svg

रामायण कथा – सम्पूर्ण उत्तरकाण्ड

राजा इल की कथा

जब लक्ष्मण ने अश्वमेघ यज्ञ के विशेष आग्रह किया तो श्री रामचन्द्र जी अत्यन्त प्रसन्न हुये और बोले, “हे सौम्य! इस विषय में मैं तुम्हें राजा इल की कथा सुनाता हूँ। प्रजापति कर्दम के पुत्र इल वाह्लीक देश के राजा थे। एक समय शिकार खेलते हुये वे उस स्थान पर जा पहुँचे जहाँ स्वामी कार्तिकेय का जन्म हुआ था और भगवान शंकर अपने सेवकों के साथ पार्वती का मनोरंजन करते थे। उस प्रदेश में शिव की माया से सभी प्राणी स्त्री वर्ग के हो गये थे। नर पशु-पक्षी या मनुष्य कोई भी दृष्टिगत नहीं होता था। राजा इल ने भी सैनिकों सहित स्वयं को वहाँ स्त्री रूप में परिणित होते देखा। इससे भयभीत होकर वे शंकर जी के शरणागत हुये और उनसे पुरुषत्व प्रदान करने की प्रार्थना करने लगे।

“जब भगवान शंकर ने उनकी प्रार्थना स्वीकार नहीं की तो उन्होंने व्याकुल होकर, गिड़गिड़ा कर उमा से प्रार्थना की। इससे प्रसन्न होकर उमा ने कहा कि मैं भगवान शंकर की केवल अर्द्धांगिनी हूँ। इलिये मैं तुम्हें तुम्हारे जीवन के केवल आधे काल के लिये पुरुष बना सकती हूँ। बोलो, तुम अपनी आयु के पूर्वार्द्ध के लिये पुरुषत्व चाहते हो या उत्तरार्द्ध के लिये? इल कुछ क्षण सोचकर बोले कि देवि! ऐसा कर दीजिये कि मैं एक मास पुरुष और एक मास स्त्री रहा करूँ। पार्वती जी ने ‘तथास्तु’ कहकर उनकी इच्छा पूरी कर दी। इस वरदान के फलस्वरूप इल प्रथम मास में त्रिभुवन सुन्दरी नारी बन गये तथा इल से इला कहलाने लगे। इल उक्त क्षेत्र से निकलकर उस सरोवर पर पहुँचे जहाँ सोमपुत्र बुध तपस्या कर रहे थे। इला पर दृष्टि पड़ते ही बुध उस पर आसक्त हो गये एवं उसके साथ रमण करने लगे। उन्होंने राजा के साथ आये स्त्रीरूपी सैनिकों का वृत्तान्त जानकर उन्हें किंपुरुषी (किन्नरी) होकर पर्वत के किनारे रहने का निर्देश दिया। उन्होंने आग्रह करके इल को एक वर्ष के लिये वहीं रोक लिया।

“एक मास पश्चात् इला ने इल के रूप में पुरुषत्व प्राप्त किया। अगले मास वे फिर नारी बन गये। इसी प्रकार यह क्रम चलता रहा और नवें मास में इला ने पुरुरवा को जन्म दिया। अन्त में इल को इस रूप परिवर्तन से मुक्ति दिलाने के लिये बुध ने महात्माओं से विचार विमर्श करके शिव जी को विशेष प्रिय लगने वाला अश्वमेघ यज्ञ कराया। इससे प्रसन्न होकर शिव जी ने राजा इल को स्थाई रूप से पौरुष प्रदान किया।” श्री रामचन्द्र जी बोले, “हे महाबाहु! वास्तव में अश्वमेघ यज्ञ अमित प्रभाव वाला है।

