मथुरा पर जरासंध का हमला
कंस की मृत्यु के पश्चात् उसकी पत्नियां अस्थि और स्वस्ति मथुरा छोड़कर वापस अपने पिता जरासंध के पास लौट आई थी। जरासंध मगध का राजा था। कृष्ण के द्वारा कंस वध का सुनकर जरासंध आग बबूला हो गया था और उस ने कृष्ण से बदला लेने का निश्चय कर लिया था। खूब बड़ी सेना एकत्रित कर उसने मथुरा पर चढ़ाई कर दी। कृष्ण और बलराम बड़ी बहादुरी से लड़े और जरासंध को बंदी बना लिया। बलराम जरासंध को मारना ही चाहते थे पर कृष्ण ने उन्हें जरासंध को छोड़ देने के लिए कहा जिससे वह और बड़ी सेना लेकर दोबारा आक्रमण कर सके। कृष्ण का विचार सही निकला। जरासंध ने सत्रह बार मथुरा पर आक्रमण किया पर हर बार उसकी हार हुई। फिर भी वह चुप नहीं बैठा। बार-बार हार जाने के कारण जरासंध ने काल्यवन नामक दैत्य से संधि कर अठारहवीं बार मथुरा पर हमला किया। मथुरा के लोग इस बार – बार के युद्ध से थक चुके थे। वे शांति चाहते थे।
द्वारका का निर्माण
जरासंध के काल्यवन से हाथ मिला लेने से मथुरावासी चिंतित हो उठे थे। आशीर्वाद प्राप्त होने के कारण काल्यवन को हराना आसान नहीं था। उन्होंने कृष्ण से मिलकर उन्हें अपने मन की बात बताईं। कृष्ण ने उन्हें आश्वस्त किया कि मथुरा-वासियों की सुरक्षा अब उनके हाथ में है। कृष्ण ने अपनी दैवी शक्ति से विश्वकर्मा को बुलाया और द्वारका नामक एक नया नगर बसाने को कहा। रातों-रात एक खूबसूरत नगर द्वारका का निर्माण विश्वकर्मा ने कर दिया और कृष्ण ने मथुरावासियों को सुरक्षित वहाँ पहुँचा दिया। द्वारका बहुत ही खूबसूरत शहर था। बड़े-बड़े भवन, झरने, बाग-बगीचे थे। चारों ओर से ऊँची दीवार होने के कारण दुश्मन का प्रवेश असंभव था। इन्द्र भगवान ने पारिजात के फूलों से द्वारका को आशीर्वाद दिया। वहाँ कल्पवृक्ष भी विद्यमान था । हर तरह की सुविधा का विश्वकर्मा ने ख्याल रखा था। मथुरा- वासी द्वारका की सुंदरता से मुग्ध थे। लोगों को नये घरों में व्यवस्थित कर कृष्ण काल्यवन से युद्ध करने मथुरा चले गए। काल्यवन ने मथुरा को चारों ओर से घेर रखा था।
काल्यवन भस्म हुआ
द्वारका से वापस आकर कृष्ण सीधे युद्ध भूमि पहुँचे जहाँ काल्यवन सेना के साथ तैयार था। युद्ध के लिए कृष्ण को निःशस्त्र आया देखकर काल्यवन ने हंसना शुरु कर दिया। वह कृष्ण को कायर कहता हुआ उन्हें पकड़ने दौड़ा। युद्ध करने की जगह कृष्ण उल्टी दिशा में भागने लगे। युद्ध-क्षेत्र से यों भागने के कारण कृष्ण का नाम ‘रणछोड़’ पड़ा। काल्यवन कृष्ण को युद्ध के लिए ललकारता हुआ कृष्ण के पीछे भाग रहा था पर कृष्ण की गति अत्यंत तेज़ थी। वह उन्हें पकड़ नहीं पा रहा था। भागते-भागते कृष्ण, एक गुफा में चले गए। भीतर लंबी सफेद दाढ़ी वाला एक वृद्ध सो रहा था। तभी काल्यवन ने गुफा में प्रवेश किया। कृष्ण ने अपना पीतांबर उस सोए हुए वृद्ध पर डाल दिया और छिप गए। काल्यवन ने उस सोए हुए व्यक्ति को कृष्ण समझा और उसे जोर से लात मारी। वृद्ध क्रोधित होकर उठा। उसने काल्यवन को देखा। उसकी आँखों से एक ज्योति निकली और काल्यवन तुरंत भस्म हो गया।
गुफा में सोए हुए वृद्ध राजा मुचुकुंद थे। वे अत्यंत पराक्रमी राजा थे। उन्होंने देवताओं की युद्ध में सहायता करी थी। बाद में कार्तिकेय जब देवताओं की सेना के सेनापति बन गए तब मुचकुंद वापस अपने राज्य लौट आए पर तब तक कई वर्ष व्यतीत हो चुके थे और सभी रिश्तेदार – जा चुके थे। तब मुचुकुंद ने देवताओं से सहायता मांगी। आभारी देवताओं ने मुचुकुंद की इच्छा पूछी। उन्होंने कहा, “मैं बहुत थक गया हूँ और जी भरकर सोना चाहता हूँ।” देवताओं ने उन्हें सोने का वरदान देते हुए कहा, “जो भी तुम्हें नींद से जगाएगा वह तुम्हारी दृष्टि से भस्म हो जाएगा।” तभी से राजा मुचुकुंद उस गुफा में सो रहे थे। वरदान के कारण काल्यवन अजेय था इसीलिए कृष्ण उसे अपने पीछे भगाते हुए गुफा में ले गए थे। काल्यवन के भस्म होते ही मुचुकुंद ने कृष्ण को पहचान लिया। कृष्ण ने उनसे वर मांगने के लिए कहा। मुचुकुंद कृष्ण की शरण चाहते थे। बद्रिकाश्रम जाकर तपस्या में रत रहकर उन्होंने शेष जीवन व्यतीत किया।