श्रवणकुमार की कथा
महाराज दशरथ ने कहा, कौशल्ये! यह मेरे विवाह से पूर्व की घटना है। एक दिन सन्ध्या के समय अकस्मात मैं धनुष बाण ले रथ पर सवार हो शिकार के लिये निकल पड़ा। जब मैं सरयू के तट के साथ-साथ रथ में जा रहा था तो मुझे ऐसा शब्द सुनाई पड़ा मानो वन्य हाथी गरज रहा हो। उस हाथी को मारने के लिये मैंने तीक्ष्ण शब्दभेदी बाण छोड़ दिया। बाण के लक्ष्य पर लगते ही किसी जल में गिरते हुए मनुष्य के मुख से ये शब्द निकले – आह, मैं मरा! मुझ निरपराध को किसने मारा? हे पिता! हे माता! अब मेरी मृत्यु के पश्चात् तुम लोगों की भी मृत्यु, जल के बिना प्यासे ही तड़प-तड़प कर, हो जायेगी। न जाने किस पापी ने बाण मार कर मेरी और मेरे माता-पिता की हत्या कर डाली।
इससे मुझे ज्ञात हुआ कि हाथी की गरज सुनना मेरा भ्रम था, वास्तव में वह शब्द जल में डूबते हुये घड़े का था।
उन वचनों को सुन कर मेरे हाथ काँपने लगे और मेरे हाथों से धनुष भूमि पर गिर पड़ा। दौड़ता हुआ मैं वहाँ पर पहुँचा जहाँ पर वह मनुष्य था। मैंने देखा कि एक वनवासी युवक रक्तरंजित पड़ा है और पास ही एक औंधा घड़ा जल में पड़ा है। मुझे देखकर क्रुद्ध स्वर में वह बोला – राजन! मेरा क्या अपराध था जिसके लिये आपने मेरा वध करके मुझे दण्ड दिया है? क्या यही मेरा अपराध यही है कि मैं अपने प्यासे वृद्ध माता-पिता के लिये जल लेने आया था? यदि आपके हृदय में किंचित मात्र भी दया है तो मेरे प्यासे माता-पिता को जल पिला दो जो निकट ही मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं। किन्तु पहले इस बाण को मेरे कलेजे से निकालो जिसकी पीड़ा से मैं तड़प रहा हूँ। यद्यपि मैं वनवासी हूँ किन्तु फिर भी ब्राह्मण नहीं हूँ। मेरे पिता वैश्य और मेरी माता शूद्र है। इसलिये मेरी मृत्यु से तुम्हें ब्रह्महत्या का पाप नहीं लगेगा। मेरे द्वारा उसके हृदय से बाण खींचते ही उसने प्राण त्याग दिये। अपने इस कृत्य से मेरा हृदय पश्चाताप से भर उठा। घड़े में जल भर कर मैं उसके माता पिता के पास पहुँचा। मैंने देखा, वे दोनों अत्यन्त दुर्बल और नेत्रहीन थे। उनकी दशा देख कर मेरा हृदय और भी विदीर्ण हो गया। मेरी आहट पाते ही वे बोले – बेटा श्रवण! इतनी देर कहाँ लगाई? पहले अपनी माता को पानी पिला दो क्योंकि वह प्यास से अत्यंत व्याकुल हो रही है।
श्रवण के पिता के वचनों को सुन कर मैंने डरते-डरते कहा – हे मुने! मैं अयोध्या का राजा दशरथ हूं। मैंने, अंधकार के कारण, हाथी के भ्रम में तुम्हारे निरपराध पुत्र की हत्या कर दी है। अज्ञानवश किये गये अपने इस अपराध से मैं अत्यंत व्यथित हूँ। आप मुझे दण्ड दीजिये।
