कृष्ण और धृतराष्ट्र
कौरवों और पाण्डवों के बीच युद्ध लगभग तय हो चुका था। युद्ध की तैयारियाँ शुरू हो चुकी थीं। कौरव और पाण्डवों ने अपने सहयोगियों को युद्ध में साथ देने के लिए बुलाना प्रारम्भ कर दिया था। फिर भी एक बार कृष्ण ने धृतराष्ट्र से बात करना चाहा। पाण्डव की ओर से आए सुलह के प्रस्ताव को धृतराष्ट्र ने मान लिया और अपने दूत संजय को यह संदेश लेकर युधिष्ठिर के पास भेजा कि हम संधि चाहते हैं युद्ध नहीं। हालांकि कर्ण इससे असहमत होकर नाराज हो गया था। युधिष्ठिर धृतराष्ट्र का संदेश पाकर अत्यंत प्रसन्न हुए और कहलवाया, “यदि हमें हमारा राज्य मिल जाएगा तो युद्ध की कोई संभावना ही नहीं रहेगी। यदि दुर्योधन हमें पांच गाँव भी दे देगा तो हम उसी से संतुष्ट हो जाएँगे।” धृतराष्ट्र को यह संदेश मिला पर दुर्योधन विफर उठा, “पाँच गाँव तो क्या, हम उन्हें सूई के नोक बराबर भी ज़मीन नहीं देंगे। साहस है तो युद्ध करके ले लें” अब युद्ध होना तय था।
दुर्योधन द्वारा कृष्ण की सेना का चयन
कौरवों और पाण्डवों के बीच युद्ध होना निश्चित हो चुका था। कृष्ण के पास अत्यधिक शक्तिशाली सेना थी जो कि नारायणी सेना कहलाती थी। सभी के मन में कौतूहल था कि नारायणी सेना किसके साथ होगी। एक दिन दुर्योधन और अर्जुन दोनों ही कृष्ण से मिलने गए। कृष्ण दोपहर में अपने घर पर विश्राम कर रहे थे। अर्जुन कृष्ण के पैर के पास बैठ गया। दुर्योधन कृष्ण के सिरहाने बैठ गया। कृष्ण की जब आँख खुली तो उनकी दृष्टि सीधे पैर के पास बैठे अर्जुन पर पड़ी। उन्होंने पूछा, “पार्थ तुम्हें मुझसे क्या चाहिए?” परेशान दुर्योधन तुरंत बोल उठा, “कृष्ण, मैं पहले आया था। मुझसे पूछिए कि मुझे क्या चाहिए। ” कृष्ण ने कहा, “नहीं दुर्योधन, मेरी दृष्टि पहले अर्जुन पर पड़ी थी।” अर्जुन कृष्ण को ही चाहता था। उसने कहा, “मैं चाहता हूँ कि आप मेरे सारथी बनें।” यह सुनकर दुर्योधन को बड़ा संतोष हुआ। उसने कृष्ण से उनकी नारायणी सेना मांग ली।
पाण्डवों के सेनापति धृष्टद्युम्न
युद्ध की तैयारियाँ शुरु हो गई थीं। युधिष्ठिर ने अपने भाइयों से सेना संगठित करने के लिए कहा। पाण्डवों की सेना को सात भागों में बाँटा गया। द्रुपद, विराट, धृष्टद्युम्न, शिखण्डि, सात्यकी, चेकितान और भीम सेना प्रमुख बने। सबकी सहमति होने पर और कृष्ण की सहमति से धृष्टद्युम्न को पाण्डवों की सेना का प्रमुख सेनापति नियुक्त किया गया। कौरवों की ओर से भीष्म पितामह सेनापति नियुक्त हुए। बात-बात पर पितामह कर्ण पर कटाक्ष किया करते थे। कर्ण की राय न तो पितामह को भाती थी और न ही पितामह की बात कर्ण को । पितामह ने कर्ण को सेनापति बनाने का आग्रह किया पर कर्ण ने मना करते हुए कहा कि उसके और पितामह के बीच मतैक्य नहीं है अतः वह भीष्म के रहते हुए युद्धभूमि में पैर भी नहीं रखेगा।