अध्याय 7: विशिष्ट कार्यों के लिए निर्दिष्ट अवतार
श्लोक 1: ब्रह्माजी ने कहा : जब अनन्त शक्तिशाली भगवान् ने लीला के रूप में ब्रह्माण्ड के गर्भोदक नामक महासागर में डूबी हुई पृथ्वी को ऊपर उठाने के लिए वराह का रूप धारण किया, तो सबसे पहले एक असुर (हिरण्याक्ष) प्रकट हुआ। भगवान् ने उसे अपने अगले दाँत से विदीर्ण कर दिया।
श्लोक 2: सर्वप्रथम प्रजापति की पत्नी आकूति के गर्भ से सुयज्ञ उत्पन्न हुआ; फिर सुयज्ञ ने अपनी पत्नी दक्षिणा से सुयम इत्यादि देवताओं को उत्पन्न किया। सुयज्ञ ने इन्द्रदेव के रूप में तीनों लोकों के महान् क्लेश कम कर दिए थे, फलत: मानवमात्र के परम पिता स्वायंभुव मनु ने उसे हरि नाम से पुकारा।
श्लोक 3: इसके पश्चात् भगवान् कपिल रूप में अवतरित हुए और प्रजापति ब्राह्मण कर्दम तथा उनकी पत्नी देवहूति के पुत्र रूप में अन्य नौ स्त्रियों (बहनों) के साथ जन्म लिया। उन्होंने अपनी माता को आत्म-साक्षात्कार के विषय में शिक्षा दी, जिससे वे उसी जीवन काल में सांसारिक गुण रूपी कीचड़ से विमल हो गईं और उन्होंने मुक्ति प्राप्त की जो कपिल का मार्ग है।
श्लोक 4: अत्रि मुनि ने भगवान् से सन्तान के लिए प्रार्थना की और उन्होंने प्रसन्न होकर स्वयं ही अत्रि के पुत्र दत्तात्रेय (दत्त, अत्रि का पुत्र) के रूप में अवतार ग्रहण करने का वचन दिया। और भगवान् के चरणकमलों की कृपा से अनेक यदु, हैहय इत्यादि पवित्र हुए और उन्होंने भौतिक तथा आध्यात्मिक दोनों ही वर प्राप्त किये।
श्लोक 5: विभिन्न लोकों की उत्पत्ति करने के लिए मुझे तपस्या करनी पड़ी और तब भगवान् ने मुझसे प्रसन्न होकर चारों कुमारों (सनक, सनत्कुमार, सनन्दन तथा सनातन) के रूप में अवतार लिया। पिछली सृष्टि में आध्यात्मिक सत्य (आत्मज्ञान) का विनाश हो चुका था, किन्तु इन चारों कुमारों ने इतने स्पष्ट ढंग से उसकी व्याख्या की कि मुनियों को तुरन्त सत्य का साक्षात्कार हो गया।
श्लोक 6: उन्होंने अपनी तपस्या की विधि प्रदर्शित करने के लिए धर्म की पत्नी तथा दक्ष की पुत्री मूर्ति के गर्भ से नर तथा नारायण युगल-रूपों में जन्म लिया। कामदेव की सखियाँ, स्वर्ग की सुन्दरियाँ, उनका व्रत भंग करने आईं, किन्तु वे असफल रहीं, क्योंकि उन्हें भगवान् के शरीर से अपने समान अनेक सुन्दरियाँ उत्पन्न होती दिखाई पड़ीं।
श्लोक 7: शिव जैसे महापुरुष अपनी रोषपूर्ण चितवन से वासना (काम) को जीतकर उसे दण्डित तो कर सकते हैं, किन्तु वे स्वयं अपने क्रोध के अत्यधिक प्रभाव से मुक्त नहीं हो सकते। ऐसा क्रोध कभी भी उनके (भगवान् के) हृदय में प्रवेश नहीं पाता, क्योंकि वे इससे ऊपर हैं। तो फिर भला उनके मन में वासना को आश्रय कैसे प्राप्त हो सकता है?
