चित्रकूट में
रात्रि व्यतीत हो गई। प्रातः होने पर अम्बर में उषा की लाली फैलने लगी और आकाश रक्तिम दृष्टिगत होने लगा। राम, सीता और लक्ष्मण संध्योपासनादि से निवृत होकर चित्रकूट पर्वत की ओर चल पड़े। जब दूर से चित्रकूट के गगनचुम्बी शिखर दिखाई देने लगा तो राम सीता से बोले, हे मृगलोचनी! तनिक जलते हुये अंगारों की भाँति पलाश के इन पुष्पों को देखो जो सम्पूर्ण वन को शोभायमान कर रहे हैं। ऐसा प्रतीत होता है जैसे पुष्पहार लेकर ये हमारा स्वागत कर रहे हैं। हमारे समक्ष दृष्टिगत इन विल्व तथा भल्लांतक के वृक्षों को शायद आज तक किसी भी मनुष्य ने स्पर्श भी नहीं किया होगा।। फिर उन्होंने लक्ष्मण से कहा, लक्ष्मण! मधुमक्खियों ने इन वृक्षों पर कितने बड़े-बड़े छत्ते बना लिये हैं। वायु के झकोरों से गिरे इन पुष्पों ने सम्पूर्ण पृथ्वी को आच्छादित कर उस पर पुष्पों की शैया बना दिया है। वृक्षों पर बैठे तीतर अपनी मनोहर ध्वनि से हमें आकर्षित कर रहे हैं। मेरे विचार से चित्रकूट का यह मनोरम स्थान हम लोगों के निवास के लिये सब प्रकार से योग्य है। हमें यहीं अपनी कुटिया बनानी चाहिये। मुझे निःसंकोच बताओ कि इस विषय में तुम्हारा क्या विचार है?
लक्ष्मण ने राम की बात का समर्थन करते हुये कहा, प्रभो! मेरा भी यही विचार है कि यह स्थान हम लोगों के रहने के लिये सभी प्रकार से योग्य है। सीता ने भी उनके विचारों का अनुमोदन किया। टहलते टहलते वे वहाँ स्थित वाल्मीकि ऋषि के सुन्दर आश्रम में पहुँचे। राम ने उनका अभिवादन किया और अपना परिचय देते हुए बताया कि हम लोग पिता की आज्ञा से वन में चौदह वर्ष की अवधि व्यतीत करने के लिये आये हैं। महर्षि वाल्मीकि ने उनका स्वागत करते हुये कहा, हे दशरथनन्दन! तुमने दर्शन देकर मुझे कृतार्थ कर दिया है। जब तक तुम्हारी इच्छा हो, तुम इस आश्रम में निवास कर सकते हो। तुम वनवास की पूरी अवधि यहीं रह कर व्यतीत कर सकते हो क्योंकि यह स्थान सर्वथा तुम्हारे योग्य है। आतिथ्य के लिये आभार प्रकट करते हुये राम ने ऋषि वाल्मीकि से कहा, निःसन्देह यह सुरम्य वन मुझे, सीता और लक्ष्मण तीनों को ही पसन्द है। किन्तु यहाँ निवास करके मैं आपकी तपस्या में किसी प्रकार का विघ्न उत्पन्न नहीं करना चाहता। हम लोग निकट ही कहीं पर्णकुटी बना कर निवास करेंगे।
फिर उन्होंने लक्ष्मण से कहा, भैया, तुम वन से मजबूत लकड़ियाँ काट कर ले आओ। हम इस आश्रम के पास ही कहीं कुटिया बना कर निवास करेंगे। रामचन्द्र का आदेश पाकर लक्ष्मण तत्काल वन से लकड़ियाँ काट कर ले आये और उनसे एक सुन्दर तथा कलात्मक कुटिया बना डाली। सुविधायुक्त, सुन्दर एवं कलापूर्ण कुटिया के निर्माण के लिये राम ने लक्ष्मण की भूरि-भूरि प्रशंसा की। फिर उन्होंने सीता के साथ गृह-प्रवेश यज्ञ किया और कुटिया में प्रवेश किया। कुटिया के समीप ही चित्रकूट पर्वत को स्पर्श करती हुई माल्यवती नदी प्रवाहित हो रही थी। सरिता के दोनों ओर पर्वत मालाओं की अत्यन्त नयनाभिराम श्रेणियाँ थीं। सुन्दर मनोमुग्धकारी प्राकृतिक दृश्य ने कुछ समय के लिये राम और सीता के अयोध्या त्यागने के दुःख को भुला दिया। भाँति-भाँति के पक्षियों की मनोहारी स्वर लहरियों को सुन कर और अनेकों रंग के पुष्पों से आच्छादित लताओं-विटपों को देख कर सीता को प्रतीत हुआ कि इस निर्जन वन मे वह राजमहल से भी अधिक सुखी है।
सुमन्त का अयोध्या लौटना
