हरे कृष्ण। इस पोस्ट में श्रीमद भागवत महापुराण के स्कन्ध 1 के अध्याय 8 सम्पूर्ण अर्थ संग्रह किया हुआ है। आशा है आप इसे पढ़के इसी जन्म में इस जन्म-मरण के चक्कर से ऊपर उठ जायेंगे और आपको भगवद प्राप्ति हो जाये। तो चलिए शुरू करते हैं – राधा-कृष्ण
श्रीमद् भागवत महापुराण – स्कन्ध 1: सृष्टि (अध्याय 8: महारानी कुन्ती द्वारा प्रार्थना तथा परीक्षित की रक्षा)
श्लोक 1: सूत गोस्वामी ने कहा : तत्पश्चात्, पाण्डवगण अपने मृत परिजनों की इच्छानुसार उन्हें जल-दान देने हेतु द्रौपदी सहित गंगा के तट पर गये। स्त्रियाँ आगे-आगे चल रही थीं।
श्लोक 2: उनके लिए शोक कर चुकने तथा पर्याप्त गंगाजल अर्पित कर चुकने के बाद उन सबों ने गंगा में स्नान किया, जिसका जल भगवान् के चरणकमलों की धूलि मिल जाने के कारण पवित्र हो गया है।
श्लोक 3: वहीं कुरुवंशियों के राजा महाराज युधिष्ठिर अपने छोटे भाइयों, धृतराष्ट्र, गांधारी, कुन्ती तथा द्रौपदी सहित बैठ गये। वे सभी शोक से अत्यधिक पीडि़त थे। भगवान् कृष्ण भी वहाँ थे।
श्लोक 4: सर्वशक्तिमान के कठोर नियमों तथा जीवों पर उनकी प्रतिक्रियाओं का दृष्टान्त देते हुए, भगवान् श्रीकृष्ण तथा सारे मुनियों ने समस्त स्तब्ध एवं शोकार्त-जनों को ढाढ़स बँधाया।
श्लोक 5: धूर्त दुर्योधन तथा उसके दल ने छल करके अजातशत्रु युधिष्ठिर का राज्य छीन लिया था। भगवत्कृपा से वह फिर प्राप्त हो गया और जिन दुष्ट राजाओं ने दुर्योधन का साथ दिया था, वे सब भगवान् के द्वारा मार डाले गये। अन्य लोग भी मारे गये, क्योंकि महारानी द्रौपदी के केशों को पकडक़र खींचने से उनकी आयु क्षीण हो चुकी थी।
श्लोक 6: भगवान् श्रीकृष्ण ने महाराज युधिष्ठिर से तीन श्रेष्ठ अश्वमेध यज्ञ सम्पन्न कराये और इस तरह उनकी पवित्र ख्याति सौ यज्ञ करनेवाले इन्द्र की तरह ही सर्व दिशाओं में फैल गई।
श्लोक 7: फिर भगवान् श्रीकृष्ण ने सात्यकि तथा उद्धव के साथ प्रस्थान के लिए तैयारी की। उन्होंने श्रील व्यासदेव आदि ब्राह्मणों से पूजित होने के बाद पाण्डु-पुत्रों को आमन्त्रित किया। भगवान् ने सभी का समुचित अभिवादन किया।
श्लोक 8: ज्योंही वे द्वारका प्रस्थान् के लिये रथ पर सवार हुए, त्योंही उन्होंने भयभीत उत्तरा को तेजी से उनकी ओर आते हुए देखा।
श्लोक 9: उत्तरा ने कहा : हे देवाधिदेव, हे ब्रह्माण्ड के स्वामी, आप सबसे महान् योगी हैं। कृपया मेरी रक्षा करें, क्योंकि इस द्वैतपूर्ण जगत में मुझे मृत्यु के पाश से बचानेवाला आपके अतिरिक्त अन्य कोई नहीं है।
श्लोक 10: हे प्रभु, आप सर्वशक्तिमान हैं। एक दहकता हुआ लोहे का बाण मेरी ओर तेजी से आ रहा है। मेरे प्रभु, यदि आपकी इच्छा हो तो यह मुझे भले ही जला दे, लेकिन यह मेरे गर्भ को जलाकर गर्भपात न करे। हे प्रभु, कृपया मेरे पर इतना अनुग्रह करें।
