श्रीमद् भागवत महापुराण (स्कन्ध 1-अध्याय 1) | Shrimad Bhagavatam Hindi

हरे कृष्ण। इस पोस्ट में श्रीमद भागवत महापुराण के स्कन्ध 1 के अध्याय 1 सम्पूर्ण अर्थ संग्रह किया हुआ है। आशा है आप इसे पढ़के इसी जन्म में इस जन्म-मरण के चक्कर से ऊपर उठ जायेंगे और आपको भगवद प्राप्ति हो जाये। तो चलिए शुरू करते हैं – राधा-कृष्ण

श्रीमद् भागवत महापुराण – स्कन्ध 1: सृष्टि (अध्याय 1: मुनियों की जिज्ञासा)

श्लोक 1: हे प्रभु, हे वसुदेव-पुत्र श्रीकृष्ण, हे सर्वव्यापी भगवान्, मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ। मैं भगवान् श्रीकृष्ण का ध्यान करता हूँ, क्योंकि वे परम सत्य हैं और व्यक्त ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति, पालन तथा संहार के समस्त कारणों के आदि कारण हैं। वे प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से सारे जगत से अवगत रहते हैं और वे परम स्वतंत्र हैं, क्योंकि उनसे परे अन्य कोई कारण है ही नहीं। उन्होंने ही सर्वप्रथम आदि जीव ब्रह्माजी के हृदय में वैदिक ज्ञान प्रदान किया। उन्हीं के कारण बड़े-बड़े मुनि तथा देवता उसी तरह मोह में पड़ जाते हैं, जिस प्रकार अग्नि में जल या जल में स्थल देखकर कोई माया के द्वारा मोहग्रस्त हो जाता है। उन्हीं के कारण ये सारे भौतिक ब्रह्माण्ड, जो प्रकृति के तीन गुणों की प्रतिक्रिया के कारण अस्थायी रूप से प्रकट होते हैं, वास्तविक लगते हैं जबकि ये अवास्तविक होते हैं। अत: मैं उन भगवान् श्रीकृष्ण का ध्यान करता हूँ, जो भौतिक जगत के भ्रामक रूपों से सर्वथा मुक्त अपने दिव्य धाम में निरन्तर वास करते हैं। मैं उनका ध्यान करता हूँ, क्योंकि वे ही परम सत्य हैं।

श्लोक 2: यह भागवत पुराण, भौतिक कारणों से प्रेरित होने वाले समस्त धार्मिक कृत्यों को पूर्ण रूप से बहिष्कृत करते हुए, सर्वोच्च सत्य का प्रतिपादन करता है, जो पूर्ण रूप से शुद्ध हृदय वाले भक्तों के लिए बोधगम्य है। यह सर्वोच्च सत्य वास्तविकता है जो माया से पृथक् होते हुए सबों के कल्याण के लिए है। ऐसा सत्य तीनों प्रकार के संतापों को समूल नष्ट करने वाला है। महामुनि व्यासदेव द्वारा (अपनी परिपक्वावस्था में) संकलित यह सौंदर्यपूर्ण भागवत ईश्वर-साक्षात्कार के लिए अपने आप में पर्याप्त है। तो फिर अन्य किसी शास्त्र की क्या आवश्यकता है? जैसे जैसे कोई ध्यानपूर्वक तथा विनीत भाव से भागवत के सन्देश को सुनता है, वैसे वैसे ज्ञान के इस संस्कार (अनुशीलन) से उसके हृदय में परमेश्वर स्थापित हो जाते हैं।

श्लोक 3: हे विज्ञ एवं भावुक जनों, वैदिक साहित्य रूपी कल्पवृक्ष के इस पक्व फल श्रीमद्भागवत को जरा चखो तो। यह श्री शुकदेव गोस्वामी के मुख से निस्सृत हुआ है, अतएव यह और भी अधिक रुचिकर हो गया है, यद्यपि इसका अमृत-रस मुक्त जीवों समेत समस्त जनों के लिए पहले से आस्वाद्य था।

श्लोक 4: एक बार नैमिषारण्य के वन में एक पवित्र स्थल पर शौनक आदि महान ऋषिगण भगवान् तथा उनके भक्तों को प्रसन्न करने के लिए एक हजार वर्षों तक चलने वाले यज्ञ को सम्पन्न करने के उद्देश्य से एकत्र हुए।

श्लोक 5: एक दिन यज्ञाग्नि जलाकर अपने प्रात:कालीन कृत्यों से निवृत्त होकर तथा श्रील सूत गोस्वामी को आदरपूर्वक आसन अर्पण करके ऋषियों ने सम्मानपूर्वक निम्नलिखित विषयों पर प्रश्न पूछे।

श्लोक 6: मुनियों ने कहा : हे पूज्य सूत गोस्वामी, आप समस्त प्रकार के पापों से पूर्ण रूप से मुक्त हैं। आप धार्मिक जीवन के लिए विख्यात समस्त शास्त्रों एवं पुराणों के साथ-साथ इतिहासों में निपुण हैं, क्योंकि आपने समुचित निर्देशन में उन्हें पढ़ा है और उनकी व्याख्या भी की है।

श्लोक 7: हे सूत गोस्वामी, आप ज्येष्ठतम विद्वान एवं वेदान्ती होने के कारण ईश्वर के अवतार व्यासदेव के ज्ञान से अवगत हैं और आप उन अन्य मुनियों को भी जानते हैं जो सभी प्रकार के भौतिक तथा आध्यात्मिक ज्ञान में निष्णात हैं।

श्लोक 8: इससे भी अधिक, चूँकि आप विनीत हैं, आपके गुरुओं ने एक सौम्य शिष्य जानकर आप पर सभी तरह से अनुग्रह किया है अत: आप हमें वह सब बतायें जिसे आपने उनसे वैज्ञानिक ढंग से सीखा है।

श्लोक 9: अतएव, दीर्घायु की कृपा प्राप्त आप सरलता से समझ में आने वाली विधि से हमें समझाइये कि आपने जन साधारण के समग्र एवं परम कल्याण के लिए क्या निश्चय किया है?

