तमसा के तट पर
जब राम ने देखा कि प्रजाजन रथ के पीछे दौड़ते ही आ रहे हैं तो उन्होंने रथ को रुकवाया और उन्हें सम्बोधित करते हुये बोले, प्रिय अयोध्यावासियों! ज्ञात है कि आप लोगों का मेरे प्रति अटूट और निश्छल प्रेम है और इसीलिये आप लोग मुझे बार-बार अयोध्या लौट चलने का आग्रह कर रहे हो। यद्यपि आपके इस प्रेम को टालना मेरे लिये अत्यन्त कठिन है, किन्तु मैं आप लोगों से आग्रह करता हूँ कि आप लोग मेरी विवशता को समझने का प्रयास करें। क्या आप लोग चाहेंगे कि मैं पिता की आज्ञा भंग करके पाप का भागी बनूँ? मैं जानता हूँ कि आप लोग मुझसे वास्तविक स्नेह रखते हैं और ऐसा कदापि नहीं चाहेंगे। अतः आप लोगों के लिये यही उचित है कि मुझे प्रेमपूर्वक वन जाने के लिये विदा करें और भरत को राजा स्वीकार करके उनके निर्देशों का पालन करें। और भी अनेकों प्रकार से नगरवासियों को समझा-बुझा कर राम ने सुमन्त से पुनः रथ को आगे बढ़ाने का अनुरोध किया।
कुछ क्षणों के लिये राम के कथन का प्रभाव प्रजाजनों पर पड़ा किन्तु रथ के चलते ही वे फिर से रोते-बिलखते रथ के पीछे चलने लगे। वे राम-लक्ष्मण के प्रेम की डोर में इतना अधिक बँधे थे कि चाहकर भी राम के द्वारा दिये गये उपदेशों और निर्देशों को क्रियान्वित नहीं कर पा रहे थे और विवश होकर बरबस रथ के पीछे चले जा रहे थे। उनकी बुद्धि उन्हें रोक रही थी, किन्तु हृदय उन्हें बलात् रथ के साथ घसीटे लिये जा रहा था। उनकी भावनाओं के आगे उनका विवेक कुछ भी काम नहीं कर पा रहा था। अपनी बातों का उन पर कुछ भी प्रभाव न पड़ते देख कर राम ने सुमन्त से रथ को और तेज चलाने की आज्ञा दी और रथ की गति तेज हो गई। किन्तु भावाभिभूत प्रजाजनों की भीड़ फिर भी रथ के पीछे दौड़ी ही जा रही थी।
तमसा नदी के तट पर पहुँचते पहुँचते रथ के अश्व भी क्लांत हो चुके थे तथा उन्हें विश्राम आवश्यकता थी। मन्त्री सुमन्त ने रथ वहीं रोक दिया। राम, सीता और लक्ष्मण तीनों रथ से उतर आये। वे तमसा के तट पर खड़े होकर उसकी लहरों का आनन्द लेने लगे। इतने में ही रोते बिलखते वे सहस्त्रों अयोध्यावासी भी वहाँ आ पहुँचे जो रथ की गति के साथ न चल पाने के कारण पीछे रह गये थे। उन्होंने चारों ओर से राम, लक्ष्मण तथा सीता को घेर लिया और अनेकों प्रकार के भावुकतापूर्ण तर्क देकर उनसे वापस अयोध्या चलने का अनुरोध करने लगे। रामचन्द्र ने उन्हें अनेकों प्रकार से धैर्य बँधाया। उनके कुछ शान्त होने पर रामचन्द्र ने प्रजाजनों से प्रेमपूर्वक आग्रह किया कि वे वापस लौट जावें। राम तथा प्रजाजनों के मध्य संवाद अबाध गति से चलता रहा और रात्रि हो गई। भूख-प्यास तथा लम्बी यात्रा की थकान से आक्रान्त अयोध्यावासी वहीं वन के वृक्षों के कन्द-मूल-फल खाकर भूमि पर सो गये।
जब ब्राह्म-मुहूर्त में रामचन्द्र की निद्रा टूटी तो वे उन निद्रामग्न नगरवासियों की ओर देखकर लक्ष्मण से बोले, भैया! मुझसे इन प्रजाजनों का यह त्यागपूर्ण कष्ट देखा नहीं जा रहा है इसलिए अब यही उचित है कि हम लोग चुपचाप यहाँ से निकल पड़ें। अतः हे लक्ष्मण! तुम शीघ्र जाकर तत्काल रथ तैयार करवा लो। किन्तु ध्यान रखना कि किसी प्रकार की आहट न हो वरना ये जाग कर फिर हमारे पीछे पीछे आने लगेंगे। राम के आदेशानुसार लक्ष्मण ने सुमन्त से आग्रह करके रथ को थोड़ी दूर पर एक निर्जन स्थान में खड़ा करवा दिया। पुरवासियों को आभास तक नहीं मिला कि कब वे रथ में सवार होकर तपोवन की ओर निकल गए। पुरवासियों की निद्रा भंग होने पर वे सब उन्हें ढूँढने लगे और रथ की लीक के पीछे-पीछे बहुत दूर तक गये। आगे जाकर मार्ग कँकरीला-पथरीला हो गया था इसलिए रथ के लीक के चिह्न दिखाई देना बन्द हो गया। अनेकों प्रयत्न करने पर भी जब वे रथ के मार्ग का अनुसरण न कर सके तो निराश होकर वे विलाप करते हुये लौट पड़े।
