Food Fix Book Summary In Hindi – फ़ूड हैबिट्स और इनको सुधारने के उपाय

Food Fix Book Summary In Hindi – यह किताब गंभीर बीमारियों, सामाजिक परेशानियों और जलवायु में हो रहे बदलावों के लिए हमारे खान-पान और फार्मिंग के तरीकों को जिम्मेदार ठहराती है। लेखक ये भी बताते हैं कि किस तरह हेल्दी ईटिंग हेबिट और फार्मिंग के बेहतर तरीकों में इन समस्याओं का समाधान छिपा है।

क्या आप एक हेल्दी लाइफस्टाइल अपनाना चाहते हैं, क्या आप पर्यावरण और जलवायु की चिंता करते हैं, क्या आप एक ऐसे किसान जिनका रूझान सस्टेनेबल फार्मिंग की तरफ है तो ये बुक आपके लिए है।

लेखक

डॉक्टर मार्क हाइमैन अमेरिका के बेहतरीन चिकित्सकों और बेस्ट सेलिंग लेखकों में गिने जाते हैं। उन्होंने द अल्ट्रा वेलनेस सेंटर की स्थापना की है। वे हफिंगटन पोस्ट के लिए नियमित रूप से कॉलम लिखते रहे हैं। इसके साथ ही वे यूएस की जानी-मानी मीडिया पर्सनालिटी केटी कॉरिक के टॉक शो केटी से भी जुड़े रहे हैं।

Food Fix Book Summary In Hindi – फ़ूड हैबिट्स और इनको सुधारने के उपाय

हमारी आज की ज्यादातर परेशानियों की जड़ हमारे खान-पान से जुड़ी है।

क्या कभी आपने जंक फूड के पैकेट्स पर ध्यान दिया है? इसमें जो चीजें लिखी होती हैं बड़ी सामान्य सी लगती हैं। जैसे कॉर्न सिरप, व्हीट स्टार्च, सोयाबीन। लेकिन क्या आप ये अंदाजा लगा सकते हैं कि हमारे आस-पास नजर आ रही ज्यादातर समस्याओं में इनकी कितनी बड़ी भूमिका है?

ये सारे अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड हमारी सेहत के साथ तो खिलवाड़ करते ही हैं पर इनसे हमारे पर्यावरण को भी नुकसान पंहुचता है। दिल की बीमारियों, कैंसर और डायबिटीज जैसी गंभीर बीमारियों के बेतहाशा बढ़ते आंकड़ों में इनका बहुत बड़ा हाथ है। इसके अलावा CO2 का खतरनाक तरीके से बढ़ता लेवल भी इन्हीं की देन है। जो हमारी हवा को जहरीला बनाती है।

अब न तो मधुमक्खियां नजर आती हैं और न ही रंग-बिरंगी तितलियां। जो जंक फूड हम खाते हैं इसको बनाने के लिए जिस तरह से इंटेंसिव फार्मिंग की जाने लगी है उसने प्रकृति के संतुलन को खराब कर दिया है।

लेकिन अब भी हमारे हाथ में बहुत कुछ है। आने वाले लेसन्स में आप जानेंगे कि इन समस्याओं का क्या हल है। किस तरह अपने खान-पान में मामूली से बदलाव करके आप पर्यावरण की मदद कर सकते हैं। सरकारें अपनी नीतियां बदलें और किसान फार्मिंग के तरीके तो फिर से एक स्वच्छ और स्वस्थ वातावरण बनाया सकता है। इस समरी मे आप जानेंगे कि किस तरह ग्वाटेमाला का एक किसान पूरी दुनिया के लिए मिसाल बन गया? जोर-शोर से शुरू किए गए ग्रीन रिवॉल्यूशन का क्या नतीजा निकला? और मीट खाने के क्या सकारात्मक परिणाम हो सकते हैं।

तो चलिए शुरू करते हैं!