राम से विदा लेकर सुमन्त पहुँचे। उनहोंने देखा कि पूरे अयोध्या में शोक और उदासी व्याप्त थी। उन्हें आते हुये देखकर अयोध्यावासियों ने दौड़ कर रथ को चारों ओर से घेर लिया और प्रश्नों की बौछार करना आरंभ कर दिया, राम, लक्ष्मण, सीता कहाँ हैं? तुम उन्हें कहाँ छोड़ आये? अपने साथ वापस क्यों नहीं लाये? चाहकर भी सुमन्त उन्हें धैर्य नहीं बँधा पा रहे थे। उनका कण्ठ अवरुद्ध हो गया था। उनके नेत्रों से अश्रुधारा प्रवाहित होने लगी। प्रयास करके स्वयं को नियंत्रित किया और लड़खड़ाती वाणी में कहा, गंगा पार के बाद वे पैदल ही आगे चले गये और उन्होंने आदेशपूर्वक रथ को लौटा दिया। सुमन्त के मर्मवेधी वचन सुनकर नगरवासी बिलख-बिलख कर विलाप करने लगे। देखते-देखते सारा बाजार और सभी दुकानें बन्द हो गईं। लोगों ने छोटी-छोटी टोलियाँ बना लिये और शोकाकुल होकर राम के विषय में चर्चा करने लगे। कोई कहता, राम के बिना अयोध्या सूनी हो गई है। हमें भी यह नगर छोड़ कर अन्यत्र चले जाना चाहिये। कोई कहता राम हमसे पिता की भाँति स्नेह करते थे। उनके चले जाने से हम लोग अनाथ हो गये हैं। अन्य कोई कहता यह राज्य अब उजड़ गया है। यहाँ रहने का अब कोई अर्थ नहीं है। चलो, हम सब भी वन में चलें। कोई महाराज दशरथ की निन्दा करता तो कोई रानी कैकेयी को दुर्वचन कहता।
सुमन्त राजप्रासाद के उस श्वेत भवन में जा पहुँचे जहाँ महाराज दशरथ पुत्र वियोग में व्याकुल अर्द्धमूर्छित अवस्था में पड़े अपने अन्तिम श्वासें गिन रहे थे। आशा की कोई धूमिल किरण कभी-कभी चमक उठती थी और उन्हें लगता था कि सम्भव है सुमन्त अनुनय-विनय कर के राम को लौटा लायें। सम्भवतः राम न आयें किन्तु कदाचित सुमन्त सीता को ही वापस ले आयें। उसी समय सुमन्त ने आकर महाराज के चरण स्पर्श किया और विषादपूर्ण स्वर में राम को वन में छोड़ आने की सूचना दी। सुनते ही व्यथित महाराज मूर्छित हो गये। सम्पूर्ण महल में हाहाकार मच गया। महाराज को झकझोरते हुये कौसल्या ने कहा, हे आर्यपुत्र! आप चुप कैसे हो गये? बात क्यों नहीं करते? अब तो कैकेयी से की हुई आपकी प्रतिज्ञा पूरी हो चुकी है फिर आप दुःखी क्यों हैं? महाराज की मूर्छा भंग होने पर वे राम, सीता और लक्ष्मण का स्मरण कर के विलाप करने लगे। उन्हे धैर्य बँधाते हुये सुमन्त ने हाथ जोड़कर कहा, कृपानिधान! राम ने आपको प्रणाम कर के कहा है कि हम सब सकुशल हैं। माता कौसल्या के लिये संदेश दिया है कि वे महाराज की हृदय से सेवा करें और कैकेयी के प्रति हृदय में किसी प्रकार का कलुष न रखें। भरत को भी उन्होंने पिता की आज्ञा का पालन करने का आदेश दिया है।
महाराज दशरथ ने गहरी साँस छोड़ते हुये कहा, सुमन्त! होनी को कौन टाल सकता है। इस आयु में मेरे प्रिय पुत्र मुझसे अलग हो गये। इस संसार में इससे बढ़ कर भला क्या दुःख होगा? कौसल्या कहने लगी, राम, लक्ष्मण और विशेषतः सीता, जो सदा सुखपूर्व महलों में रही है, कैसे वन के कष्टों को सहन कर पायेंगे। राजन्! आपने ही उन्हें वनवास दिया है, आप जैसा निर्दयी और कोई नहीं होगा। यह सब आपने केवल कैकेयी और भरत के सुख के लिये किया है। कौसल्या के इन कठोर वचनों को सुनकर महाराज का हृदय विदीर्ण हो गया। नेत्रों में अश्रु भरकर वे बोले, कौशल्ये! तुम तो मुझे इस तरह मत धिक्कारो। मैं तुम्हारे हाथ जोड़ता हूँ। दशरथ के इन दीन वचनों को सुनकर कौसल्या का हृदय पानी-पानी हो गया और वे रोने लगीं। फिर दोनों हाथ जोड़कर वे बोलीं, हे आर्यपुत्र! दुःख ने मेरी बुद्ध को हर लिया था। मुझे क्षमा करें। राम को यहाँ से गये आज पाँच रात्रियाँ व्यतीत हो चुकी हैं किन्तु मुझे ये पाँच रात्रियाँ पाँच वर्षों जैसी प्रतीत हुई हैं। इसीलिये मैं अपना विवेक खो बैठी और ऐसा अनर्गल प्रलाप करने लगी। कौसल्या के वचन सुनकर राजा दशरथ ने कहा, कौशल्ये! जो कुछ भी हुआ है वह सब मेरे ही कर्मों का फल है। सुनो मैं तुम्हें बताता हूँ।