पुत्र की मृत्यु का समाचार सुन कर दोनों विलाप करते हुये कहने लगे – मन तो करता है कि मैं अभी शाप देकर तुम्हें भस्म कर दूँ और तुम्हारे सिर के सात टुकड़े कर दूँ। किन्तु तुमने स्वयं आकर अपना अपराध स्वीकार किया है, अतः मैं ऐसा नहीं करूँगा। अब तुम हमें हमारे श्रवण के पास ले चलो। श्रवण के पास पहुँचने पर वे उसके मृत शरीर को हाथ से टटोलते हुये हृदय-विदारक विलाप करने लगे। अपने पुत्र को उन्होंने जलांजलि दिया और उसके पश्चात् वे मुझसे बोले – हे राजन्! जिस प्रकार पुत्र वियोग में हमारी मृत्यु हो रही है, उसी प्रकार तुम्हारी मृत्यु भी पुत्र वियोग में घोर कष्ट उठा कर होगी। शाप देने के पश्चात् उन्होंने अपने पुत्र की चिता बनाई और पुत्र के साथ वे दोनों स्वयं भी चिता में बैठ जल कर भस्म हो गये। कौशल्ये! मेरे उस पाप कर्म का दण्ड आज मुझे प्राप्त हो रहा है।
राजा दशरथ की मृत्यु
श्रवण कुमार के वृत्तान्त को समाप्त करने के पश्चात् राजा दशरथ ने कहा, कौशल्ये! मेरा अन्तिम समय अब निकट आ चुका है, मुझे अब इन नेत्रों से कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा। राम को अब मैं कभी नहीं देख सकूँगा। मेरी समस्त इन्द्रियाँ मुझसे विदा हो रही हैं। मेरी चेतना शून्य हो रही है। हा राम! हा लक्ष्मण! हा पुत्र! हा सीता! हाय कुलघातिनी कैयेयी! कहते कहते राजा दशरथ की वाणी थम गई, श्वास उखड़ गये और उनके प्राण पखेरू उड़ गये। उनके प्राण निकलते ही रानी कौसल्या पछाड़ खाकर भूमि पर गिर पड़ीं। सुमित्रा आदि रानियाँ तथा अन्य स्त्रियाँ भी सिर पीट-पीट कर विलाप करने लगीं। समस्त अन्तःपुर में करुणाजनक क्रन्दन गूँजने लगा। सदैव सुख-समृद्धि से भरे रहने वाला राजप्रासाद दुःख का आगार बन गया। चैतन्य होने पर कौसल्या ने अपने पति का मस्तिष्क अपनी जंघाओं पर रख लिया और विलाप करते हुये बोली, हा दुष्ट कैकेयी! तेरी कामना पूरी हुई। अब तू सुखपूर्वक राज्य-सुख को भोग। पुत्र से तो मैं पहले ही विलग कर दी गई थी, आज पति से भी वियोग हो गया। अब मेरे लिये जीवित रहने का कोई अर्थ नहीं रहा। कैकेय की राजकुमारी ने आज कोसल का नाश कर दिया है। मेरे पुत्र और पुत्रवधू अनाथों की भाँति वनों में भटक रहे हैं। अयोध्यापति तो हम सबको छोड़कर चले गये, अब मिथिलापति भी सीता के दुःख से दुःखी होकर अधिक दिन जीवित नहीं रह पायेंगे। हा कैकेयी! तूने दो कुलों का नाश कर दिया।
कौसल्या महाराज दशरथ के शरीर से लिपटकर फिर मूर्छित हो गई। प्रातःकाल होने पर रोते हुये मन्त्रियों ने राजा के शरीर को तेल के कुण्ड में रख दिया। राम के वियोग से पूर्व में ही पीड़ित अयोध्यावासियों को महाराज की मृत्यु के समाचार ने और भी दुःखी बना दिया। राजा की मृत्यु के समाचार प्राप्त होते ही समस्त व्यथित मन्त्री, दरबारी, मार्कण्डेय, मौद्गल, वामदेव, कश्यप तथा जाबालि वशिष्ठ के आश्रम में एकत्रित हुये। उन्होंने ऋषि वशिष्ठ से कहा, हे महर्षि! राज सिंहासन रिक्त नहीं रह