इस बात की खबरें रोज आती हैं कि दुनिया तबाही के मुंह में समा रही है। बीमारियां बढ़ रही हैं, कैंसर लोगों को निगल रहा है, ग्लोबल वार्मिंग से समुद्रों का जलस्तर बढ़ रहा है और एक दिन ये दुनिया डूब जाएगी। अगर इनकी वजह पूछी जाए तो शायद ही किसी के दिमाग में “भोजन” शब्द आएगा। जबकि ये इन सब समस्याओं की जड़ है। पहले ये समझते हैं कि आज दुनिया के सामने किस तरह की चुनौतियां हैं।

सबसे पहला नंबर आता है हेल्थ का। इस बात से शायद ही कोई इन्कार करेगा कि खान-पान इसका जिम्मेदार है। पिछले चार दशकों में हमारी फूड हैबिट सिरे से बदल गई हैं। अब हम अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड, चीनी और तेल से भरी चीजों पर निर्भर हो चुके हैं।

इन सबने हमारे दिल को बीमार करने, हमें शुगर और कैंसर का मरीज बनाने में कोई कमी नहीं छोड़ी है। इन बीमारियों से हर साल लगभग 50 मिलियन लोगों की मृत्यु हो जाती है। संक्रामक बीमारियां भी इतनी जान नहीं लेतीं। इन जानों को बचाया जा सकता था लेकिन अब तक काफी नुकसान हो चुका है।

दूसरी समस्या सामाजिक है। अब भोजन से बच्चों को सही पोषण नहीं मिलता। इस वजह से वे पढ़ाई और जीवन के हर क्षेत्र में पिछड़ जाते हैं। आगे चलकर वे गरीबी, अकेलेपन, अपराध और नशे की गिरफ्त में आ जाते हैं। इस तरह एक पूरी की पूरी पीढ़ी बर्बाद हो जाती है। तीसरी समस्या है फूड इंडस्ट्री । जिसने अपने फायदे के लिए विकासशील देशों के लोगों से उनकी जमीन, कामकाज और उनका कल्चर छीनकर उनके हाथ में इंटेंसिव फार्मिंग की नुकसानदायक तकनीक थमा दी है।

अगला नंबर आता है फार्मिंग का। आज जिस तरह से फार्मिंग की जाती उससे हवा, पानी, जमीन सबको नुकसान पंहुचता है। बड़े एग्रीहाउस इसके लिए पूरी तरह से जिम्मेदार हैं। इतना नुकसान तो तेल शोधन कंपनियां, केमिकल और लेदर फैक्ट्री मिलकर भी नहीं करतीं। इंटेंसिव फार्मिंग में जमकर कीटनाशकों का इस्तेमाल होता है। ये आखिर में जाकर मिट्टी और पानी में ही मिलते हैं। इसकी वजह से बायोडाइवर्सिटी संकट में आ रही है। समुद्रों में डेड जोन बन रहे हैं। हम इन सारी परेशानियों की अलग-अलग कैटेगरी बना देते हैं। लेकिन इन सबके पीछे एक ही चीज है भोजन। अगर इनका हल ढूंढना है तो एक कलेक्टिव अप्रोच फॉलो करनी होगी।

जंक फूड सिर्फ हेल्थ पर ही नहीं हमारी जेब पर भी भारी पड़ता है।

अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड के हेल्थ पर पड़ने वाले नुकसान से हम सब परिचित हैं। इसके लिए चेतावनियां भी दी जाती हैं और तरह-तरह की हेल्दी डाइट को प्रमोट भी किया जाता है। लेकिन इसके आर्थिक नुकसान जानकर आप हैरान रह जाएंगे।

अमेरिका में 2018 में दो रिपोर्ट छपीं। ये थीं “The Cost of Chronic Diseases in the US” और “America’s Obesity Crisis: The Health and Economic Costs of Excess Weight”. इनका सार ये था कि 2016 में क्रॉनिक बीमारियों के मैनेजमेंट पर $1 ट्रिलियन से भी ज्यादा खर्च किया गया है।

अगर प्रोडक्टिविटी की कमी, जॉब खो देना और मरीजों की देखभाल कर रहे लोगों पर हुए प्रभाव की गिनती करें तो ये आंकड़ा है $2.6 ट्रिलियन यानि दुगने से भी ज्यादा। पिछले 35 सालों को देखें तो अब तक इन बीमारियों की वजह से यूएस इकॉनमी को $95 ट्रिलियन की चपत लग चुकी है। इन सब बीमारियों के लिए जंक फूड मुख्य रूप से जिम्मेदार है। आज 60% अमेरिकन्स किसी न किसी एक क्रॉनिक बीमारी से और 40% दो या उससे ज्यादा बीमारियों से जूझ रहे हैं। ये तो सिर्फ एक देश की बात है।

