ति करते हुए मेरी पूजा करते हैं और अपने चित्तों को मुझ पर स्थिर करके निरन्तर मेरा ध्यान करते हैं, उनके लिए हे पार्थ! मैं जन्म-मृत्यु के सागर से शीघ्र उद्धार करने वाला हूँ।

श्लोक 8: मुझ भगवान् में अपने चित्त को स्थिर करो और अपनी सारी बुद्धि मुझमें लगाओ। इस प्रकार तुम निस्सन्देह मुझमें सदैव वास करोगे।

श्लोक 9: हे अर्जुन, हे धनञ्जय! यदि तुम अपने चित्त को अविचल भाव से मुझ पर स्थिर नहीं कर सकते, तो तुम भक्तियोग के विधि-विधानों का पालन करो। इस प्रकार तुम मुझे प्राप्त करने की चाह उत्पन्न करो।

श्लोक 10: यदि तुम भक्तियोग के विधि-विधानों का भी अभ्यास नहीं कर सकते, तो मेरे लिए कर्म करने का प्रयत्न करो, क्योंकि मेरे लिए कर्म करने से तुम पूर्ण अवस्था (सिद्धि) को प्राप्त होगे।

श्लोक 11: किन्तु यदि तुम मेरे इस भावनामृत में कर्म करने में असमर्थ हो तो तुम अपने कर्म के समस्त फलों को त्याग कर कर्म करने का तथा आत्म-स्थित होने का प्रयत्न करो।

श्लोक 12: यदि तुम यह अभ्यास नहीं कर सकते, तो ज्ञान के अनुशीलन में लग जाओ। लेकिन ज्ञान से श्रेष्ठ ध्यान है और ध्यान से भी श्रेष्ठ है कर्म फलों का परित्याग क्योंकि ऐसे त्याग से मनुष्य को मन:शान्ति प्राप्त हो सकती है।

श्लोक 13-14: जो किसी से द्वेष नहीं करता, लेकिन सभी जीवों का दयालु मित्र है, जो अपने को स्वामी नहीं मानता और मिथ्या अहंकार से मुक्त है, जो सुख-दुख में समभाव रहता है, सहिष्णु है, सदैव आत्मतुष्ट रहता है, आत्मसंयमी है तथा जो निश्चय के साथ मुझमें मन तथा बुद्धि को स्थिर करके भक्ति में लगा रहता है, ऐसा भक्त मुझे अत्यन्त प्रिय है।

श्लोक 15: जिससे किसी को कष्ट नहीं पहुँचता तथा जो अन्य किसी के द्वारा विचलित नहीं किया जाता, जो सुख-दुख में, भय तथा चिन्ता में समभाव रहता है, वह मुझे अत्यन्त प्रिय है।

श्लोक 16: मेरा ऐसा भक्त जो सामान्य कार्य-कलापों पर आश्रित नहीं है, जो शुद्ध है, दक्ष है, चिन्तारहित है, समस्त कष्टों से रहित है और किसी फल के लिए प्रयत्नशील नहीं रहता, मुझे अतिशय प्रिय है।

श्लोक 17: जो न कभी हर्षित होता है, न शोक करता है, जो न तो पछताता है, न इच्छा करता है, तथा जो शुभ तथा अशुभ दोनों प्रकार की वस्तुओं का परित्याग कर देता है, ऐसा भक्त मुझे अत्यन्त प्रिय है।

श्लोक 18-19: जो मित्रों तथा शत्रुओं के लिए समान है, जो मान तथा अपमान, शीत तथा गर्मी, सुख तथा दुख, यश तथा अपयश में समभाव रखता है, जो दूषित संगति से सदैव मुक्त रहता है, जो सदैव मौन और किसी भी वस्तु से संतुष्ट रहता है, जो किसी प्रकार के घर-बार की परवाह नहीं करता, जो ज्ञान में दृढ़ है और जो भक्ति में संलग्न है—ऐसा पुरुष मुझे अत्यन्त प्रिय है।

श्लोक 20: जो इस भक्ति के अमर पथ का अनुसरण करते हैं, और जो मुझे ही अपना चरम लक्ष्य बना कर श्रद्धासहित पूर्णरूपेण संलग्न रहते हैं, वे भक्त मुझे अत्यधिक प्रिय हैं।

अध्याय 13: प्रकृति, पुरुष तथा चेतना

जो व्यक्ति शरीर, आत्मा तथा इनसे भी परे परमात्मा के अन्तर को समझ लेता है, उसे इस भौतिक जगत से मोक्ष प्राप्त होता है।

श्लोक 1-2: अर्जुन ने कहा—हे कृष्ण! मैं प्रकृति एवं पुरुष (भोक्ता), क्षेत्र एवं क्षेत्रज्ञ तथा ज्ञान एवं ज्ञेय के विषय में जानने का इच्छुक हूँ। श्री भगवान् ने कहा—हे कुन्तीपुत्र! यह शरीर क्षेत्र कहलाता है और इस क्षेत्र को जानने वाला क्षेत्रज्ञ है।

श्लोक 3: हे भरतवंशी! तुम्हें ज्ञात होना चाहिए कि मैं भी समस्त शरीरों में ज्ञाता भी हूँ और इस शरीर तथा इसके ज्ञाता को जान लेना ज्ञान कहलाता है। ऐसा मेरा मत है।

श्लोक 4: अब तुम मुझसे यह सब संक्षेप में सुनो कि कर्मक्षेत्र क्या है, यह किस प्रकार बना है, इसमें क्या परिवर्तन होते हैं, यह कहाँ से उत्पन्न होता है, इस कर्मक्षेत्र को जानने वाला कौन है और उसके क्या प्रभाव हैं।

श्लोक 5: विभिन्न वैदिक ग्रंथों में विभिन्न ऋषियों ने कार्यकलापों के क्षेत्र तथा उन कार्यकलापों के ज्ञाता के ज्ञान का वर्णन किया है। इसे विशेष रूप से वेदान्त सूत्र में कार्य-कारण के समस्त तर्क समेत प्रस्तुत किया गया है।

श्लोक 6-7: पंच महाभूत, अहंकार, बुद्धि, अव्यक्त (तीनों गुणों की अप्रकट अवस्था), दसों इन्द्रियाँ तथा मन, पाँच इन्द्रियविषय, इच्छा, द्वेष, सुख, दुख, संघात, जीवन के लक्षण तथा धैर्य— इन सब को संक्षेप में कर्म का क्षेत्र तथा उसकी अन्त:क्रियाएँ (विकार) कहा जाता है।

श्लोक 8-12: विनम्रता, दम्भहीनता, अहिंसा, सहिष्णुता, सरलता, प्रामाणिक गुरु के पास जाना, पवित्रता, स्थिरता, आत्मसंयम, इन्द्रियतृप्ति के विषयों का परित्याग, अहंकार का अभाव, जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था तथा रोग के दोषों की अनुभूति, वैराग्य, सन्तान, स्त्री, घर तथा अन्य वस्तुओं की ममता से मुक्ति, अच्छी तथा बुरी घटनाओं के प्रति समभाव, मेरे प्रति निरन्तर अनन्य भक्ति, एकान्त स्थान में रहने की इच्छा, जन समूह से विलगाव, आत्म-साक्षात्कार की महत्ता को स्वीकारना, तथा परम सत्य की दार्शनिक खोज—इन सबको मैं ज्ञान घोषित करता हूँ और इनके अतिरिक्त जो भी है, वह सब अज्ञान है।

श्लोक 13: अब मैं तुम्हें ज्ञेय के विषय में बतलाऊँगा, जिसे जानकर तुम नित्य ब्रह्म का आस्वादन कर सकोगे। यह ब्रह्म या आत्मा, जो अनादि है और मेरे अधीन है, इस भौतिक जगत् के कार्य-कारण से परे स्थित है।

श्लोक 14: उनके हाथ, पाँव, आखें, सिर तथा मुँह तथा उनके कान सर्वत्र हैं। इस प्रकार परमात्मा सभी वस्तुओं में व्याप्त होकर अवस्थित है।

श्लोक 15: परमात्मा समस्त इन्द्रियों के मूल स्रोत हैं, फिर भी वे इन्द्रियों से रहित हैं। वे समस्त जीवों के पालनकर्ता होकर भी अनासक्त हैं। वे प्रकृति के गुणों से परे हैं, फिर भी वे भौतिक प्रकृति के समस्त गुणों के स्वामी हैं।