श्लोक 11: सूत गोस्वामी ने कहा : उसके वचनों को धीरज के साथ सुनकर, अपने भक्तों के प्रति सदैव अत्यन्त वत्सल रहनेवाले, भगवान् श्रीकृष्ण तुरन्त समझ गये कि द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा ने पाण्डव-वंश के अन्तिम वंशज को समाप्त करने (निर्बीज करने) के लिये ही ब्रह्मास्त्र छोड़ा है।
श्लोक 12: हे महान् विचारकों (मुनियों) में अग्रणी (शौनक जी), उस दहकते हुए ब्रह्मास्त्र को अपनी ओर आते देखकर पाँचों पाण्डवों ने अपने-अपने पाँचों हथियार सँभाले।
श्लोक 13: सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीकृष्ण ने यह देखकर कि उनके अनन्य भक्तों पर, जो पूर्ण रूप से उनके शरणागत थे, महान् संकट आनेवाला है, उनकी रक्षा के लिए तुरन्त ही अपना सुदर्शन चक्र उठा लिया।
श्लोक 14: परम योगेश्वर श्रीकृष्ण प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में परमात्मा के रूप में निवास करते हैं। अतएव, कुरु-वंश की संतति की रक्षा करने के लिए उन्होंने उत्तरा के गर्भ को अपनी निजी शक्ति से आवृत कर लिया।
श्लोक 15: हे शौनक, यद्यपि अश्वत्थामा द्वारा छोड़ा गया परम ब्रह्मास्त्र अमोघ था और उसका निवारण नहीं हो सकता था, लेकिन विष्णु (श्रीकृष्ण) के तेज के समक्ष वह निष्क्रिय हो गया और व्यर्थ हो गया।
श्लोक 16: हे ब्राह्मणों, इसे गुह्य तथा अच्युत भगवान् के कार्य-कलापों में विशेष आश्चर्यजनक मत सोचो। वे अपनी दिव्य शक्ति से समस्त भौतिक वस्तुओं का सृजन, पालन तथा संहार करते हैं यद्यपि वे स्वयं अजन्मा हैं।
श्लोक 17: इस प्रकार ब्रह्मास्त्र के विकिरण से बचकर भगवान् की भक्त सती कुन्ती ने अपने पाँच पुत्रों तथा द्रौपदी-सहित, घर के लिए प्रस्थान करने को उद्यत श्रीकृष्ण को इस तरह सम्बोधित किया।
श्लोक 18: श्रीमती कुन्ती ने कहा : हे कृष्ण, मैं आपको नमस्कार करती हूँ, क्योंकि आप ही आदि पुरुष हैं और इस भौतिक जगत के गुणों से निर्लिप्त रहते हैं। आप समस्त वस्तुओं के भीतर तथा बाहर स्थित रहते हुए भी सबों के लिए अदृश्य हैं।
श्लोक 19: सीमित इन्द्रिय-ज्ञान से परे होने के कारण, आप ठगिनी शक्ति (माया) के पर्दे से ढके रहनेवाले शाश्वत अव्यय तत्त्व हैं। आप मूर्ख दर्शक के लिए ठीक उसी प्रकार अदृश्य रहते हैं, जिस प्रकार अभिनेता के वस्त्र पहना हुआ कलाकार पहचान में नहीं आता।
श्लोक 20: आप उन्नत अध्यात्मवादियों तथा आत्मा एवं पदार्थ में अन्तर करने में सक्षम होने से शुद्ध बने विचारकों के हृदयों में भक्ति के दिव्य विज्ञान का प्रसार करने के लिए स्वयं अवतरित होते हैं। तो फिर हम स्त्रियाँ आपको किस तरह पूर्ण रूप से जान सकती हैं?