जरा सोचिए कि दुनियाभर में किस तरह की तस्वीर होगी। अमेरिका में प्रचलित “इंडस्ट्रियल डाइट” जिसमें बर्गर, कॉर्न के स्नैक्स और सोडा मुख्य रूप से शामिल हैं, आज सारी दुनिया अपना रही है। इसलिए इसके कुल नुकसान की सही गिनती कर पाना भी मुश्किल है। इसे आप इस तरह समझ लीजिए कि इस पैसे से पूरी दुनिया की तस्वीर बदल जाती। सबको मुफ्त शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं मिल जातीं, गरीबी खत्म हो जाती, भुखमरी का नामोनिशान नहीं रहता। लोगों के पास काम की कमी नहीं रहती। कुल मिलाकर ये धरती स्वर्ग बन जाती।

बड़ी एग्रीकल्चर इंडस्ट्रीज पर्यावरण को बहुत नुकसान पंहुचा रही हैं। आप ऑफिस से आते-जाते हुए या कॉलेज ब्रेक के वक्त मिनटों में बर्गर, सैंडविच या नूडल्स खरीद कर खा लेते हैं। लेकिन कभी आप ये सोचते हैं कि ये खाना आप तक कैसे पंहुचा है? जब आपको सच पता चलेगा तो आप इन चीजों के बारे में सोचना भी पसंद नहीं करेंगे। क्योंकि इन चीजों को बनाने में प्रकृति को इतनी गहरी चोट पंहुचाई जाती है जिसकी भरपाई सालों तक संभव नहीं है।

मिट्टी जो कि इकोसिस्टम का आधार है उसी से शुरुआत करते हैं। मिट्टी में पनपने वाले छोटे जीव-जंतु ऑर्गेनिक मटेरियल को डी कम्पोज करके मिट्टी की फर्टिलिटी को बढ़ाते हैं। फूड इंडस्ट्रीज की डिमांड को पूरा करने के लिए इंटेंसिव फार्मिंग जोर पकड़ चुकी है जिसमें केमिकल वाले फर्टिलाइजर्स और पेस्टीसाइड का जमकर इस्तेमाल होता है। इनकी वजह से मिट्टी में रहने वाले जीव-जंतु नष्ट होने लगते हैं। मिट्टी की क्वालिटी खराब होने लगती है। इस तरह फसलों की पैदावार और एनिमल फार्मिंग पर बुरा असर पड़ता है। इसलिए फसलों की वेरायटी दिन-ब-दिन कम होती जा रही है।

मिट्टी CO2 को सोक करके रखती है। इस तरह वायुमंडल में इसका लेवल सही रहता है। लेकिन इंटेंसिव फार्मिंग करके हम मिट्टी से सारी CO2 निकाल लेते हैं जो हवा में मिलकर ग्लोबल वार्मिंग बढ़ने की वजह बनती है। मिट्टी के पोषक तत्व समय के साथ इतने घट जाते हैं कि वह रेत से ज्यादा कुछ नहीं बचती है। इसलिए उसमें नाइट्रोजन वाले हानिकारक फर्टिलाइजर्स मिलाना जरूरी हो जाता है। वरना आज जितना अनाज उगता है वो भी न मिले।

और आखिर में ये सब जहर नदी, तालाबों से गुजरते हुए समुद्र में जा मिलता है। इस पानी में एल्गी पनपने लगती है और पानी की सतह को कवर करती जाती है। इससे पानी में रहने वाले जीवों को ऑक्सीजन मिलनी मुश्किल हो जाती है और वो वहीं मरकर सड़ने लगते हैं। इसे डेड जोन कहते हैं। यही जहरीला पानी हम तक पंहुचता है। क्लीवलैंड की एरी झील इसका एक ताजा उदाहरण है। जिसके पानी ने बहुतों को बीमार कर दिया था।

समुद्रों में ये नुकसान और बड़े लेवल पर होता है। न्यूजर्सी में 8,000 वर्गमीटर जितना बड़ा डेड जोन है जहां टनों में मछलियां और समुद्री जीव दफ्न हैं। इंटेंसिव फार्मिंग में फसलों को सुरक्षित रखने के लिए पेस्टीसाइड की जरूरत भी पड़ती है। इन केमिकल की वजह से मनुष्यों में बांझपन और कैंसर जैसी बीमारियां जन्म लेती हैं। पशु पक्षियों पर बुरा असर पड़ता है।