श्लोक 16: परमसत्य जड़ तथा जंगम समस्त जीवों के बाहर तथा भीतर स्थित हैं। सूक्ष्म होने के कारण वे भौतिक इन्द्रियों के द्वारा जानने या देखने से परे हैं। यद्यपि वे अत्यन्त दूर रहते हैं, किन्तु हम सबों के निकट भी हैं।

श्लोक 17: यद्यपि परमात्मा समस्त जीवों के मध्य विभाजित प्रतीत होता है, लेकिन वह कभी भी विभाजित नहीं है। वह एक रूप में स्थित है। यद्यपि वह प्रत्येक जीव का पालनकर्ता है, लेकिन यह समझना चाहिए कि वह सबों का संहारकर्ता है और सबों को जन्म देता है।

श्लोक 18: वे समस्त प्रकाशमान वस्तुओं के प्रकाशस्रोत हैं। वे भौतिक अंधकार से परे हैं और अगोचर हैं। वे ज्ञान हैं, ज्ञेय हैं और ज्ञान के लक्ष्य हैं। वे सबके हृदय में स्थित हैं।

श्लोक 19: इस प्रकार मैंने कर्म क्षेत्र (शरीर), ज्ञान तथा ज्ञेय का संक्षेप में वर्णन किया है। इसे केवल मेरे भक्त ही पूरी तरह समझ सकते हैं और इस तरह मेरे स्वभाव को प्राप्त होते हैं।

श्लोक 20: प्रकृति तथा जीवों को अनादि समझना चाहिए। उनके विकार तथा गुण प्रकृतिजन्य हैं।

श्लोक 21: प्रकृति समस्त भौतिक कारणों तथा कार्यों (परिणामों) की हेतु कही जाती है, और जीव (पुरुष) इस संसार में विविध सुख-दुख के भोग का कारण कहा जाता है।

श्लोक 22: इस प्रकार जीव प्रकृति के तीनों गुणों का भोग करता हुआ प्रकृति में ही जीवन बिताता है। यह उस प्रकृति के साथ उसकी संगति के कारण है। इस तरह उसे उत्तम तथा अधम योनियाँ मिलती रहती हैं।

श्लोक 23: तो भी इस शरीर में एक अन्य दिव्य भोक्ता है, जो ईश्वर है, परम स्वामी है और साक्षी तथा अनुमति देने वाले के रूप में विद्यमान है और जो परमात्मा कहलाता है।

श्लोक 24: जो व्यक्ति प्रकृति, जीव तथा प्रकृति के गुणों की अन्त:क्रिया से सम्बन्धित इस विचारधारा को समझ लेता है, उसे मुक्ति की प्राप्ति सुनिश्चित है। उसकी वर्तमान स्थिति चाहे जैसी हो, यहाँ पर उसका पुनर्जन्म नहीं होगा।

श्लोक 25: कुछ लोग परमात्मा को ध्यान के द्वारा अपने भीतर देखते हैं, तो दूसरे लोग ज्ञान के अनुशीलन द्वारा और कुछ ऐसे हैं जो निष्काम कर्मयोग द्वारा देखते हैं।

श्लोक 26: ऐसे भी लोग हैं जो यद्यपि आध्यात्मिक ज्ञान से अवगत नहीं होते पर अन्यों से परम पुरुष के विषय में सुनकर उनकी पूजा करने लगते हैं। ये लोग भी प्रामाणिक पुरुषों से श्रवण करने की मनोवृत्ति होने के कारण जन्म तथा मृत्यु के पथ को पार कर जाते हैं।

श्लोक 27: हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ! यह जान लो कि चर तथा अचर जो भी तुम्हें अस्तित्व में दीख रहा है, वह कर्मक्षेत्र तथा क्षेत्र के ज्ञाता का संयोग मात्र है।

श्लोक 28: जो परमात्मा को समस्त शरीरों में आत्मा के साथ देखता है और जो यह समझता है कि इस नश्वर शरीर के भीतर न तो आत्मा, न ही परमात्मा कभी भी विनष्ट होता है, वही वास्तव में देखता है।

श्लोक 29: जो व्यक्ति परमात्मा को सर्वत्र तथा प्रत्येक जीव में समान रूप से वर्तमान देखता है, वह अपने मन के द्वारा अपने आपको भ्रष्ट नहीं करता। इस प्रकार वह दिव्य गन्तव्य को प्राप्त करता है।

श्लोक 30: जो यह देखता है कि सारे कार्य शरीर द्वारा सम्पन्न किये जाते हैं, जिसकी उत्पत्ति प्रकृति से हुई है, और जो देखता है कि आत्मा कुछ भी नहीं करता, वही यथार्थ में देखता है।

श्लोक 31: जब विवेकवान् व्यक्ति विभिन्न भौतिक शरीरों के कारण विभिन्न स्वरूपों को देखना बन्द कर देता है, और यह देखता है कि किस प्रकार से जीव सर्वत्र फैले हुए हैं, तो वह ब्रह्म बोध को प्राप्त होता है।

श्लोक 32: शाश्वत दृष्टिसम्पन्न लोग यह देख सकते हैं कि अविनाशी आत्मा दिव्य, शाश्वत तथा गुणों से अतीत है। हे अर्जुन! भौतिक शरीर के साथ सम्पर्क होते हुए भी आत्मा न तो कुछ करता है और न लिप्त होता है।

श्लोक 33: यद्यपि आकाश सर्वव्यापी है, किन्तु अपनी सूक्ष्म प्रकृति के कारण, किसी वस्तु से लिप्त नहीं होता। इसी तरह ब्रह्मदृष्टि में स्थित आत्मा, शरीर में स्थित रहते हुए भी, शरीर से लिप्त नहीं होता।

श्लोक 34: हे भरतपुत्र! जिस प्रकार सूर्य अकेले इस सारे ब्रह्माण्ड को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार शरीर के भीतर स्थित एक आत्मा सारे शरीर को चेतना से प्रकाशित करता है।

श्लोक 35: जो लोग ज्ञान के चक्षुओं से शरीर तथा शरीर के ज्ञाता के अन्तर को देखते हैं और भव-बन्धन से मुक्ति की विधि को भी जानते हैं, उन्हें परमलक्ष्य प्राप्त होता है।

अध्याय 14: प्रकृति के तीन गुण

सारे देहधारी जीव भौतिक प्रकृति के तीन गुणों के अधीन हैं—ये हैं सतोगुण, रजोगुण तथा तमोगुण। कृष्ण बतलाते हैं कि ये गुण क्या हैं? ये हम पर किस प्रकार क्रिया करते हैं? कोई इनको कैसे पार कर सकता है? और दिव्य पद को प्राप्त व्यक्ति के कौन-कौन से लक्षण हैं?

श्लोक 1: भगवान् ने कहा—अब मैं तुमसे समस्त ज्ञानों में सर्वश्रेष्ठ इस परम ज्ञान को पुन: कहूँगा, जिसे जान लेने पर समस्त मुनियों ने परम सिद्धि प्राप्त की है।

श्लोक 2: इस ज्ञान में स्थिर होकर मनुष्य मेरी जैसी दिव्य प्रकृति (स्वभाव) को प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार स्थित हो जाने पर वह न तो सृष्टि के समय उत्पन्न होता है और न प्रलय के समय विचलित होता है।

श्लोक 3: हे भरतपुत्र! ब्रह्म नामक समग्र भौतिक वस्तु जन्म का स्रोत है और मैं इसी ब्रह्म को गर्भस्थ करता हूँ, जिससे समस्त जीवों का जन्म सम्भव होता है।

श्लोक 4: हे कुन्तीपुत्र! तुम यह समझ लो कि समस्त प्रकार की जीव-योनियाँ इस भौतिक प्रकृति में जन्म द्वारा सम्भव हैं और मैं उनका बीज-प्रदाता पिता हूँ।

श्लोक 5: भौतिक प्रकृति तीन गुणों से युक्त है। ये हैं—सतो, रजो तथा तमोगुण। हे महाबाहु अर्जुन! जब शाश्वत जीव प्रकृति के संसर्ग में आता है, तो वह इन गुणों से बँध जाता है।

श्लोक 6: हे निष्पाप! सतोगुण अन्य गुणों की अपेक्षा अधिक शुद्ध होने के कारण प्रकाश प्रदान करने वाला और मनुष्यों को सारे पाप कर्मों से मुक्त करने वाला है। जो लोग इस गुण में स्थित होते हैं, वे सुख तथा ज्ञान के भाव से बँध जाते हैं।