श्लोक 10: हे विद्वान, कलि के इस लौह-युग में लोगों की आयु न्यून है। वे झगड़ालू, आलसी, पथभ्रष्ट, अभागे होते हैं तथा साथ ही साथ सदैव विचलित रहते हैं।

श्लोक 11: शास्त्रों के अनेक विभाग हैं और उन सबमें अनेक नियमित कर्मों का उल्लेख है, जिनके विभिन्न प्रभागों को वर्षों तक अध्ययन करके ही सीखा जा सकता है। अत: हे साधु, कृपया आप इन समस्त शास्त्रों का सार चुनकर समस्त जीवों के कल्याण हेतु समझायें, जिससे उस उपदेश से उनके हृदय पूरी तरह तुष्ट हो जायँ।

श्लोक 12: हे सूत गोस्वामी, आपका कल्याण हो। आप जानते हैं कि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् देवकी के गर्भ से वसुदेव के पुत्र के रूप में किस प्रयोजन से प्रकट हुए।

श्लोक 13: हे सूत गोस्वामी, हम भगवान् तथा उनके अवतारों के विषय में जानने के लिए उत्सुक हैं। कृपया हमें पूर्ववर्ती आचार्यों द्वारा दिये गये उपदेशों को बताइये, क्योंकि उनके वाचन श्रवण तथा कहने सुनने दोनों से ही मनुष्य का उत्कर्ष होता है।

श्लोक 14: जन्म तथा मृत्यु के जाल में उलझे हुए जीव, यदि अनजाने में भी कृष्ण के पवित्र नाम का उच्चारण करते हैं, तो तुरन्त मुक्त हो जाते हैं, क्योंकि साक्षात् भय भी इससे (नाम से) भयभीत रहता है।

श्लोक 15: हे सूत गोस्वामी, जिन महान ऋषियों ने पूर्ण रूप से भगवान् के चरणकमलों की शरण ग्रहण कर ली है, वे अपने सम्पर्क में आने वालों को तुरन्त पवित्र कर देते हैं, जबकि गंगा जल दीर्घकाल तक उपयोग करने के बाद ही पवित्र कर पाता है।

श्लोक 16: इस कलहप्रधान युग के पापों से उद्धार पाने का इच्छुक ऐसा कौन है, जो भगवान् के पुण्य यशों को सुनना नहीं चाहेगा?

श्लोक 17: उनके दिव्य कर्म अत्यन्त उदार तथा अनुग्रहपूर्ण हैं और नारद जैसे महान् विद्वान मुनि उनका गायन करते हैं। अत: कृपया हमें उनके अपने विविध अवतारों में सम्पन्न साहसिक लीलाओं के विषय में बतायें, क्योंकि हम सुनने के लिए उत्सुक हैं।

श्लोक 18: हे बुद्धिमान सूतजी, कृपा करके हमसे भगवान् के विविध अवतारों की दिव्य लीलाओं का वर्णन करें। परम नियन्ता भगवान् के ऐसे कल्याणप्रद साहसिक कार्य तथा उनकी लीलाएँ उनकी अन्तरंगा शक्तियों द्वारा सम्पन्न होते हैं।

श्लोक 19: हम उन भगवान् की दिव्य लीलाओं को सुनते थकते नहीं, जिनका यशोगान स्तोत्रों तथा स्तुतियों से किया जाता है। उनके साथ दिव्य सम्बन्ध के लिए जिन्होंने अभिरुचि विकसित कर ली है, वे प्रतिक्षण उनकी लीलाओं के श्रवण का आस्वादन करते हैं।

श्लोक 20: भगवान् श्रीकृष्ण ने बलराम सहित मनुष्य की भाँति क्रीड़ाएँ कीं और इस प्रकार से प्रच्छन्न रह कर उन्होंने अनेक अलौकिक कृत्य किये।

श्लोक 21: यह भलीभाँति जानकर कि कलियुग का प्रारम्भ हो चुका है, हम इस पवित्र स्थल में भगवान् का दिव्य सन्देश सुनने के लिए तथा इस प्रकार यज्ञ सम्पन्न करने के लिए दीर्घसत्र में एकत्र हुए हैं।

श्लोक 22: हम मानते हैं कि दैवी इच्छा ने हमें आपसे मिलाया है, जिससे मनुष्यों के सत्त्व का नाश करने वाले उस कलि रूप दुर्लंघ्य सागर को तरने की इच्छा रखने वाले हम सब आपको नौका के कप्तान के रूप में ग्रहण कर सकें।

श्लोक 23: चूँकि परम सत्य, योगेश्वर, श्रीकृष्ण अपने निज धाम के लिए प्रयाण कर चुके हैं, अतएव कृपा करके हमें बताएँ कि अब धर्म ने किसका आश्रय लिया है?

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