Complete Shri Krishna Katha – जन्म से लेकर गोलोक धाम तक

श्राप फलीभूत हुआ

समय बीतने के साथ-साथ सभी युवक और उनके परिवार वाले ऋषियों का श्राप प्राय: भूल गए थे। समुद्र में फेंका गया लोहे का चूर्ण समुद्र के किनारे एकत्रित होकर बड़ी-बड़ी घास बन उग आया था। लोहे के एक टुकड़े को एक मछली ने निगल लिया था। एक मछुआरे ने उस मछली को पकड़ा और उसे एक शिकारी को बेच दिया था। मछली के पेट का लोहा उस शिकारी को मिला। उसने उस लोहे से तीर का सिरा बनाया। कृष्ण जानते थे कि ऋषियों का श्राप सत्य होगा। अतः उन्होंने यादवों को समुद्र के किनारे यज्ञ करने की सलाह दी। समुद्र के किनारे सभी यादव एकत्रित हुए और यज्ञ सम्पन्न हुआ। यज्ञ के पश्चात् सबने दावत किया और जमकर मदिरा पान किया। मदिरा पीने के बाद किसी बात पर वे आपस में लड़ने लगे। शस्त्र निकल आए, समुद्र के किनारे लोहे के चूर्ण से उगी घास उखाड़कर वे एक दूसरे को मारने लगे। परिणामस्वरूप यादवों की मृत्यु हुई। यह सब बलराम सहन न कर सके और उन्होंने एक गुफा में जाकर समाधि ले ली।

कृष्ण वापस गोलोक धाम चले गए

कृष्ण को सभी घट रही घटनाओं का पता था। यादवों की मृत्यु और बलराम की समाधि लेने का भी उन्हें पता था। इन्हीं विचारों में खोए हुए कृष्ण थके से एक बरगद के वृक्ष के नीचे चबूतरे पर विश्राम करने बैठे। उन्होंने पद्मासन लगा रखा था। दूर से एक शिकारी ने उनके पंजे को हिरण का सिर समझकर तीर चला दिया। तीर का नुकीला भाग मछली के पेट में मिले लोहे के टुकड़े से ही बना था। तीर पद्मासन में बैठे हुए कृष्ण के पंजे में लगा और वह घायल हो गए। तीर में जहर लगा हुआ था। शिकारी कृष्ण को घायल हुआ देखकर घबरा गया और आकर कृष्ण से सजा की याचना करने लगा। पर कृष्ण ने उसे आशीर्वाद दिया। कृष्ण के सारथी दारुक ने उन्हें घायल देखा। कृष्ण ने दारुक से द्वारका में बड़ों के पास तुरंत संदेश भिजवाया कि पल भर भी देर किए बिना वे द्वारका छोड़ दें। राजा उग्रसेन, वसुदेव देवकी ने द्वारका छोड़ दिया और अर्जुन इन्द्रप्रस्थ चला गया। अंत में कृष्ण ने अपने पार्थिव शरीर का त्याग किया और वापस गोलोक धाम चले गए।

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