श्लोक 7: हे कुन्तीपुत्र! रजोगुण की उत्पत्ति असीम आकांक्षाओं तथा तृष्णाओं से होती है और इसी के कारण से यह देहधारी जीव सकाम कर्मों से बँध जाता है।

श्लोक 8: हे भरतपुत्र! तुम जान लो कि अज्ञान से उत्पन्न तमोगुण समस्त देहधारी जीवों का मोह है। इस गुण के प्रतिफल पागलपन (प्रमाद), आलस तथा नींद हैं, जो बद्धजीव को बाँधते हैं।

श्लोक 9: हे भरतपुत्र! सतोगुण मनुष्य को सुख से बाँधता है, रजोगुण सकाम कर्म से बाँधता है और तमोगुण मनुष्य के ज्ञान को ढक कर उसे पागलपन से बाँधता है।

श्लोक 10: हे भरतपुत्र! कभी-कभी सतोगुण रजोगुण तथा तमोगुण को परास्त करके प्रधान बन जाता है तो कभी रजोगुण सतो तथा तमोगुणों को परास्त कर देता है और कभी ऐसा होता है कि तमोगुण सतो तथा रजोगुणों को परास्त कर देता है। इस प्रकार श्रेष्ठता के लिए निरन्तर स्पर्धा चलती रहती है।

श्लोक 11: सतोगुण की अभिव्यक्ति को तभी अनुभव किया जा सकता है, जब शरीर के सारे द्वार ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित होते हैं।

श्लोक 12: हे भरतवंशियों में प्रमुख! जब रजोगुण में वृद्धि हो जाती है, तो अत्यधिक आसक्ति, सकाम कर्म, गहन उद्यम तथा अनियन्त्रित इच्छा एवं लालसा के लक्षण प्रकट होते हैं।

श्लोक 13: जब तमोगुण में वृद्धि हो जाती है, तो हे कुरुपुत्र! अँधेरा, जड़ता, प्रमत्तता तथा मोह का प्राकट्य होता है।

श्लोक 14: जब कोई सतोगुण में मरता है, तो उसे महर्षियों के विशुद्ध उच्चतर लोकों की प्राप्ति होती है।

श्लोक 15: जब कोई रजोगुण में मरता है, तो वह सकाम कर्मियों के बीच में जन्म ग्रहण करता है और जब कोई तमोगुण में मरता है, तो वह पशुयोनि में जन्म धारण करता है।

श्लोक 16: पुण्यकर्म का फल शुद्ध होता है और सात्त्विक कहलाता है। लेकिन रजोगुण में सम्पन्न कर्म का फल दुख होता है और तमोगुण में किये गये कर्म मूर्खता में प्रतिफलित होते हैं।

श्लोक 17: सतोगुण से वास्तविक ज्ञान उत्पन्न होता है, रजोगुण से लोभ उत्पन्न होता है और तमोगुण से अज्ञान, प्रमाद और मोह उत्पन्न होते हैं।

श्लोक 18: सतोगुणी व्यक्ति क्रमश: उच्च लोकों को ऊपर जाते हैं, रजोगुणी इसी पृथ्वीलोक में रह जाते हैं, और जो अत्यन्त गर्हित तमोगुण में स्थित हैं, वे नीचे नरक लोकों को जाते हैं।

श्लोक 19: जब कोई यह अच्छी तरह जान लेता है कि समस्त कार्यों में प्रकृति के तीनों गुणों के अतिरिक्त अन्य कोई कर्ता नहीं है और जब वह परमेश्वर को जान लेता है, जो इन तीनों गुणों से परे है, तो वह मेरे दिव्य स्वभाव को प्राप्त होता है।

श्लोक 20: जब देहधारी जीव भौतिक शरीर से सम्बद्ध इन तीनों गुणों को लाँघने में समर्थ होता है, तो वह जन्म, मृत्यु, बुढ़ापा तथा उनके कष्टों से मुक्त हो सकता है और इसी जीवन में अमृत का भोग कर सकता है।

श्लोक 21: अर्जुन ने पूछा—हे भगवान्! जो इन तीनों गुणों से परे है, वह किन लक्षणों के द्वारा जाना जाता है? उसका आचरण कैसा होता है? और वह प्रकृति के गुणों को किस प्रकार लाँघता है?

श्लोक 22-25: भगवान् ने कहा—हे पाण्डुपुत्र! जो प्रकाश, आसक्ति तथा मोह के उपस्थित होने पर न तो उनसे घृणा करता है और न लुप्त हो जाने पर उनकी इच्छा करता है, जो भौतिक गुणों की इन समस्त प्रतिक्रियाओं से निश्चल तथा अविचलित रहता है और यह जानकर कि केवल गुण ही क्रियाशील हैं, उदासीन तथा दिव्य बना रहता है, जो अपने आपमें स्थित है और सुख तथा दुख को एकसमान मानता है, जो मिट्टी के ढेले, पत्थर एवं स्वर्ण के टुकड़े को समान दृष्टि से देखता है, जो अनुकूल तथा प्रतिकूल के प्रति समान बना रहता है, जो धीर है और प्रशंसा तथा बुराई, मान तथा अपमान में समान भाव से रहता है, जो शत्रु तथा मित्र के साथ समान व्यवहार करता है और जिसने सारे भौतिक कार्यों का परित्याग कर दिया है, ऐसे व्यक्ति को प्रकृति के गुणों से अतीत कहते हैं।

श्लोक 26: जो समस्त परिस्थितियों में अविचलित भाव से पूर्ण भक्ति में प्रवृत्त होता है, वह तुरन्त ही प्रकृति के गुणों को लाँघ जाता है और इस प्रकार ब्रह्म के स्तर तक पहुँच जाता है।

श्लोक 27: और मैं ही उस निराकार ब्रह्म का आश्रय हूँ, जो अमर्त्य, अविनाशी तथा शाश्वत है और चरम सुख का स्वाभाविक पद है।

अध्याय 15: पुरुषोत्तम योग

वैदिक ज्ञान का चरम लक्ष्य अपने आपको भौतिक जगत के पाश से विलग करना तथा कृष्ण को भगवान् मानना है। जो कृष्ण के परम स्वरूप को समझ लेता है, वह उनकी शरण ग्रहण करके उनकी भक्ति में लग जाता है।

श्लोक 1: भगवान् ने कहा—कहा जाता है कि एक शाश्वत अश्वत्थ वृक्ष है, जिसकी जड़ें तो ऊपर की ओर हैं और शाखाएँ नीचे की ओर तथा पत्तियाँ वैदिक स्तोत्र हैं। जो इस वृक्ष को जानता है, वह वेदों का ज्ञाता है।

श्लोक 2: इस वृक्ष की शाखाएँ ऊपर तथा नीचे फैली हुई हैं और प्रकृति के तीन गुणों द्वारा पोषित हैं। इसकी टहनियाँ इन्द्रियविषय हैं। इस वृक्ष की जड़ें नीचे की ओर भी जाती हैं, जो मानवसमाज के सकाम कर्मों से बँधी हुई हैं।

श्लोक 3-4: इस वृक्ष के वास्तविक स्वरूप का अनुभव इस जगत् में नहीं किया जा सकता। कोई भी नहीं समझ सकता कि इसका आदि कहाँ है, अन्त कहाँ है या इसका आधार कहाँ है? लेकिन मनुष्य को चाहिए कि इस दृढ़ मूल वाले वृक्ष को विरक्ति के शस्त्र से काट गिराए। तत्पश्चात् उसे ऐसे स्थान की खोज करनी चाहिए जहाँ जाकर लौटना न पड़े और जहाँ उस भगवान् की शरण ग्रहण कर ली जाये, जिससे अनादि काल से प्रत्येक वस्तु का सूत्रपात तथा विस्तार होता आया है।

श्लोक 5: जो झूठी प्रतिष्ठा, मोह तथा कुसंगति से मुक्त हैं, जो शाश्वत तत्त्व को समझते हैं, जिन्होंने भौतिक काम को नष्ट कर दिया है, जो सुख तथा दुख के द्वन्द्व से मुक्त हैं और जो मोहरहित होकर परम पुरुष के शरणागत होना जानते हैं, वे उस शाश्वत राज्य को प्राप्त होते हैं।

