आदि भगवान् श्री गोविन्द के नाम से विख्यात श्री कृष्ण ही परमेश्वर यानी परम ईश्वर हैं। उनका शरीर सच्चिदानंद(सत, चित और आनंद स्वरुप प्रभु) है। श्रीकृष्ण ही मूल स्त्रोत हैं, वे ही समस्त कारणों के मूल कारण हैं। – यह ब्रह्मसंहिता में बताया गया है। क्या आपको पता है मानव इतिहास में भगवान् श्रीकृष्ण के समान असीम तथा एक साथ सम्पत्तिवान, शक्तिशाली, विख्यात, सुन्दर, बुद्धिमान तथा अनासक्त व्यक्तित्व अन्य कोई नहीं। पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् श्री कृष्ण एक ऐतिहासिक पुरुष के रूप में आज से करीब 5200 वर्ष पूर्व धर्म की रक्षा के लिए इस धरा पर प्रकट हुए। श्री कृष्ण इस धरा पर 124 वर्षों तक रहें और 124 वर्ष पूरा होने धर्म की रक्षा करने के बाद उन्होंने अपना गोलोक(चिंतामणि) वृन्दावन धाम वापस चले गए।
आज हम उन्हीं की धरती पर किए हुए लीला या उन्हीं कृष्ण कथा के बारे में कहानी के माध्यम से जानेंगे, उनके जन्म से लेकर गोलोक धाम तक की सभी कहानी। तो चलिए शुरू करते हैं –
Complete Krishna Story in Hindi – जन्म से लेकर गोलोक धाम तक
आकाशवाणी और कंस
द्वापर युग में यानी आज से 5200 वर्ष पूर्व मथुरा राज्य में महाराज उग्रसेन अपना राज्य चलाते थे। उनका एक अधर्मी पुत्र था जिसका नाम था कंस, आप तो जानते ही होंगे। उस समय सारा संसार बुरे और क्रूर राजाओं से बोझिल हो गया था और तब माँ पृथ्वी देवी ब्रह्मा जी के पास गए और शोकाकुल होकर सारी बातें ब्रह्मा जी को बताई। यह सुनकर ब्रह्मा जी अत्यंत दुःखी हो गए, उसके बाद तुरंत महादेव के पास गए और उनको लेकर सभी देवताओं सहित भगवान् श्री क्षीरोदक्षायी विष्णु के पास गए, जो क्षीरसागर (श्वेतद्वीप नामक लोक है) में वास करते हैं, जिनसे इस ब्रह्माण्ड के समस्त अवतार प्रकट होते हैं।
वहां जाकर सभी शिव जी, ब्रह्मा जी सहित सभी देवताओं ने भगवान् विष्णु की स्तुति की, उनको प्रसन्न करने के लिए पुरुष सूक्त का पाठ किया। तब उन्हें भगवान् श्री विष्णु से प्रकट रूप से उत्तर नहीं मिला, तब ब्रह्मा जी स्वयं भगवान् विष्णु का ध्यान करने लगा और तब जाके भगवान् श्री विष्णु ने उन्हें एक सन्देश भेजा। ब्रह्मा जी ने यह सन्देश सभी देवताओं को बताया कि भगवान् श्री परम कृष्ण शीघ्र ही अपनी परम् शक्तियों सहित पृथ्वी पर प्रकट होंगे। और उनकी सहायता के लिए सभी देवताओं को पृथ्वी पर तुरंत उस यदुवंश में जन्म लेना चाहिए, यथासमय श्री भगवान् अपने परम रूप श्री कृष्ण रूप में प्रकट होंगे। भगवान् श्री कृष्ण वसुदेव के पुत्र रूप में जन्म लेंगे।
देवताओं को यह जानकारी भी दी गयी कि भगवान् श्री कृष्ण के अवतार के पूर्व पृथ्वी पर भगवान् श्री कृष्ण का पूर्ण अंश शेष प्रकट होगा। समस्त देवताओं और भू देवी को मधुर वचनों से आदेश तथा स्वांत्वना देने के बाद ब्रह्माजी और शिव जी अपने अपने धाम चले गए और देवता और पृथ्वी देवी भी वापस अपने लोक में चले गए।
