कृष्ण की बुआ कुंती
कृष्ण के दादा यादव शूरसेन का अवंती पर राज था। शूरसेन के चचेरे भाई कुतीभोज कुंती राज्य पर शासन करते थे। वे निःसंतान थे। अतः शूरसेन ने अपने चचेरे भाई को अपनी पहली संतान देने का वादा किया था। उनकी पृथा नामक पुत्री हुई जिसे उन्होंने राजा कुंतीभोज को दे दिया । कुती राज्य में लालन-पालन होने के कारण पृथा का नाम कुंती हो गया था। कुंती अत्यंत खूबसूरत थी। एक दिन ऋषि दुर्वासा कुंती भोज के महल में पधारे। कुंती ने पूर्ण श्रद्धा से उनकी सेवा सुश्रूषा करी सेवा से प्रसन्न होकर उन्होंने कुती को आशीर्वाद स्वरूप पवित्र मंत्र दिया। जिसे जपकर वह अपने मनपसंद देवता का आवाहन कर सकती थी। उस देवता से उसे दिव्य पुत्र की प्राप्ति होती। रिश्ते में कुंती कृष्ण की बुआ थीं। कृष्ण अपनी बुआ को बहुत प्यार करते थे।
राज्य के बँटवारे की कृष्ण की सलाह
द्रौपदी का स्वयंवर हो चुका था। पाण्डव प्रसन्न थे। तभी कृष्ण पाण्डवों से मिलने आए। उन्होंने पाण्डवों से बातचीत करी और उन्हें हस्तिनापुर वापस लौट जाने की सलाह दी। फलतः पाण्डव द्रौपदी और कुती के साथ हस्तिनापुर लौट आए। वहाँ उनका गर्मजोशी से स्वागत हुआ। जब वे धृतराष्ट्र से मिले तो उन्होंने कहा, “सच कहा जाए तो युधिष्ठिर ही सही उत्तराधिकारी है। पिता पाण्डु के देहान्त के समय वह छोटा था और राज्य का कार्यभार नहीं संभाल सकता था। इसलिए मुझे हस्तिनापुर का शासक बनाया गया था। इस कारण से अब मेरा पुत्र दुर्योधन उत्तराधिकारी बनना चाहता है।” पाण्डवों ने कृष्ण से इस बात की चर्चा करी। अंततः कृष्ण की सलाह पर राज्य का बँटवारा होना निश्चित हुआ। धृतराष्ट्र ने घोषणा करी, “मैं पाण्डवों को खाण्डवप्रस्थ का वन देता हूँ। वे जंगल को साफ कर वहाँ अपना राज्य बसा सकते हैं।” पाण्डवों ने वही किया। उन्होंने खाण्डवप्रस्थ का नया नाम इन्द्रप्रस्थ रखकर वहीं अपनी राजधानी बनाई।
अग्नि, अर्जुन और कृष्ण
एक बार अग्नि को बहुत भूख लगी थी। हवन की अग्नि से उनकी क्षुधा शांत नहीं हो रही थी। अग्निदेव परेशान हो उठे। अपनी इस समस्या का निदान ढूँढने वे ब्रह्मा जी के पास गए। तब ब्रह्मा जी ने खाण्डवप्रस्थ के वन को खाकर अग्नि को अपनी क्षुधा शांत करने की सलाह दी। अग्नि ने अर्जुन और कृष्ण से सहायता मांगी। अर्जुन ने अग्नि से उनकी क्षुधा शांत करने के बदले में दिव्यास्त्र की मांग करी। जो उसकी शक्ति और कुशलता का साथ देने में सक्षम हो। खाण्डवप्रस्थ धू-धू कर जल उठा। अग्नि की क्षुधा शांत हो गई। तब अग्निदेव के अनुरोध पर वरुणदेव ने अर्जुन को दिव्य धनुष गांडीव तथा दो तरकश प्रदान किए। इस धनुष में 108 दिव्य डोरियां थीं, उसकी शक्ति एक लाख धनुष के बराबर थी। दो तरकशों के बाण कभी भी समाप्त नहीं होते थे। वर्षों बाद, कुरुक्षेत्र युद्ध में इन दिव्यास्त्रों की सहायता से अर्जुन ने कई प्रसिद्ध और शक्तिशाली योद्धाओं को हार का मुख दिखलाया था।