श्लोक 6: वह मेरा परम धाम न तो सूर्य या चन्द्र के द्वारा प्रकाशित होता है और न अग्नि या बिजली से। जो लोग वहाँ पहुँच जाते हैं, वे इस भौतिक जगत् में फिर से लौट कर नहीं आते।

श्लोक 7: इस बद्ध जगत् में सारे जीव मेरे शाश्वत अंश हैं। बद्ध जीवन के कारण वे छहों इन्द्रियों से घोर संघर्ष कर रहे हैं, जिनमें मन भी सम्मिलित है।

श्लोक 8: इस संसार में जीव अपनी देहात्मबुद्धि को एक शरीर से दूसरे में उसी तरह ले जाता है, जिस तरह वायु सुगन्धि को ले जाता है। इस प्रकार वह एक शरीर धारण करता है और फिर इसे त्याग कर दूसरा शरीर धारण करता है।

श्लोक 9: इस प्रकार दूसरा स्थूल शरीर धारण करके जीव विशेष प्रकार का कान, आँख, जीभ, नाक तथा स्पर्श इन्द्रिय (त्वचा) प्राप्त करता है, जो मन के चारों ओर संपुंजित हैं। इस प्रकार वह इन्द्रियविषयों के एक विशिष्ट समुच्चय का भोग करता है।

श्लोक 10: मूर्ख न तो समझ पाते हैं कि जीव किस प्रकार अपना शरीर त्याग सकता है, न ही वे यह समझ पाते हैं कि प्रकृति के गुणों के अधीन वह किस तरह के शरीर का भोग करता है। लेकिन जिसकी आँखें ज्ञान में प्रशिक्षित होती हैं, वह यह सब देख सकता है।

श्लोक 11: आत्म-साक्षात्कार को प्राप्त प्रयत्नशील योगीजन यह सब स्पष्ट रूप से देख सकते हैं। लेकिन जिनके मन विकसित नहीं हैं और जो आत्म-साक्षात्कार को प्राप्त नहीं हैं, वे प्रयत्न करके भी यह नहीं देख पाते कि क्या हो रहा है।

श्लोक 12: सूर्य का तेज, जो सारे विश्व के अंधकार को दूर करता है, मुझसे ही निकलता है। चन्द्रमा तथा अग्नि के तेज भी मुझसे उत्पन्न हैं।

श्लोक 13: मैं प्रत्येक लोक में प्रवेश करता हूँ और मेरी शक्ति से सारे लोक अपनी कक्षा में स्थित रहते हैं। मैं चन्द्रमा बनकर समस्त वनस्पतियों को जीवन-रस प्रदान करता हूँ।

श्लोक 14: मैं समस्त जीवों के शरीरों में पाचन-अग्नि (वैश्वानर) हूँ और मैं श्वास-प्रश्वास (प्राण वायु) में रह कर चार प्रकार के अन्नों को पचाता हूँ।

श्लोक 15: मैं प्रत्येक जीव के हृदय में आसीन हूँ और मुझ से ही स्मृति, ज्ञान तथा विस्मृति होती है। मैं ही वेदों के द्वारा जानने योग्य हूँ। निस्सन्देह मैं वेदान्त का संकलनकर्ता तथा समस्त वेदों का जानने वाला हूँ।

श्लोक 16: जीव दो प्रकार के हैं—च्युत तथा अच्युत। भौतिक जगत् में प्रत्येक जीव च्युत (क्षर) होता है और आध्यात्मिक जगत् में प्रत्येक जीव अच्युत (अक्षर) कहलाता है।

श्लोक 17: इन दोनों के अतिरिक्त, एक परम पुरुष परमात्मा है, जो साक्षात् अविनाशी भगवान् है और जो तीनों लोकों में प्रवेश करके उनका पालन कर रहा है।

श्लोक 18: चूँकि मैं क्षर तथा अक्षर दोनों के परे हूँ और चूँकि मैं सर्वश्रेष्ठ हूँ, अतएव मैं इस जगत् में तथा वेदों में परम पुरुष के रूप में विख्यात हूँ।

श्लोक 19: जो कोई भी मुझे संशयरहित होकर पुरुषोत्तम भगवान् के रूप में जानता है, वह सब कुछ जानने वाला है। अतएव हे भरतपुत्र! वह व्यक्ति मेरी पूर्ण भक्ति में रत होता है।

श्लोक 20: हे अनघ! यह वैदिक शास्त्रों का सर्वाधिक गुप्त अंश है, जिसे मैंने अब प्रकट किया है। जो कोई इसे समझता है, वह बुद्धिमान हो जाएगा और उसके प्रयास पूर्ण होंगे।

अध्याय 16: दैवी तथा आसुरी स्वभाव

शास्त्रों के नियमों का पालन न करके मनमाने ढंग से जीवन व्यतीत करने वाले तथा आसुरी गुणों वाले व्यक्ति अधम योनियों को प्राप्त होते हैं और आगे भी भवबन्धन में पड़े रहते हैं। किन्तु दैवी गुणों से सम्पन्न तथा शास्त्रों को आधार मानकर नियमित जीवन बिताने वाले लोग आध्यात्मिक सिद्धि प्राप्त करते हैं।

श्लोक 1-3: भगवान् ने कहा—हे भरतपुत्र! निर्भयता, आत्मशुद्धि, आध्यात्मिक ज्ञान का अनुशीलन, दान, आत्म-संयम, यज्ञपरायणता, वेदाध्ययन, तपस्या, सरलता, अहिंसा, सत्यता, क्रोधविहीनता, त्याग, शान्ति, छिद्रान्वेषण में अरुचि, समस्त जीवों पर करुणा, लोभविहीनता, भद्रता, लज्जा, संकल्प, तेज, क्षमा, धैर्य, पवित्रता, ईर्ष्या तथा सम्मान की अभिलाषा से मुक्ति—ये सारे दिव्य गुण हैं, जो दैवी प्रकृति से सम्पन्न देवतुल्य पुरुषों में पाये जाते हैं।

श्लोक 4: हे पृथापुत्र! दम्भ, दर्प, अभिमान, क्रोध, कठोरता तथा अज्ञान—ये आसुरी स्वभाव वालों के गुण हैं।

श्लोक 5: दिव्य गुण मोक्ष के लिए अनुकूल हैं और आसुरी गुण बन्धन दिलाने के लिए हैं। हे पाण्डुपुत्र! तुम चिन्ता मत करो, क्योंकि तुम दैवी गुणों से युक्त होकर जन्मे हो।

श्लोक 6: हे पृथापुत्र! इस संसार में सृजित प्राणी दो प्रकार के हैं— दैवी तथा आसुरी। मैं पहले ही विस्तार से तुम्हें दैवी गुण बतला चुका हूँ। अब मुझसे आसुरी गुणों के विषय में सुनो।

श्लोक 7: जो आसुरी हैं, वे यह नहीं जानते कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए। उनमें न तो पवित्रता, न उचित आचरण और न ही सत्य पाया जाता है।

श्लोक 8: वे कहते हैं कि यह जगत् मिथ्या है, इसका कोई आधार नहीं है और इसका नियमन किसी ईश्वर द्वारा नहीं होता। उनका कहना है कि यह कामेच्छा से उत्पन्न होता है और काम के अतिरिक्त कोई अन्य कारण नहीं है।

श्लोक 9: ऐसे निष्कर्षों का अनुगमन करते हुए आसुरी लोग, जिन्होंने आत्म-ज्ञान खो दिया है और जो बुद्धिहीन हैं, ऐसे अनुपयोगी एवं भयावह कार्यों में प्रवृत्त होते हैं जो संसार का विनाश करने के लिए होता है।

श्लोक 10: कभी न संतुष्ट होने वाले काम का आश्रय लेकर तथा गर्व के मद एवं मिथ्या प्रतिष्ठा में डूबे हुए आसुरी लोग इस तरह मोहग्रस्त होकर सदैव क्षणभंगुर वस्तुओं के द्वारा अपवित्र कर्म का व्रत लिए रहते हैं।

श्लोक 11-12: उनका विश्वास है कि इन्द्रियों की तुष्टि ही मानव सभ्यता की मूल आवश्यकता है। इस प्रकार मरणकाल तक उनको अपार चिन्ता होती रहती है। वे लाखों इच्छाओं के जाल में बँधकर तथा काम और क्रोध में लीन होकर इन्द्रियतृप्ति के लिए अवैध ढंग से धनसंग्रह करते हैं।