श्लोक 8: राजा की उपस्थिति में सौतली माता के कटु वचनों से अपमानित होकर राजकुमार ध्रुव, बालक होते हुए भी, वन में कठिन तपस्या करने लगे और भगवान् ने उनकी प्रार्थना से प्रसन्न होकर उन्हें ध्रुवलोक प्रदान किया जिसकी पूजा ऊपर तथा नीचे के लोकों के सभी मुनि करते हैं।
श्लोक 9: महाराज वेन कुमार्गगामी हो गया, अत: ब्राह्मणों ने वज्रशाप से उसे दण्डित किया। इस प्रकार राजा वेन अपने सत्कर्मों तथा ऐश्वर्य के सहित भस्म हो गया और नरक के पथ पर जाने लगा। किन्तु भगवान् ने, अपनी अहैतुकी कृपा से, उसके पुत्र पृथु के रूप में जन्म लेकर शापित राजा वेन को नरक से उबारा और पृथ्वी का दोहन करके उससे सभी प्रकार की उपजें प्राप्त कीं।
श्लोक 10: राजा नाभि की पत्नी सुदेवी के पुत्र के रूप में भगवान् प्रकट हुए और ऋषभ-देव कहलाये। अपने मन को समदर्शी बनाने के लिए उन्होंने जड़-योग साधना की। इस अवस्था को मुक्ति का सर्वोच्च सिद्ध पद भी माना जाता है, जिसमें मनुष्य अपने में ही स्थित रहकर पूर्ण रूप से सन्तुष्ट रहता है।
श्लोक 11: मेरे (ब्रह्मा) द्वारा सम्पन्न यज्ञ में भगवान् हयग्रीव अवतार के रूप में प्रकट हुए। वे साक्षात् यज्ञ हैं और उनके शरीर का रंग सुनहला है। वे साक्षात् वेद भी हैं और समस्त देवताओं के परमात्मा हैं। जब उन्होंने श्वास ली, तो उनके नथुनों से समस्त मधुरवैदिक स्तोत्रों की ध्वनियाँ प्रकट हुईं।
श्लोक 12: कल्प के अन्त में भावी वैवस्वत मनु, सत्यव्रत, देखेंगे कि मत्स्य अवतार के रूप में श्रीभगवान् पृथ्वी पर्यन्त सभी प्रकार की जीवात्माओं के आश्रय हैं। तब कल्प के अन्त में, जल में मेरे भय से, सभी वेद मेरे (ब्रह्मा) मुँह से निकलते हैं तथा भगवान् उस प्रवाह जल का राशि आनन्द उठाते हुए वेदों की रक्षा करते हैं।
श्लोक 13: तब आदि भगवान् मथानी की तरह उपयोग में लाऐ जा रहे मन्दराचल पर्वत के लिए घुरी (आश्रय स्थल) के रूप में कच्छप रूप में अवतरित हुए। देवता तथा असुर अमृत निकालने के उद्देश्य से मन्दराचल को मथानी बनाकर क्षीर सागर का मंथन कर रहे थे। यह पर्वत आगे-पीछे घूम रहा था जिससे भगवान् कच्छप की पीठ पर रगड़ पड़ रही थी,तब वे अघजगी निद्रा में थे और खुजलाहट का अनुभव कर रहे थे, उनकी पीठ रगड़ी जाने लगी।
श्लोक 14: श्रीभगवान् ने देवताओं के अदम्य भय को मिटाने के लिए नृसिंह-देव का अवतार ग्रहण किया। उन्होंने असुरों के उस राजा (हिरण्यकशिपु) को अपनी जाँघों में रखकर अपने नाखूनों से विदीर्ण कर डाला, जो हाथ में गदा लेकर भगवान् को ललकार रहा था। उस समय उनकी भौंहें क्रोध से फडक़ रही थीं और दाँतों के कारण उनका मुख भयावना लग रहा था।
श्लोक 15: अत्यन्त बलशाली मगर के द्वारा नदी के भीतर पाँव पकड़ लिये जाने से हाथियों का नायक अत्यन्त पीडि़त था, उसने अपनी सूँड़ में कमल का फूल लेकर भगवान् को इस प्रकार सम्बोधित किया, “हे आदि भोक्ता, ब्रह्माण्ड के स्वामी, हे उद्धारक, हे तीर्थ के समान विख्यात, आपके पवित्र नाम जो जपे जाने के योग्य है, उनके श्रवण मात्र से ही सभी लोग पवित्र हो जाते हैं।”