अब बात करते हैं कंस की, कंस ज्ञानी और पराक्रमी होने के साथ-साथ अधर्मी, अत्याचारी, क्रूर भी थे। उनका कर्म असुर के समान ही थे। राजगद्दी के लोभ में उसने अपने ही पिता महाराज उग्रसेन को बंदी बनाकर कारागार में डाल दिया और राजमुकुट छीनकर स्वयं ही राजा बन बैठा। महाराज कंस की एक चचेरी बहन थी “देवकी” जिसे कंस अत्यंत प्रेम करते थे। जब देवकी विवाह यदुवंशी वसुदेव से हुआ, तब कंस ने स्वयं वसुदेव और देवकी के रथ के घोड़ों की रास स्वइच्छा से अपने हाथ में लेकर उनके घर छोड़ने जा रहा था। वे जा ही रहे थे तभी उनके मार्ग पर आकाश से अचानक एक आश्चर्यजनक ध्वनि गूंजी, जो आकाशवाणी विशेष रूप से कंस को उद्बोधित किया गया “अरे मूर्ख कंस, जिस देवकी को तू इतने प्रेम से, इतने उत्साहित से ले जा रहा है उसी का आठवाँ पुत्र तुम्हारा वध करेगी।”
कहा जाता है कंस समस्त भोजवंशी राजाओं में से सर्वाधिक आसुरी था। आकाशवाणी सुनते ही उसने देवकी के केश पकड़ लिए और उसे अपनी तलवार से मारने जाने ही वाला था। तभी परिस्थिति को संभालने के लिए वसुदेव ने कंस से विनम्रतापूर्वक कहाँ की “हे महापराक्रमी कंस, आप जैसे महान राजा के लिए क्या किसी स्त्री पर ऐसा व्यव्हार शोभा देता हैं? लोग आपको महानतम योद्धा तथा पराक्रमी के रूप में जानते हैं। आखिर आप इतने क्रुद्ध क्यों हो गए की अपनी बहन को उसके विवाह के शुभ अवसर पर ही मारने के लिए उद्दत हो गए हैं?” इस तरह से वसुदेव ने कंस से प्रार्थना की कि वह अपनी नवविवाहिता बहन से द्वेष न करे।
वसुदेव ने देवकी की ओर से कंस से अनुनय-विनय की कि वह उसकी छोटी बहन है। उन्होंने विवाह की शुभ घड़ी का स्मरण करा कर भी कंस से अनुरोध किया। वसुदेव ने यह तर्क भी दिया की “कुल मिलाकर स्थिति अत्यंत गंभीर है कि यदि आप उसे मारते हो, इससे आपके यश की हानि होगी।” इसी प्रकार से वसुदेव ने देवकी की प्राण की रक्षा के लिए दार्शनिक तर्क-वितर्क द्वारा कंस को शांत करने का प्रयास किया, किन्तु कंस शांत नहीं हुआ, क्यूंकि असल में कंस एक असुर था और उसी कारण राजसी उच्च कुल में जन्म लेने के बाद भी वह असुर बना रहा। असुर कभी भी किसी सदउपदेश की परवाह नहीं करता।
जब वसुदेव कंस को शांत करने में असफल रहें, तब अपनी पत्नी की रक्षा का उपाय सोचकर वसुदेव अत्यंत पापी कंस से ससम्मान बोले, “हे मेरे प्रिय कंस, अभी के लिए आप यह मान लीजिये कि आपको अपनी बहन से को खतरा नहीं है। आपमें खतरे की आशंका इसलिए है, क्यूंकि आपने आकाशवाणी सुनी है। किन्तु यह खतरा तो आपकी बहन के पुत्रों से आना है, जिन्होंने इस समय तो जन्म भी नहीं लिया हुआ है, भविष्य में कब क्या होने वाला है उसकी चिंता अभी से क्यों करनी है, अभी आप इस चिंता से दूर रहो, क्यूंकि अभी आप बिलकुल सुरक्षित हैं। आज मैं यदुवंशी वसुदेव आपको वचन देता हूँ कि मैं अपनी संतान को जन्म लेते ही आपके समक्ष प्रस्तुत करता रहूँगा।”