श्लोक 13-15: आसुरी व्यक्ति सोचता है, आज मेरे पास इतना धन है और अपनी योजनाओं से मैं और अधिक धन कमाऊँगा। इस समय मेरे पास इतना है किन्तु भविष्य में यह बढक़र और अधिक हो जायेगा। वह मेरा शत्रु है और मैंने उसे मार दिया है और मेरे अन्य शत्रु भी मार दिए जाएंगे। मैं सभी वस्तुओं का स्वामी हूँ। मैं भोक्ता हूँ। मैं सिद्ध, शक्तिमान् तथा सुखी हूँ। मैं सबसे धनी व्यक्ति हूँ और मेरे आसपास मेरे कुलीन सम्बन्धी हैं। कोई अन्य मेरे समान शक्तिमान तथा सुखी नहीं है। मैं यज्ञ करूँगा, दान दूँगा और इस तरह आनन्द मनाऊँगा। इस प्रकार ऐसे व्यक्ति अज्ञानवश मोहग्रस्त होते रहते हैं।

श्लोक 16: इस प्रकार अनेक चिन्ताओं से उद्विग्न होकर तथा मोहजाल में बँधकर वे इन्द्रियभोग में अत्यधिक आसक्त हो जाते हैं और नरक में गिरते हैं।

श्लोक 17: अपने को श्रेष्ठ मानने वाले तथा सदैव घमंड करने वाले, सम्पत्ति तथा मिथ्या प्रतिष्ठा से मोहग्रस्त लोग किसी विधि विधान का पालन न करते हुए कभी-कभी नाममात्र के लिए बड़े ही गर्व के साथ यज्ञ करते हैं।

श्लोक 18: मिथ्या अहंकार, बल, दर्प, काम तथा क्रोध से मोहित होकर आसुरी व्यक्ति अपने शरीर में तथा अन्यों के शरीर में स्थित भगवान् से ईर्ष्या और वास्तविक धर्म की निन्दा करने लगते हैं।

श्लोक 19: जो लोग ईर्ष्यालु तथा क्रूर हैं और नराधम हैं, उन्हें मैं निरन्तर विभिन्न आसुरी योनियों में, भवसागर में डालता रहता हूँ।

श्लोक 20: हे कुन्तीपुत्र! ऐसे व्यक्ति आसुरी योनि में बारम्बार जन्म ग्रहण करते हुए कभी भी मुझ तक पहुँच नहीं पाते। वे धीरे धीरे अत्यन्त अधम गति को प्राप्त होते हैं।

श्लोक 21: इस नरक के तीन द्वार हैं—काम, क्रोध तथा लोभ। प्रत्येक बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि इन्हें त्याग दे, क्योंकि इनसे आत्मा का पतन होता है।

श्लोक 22: हे कुन्तीपुत्र! जो व्यक्ति इन तीनों नरक-द्वारों से बच पाता है, वह आत्म-साक्षात्कार के लिए कल्याणकारी कार्य करता है और इस प्रकार क्रमश: परम गति को प्राप्त होता है।

श्लोक 23: जो शास्त्रों के आदेशों की अवहेलना करता है और मनमाने ढंग से कार्य करता है, उसे न तो सिद्धि, न सुख, न ही परमगति की प्राप्ति हो पाती है।

श्लोक 24: अतएव मनुष्य को यह जानना चाहिए कि शास्त्रों के विधान के अनुसार क्या कर्तव्य है और क्या अकर्तव्य है। उसे ऐसे विधि-विधानों को जानकर कर्म करना चाहिए जिससे वह क्रमश: ऊपर उठ सके।

अध्याय 17: श्रद्धा के विभाग

भौतिक प्रकृति के तीन गुणों से तीन प्रकार की श्रद्धा उत्पन्न होती है। रजोगुण तथा तमोगुण में श्रद्धापूर्वक किये गये कर्मों से अस्थायी फल प्राप्त होते हैं, जबकि शास्त्र-सम्मत विधि से सतोगुण में रहकर सम्पन्न कर्म हृदय को शुद्ध करते हैं। ये भगवान् कृष्ण के प्रति शुद्ध श्रद्धा तथा भक्ति उत्पन्न करने वाले होते हैं।

श्लोक 1: अर्जुन ने कहा—हे कृष्ण! जो लोग शास्त्र के नियमों का पालन न करके अपनी कल्पना के अनुसार पूजा करते हैं, उनकी स्थिति कौन सी है? वे सतोगुणी हैं, रजोगुणी हैं या तमोगुणी?

श्लोक 2: भगवान् ने कहा—देहधारी जीव द्वारा अर्जित गुणों के अनुसार उसकी श्रद्धा तीन प्रकार की हो सकती है— सतोगुणी, रजोगुणी अथवा तमोगुणी। अब इसके विषय में मुझसे सुनो।

श्लोक 3: हे भरतपुत्र! विभिन्न गुणों के अन्तर्गत अपने अपने अस्तित्व के अनुसार मनुष्य एक विशेष प्रकार की श्रद्धा विकसित करता है। अपने द्वारा अर्जित गुणों के अनुसार ही जीव को विशेष श्रद्धा से युक्त कहा जाता है।

श्लोक 4: सतोगुणी व्यक्ति देवताओं को पूजते हैं, रजोगुणी यक्षों व राक्षसों की पूजा करते हैं और तमोगुणी व्यक्ति भूत-प्रेतों को पूजते हैं।

श्लोक 5-6: जो लोग दम्भ तथा अहंकार से अभिभूत होकर शास्त्रविरुद्ध कठोर तपस्या और व्रत करते हैं, जो काम तथा आसक्ति द्वारा प्रेरित होते हैं जो मूर्ख हैं तथा जो शरीर के भौतिक तत्त्वों को तथा शरीर के भीतर स्थित परमात्मा को कष्ट पहुँचाते हैं, वे असुर कहे जाते हैं।

श्लोक 7: यहाँ तक कि प्रत्येक व्यक्ति जो भोजन पसन्द करता है, वह भी प्रकृति के गुणों के अनुसार तीन प्रकार का होता है। यही बात यज्ञ, तपस्या तथा दान के लिए भी सत्य है। अब उनके भेदों के विषय में सुनो।

श्लोक 8: जो भोजन सात्त्विक व्यक्तियों को प्रिय होता है, वह आयु बढ़ाने वाला, जीवन को शुद्ध करने वाला तथा बल, स्वास्थ्य, सुख तथा तृप्ति प्रदान करने वाला होता है। ऐसा भोजन रसमय, स्निग्ध, स्वास्थ्यप्रद तथा हृदय को भाने वाला होता है।

श्लोक 9: अत्यधिक तिक्त, खट्टे, नमकीन, गरम, चटपटे, शुष्क तथा जलन उत्पन्न करने वाले भोजन रजोगुणी व्यक्तियों को प्रिय होते हैं। ऐसे भोजन दुख, शोक तथा रोग उत्पन्न करने वाले हैं।

श्लोक 10: खाने से तीन घंटे पूर्व पकाया गया, स्वादहीन, वियोजित एवं सड़ा, जूठा तथा अस्पृश्य वस्तुओं से युक्त भोजन उन लोगों को प्रिय होता है, जो तामसी होते हैं।

श्लोक 11: यज्ञों में वही यज्ञ सात्त्विक होता है, जो शास्त्र के निर्देशानुसार कर्तव्य समझ कर उन लोगों के द्वारा किया जाता है, जो फल की इच्छा नहीं करते।

श्लोक 12: लेकिन हे भरतश्रेष्ठ! जो यज्ञ किसी भौतिक लाभ के लिए या गर्ववश किया जाता है, उसे तुम राजसी जानो।

श्लोक 13: जो यज्ञ शास्त्र के निर्देशों की अवहेलना करके, प्रसाद वितरण किये बिना, वैदिक मन्त्रों का उच्चारण किये बिना, पुरोहितों को दक्षिणा दिये बिना तथा श्रद्धा के बिना सम्पन्न किया जाता है, वह तामसी माना जाता है।

श्लोक 14: परमेश्वर, ब्राह्मणों, गुरु, माता-पिता जैसे गुरुजनों की पूजा करना तथा पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा ही शारीरिक तपस्या है।