श्लोक 21: अत: मैं उन भगवान् को सादर नमस्कार करती हूँ, जो वसुदेव के पुत्र, देवकी के लाडले, नन्द के लाल तथा वृन्दावन के अन्य ग्वालों एवं गौवों तथा इन्द्रियों के प्राण बनकर आये हैं।
श्लोक 22: जिनके उदर के मध्य में कमलपुष्प के सदृश गर्त है, जो सदैव कमल-पुष्प की माला धारण करते हैं, जिनकी चितवन कमल-पुष्प के समान शीतल है और जिनके चरणों (के तलवों) में कमल अंकित हैं, उन भगवान् को मैं सादर नमस्कार करती हूँ।
श्लोक 23: हे हृषीकेश, हे इन्द्रियों के स्वामी तथा देवों के देव, आपने दीर्घ काल तक बन्दीगृह में बन्दिनी बनाई गई और दुष्ट राजा कंस द्वारा सताई जा रही अपनी माता देवकी को तथा अनवरत विपत्तियों से घिरे हुए मेरे पुत्रों समेत मुझको मुक्त किया है।
श्लोक 24: हे कृष्ण, आपने हमें विषाक्त भोजन से, भीषण अग्नि-काण्ड से, मानव-भक्षीओं से, दुष्ट सभा से, वनवास-काल के कष्टों से तथा महारथियों द्वारा लड़े गये युद्ध से बचाया है। और अब आपने हमें अश्वत्थामा के अस्त्र से बचा लिया है।
श्लोक 25: मैं चाहती हूँ कि ये सारी विपत्तियाँ बारम्बार आयें, जिससे हम आपका दर्शन पुन: पुन: कर सकें, क्योंकि आपके दर्शन का अर्थ यह है कि हमें बारम्बार होने वाले जन्म तथा मृत्यु को नहीं देखना पड़ेगा।
श्लोक 26: हे प्रभु, आप सरलता से प्राप्त होने वाले हैं, लेकिन केवल उन्हीं के द्वारा, जो भौतिक दृष्टि से अकिंचन हैं। जो सम्मानित कुल, ऐश्वर्य, उच्च शिक्षा तथा शारीरिक सौंदर्य के द्वारा भौतिक प्रगति के पथ पर आगे बढऩे के प्रयास में लगा रहता है, वह आप तक एकनिष्ठ भाव से नहीं पहुँच पाता।
श्लोक 27: मैं निर्धनों के धन आपको नमस्कार करती हूँ। आपको प्रकृति के भौतिक गुणों की क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं से कोई सरोकार नहीं है। आप आत्म-तुष्ट हैं, अतएव आप परम शान्त तथा अद्वैतवादियों के स्वामी कैवल्य-पति हैं।
श्लोक 28: हे भगवान्, मैं आपको शाश्वत समय, परम नियन्ता, आदि-अन्त से रहित तथा सर्वव्यापी मानती हूँ। आप सबों पर समान रूप से दया दिखलाते हैं। जीवों में जो पारस्परिक कलह है, वह सामाजिक मतभेद के कारण है।
श्लोक 29: हे भगवान्, आपकी दिव्य लीलाओं को कोई समझ नहीं सकता, क्योंकि वे मानवीय प्रतीत होती हैं और इस कारण भ्रामक हैं। न तो आपका कोई विशेष कृपा-पात्र है, न ही कोई आपका अप्रिय है। यह केवल लोगों की कल्पना ही है कि आप पक्षपात करते हैं।
श्लोक 30: हे विश्वात्मा, यह सचमुच ही चकरा देनेवाली बात (विडम्बना) है कि आप निष्क्रिय रहते हुए भी कर्म करते हैं और प्राणशक्ति रूप तथा अजन्मा होकर भी जन्म लेते हैं। आप स्वयं पशुओं, मनुष्यों, ऋषियों तथा जलचरों के मध्य अवतरित होते हैं। सचमुच ही यह चकरानेवाली बात है।