श्लोक 16: हाथी की पुकार सुनकर श्रीभगवान् को लगा कि उसे उनकी अविलम्ब सहायता की आवश्यकता है, क्योंकि वह घोर संकट में था। तब पक्षिराज गरुड़ के पंखों पर आसीन होकर भगवान् अपने आयुध चक्र से सज्जित होकर वहाँ पर तुरन्त प्रकट हुए। उन्होंने हाथी की रक्षा करने के लिए अपने चक्र से मगर के मुँह के खण्ड-खण्ड कर दिये और हाथी के सूँड़से पकड़ कर उसे बाहर निकाल दिया।
श्लोक 17: भगवान् समस्त भौतिक गुणों से परे होते हुए भी अदिति के पुत्रों (आदित्यों) के गुणों से कहीं बढ़ कर थे। वे अदिति के सबसे कनिष्ठ पुत्र के रूप में प्रकट हुए। और क्योंकि उन्होंने ब्रह्माण्ड के समस्त ग्रहों को पार किया, अत: वे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं। उन्होंने तीन पग भूमि माँगने के बहाने से बलि महाराज की सारी भूमि ले ली। उन्होंने याचना इसीलिए की क्योंकि बिना याचना के, सन्मार्ग पर चलने वाले से कोई उसकी अधिकृत सम्पत्ति नहीं ले सकता।
श्लोक 18: अपने सिर पर भगवान् के कमल-पाद प्रक्षालित जल को धारण करने वाले बलि महाराज ने अपने गुरु द्वारा मना किये जाने पर भी अपने वचन के अतिरिक्त मन में अन्य कुछ धारण नहीं किया। राजा ने भगवान् के तीसरे पग को पूरा करने के लिए अपना शरीर समर्पित कर दिया। ऐसे महापुरुष के लिए अपने बाहुबल से जीते गये स्वर्ग के साम्राज्य का भी कोई महत्व नहीं था।
श्लोक 19: हे नारद, तुम्हें श्रीभगवान् ने अपने हंसावतार में ईश्वर के विज्ञान तथा दिव्य प्रेमभाव के विषय में शिक्षा दी थी। वे तुम्हारी अगाध भक्ति से अत्यधिक प्रसन्न हुए थे। उन्होंने तुम्हें भक्ति का पूरा विज्ञान भी अत्यन्त सुबोध ढंग से समझाया था, जिसे केवल भगवान् वासुदेव के प्रति पूर्ण समर्पित व्यक्ति ही समझ सकते हैं।
श्लोक 20: भगवान् ने मनु-अवतार लिया और वे मनुवंश के वंशज बन गये। उन्होंने अपने शक्तिशाली सुदर्शन चक्र से दुष्ट राजाओं का दमन करके उन पर शासन किया। समस्त परिस्थितियों में अबाध रहते हुए, उनका शासन तीनों लोकों तथा ब्रह्माण्ड के सर्वोच्च सत्यलोक तक फैला था और उनकी महिमामयी कीर्ति से मंडित था।
श्लोक 21: अपने धन्वन्तरि अवतार में भगवान् अपने साक्षात् यश के द्वारा निरन्तर रुग्ण रहने वाली जीवात्माओं के रोगों का तुरन्त उपचार कर देते हैं और उनके कारण ही सभी देवता दीर्घायु प्राप्त करते हैं। इस प्रकार भगवान् सदा के लिए महिमामण्डित हो जाते हैं। उन्होंने यज्ञों में से भी एक अंश निकाल लिया और उन्होंने ही विश्व में ओषधि विज्ञान (आयुर्वेद) का प्रवर्तन किया।
श्लोक 22: जब शासक वर्ग जो क्षत्रिय नाम से जाने जाते थे, परम सत्य के पथ से भ्रष्ट हो गये और नरक भोगने के इच्छुक हो उठे, तो भगवान् ने परशुराम मुनि का अवतार लेकर उन अवांछित राजाओं का उच्छेद किया जो पृथ्वी के लिए कंटक बने हुए थे। इस तरह उन्होंने अपने तीक्ष्ण फरसे के द्वारा क्षत्रियों का इक्कीस बार उच्छेदन किया।