श्लोक 15: सच्चे, भाने वाले, हितकर तथा अन्यों को क्षुब्ध न करने वाले वाक्य बोलना और वैदिक साहित्य का नियमित पारायण करना—यही वाणी की तपस्या है।

श्लोक 16: तथा संतोष, सरलता, गम्भीरता, आत्म-संयम एवं जीवन की शुद्धि—ये मन की तपस्याएँ हैं।

श्लोक 17: भौतिक लाभ की इच्छा न करने वाले तथा केवल परमेश्वर में प्रवृत्त मनुष्यों द्वारा दिव्य श्रद्धा से सम्पन्न यह तीन प्रकार की तपस्या सात्त्विक तपस्या कहलाती है।

श्लोक 18: जो तपस्या दंभपूर्वक तथा सम्मान, सत्कार एवं पूजा कराने के लिए सम्पन्न की जाती है, वह राजसी (रजोगुणी) कहलाती है। यह न तो स्थायी होती है न शाश्वत।

श्लोक 19: मूर्खतावश आत्म-उत्पीडऩ के लिए या अन्यों को विनष्ट करने या हानि पहुँचाने के लिए जो तपस्या की जाती है, वह तामसी कहलाती है।

श्लोक 20: जो दान कर्तव्य समझकर, किसी प्रत्युपकार की आशा के बिना, समुचित काल तथा स्थान में और योग्य व्यक्ति को दिया जाता है, वह सात्त्विक माना जाता है।

श्लोक 21: किन्तु जो दान प्रत्युपकार की भावना से या कर्म फल की इच्छा से या अनिच्छापूर्वक किया जाता है, वह रजोगुणी (राजस) कहलाता है।

श्लोक 22: तथा जो दान किसी अपवित्र स्थान में, अनुचित समय में, किसी अयोग्य व्यक्ति को या बिना समुचित ध्यान तथा आदर से दिया जाता है, वह तामसी कहलाता है।

श्लोक 23: सृष्टि के आदिकाल से ॐ तत् सत् ये तीन शब्द परब्रह्म को सूचित करने के लिए प्रयुक्त किये जाते रहे हैं। ये तीनों सांकेतिक अभिव्यक्तियाँ ब्राह्मणों द्वारा वैदिक मंत्रों का उच्चारण करते समय तथा ब्रह्म को संतुष्ट करने के लिए यज्ञों के समय प्रयुक्त होती थीं।

श्लोक 24: अतएव योगीजन ब्रह्म की प्राप्ति के लिए शास्त्रीय विधि के अनुसार यज्ञ, दान तथा तप की समस्त क्रियाओं का शुभारम्भ सदैव ओम् से करते हैं।

श्लोक 25: मनुष्य को चाहिए कि कर्मफल की इच्छा किये बिना विविध प्रकार के यज्ञ, तप तथा दान को ‘तत्’ शब्द कह कर सम्पन्न करे। ऐसी दिव्य क्रियाओं का उद्देश्य भव-बन्धन से मुक्त होना है।

श्लोक 26-27: परम सत्य भक्तिमय यज्ञ का लक्ष्य है और उसे सत् शब्द से अभिहित किया जाता है। हे पृथापुत्र! ऐसे यज्ञ का सम्पन्नकर्ता भी ‘सत्’ कहलाता है जिस प्रकार यज्ञ, तप तथा दान के सारे कर्म भी जो परमपुरुष को प्रसन्न करने के लिए सम्पन्न किये जाते हैं, ‘सत्’ हैं।

श्लोक 28: हे पार्थ! श्रद्धा के बिना यज्ञ, दान या तप के रूप में जो भी किया जाता है, वह नश्वर है। वह ‘असत्’ कहलाता है और इस जन्म तथा अगले जन्म—दोनों में ही व्यर्थ जाता है।

अध्याय 18: उपसंहार—संन्यास की सिद्धि

कृष्ण वैराग्य का अर्थ और मानवीय चेतना तथा कर्म पर प्रकृति के गुणों का प्रभाव समझाते हैं। वे ब्रह्म-अनुभूति, भगवद्गीता की महिमा तथा भगवद्गीता के चरम निष्कर्ष को समझाते हैं। यह चरम निष्कर्ष यह है कि धर्म का सर्वोच्च मार्ग भगवान् कृष्ण की परम शरणागति है जो पूर्ण प्रकाश प्रदान करने वाली है और मनुष्य को कृष्ण के नित्य धाम को वापस जाने में समर्थ बनाती है।

श्लोक 1: अर्जुन ने कहा—हे महाबाहु! मैं त्याग का उद्देश्य जानने का इच्छुक हूँ और हे केशिनिषूदन, हे हृषीकेश! मैं त्यागमय जीवन (संन्यास आश्रम) का भी उद्देश्य जानना चाहता हूँ।

श्लोक 2: भगवान् ने कहा—भौतिक इच्छा पर आधारित कर्मों के परित्याग को विद्वान लोग संन्यास कहते हैं और समस्त कर्मों के फल-त्याग को बुद्धिमान लोग त्याग कहते हैं।

श्लोक 3: कुछ विद्वान घोषित करते हैं कि समस्त प्रकार के सकाम कर्मों को दोषपूर्ण समझ कर त्याग देना चाहिए। किन्तु अन्य विद्वान् मानते हैं कि यज्ञ, दान तथा तपस्या के कर्मों को कभी नहीं त्यागना चाहिए।

श्लोक 4: हे भरतश्रेष्ठ! अब त्याग के विषय में मेरा निर्णय सुनो। हे नरशार्दूल! शास्त्रों में त्याग तीन तरह का बताया गया है।

श्लोक 5: यज्ञ, दान तथा तपस्या के कर्मों का कभी परित्याग नहीं करना चाहिए, उन्हें अवश्य सम्पन्न करना चाहिए। निस्सन्देह यज्ञ, दान तथा तपस्या महात्माओं को भी शुद्ध बनाते हैं।

श्लोक 6: इन सारे कार्यों को किसी प्रकार की आसक्ति या फल की आशा के बिना सम्पन्न करना चाहिए। हे पृथापुत्र! इन्हें कर्तव्य मानकर सम्पन्न किया जाना चाहिए। यही मेरा अन्तिम मत है।

श्लोक 7: निर्दिष्ट कर्तव्यों को कभी नहीं त्यागना चाहिए। यदि कोई मोहवश अपने नियत कर्मों का परित्याग कर देता है, तो ऐसे त्याग को तामसी कहा जाता है।

श्लोक 8: जो व्यक्ति नियत कर्मों को कष्टप्रद समझ कर या शारीरिक क्लेश के भय से त्याग देता है, उसके लिए कहा जाता है कि उसने यह त्याग रजोगुण में किया है। ऐसा करने से कभी त्याग का उच्चफल प्राप्त नहीं होता।

श्लोक 9: हे अर्जुन! जब मनुष्य नियत कर्तव्य को करणीय मान कर करता है और समस्त भौतिक संगति तथा फल की आसक्ति को त्याग देता है, तो उसका त्याग सात्त्विक कहलाता है।

श्लोक 10: सतोगुण में स्थित बुद्धिमान त्यागी, जो न तो अशुभ कर्म से घृणा करता है, न शुभकर्म से लिप्त होता है, वह कर्म के विषय में कोई संशय नहीं रखता।

श्लोक 11: निस्सन्देह किसी भी देहधारी प्राणी के लिए समस्त कर्मों का परित्याग कर पाना असम्भव है। लेकिन जो कर्मफल का परित्याग करता है, वह वास्तव में त्यागी कहलाता है।

श्लोक 12: जो त्यागी नहीं है, उसके लिए इच्छित (इष्ट), अनिच्छित (अनिष्ट) तथा मिश्रित—ये तीन प्रकार के कर्मफल मृत्यु के बाद मिलते हैं। लेकिन जो संन्यासी हैं, उन्हें ऐसे फल का सुख-दुख नहीं भोगना पड़ता।

श्लोक 13: हे महाबाहु अर्जुन! वेदान्त के अनुसार समस्त कर्म की पूर्ति के लिए पाँच कारण हैं। अब तुम इन्हें मुझसे सुनो।

श्लोक 14: कर्म का स्थान (शरीर), कर्ता, विभिन्न इन्द्रियाँ, अनेक प्रकार की चेष्टाएँ तथा परमात्मा—ये पाँच कर्म के कारण हैं।

श्लोक 15: मनुष्य अपने शरीर, मन या वाणी से जो भी उचित या अनुचित कर्म करता है, वह इन पाँच कारणों के फलस्वरूप होता है।