कंस जानता था कि वसुदेव के वचनों के महत्व क्या है! और वह उनके तर्क से आश्वस्त हो गया। फलतः उस समय कंस ने अपनी बहन देवकी को जघन्य वध के विचार त्याग दिया। अब वसुदेव अपनी पत्नी देवकी के साथ घर गए और दोनों ही सुखपूर्वक जीवन का आनंद लेने लगे। अब समय था वसुदेव और देवकी के प्रथम संतान के जन्म का, जब एक और ख़ुशी का माहौल था, तब वसुदेव और देवकी के मन को भय और विषाद ने घेर लिया।
अब पहली संतान का जन्म हो चूका था और क्यूंकि वसुदेव धर्मपरायण थे, वे अपने वचनों का मान रखते हुए दिल पे पत्थर रखकर अपने नवजात शिशु को कंस के पास लेकर गए। वैसे नवजात पुत्र को कंस के हाथों में सौंपना वसुदेव के लिए अत्यंत कष्टदायक था। वसुदेव के इस व्यव्हार से कंस अत्यंत प्रसन्न हुआ और शिशु को देखकर कंस ने सोचा कि “देवकी का आठवां शिशु मेरा वध करेगा तो मैं इस निरपराध शिशु को क्यों मारुँ?” और वसुदेव से बोलने लगा “मेरे प्रिय वसुदेव, इस पुत्र को मुझे भेंट करने की कोई आवश्यकता नहीं है। मुझे तुम्हारे पहला पुत्र से कोई खतरा नहीं है। मैंने आकाशवाणी से सुना था कि तुम्हारा और देवकी का आठवां पुत्र ही मेरा वध करेगा, तो फिर मुझे क्यों व्यर्थ में ही इस शिशु को हत्या करना चाहिए?”
कंस ने उस शिशु को प्राणदान दे दिया और वसुदेव को कहा “तुम इसे वापस ले जा सकते हो।”
जब वसुदेव अपने प्रथम पुत्र को लेकर घर लौट रहे थे, तो वे कंस के व्यवहार से प्रसन्न थे, तथापि उन्हें कंस पर विश्वास नहीं हो रहा था, क्यूंकि वे जानते थे कि कंस किसी के वश में नहीं है। वसुदेव के जाने के बाद वहां पर कंस के पास देवर्षि नारद आये। उनको जानकारी मिली कि कंस ने वसुदेव-देवकी की प्रथम पुत्र को प्राणदान दिए हैं। श्री नारदमुनि अत्यधिक उत्सुक थे कि जितनी जल्दी हो सके भगवान श्री कृष्ण अवतार ले सकें। उन्होंने कंस से कहा, “अरे कंस महाराज! सभी देवता आपका वध चाहते हैं और सभी देवताओं ने वृन्दावन में जन्म ले चुके हैं और नन्द महाराज, बाकि वृन्दावन के ग्वाल और उनकी पत्नियां और वसुदेव, उनके पिता शूरसेन तथा सभी यदुवंशी वृष्णिकुल में उत्पन्न उनके सारे सम्बन्धी तथा उनके मित्र सभी वास्तव में देवता हैं। इसलिए आप उनसे सावधान रहे। क्यूंकि वसुदेव और देवकी के कोई भी बालक कृष्ण हो सकता है।”
श्रीनारदमुनि की कृपा से कंस अपने पूर्वजन्म से अवगत हुआ। उसे पता चला कि पूर्वजन्म में वह कालनेमि नामक असुर था, जिसका वध श्रीविष्णु द्वारा हुआ था। इस प्रकार श्रीनारदमुनि से विभिन्न परिवारों में देवताओं के प्रकट होने की जानकारी प्राप्त करके कंस तुरंत चौकन्ना हो गया। वह समझ गया कि चूँकि देवता अब प्रकट हो चुके हैं, तो भगवान् श्री विष्णु का भी शीग्र ही आगमन होंगे। नारद जी की बातों से भयभीत होकर कंस ने खुद वसुदेव के यहाँ जाकर शिशु को छीन लिया और पत्थर पर पटककर उसका अंत कर दिया और तुरंत वसुदेव तथा बहन देवकी को बंदी बना लिया और उन्हें कारागार में डाल दिया।