खास तौर पर मधुमक्खी और तितलियों जैसे छोटे जीव जो पॉलीनेशन करते हैं वे खत्म हो जाते हैं। इनके बिना फसलों की कल्पना करना मुश्किल है, फसलों के बिना भोजन की और भोजन के बिना इंसानों की कल्पना नहीं की जा सकती। यानि पूरी दुनिया खत्म! लेकिन अगर हम अब भी संभल जाएं तो कंडीशन ठीक की जा सकती है। ये हमारे हाथ में है कि या तो हम सस्टेनेबल तरीके ढूंढ लें या अपने अंत की तरफ बढ़ते रहें।

ऐसे उपाय जिनको भुखमरी के दौर में वरदान कहा गया था आज हमें विनाश की तरफ ले जा रहे हैं।

औद्योगिक क्रांति के साथ इस बात की उम्मीद भी जागी थी कि अब खेती-किसानी के नए तरीके आ जाने से भोजन की कमी नहीं रहेगी। ग्रीन रिवॉल्यूशन ने इस दिशा में बहुत सुधार भी किए। पहले से ज्यादा अनाज उगाया जाने लगा। कम जमीन से ज्यादा फसलें मिलने लगीं और दुनिया के एक बड़े हिस्से की भूख का समाधान हो गया। लेकिन आज हम इसकी बहुत बड़ी कीमत चुका रहे हैं। ग्रीन रिवॉल्यूशन एक अच्छे मकसद से शुरू की गई थी पर समय के साथ इसके नतीजे इतने भयानक होंगे ये किसी को अंदाजा नहीं था।

मार्डन फार्मिंग ने मिट्टी, पानी और बायोडाइवर्सिटी को ही नुकसान नहीं पंहुचाया है बल्कि हमें प्रोसेस्ड फूड के चंगुल में भी फंसा दिया है। आज भी 800 मिलियन लोग भूखे सोते हैं इसलिए ग्रीन रिवॉल्यूशन अपने मुख्य उद्देश्य को भी पूरा नहीं कर पाई है। क्योंकि आज जो कुछ भी उगाया जा रहा है उसका बड़ा हिस्सा बीफ इंडस्ट्रीज में एनिमल फीड के लिए चला जाता है, बायो फ्यूल की तरह काम में आ जाता है या फिर बर्बाद हो जाता है।

ग्रीन रिवॉल्यूशन की वजह से जेनेटिकली मॉडिफाइड फसलें भी बड़े पैमाने पर उगाई जाने लगीं। बहुत से वैज्ञानिक इनको सुरक्षित मानते हैं पर इनके बारे में आज भी कोई एक राय कायम नहीं हो पाई है। इनमें इस्तेमाल होने वाले पेस्टीसाइड ने जितनी फसलों और जीवों को रेजिस्टेंट बनाकर सुपरवीड और सुपरबग में बदल दिया है, उस आधार पर तो इनसे दूर ही रहना चाहिए।

ग्रीन रिवॉल्यूशन की शुरुआत में किसानों से भी तरह-तरह के वादे किए गए थे। उनको एक अच्छी लाइफस्टाइल का सपना दिखाया गया। लेकिन ऐसा कभी हुआ नहीं। डॉक्टर एमएस स्वामीनाथन जिनको भारत में ग्रीन रिवॉल्यूशन का फादर कहा जाता है उन्होंने भी इस बात को स्वीकार किया है। इस असफलता की वजह थी एग्रीकल्चर कंपनियों का लालच। एक तरफ फर्टिलाइजर्स, बीज और पेस्टीसाइड की कीमतें इतनी ज्यादा थीं कि किसान इन कंपनियों के उधार के तले दबते गए।

दूसरी तरफ जंक फूड इंडस्ट्रीज ने लोगों के जीवन में गहरी जगह बना ली। अब किसानों को वही उगाना पड़ता है जो कंपनियां चाहती हैं और जिस तरीके से चाहती हैं। भारत जैसे विकासशील देश में इसका असर और भी बुरी तरह नजर आया। 1990 से लेकर अब तक आए दिन कर्ज में डूबे हुए किसानों की आत्महत्या की खबरें आती हैं। जिस पेस्टीसाइड को अच्छी फसल के लिए एक बेहतर समाधान के तौर पर पेश किया गया था कइयों ने उसे पीकर अपने जीवन की हर समस्या का समाधान ढूंढ लिया। अब तक आपने चुनौतियों को समझा। आगे इनके सॉल्यूशन के बारे में बताया गया है।

