उद्धव द्वारा शुभ समाचार
कंस के अंत के पश्चात् कृष्ण ने अपने चचेरे भाई उद्धव को वृंदावन शुभ समाचार देने भेजा। उन्होंने उद्धव से कहा कि वृंदावन जाकर मेरे माता-पिता तथा वृंदावन वासियों को मेरे तथा भाई बलराम के सुरक्षित होने तथा कंस की मृत्यु की सूचना दे देना।। उद्धव खुशी-खुशी वृंदावन गया। वहाँ उसने विलाप करती यशोदा को देखकर पूछा, “माँ क्या हुआ ? आप क्यों रो रही हैं?” उद्धव से यशोदा ने कहा, “पुत्र, हमें कृष्ण की कमी खल रही है उसके लिए हमें बहुत चिंता है। सभी चाहते हैं कि वह सुरक्षित वापस आ जाए।” उद्धव ने कहा, “कृष्ण ने आपको सूचित करने के लिए ही मुझे भेजा है कि कृष्ण और बलराम ने कंस का अंत कर दिया है और आपके आशीर्वाद से दोनों सुरक्षित हैं। यह समाचार आग की भाँति वृंदावन में फैल गए और वृंदावन के लोग नंद के घर आने लगे। नंद ने इस शुभ समाचार के लिए उद्धव को आशीर्वाद दिया और प्रश्नों की झड़ी लगा दी। कृष्ण के प्रति उनके प्रेम को देखकर उद्भव भी हैरान रह गया था।
वसुदेव देवकी से कृष्ण का मिलन
कंस के अंत के पश्चात्, कृष्ण और बलराम सीधे कारागार में अपने माता-पिता को छुड़ाने गए। कारागार की कोठरी में उन्होंने जंजीरों में जकड़े देवकी और वसुदेव को देखा। दोनों अपने माता पिता के चरणों में झुक गए। वसुदेव और देवकी अपने बच्चों को देखकर भाव विह्वल हो गए। उनकी आँखों से अश्रु बहने लगे और उन्होंने कसकर उन्हें गले लगा लिया। कंस की मृत्यु का समाचार उनके लिए सुखदायी था। बारह वर्षों बाद आज उन्हें मुक्ति मिल रही थी। जनता उन्हें कारागार से बाहर आया देख अत्यंत प्रसन्न थी। अब कृष्ण को कंस से खाली हुई मथुरा की राजगद्दी भरनी थी। उन्होंने उग्रसेन को अपने माता-पिता का आशीर्वाद लेकर कारागार से मुक्त कराया और मथुरा का राजा बना दिया। कंस की पत्नियां अस्थि और स्वस्ति कंस की मृत्यु से भयभीत थीं। वे अपने पिता जरासंध के पास चली गईं और सारी बातें जरासंध को बताईं। क्रोध में जरासंध ने कृष्ण से बदला लेने की ठान ली।
संदीपनी ऋषि को गुरुदक्षिणा
कंस की मृत्यु के पश्चात् कृष्ण के नाना ‘उग्रसेन’ पुनः मथुरा के राजा बना दिए गए थे। कृष्ण का कार्य पूरा हो चुका था। वसुदेव और देवकी ने अपने पुत्रों को गले लगाया। नंद को शेष गोपों के साथ वापस वृंदावन भेज दिया। पहले तो वे जाना नहीं चाहते थे पर कृष्ण की बात उन्हें माननी ही पड़ी। वसुदेव ने ब्राह्मणों को बुलाकर कृष्ण और बलराम का यज्ञोपवीत संस्कार करवाया। संस्कार हो जाने पर दोनों भाई अवंतीपुर स्थित संदीपनी ऋषि के आश्रम में अपनी शिक्षा ग्रहण करने के लिए चले गए। दोनों भाई अत्यंत तीव्र बुद्धि के थे। आश्रम में सभी के साथ वे बड़े प्रेम भाव से रह रहे थे। मात्र चौंसठ दिनों में कृष्ण सभी कलाओं में निपुण हो गए थे। उन्होंने अपने गुरु ऋषि संदीपनी को गुरुदक्षिणा देनी चाही। ऋषि पत्नी यह जान गई थीं कि ये दोनों असाधारण बालक हैं अतः उन्होंने ऋषि से अपने मृत पुत्र को दक्षिणास्वरूप मांगने के लिए कहा।
कृष्ण और बलराम गुरु पुत्र पुनर्दत्त की खोज में निकल पड़े। वे दोनों प्रवास गए जहाँ समुद्रदेव वरुण रहते थे। वहाँ उन्होंने उनसे ऋषि पुत्र को मांगा। वरुण देव ने कृष्ण को बताया कि समुद्र में पाञ्चजन्य शंख के भीतर शंखासुर नामक असुर रहता है, वही ऋषिपुत्र के विषय में जानता होगा। कृष्ण ने समुद्र के भीतर जाकर उस राक्षस को ललकारा और मार डाला पर उन्हें पुनर्दत्त नहीं मिला। तब कृष्ण और बलराम मृत्युदेव यम की राजधानी संयमणि गए। यमलोक में जीवित व्यक्ति का प्रवेश वर्जित है। द्वारपालों ने कृष्ण और बलराम को भीतर नहीं जाने दिया। द्वार पर कोलाहल सुनकर यम स्वयं बाहर आए। कृष्ण ने यमराज से संदीपनी ऋषि के पुत्र पुनर्दत्त को वापस मांगा जिसे उन्हें गुरु को गुरुदक्षिणा स्वरूप देना था। यमराज ने कृष्ण को पहचान लिया और तुरंत पुनर्दत्त को कृष्ण को वापस दे दिया। कृष्ण अपने साथ पुनर्दत्त को लेकर संदीपनी ऋषि के पास गए। पुनर्दत्त को देखकर ऋषि और ऋषि पत्नी बहुत प्रसन्न हुई । उन लोगों ने कृष्ण और बलराम को आशीर्वाद दिया।