श्लोक 23: इस ब्रह्माण्ड के समस्त जीवों पर अहैतुकी कृपा के कारण पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् अपने अंशों सहित महाराज इक्ष्वाकु के कुल में अपनी अन्तरंगा शक्ति, सीताजी, के स्वामी के रूप में प्रकट हुए। वे अपने पिता महाराज दशरथ की आज्ञा से वन गये और अपनी पत्नी तथा छोटे भाई के साथ कई वर्षों तक वहाँ रहे। अत्यन्त शक्तिशाली दस सिरों वाले रावण ने उनके प्रति कई वर्षों तक अपराध किया और जिससे अन्तत: वह विनष्ट हो गया।
श्लोक 24: दूरस्थ अपनी घनिष्ठ संगिनी (सीता) के वियोग से दुखी श्रीरामचन्द्र ने अपने शत्रु रावण की नगरी पर हर (शिव जो स्वर्ग के राज्य को भस्म कर देना चाहते थे) के जैसे ज्वलित लाल-लाल नेत्रों से दृष्टि डाली। अपार समुद्र ने उन्हें भय से काँपते हुए मार्ग दे दिया, क्योंकि उसके परिवार के सभी जलचर सदस्य यथा मगरमच्छ, सर्प तथा घडिय़ाल भगवान् के रक्त नेत्रों की क्रोधाग्नि से जले जा रहे थे।
श्लोक 25: जब रावण युद्ध कर रहा था, तो उसकी छाती से टकराकर स्वर्ग के राजा इन्द्र के हाथी की सूँड़ खण्ड-खण्ड हो गई और ये खण्ड बिखरकर चारों दिशाओं को चकाचौंध करने लगे। अत: रावण को अपने शौर्य पर गर्व होने लगा और वह अपने को समस्त दिशाओं का विजेता समझ कर सैनिकों के बीच इतराने लगा। किन्तु भगवान् श्री रामचन्द्र द्वारा अपने धनुष पर टंकार करने पर उसकी वह प्रसन्नता की हँसी उसकी प्राणवायु के साथ ही सहसा बन्द हो गई।
श्लोक 26: जब पृथ्वी पर, ईश्वर में श्रद्धा न रखने वाले, परस्पर लडऩे वाले राजाओं का भार बढ़ जाता है, तो भगवान् संसार का कष्ट कम करने के लिए अपने अंश समेत अवतरित होते हैं। वे सुन्दर काले-काले केशों से युक्त अपने आदि रूप में आते हैं और अपनी दिव्य महिमा के विस्तार के लिए ही अलौकिक कार्य करते हैं। कोई उनकी महानता का अनुमान नहीं लगा सकता।
श्लोक 27: भगवान् श्रीकृष्ण के परमेश्वर होने में कोई सन्देह नहीं है, अन्यथा जब वे अभी अपनी माता की गोद में थे तो पूतना जैसी राक्षसी का वध किस तरह कर सकते थे; तीन मास की आयु में ही अपने पाँव से छकड़े को कैसे पलट सकते थे और जब घुटने के बल चल रहे थे तभी गगनचुम्बी अर्जुन वृक्षों के जोड़े को समूल कैसे उखाड़ सकते थे? ये सभी कार्य स्वयं भगवान् के अतिरिक्त अन्य किसी के लिए असम्भव हैं।
श्लोक 28: और जब ग्वालों तथा उनके पशुओं ने यमुना नदी का विषैला जल पी लिया और जब भगवान् ने (अपने बचपन में) अपनी कृपादृष्टि से ही उन्हें जीवित कर दिया। तब यमुना नदी के जल को शुद्ध करने के लिए ही वे उसमें मानो खेल-खेल में कूद पड़े। उन्होंने विषैले कालिय नाग को दण्ड दिया जो अपनी लपलपाती जीभ से विष की लहरें निकाल रहा था। भला परमेश्वर के अतिरिक्त ऐसा महान् कार्य करने में और कौन समर्थ है?
श्लोक 29: कालिय नाग को दण्डित करने के दिन ही रात्रि के समय, जब ब्रजभूमि के समस्त वासी निश्चिन्त होकर सो रहे थे तो सूखी पत्तियों के कारण जंगल में अग्नि धधक उठी और ऐसा लगा मानो उनकी मृत्यु अवश्यम्भावी है। किन्तु आँखें बन्द करके बलराम जी के साथ भगवान् ने उन सबको बचा लिया। ऐसे हैं भगवान् के अलौकिक कार्यकलाप!