श्लोक 16: अतएव जो इन पाँचों कारणों को न मान कर अपने आपको ही एकमात्र कर्ता मानता है, वह निश्चय ही बहुत बुद्धिमान नहीं होता और वस्तुओं को सही रूप में नहीं देख सकता।

श्लोक 17: जो मिथ्या अहंकार से प्रेरित नहीं है, जिसकी बुद्धि बँधी नहीं है, वह इस संसार में मनुष्यों को मारता हुआ भी नहीं मारता। न ही वह अपने कर्मों से बँधा होता है।

श्लोक 18: ज्ञान, ज्ञेय तथा ज्ञाता— ये तीनों कर्म को प्रेरणा देने वाले कारण हैं। इन्द्रियाँ (करण), कर्म तथा कर्ता— ये तीन कर्म के संघटक हैं।

श्लोक 19: प्रकृति के तीन गुणों के अनुसार ही ज्ञान, कर्म तथा कर्ता के तीन-तीन भेद हैं। अब तुम मुझसे इन्हें सुनो।

श्लोक 20: जिस ज्ञान से अनन्त रूपों में विभक्त सारे जीवों में एक ही अविभक्त आध्यात्मिक प्रकृति देखी जाती है, उसे ही तुम सात्त्विक जानो।

श्लोक 21: जिस ज्ञान से कोई मनुष्य विभिन्न शरीरों में भिन्न-भिन्न प्रकार का जीव देखता है, उसे तुम राजसी जानो।

श्लोक 22: और वह ज्ञान, जिससे मनुष्य किसी एक प्रकार के कार्य को, जो अति तुच्छ है, सब कुछ मान कर, सत्य को जाने बिना उसमें लिप्त रहता है, तामसी कहा जाता है।

श्लोक 23: जो कर्म नियमित है और जो आसक्ति, राग या द्वेष से रहित कर्मफल की चाह के बिना किया जाता है, वह सात्त्विक कहलाता है।

श्लोक 24: लेकिन जो कार्य अपनी इच्छा पूर्ति के निमित्त प्रयासपूर्वक एवं मिथ्या अहंकार के भाव से किया जाता है, वह रजोगुणी कहा जाता है।

श्लोक 25: जो कर्म मोहवश शास्त्रीय आदेशों की अवहेलना करके तथा भावी बन्धन की परवाह किये बिना या हिंसा अथवा अन्यों को दुख पहुँचाने के लिए किया जाता है, वह तामसी कहलाता है।

श्लोक 26: जो व्यक्ति भौतिक गुणों के संसर्ग के बिना अहंकाररहित, संकल्प तथा उत्साहपूर्वक अपना कर्म करता है और सफलता अथवा असफलता में अविचलित रहता है, वह सात्त्विक कर्ता कहलाता है।

श्लोक 27: जो कर्ता कर्म तथा कर्म-फल के प्रति आसक्त होकर फलों का भोग करना चाहता है तथा जो लोभी, सदैव ईर्ष्यालु, अपवित्र और सुख-दुख से विचलित होने वाला है, वह राजसी कहा जाता है।

श्लोक 28: जो कर्ता सदा शास्त्रों के आदेशों के विरुद्ध कार्य करता रहता है, जो भौतिकवादी, हठी, कपटी तथा अन्यों का अपमान करने में पटु है तथा जो आलसी, सदैव खिन्न तथा काम करने में दीर्घसूत्री है, वह तमोगुणी कहलाता है।

श्लोक 29: हे धनञ्जय! अब मैं प्रकृति के तीनों गुणों के अनुसार तुम्हें विभिन्न प्रकार की बुद्धि तथा धृति के विषय में विस्तार से बताऊँगा। तुम इसे सुनो।

श्लोक 30: हे पृथापुत्र! वह बुद्धि सतोगुणी है, जिसके द्वारा मनुष्य यह जानता है कि क्या करणीय है और क्या नहीं है, किससे डरना चाहिए और किससे नहीं, क्या बाँधने वाला है और क्या मुक्ति देने वाला है।

श्लोक 31: हे पृथापुत्र! जो बुद्धि धर्म तथा अधर्म, करणीय तथा अकरणीय कर्म में भेद नहीं कर पाती, वह राजसी है।

श्लोक 32: जो बुद्धि मोह तथा अंधकार के वशीभूत होकर अधर्म को धर्म और धर्म को अधर्म मानती है और सदैव विपरीत दिशा में प्रयत्न करती है, हे पार्थ! वह तामसी है।

श्लोक 33: हे पृथापुत्र! जो अटूट है, जिसे योगाभ्यास द्वारा अचल रहकर धारण किया जाता है और जो इस प्रकार मन, प्राण तथा इन्द्रियों के कार्यकलापों को वश में रखती है, वह धृति सात्त्विक है।

श्लोक 34: लेकिन हे अर्जुन! जिस धृति से मनुष्य धर्म, अर्थ तथा काम के फलों में लिप्त बना रहता है, वह राजसी है।

श्लोक 35: हे पार्थ! जो धृति स्वप्न, भय, शोक, विषाद तथा मोह के परे नहीं जाती, ऐसी दुर्बुद्धिपूर्ण धृति तामसी है।

श्लोक 36: हे भरतश्रेष्ठ! अब मुझसे तीन प्रकार के सुखों के विषय में सुनो, जिनके द्वारा बद्धजीव भोग करता है और जिसके द्वारा कभी-कभी दुखों का अन्त हो जाता है।

श्लोक 37: जो प्रारम्भ में विष जैसा लगता है, लेकिन अन्त में अमृत के समान है और जो मनुष्य में आत्म-साक्षात्कार जगाता है, वह सात्त्विक सुख कहलाता है।

श्लोक 38: जो सुख इन्द्रियों द्वारा उनके विषयों के संसर्ग से प्राप्त होता है और जो प्रारम्भ में अमृततुल्य तथा अन्त में विषतुल्य लगता है, वह रजोगुणी कहलाता है।

श्लोक 39: तथा जो सुख आत्म-साक्षात्कार के प्रति अन्धा है, जो प्रारम्भ से लेकर अन्त तक मोहकारक है और जो निद्रा, आलस्य तथा मोह से उत्पन्न होता है, वह तामसी कहलाता है।

श्लोक 40: इस लोक में, स्वर्ग लोकों में या देवताओं के मध्य में कोई भी ऐसा व्यक्ति विद्यमान नहीं है, जो प्रकृति के तीन गुणों से मुक्त हो।

श्लोक 41: हे परन्तप! ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों तथा शूद्रों में प्रकृति के गुणों के अनुसार उनके स्वभाव द्वारा उत्पन्न गुणों के द्वारा भेद किया जाता है।

श्लोक 42: शान्तिप्रियता, आत्मसंयम, तपस्या, पवित्रता, सहिष्णुता, सत्यनिष्ठा, ज्ञान, विज्ञान तथा धार्मिकता—ये सारे स्वाभाविक गुण हैं, जिनके द्वारा ब्राह्मण कर्म करते हैं।

श्लोक 43: वीरता, शक्ति, संकल्प, दक्षता, युद्ध में धैर्य, उदारता तथा नेतृत्व—ये क्षत्रियों के स्वाभाविक गुण हैं।

श्लोक 44: कृषि करना, गो-रक्षा तथा व्यापार वैश्यों के स्वाभाविक कर्म हैं और शूद्रों का कर्म श्रम तथा अन्यों की सेवा करना है।

श्लोक 45: अपने अपने कर्म के गुणों का पालन करते हुए प्रत्येक व्यक्ति सिद्ध हो सकता है। अब तुम मुझसे सुनो कि यह किस प्रकार किया जा सकता है।

श्लोक 46: जो सभी प्राणियों का उद्गम है और सर्वव्यापी है, उस भगवान् की उपासना करके मनुष्य अपना कर्म करते हुए पूर्णता प्राप्त कर सकता है।

श्लोक 47: अपने वृत्तिपरक कार्य को करना, चाहे वह कितना ही त्रुटिपूर्ण ढंग से क्यों न किया जाय, अन्य किसी के कार्य को स्वीकार करने और अच्छी प्रकार करने की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ है। अपने स्वभाव के अनुसार निर्दिष्ट कर्म कभी भी पाप से प्रभावित नहीं होते।