वसुदेव तथा देवकी लोहे की साँकले पहने कारागार में प्रतिवर्ष एक पुत्र को जन्म देते रहे और जैसे ही पुत्र का जन्म होता है वैसे ही कंस उससे छीनकर प्रत्येक शिशु को श्रीविष्णु अवतार समझकर वध करता रहा। ऐसे कंस ने एक-एक करके देवकी तथा वसुदेव के छह पुत्रों का वध कर दिया। हर समय देवकी ईश्वर से प्राथना करती रही की किसी तरह श्री भगवान् उनके बच्चे को बचा लें। अब जब देवकी सातवीं बार गर्भवती हुई, तो उनके गर्भ में अनंत नामक श्री कृष्ण का पूर्ण अंश प्रकट हुआ। और देवकी हर हाल में वह अपने शिशु की रक्षा चाहती थी। देवकी की प्राथना से प्रसन्न होकर श्री कृष्ण ने अपनी अंतरंगी शक्ति योगमाया को प्रकट होने का आदेश दिया। भगवान् श्रीकृष्ण सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के स्वामी हैं। योगमाया श्री भगवान् की प्रमुख शक्ति है।
अतः भगवान् श्री कृष्ण ने योगमाया को इस प्रकार बोले, “देवकी तथा वसुदेव कंस के कारागार में बंदी हैं और इस समय मेरा पूर्ण अंश, शेष, देवकी के गर्भ में है। तुम शेष को देवकी के गर्भ से रोहिणी के गर्भ में स्थानांतरित कर सकती हो। इस व्यवस्था के बाद मैं अपनी समस्त शक्तिओं के सहित स्वयं देवकी के गर्भ में अवतरित होने जा रहा हूँ। फिर मैं देवकी तथा वसुदेव के पुत्र के रूप में प्रकट होऊंगा और तब तुम भी वृन्दावन में नन्द-यशोदा की पुत्री के रूप में प्रकट होना।”
रोहिणी वसुदेव की दूसरी पत्नी की नाम थी, जो उस समय वृन्दावन में राजा नन्द तथा रानी यशोदा के घर में निवास कर रहीं थीं। भगवान् श्री कृष्ण ने योगमाया से कहा कि उनका पूर्णाश “अनंत या शेष” जो अभी देवकी के गर्भ में स्थित है, उसे वसुदेव की दूसरी पत्नी रोहिणी के गर्भ में बलपूर्वक ले जाये और कहाँ की जब उसे बलपूर्वक ले जाया जायेगा उस कारण वे संकर्षण कहलाएंगे और वे समस्त दैवी शक्ति या बल के स्त्रोत होंगे। अतः पूर्णाश अनंत अपने अवतार के पश्चात् संकर्षण या बलराम नाम से पुरे जगत में प्रसिद्ध होंगे।
भगवान् ने योगमाया से और कहा की तुम्हें जगत दुर्गा, भद्रकाली, विजया, वैष्णवी, कुमुदा, चण्डिका, कृष्णा, माधवी, कन्यका, माया, नारायणी, ईशानी, शारदा तथा अम्बिका के नाम से जानेंगे और तुम्हारे अनेकों भक्त होंगे और तुम्हें पूजा करेंगे। पुरे विश्व में भगवान् श्री विष्णु तथा देवी के ऐसे लाखों मंदिर हैं और कहीं-कहीं तो इन दोनों की एक साथ पूजा की जाती है। भगवान् श्री कृष्ण तथा योगमाया भाई तथा बहन परम शक्तिमान तथा परम शक्ति के रूप में प्रकट हुए। भगवान् श्री कृष्ण परम शक्तिमान और भौतिक जगत में माँ दुर्गा परम शक्ति हैं। आप शयद ही इस बात को जानते होंगे कि शक्ति हमेशा ही शक्तिमान के अधीन रहती है।
जब श्री भगवान् ने योगमाया को इस तरह आदेश दिया, तो उसने उनकी प्रदक्षिणा की और तब उनकी आज्ञानुसार वह इस भौतिक जगत में प्रकट हुई। और तब योगमाया ने शेष को देवकी के गर्भ से रोहिणी के गर्भ में स्थानांतरित किया, तो वे दोनों ही योगमाया के वश में थी। जब ऐसा हो चूका था तब चारों ओर देवकी के गर्भपात की चर्चा हुई। इस तरह बलराम देवकी के पुत्र रूप में अवतरित हुए, किन्तु रोहिणी के गर्भ में स्थानांतरित किये जाने के कारण उनके पुत्र कहलाये।