श्लोक 30: जब गोपी (कृष्ण की धात्री माता यशोदा) अपने पुत्र के दोनों हाथों को रस्सियों से बाँधने का प्रयास कर रही थी तो उसने देखा कि रस्सी हमेशा छोटी पड़ जाती थी, अत: हार कर जब उसने प्रयास करना बन्द कर दिया, तब श्रीकृष्ण ने अपना मुँह खोल दिया तो माता यशोदा को मुख के भीतर सारे ब्रह्माण्ड स्थित दिखे। यह देख कर उसे सन्देह हुआ, किन्तु उसे अपने पुत्र की योग-शक्ति का पता भिन्न तरीके से लगा।
श्लोक 31: भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने पिता नन्द महाराज को वरुण के भय से बचाया और ग्वालबालों को पर्वत की कन्दरा में से, जहाँ मय के पुत्र ने उन्हें बन्दी कर रखा था, मुक्त किया। यही नहीं, भगवान् श्रीकृष्ण ने वृन्दावन के समस्त वासियों को, जो दिन भर काम में व्यस्त रहकर रात में थक कर निश्चिन्त सोते थे, परव्योम में सर्वोच्च लोक का भागी बना दिया। ये सारे कार्य दिव्य हैं और उनके ईश्वरत्व को सिद्ध करने वाले हैं।
श्लोक 32: जब वृन्दावन के ग्वालों ने श्रीकृष्ण के आदेश से स्वर्ग के राजा इन्द्र को आहुति देना बन्द कर दिया तो लगातार सात दिनों तक मूसलाधार वर्षा होती रही और ऐसा लग रहा था मानो सारी ब्रजभूमि बह जायेगी। तब केवल सात वर्ष की आयु के श्रीकृष्ण ने ब्रजवासियों पर अपनी अहैतुकी कृपावश अपने एक हाथ से गोवर्द्धन पर्वत को उठा लिया। ऐसा उन्होंने वर्षा से पशुओं की रक्षा करने के लिए ही किया।
श्लोक 33: जब भगवान् वृन्दावनवासियों की पत्नियों में अपने मधुर तथा सुरीले गीतों द्वारा कामोत्तेजना जागृत करते हुए वृन्दावन में रासलीला में मग्न थे तो कुबेर के एक धनी अनुचर शंखचूड़ नामक राक्षस द्वारा गोपियों का हरण किये जाने पर भगवान् ने उसका सिर धड़ से अलग कर दिया।
श्लोक 34-35: प्रलम्ब, धेनुक, बक, केशी, अरिष्ट, चाणूर, मुष्टिक, कुवलयापीड़ हाथी, कंस, यवन, नरकासुर तथा पौण्ड्रक जैसे असुर, शाल्व, द्विविद वानर तथा बल्वल, दन्तवक्र, सातों साँड़, शम्बर, विदूरथ तथा रुक्मी जैसे सिपहसालार तथा काम्बोज, मत्स्य, कुरु, सृञ्जय तथा केकय जैसे वीर योद्धा, साक्षात् हरि से अथवा बलदेव, अर्जुन, भीम आदि नामों की आड़ में स्वयं श्रीभगवान् से भीषण युद्ध करेंगे और इस प्रकार से मारे गये सभी असुर या तो निर्विशेष ब्रह्मज्योति को प्राप्त होंगे या वैकुण्ठ लोक में स्थित भगवान् के धाम को प्राप्त होंगे।
श्लोक 36: सत्यवती के पुत्र (व्यासदेव) रूप में अवतार ग्रहण करके स्वयं भगवान् वैदिक साहित्य के संग्रह को अल्पजीवी अल्पज्ञों के लिए कठिन समझकर वैदिक ज्ञानरूपी वृक्ष को युग विशेष की परिस्थितियों के अनुसार शाखाओं में विभाजित कर देंगे।
श्लोक 37: जब नास्तिक लोग वैदिक विज्ञान में अत्यन्त दक्ष बनकर परम विज्ञानी मय के द्वारा निर्मित श्रेष्ठ प्रक्षेपास्त्रों में चढक़र आकाश में अदृश्य उड़ते हुए विभिन्न लोकों के वासियों का संहार करेंगे, तो बुद्ध रूप में अत्यन्त आकर्षक वेष धारण करके भगवान् उनके मस्तिष्कों को मोह लेंगे और उन्हें उपधर्मों का उपदेश देंगे।