वन की यात्रा
तमसा नदी को पार करने के पश्चात् रथ तीव्र गति से बढ़ने लगा। द्रुत गति से दौड़ता हुआ रथ निर्मल जल से युक्त वेदश्रुति नामक नदी के तट पर जा पहुँचा। वेदश्रुति नदी को पार कर रथ दक्षिण दिशा की ओर बढ़ता गया। वे उस स्थान में पहुँच गए जहाँ समुद्रगामिनी गोमती नदी प्रवाहित हो रही थी। सरिता के दोनों तटों पर सहस्त्रों गौओं के झुंड हरी-हरी घास चर रही थीं। गोमती नदी को लांघ कर रथ ने मोरों और हंसों के कलरवों से व्याप्त स्यन्दिका नामक नदी को भी पार किया। यह क्षेत्र धन-धान्य से सम्पन्न और अनेक जनपदों से घिरा हुआ था। राम ने सीता को बताया कि पूर्वकाल में इस क्षेत्र को राजा मनु ने इक्ष्वाकु को दिया था।
शीघ्रगामी अश्वों ने रथ को विशाल और रमणीय कोसल देश की सीमा तक पहुचा दिया। सीमा के पार होते ही राम रथ से नीचे उतरे और अयोध्या की ओर मुख कर श्रद्धापूर्ण वचनों में कहने लगे, सूर्यकुल के सत्यवादी नरेशों द्वारा स्नेहपूर्वक परिपालित हे अयोध्या नगरी! विवश होकर आज मुझे तुझसे दीर्घकाल के लिये विलग होना पड़ रहा है। हे जन्मभूमि! मेरी दृष्टि में तुम सदैव स्वर्ग से भी अधिक श्रद्धेय और पूजनीय रही हो। तुम्हारी सेवा मेरा गौरव है किन्तु परिस्थितिवश मुझे आज तुम्हारी सेवा से विमुख होना पड़ रहा है। हे जननी! तुम सदैव मेरे लिये प्रेरणामयी रही हो। तुम्हारी धूलि मुझे चन्दन की भाँति शान्ति देती है, तुम्हारा जल मेरे लिये अमृतमयी और जीवनदायी है। तुमसे विदा लेते हुये मेरा हृदय विदीर्ण हुआ जा रहा है। पिताजी की आज्ञा का पालन करके चौदह वर्ष पश्चात् मैं पुनः तुम्हारा दर्शन तथा तुम्हारी सेवा का सौभाग्य प्राप्त करूँगा। तब तक के लिये हे माता! मुझे विदा दो। हे माता! तुम्हें शतशत प्रणाम! कोटि कोटि प्रणाम!! इतना कह कर राम ने अयोध्या प्रदेश की धूलि को मस्तक से लगा लिया। उनके नेत्र अश्रुपूरित हो गये किन्तु प्रयास करके उन्होंने अपनी भावनाओं को नियंत्रित किया और पुनः रथ पर बैठ गये। रथासीन हो जाने के पश्चात् वे लक्ष्मण एवं सीता को मातृभूमि की गरिमा एवं महत्व के विषय में बताने लगे।
वे कलुषनाशिनी परम पावन भागीरथी गंगा के तट पर पहुँच गये। उस सुरम्य वातावरण में वे बहुत देर तक चकित से खड़े रहे। उन्होंने देखा दूर-दूर तक लहलहाते हुए खेत नेत्रों को सुख देने वाली हरीतिमा बिखेर रहे हैं। वातावरण अत्यंत सुरम्य है। स्वर्णकलशों से सुशोभित धवल मंदिर भक्ति की भावना को जागृत कर रहे हैं। वहाँ के समस्त आश्रम साम गान की ध्वनि गुंजायमान हो रहे है। वायुमण्डल हवन कुण्डों से निकलने वाले धुएँ से सुगन्धित हो रहा है। अनन्य काल से ऋषि-मुनियों द्वारा सेवित पवित्र भागीरथी कल-कल नाद के साथ द्रुत गति से प्रवाहित हो रही है। गंगा के जल में हंस, कारण्डव आदि पक्षी विहार करते हुये मधुर स्वर में गा रहे हैं मानों वे गंगा की स्तुति कर रहे हों। त्रिपथगा पुण्यसलिला गंगा के दोनों तटों पर खड़े वृक्ष रंग-बिरंगे पुष्पों से सुसज्जित हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि वे अपने फूलों का अर्ध्य चढ़ाकर गंगा का अभिषेक कर रहे हैं। वे इस मनोमुग्धकारी छवि निहारने में लीन हो गये। कुछ काल के पश्चात् राम सुमन्त से बोले, मन्त्रिवर! आज हम यहीं विश्राम करेंगे। हंगुदी के उस विशाल वृक्ष पर कितने सुन्दर तथा आकर्षक फल लगे हुये हैं! आज हम इन्हीं फलों का आहार करेंगे और रात्रि भी यहीं पर व्यतीत करेंगे। रामचन्द्र का आदेश पाते ही सुमन्त ने रथ को हंगुदी के वृक्ष के नीचे खड़ा कर दिया और अश्वों को निकट ही हरी-हरी घास चरने के लिये छोड़ दिया।