अब कंस बड़ी ही आतुरता से देवकी की आठवीं संतान की प्रतीक्षा कर रहा है। कारागार में पहले से प्रहरी बढ़ा दी गयी थी। गर्भ स्थानांतरण के बाद भगवान् श्री कृष्ण ने अपनी पूर्ण शक्तिओं सहित सम्पूर्ण सृष्टि के स्वामी के रूप में सबसे पहले वसुदेव के मन में प्रवेश किया। और वसुदेव के ह्रदय में स्थान ग्रहण किया और उसके बाद देवकी के मन से ह्रदय में स्थानांतरित हुआ।
भगवान् श्री कृष्ण देवकी के गर्भ में वीर्य द्वारा स्थापित नहीं हुए थे। उनके लिए यह अनिवार्य नहीं है कि वे किसी माँ के गर्भ में वीर्य-क्षेपण की सामान्य विधि द्वारा स्थापित हों।
समय के साथ देवकी ने गर्भ धारण किया तो उसके चेहरे पर एक विशेष आभा दृश्यमान हुए। उसे देखकर कंस ने मन ही मन सोचा की शायद मेरा वध करने वाला देवकी के गर्भ में आ चूका है। इससे पहले तो देवकी इतनी अधिक सुन्दर कभी नहीं लगी थी। अब अपनी बहन को तो मैं मार नहीं सकता, तो अब मुझे क्या करना चाहिए? उसने कारागार में पहरा देने वाले पहरेदारों को आदेश दिया कि शिशु के जन्म होते ही उन्हें जल्द से जल्द सुचना दी जाए। अब कंस यह सोचने लगा कि “यदि मैं देवकी को इस अवस्था में मार दूँ, तो श्रीविष्णु अपनी परम इच्छा को अधिक तीव्रता से लागु करेंगे। अतः इस समय देवकी को मारने से मेरी ख्याति भी नष्ट हो जाएगी। आखिर देवकी एक अबला है और मेरी शरण में है, गर्भवती भी है यदि मैं उसे मारता हूँ, तो मेरी ख्याति, मेरे जीवन भर के पुण्यों का फल, सब कुछ अभी नष्ट हो जाएगा।”
कंस यह जानता था कि भगवान् श्री विष्णु के उद्देश्य को कोई भी विफल नहीं कर सकता है। अंत में कंस ने निर्णय लिया कि देवकी को तुरंत न मारा जाये और भविष्य की प्रतीक्षा की जाये, किन्तु कंस के मन में भगवान् श्री विष्णु के प्रति शत्रुता और बढ़ गया। अब कंस उठते-बैठते, खाते-पीते, सोते-जागते, चलते-फिरते सिर्फ श्री भगवान् के विषय में ही सोचने लगे। चारों ओर उन्हें भगवान् श्री कृष्ण ही दिखाई देते हैं। कृष्ण भक्ति के कारण नहीं, कृष्ण से शत्रुता के कारण। उस समय स्वयं शिव जी, ब्रह्मा जी सहित सभी देवतागण और ऋषिगण के साथ कंस के घर में अदृश्य रूप में परम श्री कृष्ण को देखने आये और महादेव और सभी देवताओं ने परम भगवान् परम श्री कृष्ण की स्तुति की।
शिव जी और सभी देवतागण बड़ी प्रसन्न थे कि श्री कृष्ण अपना उद्देश्य पूरा करने के लिए इस धरा पर प्रकट हो रहे हैं और उन्होंने श्री भगवान् को परम सत्य कहकर सम्बोधित किया है। यानी सभी देवतागण यह जानकारी देते हैं कि तीनों कालों में परम सत्य भगवान् श्री कृष्ण ही हैं। वे सभी कारणों के भी कारण हैं, वही पुरे विश्व-ब्रह्माण्ड के स्वामी हैं, वही सभी के स्त्रोत है, जो अपने गोकुल वृन्दावन धाम में रहते हैं। सारा संसार भगवान् श्री कृष्ण के ही दो शक्तियों (परा और अपरा) का संयोग है। सभी जीवात्माएं श्रीकृष्ण की परा शक्ति हैं और सभी निर्जीव भौतिक तत्त्व अपरा शक्ति हैं।