अश्वमेघ यज्ञ का अनुष्ठान

सब भाइयों के आग्रह को मानकर रामचन्द्र जी ने वसिष्ठ, वामदेव, जाबालि, कश्यप आदि ऋषियों को बुलाकर परामर्श किया। उनकी स्वीकृति मिल जाने पर वानरराज सुग्रीव को सन्देश भेजा गया कि वे विशाल वानर सेना के साथ यज्ञोत्सव में भाग लेने के लिये आवें। फिर विभीषण सहित अन्य राज-महाराजाओं को भी इसी प्रकार के सन्देश और निमन्त्रण भेजे गये। संसार भर के ऋषि-महर्षियों को भी सपरिवार आमन्त्रित किया गया। कुशल कलाकारों द्वारा नैमिषारण्य में गोमती तट पर विशाल एवं कलापूर्ण यज्ञ मण्डप बनाने की व्यवस्था की गई। विशाल हवन सामग्री के साथ आगन्तुकों के भोजन, निवास आदि के लिये बहुत बड़े पैमाने पर प्रबन्ध किया गया। नैमिषारण्य में दूर-दूर तक बड़े-बड़े बाजार लगवाये गये। सीता की सुवर्णमय प्रतिमा बनवाई गई। लक्ष्मण को एक विशाल सेना और शुभ लक्षणों से सम्पन्न कृष्ण वर्ण अश्व के साथ विश्व भ्रमण के लिये भेजा गया।

देश-देश के राजाओं ने श्रीराम को अद्भुत उपहार भेंट करके अपने पूर्ण सहयोग का आश्वासन दिया। आगत याचकों को मनचाही वस्तुएँ संकेतमात्र से ही दी जा रही थीं। उस यज्ञ को देखकर ऋषि-मुनियों का कहना था कि ऐसा यज्ञ पहले कभी नहीं हुआ। यह यज्ञ एक वर्ष से भी अधिक समय तक चलता रहा। इस यज्ञ में सम्मिलित होने के लिये महर्षि वाल्मीकि भी अपने शिष्यों सहित पधारे। जब उनके निवास की समुचित व्यवस्था हो गई तो उन्होंने अपने दो शिष्यों लव और कुश को आज्ञा दी कि वे दोनों भाई नगर में सर्वत्र घूमकर रामायण काव्य का गान करें। उनसे यह भी कहा कि जब तुमसे कोई पूछे कि तुम किसके पुत्र हो तो तुम केवल इतना कहना कि हम ऋषि वाल्मीकि के शिष्य हैं। यह आदेश पाकर सीता के दोनों पुत्र रामायण का सस्वर गान करने के लिये चल पड़े।

लव-कुश द्वारा रामायण गान

जब लव-कुश अपने रामायण गान से पुरवासियों एवं आगन्तुकों का मन मोहने लगे तब एक दिन श्रीराम ने उन दोनों बालकों को अपनी राजसभा में बुलाया। उस समय राजसभा में श्रेष्ठ नैयायिक, दर्शन एवं कल्पसूत्र के विद्वान, संगीत तथा छन्द कला मर्मज्ञ, विभिन्न शास्त्रों के ज्ञाता, ब्रह्मवेत्ता आदि मनीषि विद्यमान थे। लव-कुश को देखकर सबको ऐसा प्रतीत होता था मानो दोनों श्रीराम के ही प्रतिरूप हैं। यदि इनके सिर पर जटाजूट और शरीर पर वल्कल न होते तो इनमें और श्रीराम में कोई अन्तर दिखाई न देता। दोनों भाइयों ने अपराह्न तक प्रारम्भिक बीस सर्गों का गान किया और उस दिन का कार्यक्रम समाप्त किया। पाठ समाप्त होने पर श्रीराम ने भरत को आदेश दिया कि दोनों भाइयों को अट्ठारह हजार स्वर्ण मुद्राएँ दी जायें, किन्तु लव-कुश ने उसे लेने से इन्कार कर दिया और कहा कि हम वनवासी हैं, हमें धन की क्या आवश्यकता है? इससे श्रीराम सहित सब श्रोताओं को भारी आश्चर्य हुआ। उन्होंने पूछा, “यह काव्य किसने लिखा है और इसमें कितने श्लोक हैं?”

यह सुनकर उन मुनिकुमारों ने बताया, “महर्षि वाल्मीकि ने इस महाकाव्य की रचना की है। इसमें चौबीस हजार श्लोक और एक सौ उपाख्यान हैं। इसमें कुल पाँच सर्ग और छः काण्ड हैं। इसके अतिरिक्त उत्तरकाण्ड इसका सातवाँ काण्ड है। आपका चरित्र ही इस महाकाव्य का विषय है।” यह सुनकर रघुनाथ जी ने यज्ञ समाप्त होने के पश्चात् सम्पूर्ण महाकाव्य सुनने की इच्छा प्रकट की। इस काव्य-कथा को सुनकर उन्हें पता चला कि कुश और लव सीता के ही सुपुत्र हैं।

Leave a reply

Loading Next Post...
svgSearch
Popular Now svg
Scroll to Top
Loading

Signing-in 3 seconds...

Signing-up 3 seconds...