जो फूड आपके लिए हेल्दी होता है, वो प्लानेट को भी हेल्दी रखता है। आज की तारीख में ग्राहक बहुत शक्तिशाली है। हम क्या खाते हैं और क्या नहीं इसी पर हर फूड कंपनी का नफा-नुकसान टिका हुआ है। अगर हम ये ठान लें कि अनहेल्दी चीजों को हाथ नहीं लगाना है तो मजाल है कि कंपनियां इन्हें बनाने के बारे में सोच भी लें। अच्छी बात ये है कि खान-पान के ऐसे बहुत से ऑप्शन हैं जो आपके लिए तो फायदेमंद हैं ही, इनसे पर्यावरण को भी फायदा मिलता है।

आपको बहुत सारी सब्जियां और होल फूड खाने चाहिए जिनको इको फ्रेंडली तरीके से उगाया गया हो। आप पेस्टीसाइड और केमिकल फ्री भोजन को चुनिए। इस बात का ध्यान रखिए कि आपकी टेबल तक कोई ऐसी चीज न आए जिसे उगाने में प्रकृति का नुकसान किया गया हो। अब मीट, फिश और डेयरी प्रोडक्ट की बात करते हैं। बहुत से डायटीशियन मीट से दूर रहने को कहते हैं। और ये सच भी है कि मीट कम खाना चाहिए। एक प्लेट में आधी से ज्यादा जगह सब्जियों को देनी चाहिए और मीट की जगह साइड डिश से ज्यादा नहीं होनी चाहिए।

एनिमल फार्मिंग के तरीके और उसके नुकसान बहुत चिंताजनक हैं। लेकिन अगर सही तरीके से एनिमल फार्मिंग की जाए तो क्लाइमेट चेंज को कम किया जा सकता है। अगर ऑर्गेनिक वेजिटेबल फार्मिंग और चारागाहों को मिला दें तो बहुत अच्छे रिजल्ट मिल सकते हैं। क्योंकि कैटल्स का वेस्ट प्रोडक्ट, मिट्टी के पोषक तत्वों को बढ़ाता है। इस तरह का मीट ज्यादा हेल्दी भी होता है।

लेकिन फिर भी मीट की खपत कम ही रखनी चाहिए। ऐसी मछलियां लेनी चाहिए जिनको प्राकृतिक सोर्स में पाला और पकड़ा गया हो, जिनमें ओमेगा-3 की मात्रा ज्यादा और मर्करी कम हो जैसे anchovies, mackerel और wild-caught salmon. जबकि Tuna, swordfish और halibut जैसी स्पीशीज से दूर रहना चाहिए।

डेयरी प्रोडक्ट भी कम ही लें तो अच्छा है। पर अगर आपके लिए ये जरूरी है तो सिर्फ 100% ग्रास फेड और ऑर्गेनिक प्रोडक्ट ही चुनें। भेड़ और बकरियों के मिल्क प्रोडक्ट प्रेफर करें। क्योंकि जिन तरीकों से बड़े कैटल्स की फार्मिंग की जाती है वो कैटल्स को तो तकलीफ देता ही है, इससे पर्यावरण और कन्ज्यूमर को भी नुकसान होता है। ये कुछ जनरल रूल हैं। हममें से हर कोई अलग है और हमारी जरूरतें भी अलग हैं। इसलिए आपके शरीर की क्या डिमांड है इसका ध्यान रखना भी जरूरी है। अगर हम कोई बीच का रास्ता निकाल लेते हैं तो हमारा स्वास्थ्य भी बना रहेगा और हमारा प्लानेट भी।

फूड लॉबी बहुत ताकतवर है लेकिन सरकार कड़े कदम उठाकर इन पर लगाम लगा सकती है।

कॉर्पोरेट जगत इतना मजबूत हो चुका है कि मनमानी करने लगा है। ये लोग रिश्वत, ताकत, डोनेशन और तरह-तरह के हथकंडे अपनाकर सरकारी तंत्र को अपनी उंगलियों पर नचाते हैं और अपने मुताबिक नीतियां बनवा लेते हैं। इस वजह से कानून कमजोर पड़ जाता है। फिर भी इनके गलत कदमों के खिलाफ लोग आवाज उठाते हैं। साल 2006 में चिली में हुई एक घटना का जिक्र यहां जरूरी है।