श्लोक 48: प्रत्येक उद्योग (प्रयास) किसी न किसी दोष से आवृत होता है, जिस प्रकार अग्नि धुएँ से आवृत रहती है। अतएव हे कुन्तीपुत्र! मनुष्य को चाहिए कि स्वभाव से उत्पन्न कर्म को, भले ही वह दोषपूर्ण क्यों न हो, कभी त्यागे नहीं।

श्लोक 49: जो आत्मसंयमी तथा अनासक्त है एवं जो समस्त भौतिक भोगों की परवाह नहीं करता, वह संन्यास के अभ्यास द्वारा कर्मफल से मुक्ति की सर्वोच्च सिद्ध-अवस्था प्राप्त कर सकता है।

श्लोक 50: हे कुन्तीपुत्र! जिस तरह इस सिद्धि को प्राप्त हुआ व्यक्ति परम सिद्धावस्था अर्थात् ब्रह्म को, जो सर्वोच्च ज्ञान की अवस्था है, प्राप्त करता है, उसका मैं संक्षेप में तुमसे वर्णन करूँगा, उसे तुम जानो।

श्लोक 51-53: अपनी बुद्धि से शुद्ध होकर तथा धैर्यपूर्वक मन को वश में करते हुए, इन्द्रियतृप्ति के विषयों का त्याग कर, राग तथा द्वेष से मुक्त होकर जो व्यक्ति एकान्त स्थान में वास करता है, जो थोड़ा खाता है, जो अपने शरीर मन तथा वाणी को वश में रखता है, जो सदैव समाधि में रहता है तथा पूर्णतया विरक्त, मिथ्या अहंकार, मिथ्या शक्ति, मिथ्या गर्व, काम, क्रोध तथा भौतिक वस्तुओं के संग्रह से मुक्त है, जो मिथ्या स्वामित्व की भावना से रहित तथा शान्त है वह निश्चय ही आत्म- साक्षात्कार के पद को प्राप्त होता है।

श्लोक 54: इस प्रकार जो दिव्य पद पर स्थित है, वह तुरन्त परब्रह्म का अनुभव करता है और पूर्णतया प्रसन्न हो जाता है। वह न तो कभी शोक करता है, न किसी वस्तु की कामना करता है। वह प्रत्येक जीव पर समभाव रखता है। उस अवस्था में वह मेरी शुद्ध भक्ति को प्राप्त करता है।

श्लोक 55: केवल भक्ति से मुझ भगवान् को यथारूप में जाना जा सकता है। जब मनुष्य ऐसी भक्ति से मेरे पूर्ण भावनामृत में होता है, तो वह वैकुण्ठ जगत् में प्रवेश कर सकता है।

श्लोक 56: मेरा शुद्ध भक्त मेरे संरक्षण में, समस्त प्रकार के कार्यों में संलग्न रह कर भी मेरी कृपा से नित्य तथा अविनाशी धाम को प्राप्त होता है।

श्लोक 57: सारे कार्यों के लिए मुझ पर निर्भर रहो और मेरे संरक्षण में सदा कर्म करो। ऐसी भक्ति में मेरे प्रति पूर्णतया सचेत रहो।

श्लोक 58: यदि तुम मुझसे भावनाभावित होगे, तो मेरी कृपा से तुम बद्ध जीवन के सारे अवरोधों को लाँघ जाओगे। लेकिन यदि तुम मिथ्या अहंकारवश ऐसी चेतना में कर्म नहीं करोगे और मेरी बात नहीं सुनोगे, तो तुम विनष्ट हो जाओगे।

श्लोक 59: यदि तुम मेरे निर्देशानुसार कर्म नहीं करते और युद्ध में प्रवृत्त नहीं होते हो, तो तुम कुमार्ग पर जाओगे। तुम्हें अपने स्वभाववश युद्ध में लगना होगा।

श्लोक 60: इस समय तुम मोहवश मेरे निर्देशानुसार कर्म करने से मना कर रहे हो। लेकिन हे कुन्तीपुत्र! तुम अपने ही स्वभाव से उत्पन्न कर्म द्वारा बाध्य होकर वही सब करोगे।

श्लोक 61: हे अर्जुन! परमेश्वर प्रत्येक जीव के हृदय में स्थित हैं और भौतिक शक्ति से निर्मित यन्त्र में सवार की भाँति बैठे समस्त जीवों को अपनी माया से घुमा (भरमा) रहे हैं।

श्लोक 62: हे भारत! सब प्रकार से उसी की शरण में जाओ। उसकी कृपा से तुम परम शान्ति को तथा परम नित्यधाम को प्राप्त करोगे।

श्लोक 63: इस प्रकार मैंने तुम्हें गुह्यतर ज्ञान बतला दिया। इस पर पूरी तरह से मनन करो और तब जो चाहो सो करो।

श्लोक 64: चूँकि तुम मेरे अत्यन्त प्रिय मित्र हो, अतएव मैं तुम्हें अपना परम आदेश, जो सर्वाधिक गुह्यज्ञान है, बता रहा हूँ। इसे अपने हित के लिए सुनो।

श्लोक 65: सदैव मेरा चिन्तन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे नमस्कार करो। इस प्रकार तुम निश्चित रूप से मेरे पास आओगे। मैं तुम्हें वचन देता हूँ, क्योंकि तुम मेरे परम प्रिय मित्र हो।

श्लोक 66: समस्त प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और मेरी शरण में आओ। मैं समस्त पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूँगा। डरो मत।

श्लोक 67: यह गुह्यज्ञान उनको कभी भी न बताया जाय जो न तो संयमी हैं, न एकनिष्ठ, न भक्ति में रत हैं, न ही उसे जो मुझसे द्वेष करता हो।

श्लोक 68: जो व्यक्ति भक्तों को यह परम रहस्य बताता है, वह शुद्धभक्ति को प्राप्त करेगा और अन्त में वह मेरे पास वापस आएगा।

श्लोक 69: इस संसार में उसकी अपेक्षा कोई अन्य सेवक न तो मुझे अधिक प्रिय है और न कभी होगा।

श्लोक 70: और मैं घोषित करता हूँ कि जो हमारे इस पवित्र संवाद का अध्ययन करता है, वह अपनी बुद्धि से मेरी पूजा करता है।

श्लोक 71: और जो श्रद्धा समेत तथा द्वेषरहित होकर इसे सुनता है, वह सारे पापों से मुक्त हो जाता है और उन शुभ लोकों को प्राप्त होता है, जहाँ पुण्यात्माएँ निवास करती हैं।

श्लोक 72: हे पृथापुत्र! हे धनञ्जय! क्या तुमने इसे (इस शास्त्र को) एकाग्र चित्त होकर सुना? और क्या अब तुम्हारा अज्ञान तथा मोह दूर हो गया है?

श्लोक 73: अर्जुन ने कहा—हे कृष्ण, हे अच्युत! अब मेरा मोह दूर हो गया। आपके अनुग्रह से मुझे मेरी स्मरण शक्ति वापस मिल गई। अब मैं संशयरहित तथा दृढ़ हूँ और आपके आदेशानुसार कर्म करने के लिए उद्यत हूँ।

श्लोक 74: संजय ने कहा—इस प्रकार मैंने कृष्ण तथा अर्जुन इन दोनों महापुरुषों की वार्ता सुनी। और यह सन्देश इतना अद्भुत है कि मेरे शरीर में रोमाञ्च हो रहा है।

श्लोक 75: व्यास की कृपा से मैंने ये परम गुह्य बातें साक्षात् योगेश्वर कृष्ण के मुख से अर्जुन के प्रति कही जाती हुई सुनीं।

श्लोक 76: हे राजन्! जब मैं कृष्ण तथा अर्जुन के मध्य हुई इस आश्चर्यजनक तथा पवित्र वार्ता का बारम्बार स्मरण करता हूँ, तो प्रति क्षण आह्लाद से गद्गद् हो उठता हूँ।

श्लोक 77: हे राजन्! भगवान् कृष्ण के अद्भुत रूप का स्मरण करते ही मैं अधिकाधिक आश्चर्यचकित होता हूँ और पुन:पुन: हर्षित होता हूँ।

श्लोक 78: जहाँ योगेश्वर कृष्ण हैं और जहाँ परम धनुर्धर अर्जुन है, वहीं ऐश्वर्य, विजय, अलौकिक शक्ति तथा नीति भी निश्चित रूप से रहती है। ऐसा मेरा मत है।

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