श्लोक 38: तत्पश्चात् कलियुग के अन्त में, जब तथाकथित सन्तों तथा द्विजों के घरों में भी ईश्वर की कथा नहीं होगी और जब सरकार की शक्ति निम्न कुल में उत्पन्न शूद्रों अथवा उनसे भी निम्न लोगों में से चुने गये मन्त्रियों के हाथों में चली जाएगी और जब यज्ञ विधि के विषय में कुछ भी, यहाँ तक कि उच्चारण भी, ज्ञात नहीं रहेंगे तो उस समय भगवान् परम दण्डदाता के रूप में प्रकट होंगे।
श्लोक 39: सृष्टि के प्रारम्भ में तपस्या, मैं (ब्रह्मा) तथा जन्म देने वाले ऋषि प्रजापति रहते हैं; फिर सृष्टि के पालन के अवसर पर भगवान् विष्णु, नियामक देवता तथा विभिन्न लोकों के राजा रहते हैं। किन्तु अन्त काल में अधर्म बचा रहता है और रहते हैं शिव तथा क्रोधी नास्तिक इत्यादि। ये सब के सब परम शक्ति रूप भगवान् की शक्ति के विभिन्न प्रतिनिधियों के रूप में रहते हैं।
श्लोक 40: भला ऐसा कौन है, जो विष्णु के पराक्रम का पूरी तरह से वर्णन कर सके? यहाँ तक कि वह विज्ञानी भी, जिसने ब्रह्माण्ड के समस्त कणों के परमाणुओं की गणना की होगी, वह भी ऐसा नहीं कर सकता। वे ही एकमात्र ऐसे हैं जिन्होंने त्रिविक्रम के रूप में जब अपने पाँव को बिना प्रयास के सर्वोच्च लोक, सत्यलोक, से भी आगे प्रकृति के तीनों गुणों की साम्यावस्था तक हिलाया था, तो सारा ब्रह्माण्ड हिलने लगा था।
श्लोक 41: न तो मैं और न तुमसे पहले उत्पन्न हुए मुनिगण ही सर्वशक्तिमान भगवान् को भलीभाँति जानते हैं। अत: जो हमारे बाद उत्पन्न हुए हैं, वे उनके विषय में क्या जानेंगे? यहाँ तक कि भगवान् के आदि-अवतार शेष भी, जो अपने एक सहस्र मुखों से भगवान् के गुणों का वर्णन करते रहते हैं, ऐसे ज्ञान का अन्त नहीं पा सके हैं।
श्लोक 42: किन्तु यदि भगवान् की सेवा में निश्छल भाव से आत्मसमर्पण करने से परमेश्वर की किसी पर विशेष कृपा होती है, तो वह माया के दुर्लंघ्य सागर को पार कर सकता है और भगवान् को जान पाता है। किन्तु जिसे अन्त में कुत्तों तथा सियारों का भोजन बनना है, ऐसे इस शरीर के प्रति जो आसक्त हैं, वे ऐसा नहीं कर सकते।
श्लोक 43-45: हे नारद, यद्यपि भगवान् की शक्तियाँ अज्ञेय तथा अपरिमेय हैं फिर भी शरणागत जीव होने के नाते, हम समझ सकते हैं कि वे योगमाया की शक्तियों के द्वारा किस प्रकार कार्य करते हैं। इसी प्रकार भगवान् की शक्तियाँ सर्वशक्तिमान शिव, नास्तिक कुल के महान् राजा प्रह्लाद महाराज, स्वायंभुव मनु, उनकी पत्नी शतरूपा, उनके पुत्र तथा पुत्रियाँ यथा प्रियव्रत, उत्तानपाद, आकूति, देवहूति तथा प्रसूति; प्राचीनबर्हि, ऋभु, वेन के पिता अंग, महाराज ध्रुव, इक्ष्वाकु, ऐल, मुचुकुन्द, महाराज जनक, गाधि, रघु, अम्बरीष, सगर, गय, नाहुष, मान्धाता, अलर्क, शतधनु, अनु, रन्तिदेव, भीष्म, बलि, अमूर्त्तरय, दिलीप, सौभरि, उतङ्क, शिबि, देवल, पिप्पलाद, सारस्वत, उद्धव, पराशर, भूरिषेण, विभीषण, हनुमान, शुकदेव गोस्वामी, अर्जुन, आर्ष्टिषेण, विदुर, श्रुतदेव इत्यादि को भी ज्ञात हैं।