सेंटियागो के डॉक्टर Guido Girardi सीनेटर बने। उन्होंने फूड इंडस्ट्री के काले कारनामों और उससे होने वाली स्वास्थ्य समस्याओं को गौर से देखा और समझा था। वे संकल्प करके. थे कि इनको सबक सिखाकर रहेंगे। उन्होंने बहुत से न्यूट्रीशन एक्सपर्ट्स की राय लेकर एक बिल ड्राफ्ट कराया जिसे “फूड लेबलिंग एंड एडवर्टाइजिंग लॉ” कहा गया। फूड इंडस्ट्री के तगड़े विरोध के बाद भी ये बिल पास हो गया। इस कानून में कुछ अच्छे प्रोविजन थे।

फूड कंपनियों को ये आदेश दिया गया कि उन प्रोडक्ट्स पर वार्निंग लिखी जाए जिनमें चीनी, नमक, सैचुरेटेड फैट और कैलोरीज का लेवल स्टैंडर्ड से ज्यादा हो। जंक फूड पर कार्टूनों की फोटो लगाने से मना कर दिया गया जिससे बच्चों को बहलाया जाता था। जंक फूड के विज्ञापनों को टीवी पर सुबह 6 बजे से रात 10 बजे के बीच दिखाने पर पाबंदी लगा दी गई। स्कूल के कैंटीनों में जंक फूड बेचना रोक दिया गया। इतना ही नहीं सरकार ने फूड कंपनियों को उनकी विज्ञापन पॉलिसी बदलने को कहा जिसमें उनके लिए फिजिकल एक्टिविटीज और हेल्दी फूड खाने के फायदे बताना अनिवार्य हो गया।

इस कानून का असर बहुत जल्दी दिखने लगा। खुद बच्चे ही अपने पेरेंट्स को जंक फूड के नुकसान बताने और उसे खाने से मना करने लगे। ये बिल किसी भी फूड टैक्स या फूड पॉलिसी बिल से चार गुना ज्यादा असरदार साबित हुआ। इसी तरह की एक और सफलता यूएस में मिली जब न्यूयॉर्क सिटी मेयर Michael Bloomberg और इकॉनॉमिस्ट Larry Summers की कोशिशों से सोडा टैक्स बिल लागू किया गया। यहां भी ड्रिंक्स इंडस्ट्री ने इसे रोकने की बहुत कोशिश की लेकिन उनकी एक न चली।

और जैसा सोचा गया था मंहगा हो जाने की वजह से सोडा की खपत घट गई। लेकिन इसे बेचकर जितना भी टैक्स मिला उसे पब्लिक स्कूल और सिटी सेंटर बनाने में इस्तेमाल किया गया। जब लोगों ने इस टैक्स के फायदे अपनी आंखों से देखे तो वे भी इसका सपोर्ट करने लगे।

इन दोनों उदाहरणों से यही साबित होता है कि बड़ी कंपनियों के पैसे और ताकत के बावजूद अगर सरकार और नीति बनाने वाले चाहें तो इनकी हरकतों पर लगाम लगा सकते हैं। जरूरत है तो बस सोच समझकर और पूरी इच्छाशक्ति के साथ शुरुआत करने की सरकारें क्या कर सकती हैं यह तो आपने पढ़ लिया। अब देखते हैं कि फार्मर किस तरह हालात बदल सकते हैं।

रीजनरेटिव एग्रीकल्चर एक अच्छा विकल्प है जो पर्यावरण को सुरक्षित रख सकता है। सरकारों का काम उन पर छोड़ दीजिए । लेकिन ऐसे लोग जो फूड इंडस्ट्री की बैक बोन हैं यानि कि उनके सप्लायर फार्मर वो भी बड़ा बदलाव ला सकते हैं। इस दिशा में रीजनरेटिव फार्मिंग एक बहुत अच्छा कदम हो सकता है। इस तरीके से की जाने वाली फार्मिंग पर्यावरण को ध्यान में रखते हुए हेल्दी और ऑर्गेनिक फसलों के उत्पादन पर फोकस करती है।

अभी जिस तरह से खेती होती है उसमें मिट्टी में रहने वाले जीवन का खात्मा हो जाता है। इसकी भरपाई के लिए जमकर फर्टिलाइजर्स डाले जाते हैं। इसके नुकसान आप पहले पढ़ ही चुके हैं। बिना मिट्टी को नुकसान पंहुचाए किस तरह से खेती की जाए?