श्लोक 31: हे कृष्ण, जब आपने कोई अपराध किया था, तब यशोदा ने जैसे ही आपको बाँधने के लिए रस्सी उठाई, तो आपकी व्याकुल आँखें अश्रुओं से डबडबा आईं, जिससे आपकी आँखों का काजल धुल गया। यद्यपि आपसे साक्षात् काल भी भयभीत रहता है, फिर भी आप भयभीत हुए। यह दृश्य मुझे मोहग्रस्त करनेवाला है।
श्लोक 32: कुछ कहते हैं कि अजन्मा का जन्म पुण्यात्मा राजाओं की कीर्तिका विस्तार करने के लिए हुआ है और कुछ कहते हैं कि आप अपने परम भक्त राजा यदु को प्रसन्न करने के लिए जन्मे हैं। आप उसके कुल में उसी प्रकार प्रकट हुए हैं, जिस प्रकार मलय पर्वत में चन्दन होता है।
श्लोक 33: अन्य लोग कहते हैं कि चूँकि वसुदेव तथा देवकी दोनों ने आपके लिए प्रार्थना की थी, अतएव आप उनके पुत्र-रूप में जन्मे हैं। निस्सन्देह, आप अजन्मा हैं, फिर भी आप देवताओं का कल्याण करने तथा उनसे ईर्ष्या करनेवाले असुरों को मारने के लिए जन्म स्वीकार करते हैं।
श्लोक 34: कुछ कहते हैं कि जब यह संसार, भार से बोझिल समुद्री नाव की भाँति, अत्यधिक पीडि़त हो उठा तथा आपके पुत्र ब्रह्मा ने प्रार्थना की, तो आप कष्ट का शमन करने के लिए अवतरित हुए हैं।
श्लोक 35: तथा कुछ कहते हैं कि आप श्रवण, स्मरण, पूजन आदि की भक्ति को जागृत करने के लिए प्रकट हुए हैं, जिससे भौतिक कष्टों को भोगनेवाले बद्धजीव इसका लाभ उठाकर मुक्ति प्राप्त कर सकें।
श्लोक 36: हे कृष्ण, जो आपके दिव्य कार्यकलापों का निरन्तर श्रवण, कीर्तन तथा स्मरण करते हैं या दूसरों को ऐसा करते देखकर हर्षित होते हैं, वे निश्चय ही आपके उन चरणकमलों का दर्शन करते हैं, जो जन्म-मृत्यु के पुनरागमन को रोकनेवाले हैं।
श्लोक 37: हे मेरे प्रभु, अपने सारे कर्तव्य स्वयं पूरे कर दिये हैं। आज जब हम आपकी कृपा पर पूरी तरह आश्रित हैं और जब हमारा और कोई रक्षक नहीं है और जब सारे राजा हमसे शत्रुता किये हुए हैं, तो क्या आप हमें छोडक़र चले जायेंगे?
श्लोक 38: जिस तरह आत्मा के अदृश्य होते ही शरीर का नाम तथा यश समाप्त हो जाता है, उसी तरह यदि आप हमारे ऊपर कृपा-दृष्टि नहीं करेंगे, तो पाण्डवों तथा यदुओं समेत हमारा यश तथा गतिविधियाँ तुरन्त ही नष्ट हो जाएँगी।
श्लोक 39: हे गदाधर (कृष्ण), इस समय हमारे राज्य में आपके चरण-चिह्नों की छाप पड़ी हुई है, और इसके कारण यह सुन्दर लगता है, लेकिन आपके चले जाने पर यह ऐसा नहीं रह जायेगा।
श्लोक 40: ये सारे नगर तथा ग्राम सब प्रकार से समृद्ध हो रहे हैं, क्योंकि जड़ी-बूटियों तथा अन्नों की प्रचुरता है, वृक्ष फलों से लदे हैं, नदियाँ बह रही हैं, पर्वत खनिजों से तथा समुद्र सम्पदा से भरे पड़े हैं। और यह सब उन पर आपकी कृपा-दृष्टि पडऩे से ही हुआ है।
श्लोक 41: अत: हे ब्रह्माण्ड के स्वामी, हे ब्रह्माण्ड के आत्मा, हे विश्व-रूप, कृपा करके मेरे स्वजनों, पाण्डवों तथा वृष्णियों के प्रति मेरे स्नेह-बन्धन को काट डालें।