सकता अतः किसी रघुवंशी को सिंहासनाधीन कीजिये। शीघ्रातिशीघ्र अयोध्या के सिंहासन को सुरक्षित रखने का प्रबन्ध कीजिये अन्यथा किसी शत्रु राजा के मन में अयोध्या पर आक्रमण करने का विचार उठ सकता है। वशिष्ठ जी ने कहा, आप लोगों का कथन सत्य है। स्वर्गीय महाराज के द्वारा भरत को राज्य का उत्तराधिकारी घोषित किया ही जा चुका है, अतः मैं भरत को उनके नाना के यहाँ से बुलाने के लिये अभी ही किसी कुशल दूत को भेजने की व्यवस्था करता हूँ।
तत्काल राजगुरु वशिष्ठ ने सिद्धार्थ, विजय, जयंत तथा अशोकनन्दन नामक चतुर दूतों को बुलवा कर आज्ञा दी कि शीघ्र कैकेय जाओ और मेरा यह संदेश भरत और शत्रुघ्न को दो कि तुम्हें अत्यन्त आवश्यक कार्य से अभी अयोध्या बुलाया है। ध्यान रखो कि वहाँ पर राम, लक्ष्मण और सीता को वन भेजने का या महाराज की मृत्यु का वर्णन कदापि मत करना। कोई भी ऐसी बात उनसे मत कहना जिससे उन्हें किसी अनिष्ट की आशंका हो या उनके मन में किसी भी प्रकार के अमंगल का सन्देह उत्पन्न हो। राजगुरु वशिष्ठ की आज्ञा पाते ही चारों दूतों ने वायु के समान वेग वाले अश्वों पर सवार होकर कैकेय देश के लिये प्रस्थान किया। वे मालिनी नदी पार करके हस्तिनापुर होते हुये पहले पांचाल और फिर वहाँ से शरदण्ड देश पहुँचे। वहाँ से वे इक्षुमती नदी को पार करके वाह्लीक देश पहुँचे। फिर विपाशा नदी पार करके कैकेय देश के गिरिव्रज नामक नगर में पहुँच गये।
जिस रात्रि ये दूत गिरिव्रज पहुँचे उसी रात्रि को भरत ने एक अशुभ स्वप्न देखा। निद्रा त्यागने पर स्वप्न का स्मरण करके वे अत्यन्त व्याकुल हो गये। अपने उस स्वप्न के विषय में एक मित्र को बताते हुये उन्होंने कहा, हे सखा! रात्रि में मैंने एक भयानक स्वप्न देखा है। स्वप्न में पिताजी के सिर के बाल खुले थे। वे पर्वत से गिरते हुये गोबर से लथपथ थे और अंजलि से बार-बार तेल पी पी कर हँस रहे थे। मैंने उन्हें तिल और चाँवल खाते तथा शरीर पर तेल मलते देखा। इसके बाद मैंने देखा कि सारा समुद्र सूख गया है, चन्द्रमा टूटकर पृथ्वी पर गिर पड़ा है, पिताजी के प्रिय हाथी के दाँत टूट हये हैं, पर्वतमालाएँ परस्पर टकराकर चूर-चूर हो गई हैं और उससे निकलते हुये धुएँ से पृथ्वी और आकाश काले हो गये हैं। मैंने देखा कि राजा गधों के रथ में सवार होकर दक्षिण दिशा की ओर चले गये। ऐसा प्रतीत होता है कि यह स्वप्न किसी अमंगल की पूर्व सूचना है। मेरा मन अत्यन्त व्याकुल हो रहा है। भरत ने स्वप्न का वर्णन समाप्त किया ही था कि अयोध्या के चारों दूतों ने वहाँ प्रवेश कर उन्हें प्रणाम किया और गुरु वशिष्ठ का संदेश दिया, हे राजकुमार! गरु वशिष्ठ ने अयोध्या की कुशलता का समाचार दिया है तथा आपसे तत्काल अयोध्या चलने का आग्रह किया है। कार्य अत्यावश्यक है अतः आप तत्काल अयोध्या चलें।