सबसे पहला कदम होगा “no-till” तकनीक की तरफ। इसमें बीज बोने के लिए हल चलाकर मिट्टी को बहुत ज्यादा खोदने की जरूरत नहीं होती। ड्रिलिंग मेथड से बड़ी आसानी से बीज बोए जा सकते हैं। इससे मिट्टी में बारिश के पानी को रोकने की क्षमता भी बनी रहती है। दूसरा उपाय होगा बदल-बदल कर फसलें उगाना। इससे मिट्टी अपने खोए हुए पोषक तत्वों की भरपाई अच्छी तरह कर लेती है।

फसलों में बीमारियों और कीट-पतंगों का आक्रमण भी कम होता है क्योंकि ये एक तरह की फसल बोते रहने पर उसे ज्यादा नुकसान पहुंचा सकते हैं। फार्मर्स को अपने मवेशियों का भी पूरी तरह से इस्तेमाल करना चाहिए। जैसे आपने पढ़ा कि ऑर्गेनिक फार्म पर चरते हुए कैटल्स खेतों को कितना फायदा करते हैं। चरते हुए इनका वेस्ट मटेरियल, सलाइवा इत्यादि जमीन में मिलता रहता है। इससे फसलों को नेचुरल फर्टिलाइजर मिलता है। उनकी जड़ें मजबूत होती हैं और उत्पादन बढ़ता है।

यूएस के मैदानों में हजारों साल तक भैंसे घूमते और चरते रहते थे। उनको खाना मिलता रहा और मैदानों को उपजाऊ जमीन। इसी तरह का symbiotic रिलेशन कैटल्स, मिट्टी और पौधों के साथ बनाते हैं। ये एक दूसरे को कुछ न कुछ देते ही हैं। नेचर हमको खुद ही सही रास्ता दिखाता है। हमें बस उसको फॉलो करना होता है। मॉडर्न फार्मिंग जिस चीज को सबसे ज्यादा बर्बाद कर रही है वह है मीठा पानी।

अब कुछ फार्मर “ड्राइलैंड फार्मिंग” तकनीक का इस्तेमाल करते हैं। इसमें बिना सिंचाई के फसलें उगा ली जाती हैं। जब फसलें काटी जाती हैं तो उनकी जड़ें और स्टेम जमीन में ही छोड़ दिए जाते हैं। इसी में दूसरे बीज डाल दिए जाते हैं। इस तरह से वाष्पीकरण कम होता है और जमीन की नमी बनी रहती है। खाली जमीन की तुलना में ऐसी जमीन बारिश और बर्फ को ज्यादा आकर्षित करती है।

इस तरह के तरीकों को अगर बड़े पैमाने पर शुरु कर दिया जाए तो हम एक ऐसे रास्ते की तरफ बढ़ सकते हैं जो हमें हरे-भरे और हेल्दी भविष्य की ओर ले जाए। एक ऐसा भविष्य जहां हमारी, वाइल्डलाइफ और प्लानेट तीनों की भलाई छिपी है।

अब लोग फार्मिंग के नए तरीकों की तरफ बढ़ रहे हैं।

जैसे जैसे लोगों में क्लाइमेट चेंज और हेल्दी फूड हैबिट को लेकर जागरूकता बढ़ रही है कुछ किसानों ने भी ये ठान लिया है कि वो भी पीछे नहीं रहेंगे। इनसे दुनियाभर के किसानों को प्रेरणा मिल रही है। इसकी अगुवाई ग्वाटेमाला के एक किसान Reginaldo ने की। वे मेन स्ट्रीट प्रोजेक्ट के नाम से एक खास तरह से पोल्ट्री फार्मिंग करते हैं। यहाँ पर एग्रोफॉरेस्ट्री के तरीके को फॉलो किया जाता है। जिसमें हेज़ल नट के पेड़ों के बीच पोल्ट्री फार्म चलाए जाते हैं। ये लगभग वैसे ही होता है जैसे जंगलों में प्राकृतिक तौर पर मुर्गे-मुर्गियां पलते बढ़ते हैं। नेचर के साथ चलते हुए इस सिस्टम के बहुत सारे दूसरे फायदे भी होते हैं।