श्लोक 42: हे मधुपति, जिस प्रकार गंगा नदी बिना किसी व्यवधान के सदैव समुद्र की ओर बहती है, उसी प्रकार मेरा आकर्षण अन्य किसी ओर न बँट कर आपकी ओर निरन्तर बना रहे।
श्लोक 43: हे कृष्ण, हे अर्जुन के मित्र, हे वृष्णिकुल के प्रमुख, आप उन समस्त राजनीतिक पक्षों के विध्वंसक हैं, जो इस धरा पर उपद्रव फैलानेवाले हैं। आपका शौर्य कभी क्षीण नहीं होता। आप दिव्य धाम के स्वामी हैं और आप गायों, ब्राह्मणों तथा भक्तों के कष्टों को दूर करने के लिए अवतरित होते हैं। आपमें सारी योग-शक्तियाँ हैं और आप समस्त विश्व के उपदेशक (गुरु) हैं। आप सर्वशक्तिमान ईश्वर हैं। मैं आपको सादर प्रणाम करती हूँ।
श्लोक 44: सूत गोस्वामी ने कहा : इस प्रकार भगवान् अपने महिमागान के लिए चुने हुए शब्दों में कुन्तीदेवी के द्वारा की गई प्रार्थना सुनकर मन्द-मन्द मुसकाए। यह मुस्कान उनकी योगशक्ति के समान ही मोहक थी।
श्लोक 45: इस तरह श्रीमती कुन्तीदेवी की प्रार्थनाएं स्वीकार करने के बाद भगवान् ने हस्तिनापुर के राजमहल में प्रवेश करके अन्य स्त्रियों को अपने प्रस्थान की सूचना दी। लेकिन उन्हें प्रस्थान करते देख, राजा युधिष्ठिर ने उन्हें रोक लिया और अत्यन्त प्रेमपूर्वक उनसे याचना की।
श्लोक 46: अत्यधिक शोक में डूबे हुए राजा युधिष्ठिर, व्यास आदि मुनियों तथा अद्भुत कर्म करनेवाले साक्षात् भगवान् कृष्ण के उपदेशों से तथा समस्त ऐतिहासिक साक्ष्य से सान्त्वना नहीं पा सके।
श्लोक 47: धर्मपुत्र, राजा युधिष्ठिर, अपने मित्रों की मृत्यु से अभिभूत थे और सामान्य भौतिकतावादी मनुष्य की भाँति शोक-सन्तप्त थे। हे मुनियो, इस प्रकार स्नेह से मोहग्रस्त होकर वे बोले।
श्लोक 48: राजा युधिष्ठिर ने कहा : हाय, मैं सबसे पापी मनुष्य हूँए! जरा मेरे हृदय को तो देखो, जो अज्ञान से पूर्ण है! यह शरीर, जो अन्तत: परोपकार के लिए होता है, उसने अनेकानेक अक्षौहिणी सेनाओं का वध करा दिया है।
श्लोक 49: मैंने अनेक बालकों, ब्राह्मणों, शुभ-चिन्तकों, मित्रों, चाचा-ताउओं, गुरुओं तथा भाइयों का वध किया है। भले ही मैं लाखों वर्षों तक जीवित रहूँ, लेकिन मैं इन सारे पापों के कारण मिलनेवाले नरक से कभी भी छुटकारा नहीं पा सकूँगा।
श्लोक 50: जो राजा अपनी प्रजा के पालन में लगा रह कर सही निमित्त के लिए वध करता है, उसे कोई पाप नहीं लगता। लेकिन यह आदेश मेरे ऊपर लागू नहीं होता।
श्लोक 51: मैनें अनेक स्त्रियों के बंधुओं का वध किया है और इस तरह मैंने इस हद तक शत्रुता मोल ली है कि भौतिक कल्याण-कार्य के द्वारा इसे मिटा पाना सम्भव नहीं है।
श्लोक 52: जिस प्रकार गंदे पानी को कीचड़ में डालकर छाना नहीं जा सकता, अथवा जैसे मदिरा से मलिन हुए पात्र को मदिरा से स्वच्छ नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार नर-संहार का प्रायश्चित पशुओं की बलि देकर नहीं किया जा सकता।