श्लोक 46: पापी जीवन बिताने वाले समुदायों में से भी शरणागत लोग, जैसे स्त्री, शूद्र, हूण तथा शबर, यहाँ तक कि पशु-पक्षी भी, तत्त्व ज्ञान के विषय में जान सकते हैं। वे भगवान् के शुद्ध भक्तों की शरण में जाकर तथा भक्तिपथ पर उनके पदचिह्नों का अनुसरण कर माया के चंगुल से छूट जाते हैं।
श्लोक 47: परब्रह्म के रूप में जिसकी अनुभूति की जाती है, वह शोकरहित असीम आनन्द से युक्त है। यह निश्चय ही परमभोक्ता भगवान् की अनन्तिम अवस्था है। वह शाश्वत रूप में सारे विघ्नों से रहित तथा निर्भय है। वह पदार्थ नहीं, अपितु परिपूर्ण चेतना है। वह संदूषण मुक्त है, भेदरहित है और समस्त कारणों तथा कार्यों का आदि कारण है, जिसमें सकाम कर्मों के लिए न तो यज्ञ करना होता है और न जिसके सामने माया ठहरती है।
श्लोक 48: ऐसी दिव्य अवस्था में ज्ञानियों तथा योगियों द्वारा न तो कृत्रिम रीति से मन को वश में करने की, न ही कल्पना या चिन्तन की आवश्यकता रहती है। मनुष्य ऐसी विधियों को उसी प्रकार त्याग देता है, जिस प्रकार स्वर्ग का राजा इन्द्र कुँआ खोदने का कष्ट नहीं उठाता।
श्लोक 49: जो कुछ भी कल्याणकर है उसके परम स्वामी भगवान् हैं, क्योंकि जीवात्मा जो भी कर्म करता है, चाहे वे भौतिक अथवा आध्यात्मिक अवस्था में किये जाँय, सबका फल देनेवाले भगवान् हैं। इस प्रकार वह परम उपकारी है। प्रत्येक जीवात्मा अजन्मा है, अत: इस भौतिक तत्त्वमय शरीर के विनष्ट होने के बाद भी, यह शरीर उसी प्रकार बना रहता है, जिस प्रकार शरीर के भीतर वायु रह जाती है।
श्लोक 50: हे पुत्र, मैंने तुम्हें संक्षेप में प्रकट जगतों के स्रष्टा पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के विषय में बतलाया है। गोचर तथा तात्विक अस्तित्व का कारण हरि के अतिरिक्त और कोई नहीं है।
श्लोक 51: हे नारद, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् ने ही मुझे यह श्रीमद्भागवत नामक तत्त्व-ज्ञान संक्षिप्त रूप में बतलाया था और यह उनकी विभिन्न शक्तियों का संग्रह है। अब तुम स्वयं इस ज्ञान का विस्तार करो।
श्लोक 52: तुम इस भगवद्ज्ञान का संकल्पपूर्वक इस विधि से वर्णन करो जिससे कि सभी मनुष्य, प्रत्येक जीव के परमात्मा तथा समस्त शक्तियों के आधारस्वरूप भगवान् हरि के प्रति दिव्य भक्ति उत्पन्न कर सकें।
श्लोक 53: विभिन्न शक्तियों से सम्बंधित भगवान् के कार्यकलापों का वर्णन, उनकी प्रशंसा तथा उनका श्रवण परमेश्वर की शिक्षाओं के अनुसार होना चाहिए। यदि नियमित रूप से श्रद्धा तथा सम्मानपूर्वक ऐसा किया जाता है, तो मनुष्य निश्चित रूप से भगवान् की माया से उबर जाता है।