एक तो ये पेड़ हवाई खतरों जैसे बाज़ और बड़े शिकारी पक्षियों से पोल्ट्री की रक्षा करते हैं। दूसरा इनकी पत्तियां सूरज की तेज रोशनी से भी बचाती हैं। फार्मर को चारे की अलग से व्यवस्था भी नहीं करनी पड़ती। चिकन का मेन भोजन वर्म और इनसेक्ट होते हैं। जिन्हें खाकर ये फसलों को भी इनके प्रकोप से बचाते हैं। यानी यह एक तरह का नैचुरल पेस्ट कंट्रोल करते हैं।

हेज़ल नट की पैदावार बेचकर किसान अलग से मुनाफा कमाते हैं। पेड़ों से गिरने वाली पत्तियां, नट्स और पोल्ट्री के वेस्ट मिलकर अच्छी खाद का काम करते हैं। इस तरह के फार्म अपने आप में एक पूरा का पूरा इकोसिस्टम हैं। अब एक ही जगह तरह-तरह की फसलें उगायी जाती हैं और एक हरा-भरा प्राकृतिक वातावरण बन जाता है। इतना बढ़िया सेटअप, अच्छा और स्वस्थ माहौल किसी भी ऐसे खेत जहाँ पेस्टीसाइड का जमकर इस्तेमाल होता है या किसी भी डेयरी फार्म में नहीं मिलेगा।

मेन स्ट्रीट प्रोजेक्ट को किसी भी बड़े कॉर्पोरेट की तरह कम समय में ज़्यादा लाभ कमाने के उद्देश्य से नहीं चलाया जा रहा है। Reginaldo और उनके जैसे लोग इस बात को अच्छी तरह समझते हैं कि थोड़ा सा लाभ कमाने के चक्कर में ऐसे नुकसान हो सकते हैं जिसकी भरपाई नहीं की जा सकती। और फिर जब इस धरती पर रहने के लिए अच्छी परिस्थितियां ही नहीं बचेंगी तो ये लाभ किसके काम आएगा। इस बात को समझने वाले किसान इस सिद्धांत का पालन करते हैं कि कोई भी काम इकोलॉजी, इकॉनमी और समाज को ध्यान में रखते हुए किया जाना चाहिए।

जब कोई काम अच्छी नीयत से किया जाता है तो उसमें सफलता मिलती ही है। एग्रोफॉरेस्ट्री किसानों को काम करने के लिए एक सुरक्षित और स्वच्छ वातावरण देती है। पोल्ट्री अपने नेचुरल तरीके से ग्रो होती हैं और दूसरे फार्मों में मिलने वाली अमानवीय तकलीफों से बची रहती हैं। इससे पर्यावरण को भी कोई नुकसान नहीं होता। इस तरह का चिकन हेल्दी भी होता है। यानि बनाने वाले से लेकर खाने वाले तक हर किसी का भला ही होता है।

Conclusion

पश्चिम में जोर पकड़ चुका अल्ट्रा- प्रोसेस्ड फूड और इंटेंसिव फार्मिंग हर लेवल पर नुकसानदायक है। ये दुनिया की ज्यादातर समस्याओं को जन्म देता है। इसे ठीक करने के लिए फार्मिंग और ईटिंग हैबिट बदलनी होंगी। सरकारें अपने स्तर पर कानून बनाएं, फार्मिंग करने वाले अच्छे और नेचुरल तरीके इस्तेमाल करें और भोजन करने वाले इस बात का बारीकी से ध्यान रखें कि वे ऑर्गेनिक खाना खा रहे हैं तो इस परेशानी का हल निकल सकता है।

क्या करें?

बड़ी फूड कंपनियों की जगह अपने लोकल फार्मर को सपोर्ट करें। अगर आपके आसपास खेती-किसानी करने वाले लोग हैं तो उनसे खरीदारी कीजिए। आपको ताजा और सस्ता सामान मिलेगा और इन किसानों की आमदनी भी बढ़ेगी।

तो दोस्तों आपको आज का Food Fix Book Summary In Hindi कैसा लगा ?

आपने आज क्या नया सीखा ?

अगर आपके मन में कोई भी सवाल या सुझाव है तो मुझे नीचे कमेंट करके जरूर बताये।

आपका बहुमूल्य समय देने के लिए दिल से धन्यवाद,

Wish You All The Very Best.

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