श्लोक 1: शुकदेव गोस्वामी ने कहा : महर्षि मैत्रेय से वराह रूप में भगवान् के अवतार के विषय में सुनकर दृढ़संकल्प विदुर ने हाथ जोडक़र उनसे भगवान् के अगले दिव्य कार्यों के विषय में सुनाने की प्रार्थना की, क्योंकि वे (विदुर) अब भी तुष्ट अनुभव नहीं कर रहे थे।
श्लोक 2: श्री विदुर ने कहा : हे मुनिश्रेष्ठ, मैंने शिष्य-परम्परा से यह सुना है कि आदि असुर हिरण्याक्ष उन्हीं यज्ञ रूप भगवान् (वराह) द्वारा मारा गया था।
श्लोक 3: हे ब्राह्मण, जब भगवान् अपनी लीला के रूप में पृथ्वी ऊपर उठा रहे थे, तब उस असुरराज तथा भगवान् वराह के बीच, युद्ध का क्या कारण था?
श्लोक 4: मेरा मन अत्यधिक जिज्ञासु बन चुका है, अतएव भगवान् के आविर्भाव की कथा सुन कर मुझे तुष्टि नहीं हो रही है। इसलिए आप इस श्रद्धावान् भक्त से और अधिक कहें।
श्लोक 5: महर्षि मैत्रेय ने कहा : हे योद्धा, तुम्हारे द्वारा की गई जिज्ञासा एक भक्त के अनुरूप है, क्योंकि इसका सम्बन्ध भगवान् के अवतार से है। वे मर्त्यों को जन्म-मृत्यु की शृंखला से मोक्ष दिलाने वाले हैं।
श्लोक 6: इन कथाओं को मुनि (नारद) से सुनकर राजा उत्तानपाद का पुत्र (ध्रुव) भगवान् के विषय में प्रबुद्ध हो सका और मृत्यु के सिर पर पाँव रखते हुए वह भगवान् के धाम पहुँच गया।
श्लोक 7: वराह रूप भगवान् तथा हिरण्याक्ष असुर के मध्य युद्ध का यह इतिहास मैंने बहुत वर्षों पूर्व तब सुना था जब यह देवताओं के अग्रणी ब्रह्मा द्वारा अन्य देवताओं के पूछे जाने पर वर्णन किया गया था।
श्लोक 8: दक्ष-कन्या दिति ने कामेच्छा से पीडि़त होकर संध्या के समय अपने पति मरीचि पुत्र कश्यप से सन्तान उत्पन्न करने के उद्देश्य से संभोग करने के लिए प्रार्थना की।
श्लोक 9: सूर्य अस्त हो रहा था और मुनि भगवान् विष्णु को, जिनकी जीभ यज्ञ की अग्नि है, आहुति देने के बाद समाधि में आसीन थे।
श्लोक 10: उस स्थान पर सुन्दरी दिति ने अपनी इच्छा व्यक्त की : हे विद्वान, कामदेव अपने तीर लेकर मुझे बलपूर्वक उसी तरह सता रहा है, जिस तरह उन्मत्त हाथी एक केले के वृक्ष को झकझोरता है।
श्लोक 11: अतएव आपको मुझ पर पूर्ण दया दिखाते हुए मेरे प्रति कृपालु होना चाहिए। मुझे पुत्र प्राप्त करने की चाह है और मैं अपनी सौतों का ऐश्वर्य देखकर अत्यधिक व्यथित हूँ। इस कृत्य को करने से आप सुखी हो सकेंगे।
श्लोक 12: एक स्त्री अपने पति के आशीर्वाद से संसार में आदर पाती है और सन्तानें होने से आप जैसा पति प्रसिद्धि पाएगा, क्योंकि आप जीवों के विस्तार के निमित्त ही हैं।
श्लोक 13: बहुत काल पूर्व अत्यन्त ऐश्वर्यवान हमारे पिता दक्ष ने, जो अपनी पुत्रियों के प्रति अत्यन्त वत्सल थे, हममें से हर एक को अलग अलग से पूछा कि तुम किसे अपने पति के रूप में चुनना चाहोगी।
श्लोक 14: हमारे शुभाकांक्षी पिता दक्ष ने हमारे मनोभावों को जानकर अपनी तेरहों कन्याएँ आपको समर्पित कर दीं और तबसे हम सभी आपकी आज्ञाकारिणी रही हैं।
श्लोक 15: हे कमललोचन, कृपया मेरी इच्छा पूरी करके मुझे आशीर्वाद दें। जब कोई त्रस्त होकर किसी महापुरुष के पास पहुँचता है, तो उसकी याचना कभी भी व्यर्थ नहीं होनी चाहिए।
श्लोक 16: हे वीर (विदुर), इस तरह कामवासना के कल्मष से ग्रस्त, और इसलिए असहाय एवं बड़बड़ाती हुई दिति को मरीचिपुत्र ने समुचित शब्दों से शान्त किया।
श्लोक 17: हे भीरु, तुम्हें जो भी इच्छा प्रिय हो उसे मैं तुरन्त तृप्त करूँगा, क्योंकि तुम्हारे अतिरिक्त मुक्ति की तीन सिद्धियों का स्रोत और कौन है?
श्लोक 18: जिस तरह जहाजों के द्वारा समुद्र को पार किया जा सकता है उसी तरह मनुष्य पत्नी के साथ रहते हुए भवसागर की भयावह स्थिति से पार हो सकता है।
श्लोक 19: हे आदरणीया, पत्नी इतनी सहायताप्रद होती है कि वह मनुष्य के शरीर की अर्धांगिनी कहलाती है, क्योंकि वह समस्त शुभ कार्यों में हाथ बँटाती है। पुरुष अपनी पत्नी पर जिम्मेदारियों का सारा भार डालकर निश्चिन्त होकर विचरण कर सकता है।
श्लोक 20: जिस तरह किले का सेनापति आक्रमणकारी लुटेरों को बहुत आसानी से जीत लेता है उसी तरह पत्नी का आश्रय लेकर मनुष्य उन इन्द्रियों को जीत सकता है, जो अन्य आश्रमों में अजेय होती हैं।
श्लोक 21: हे घर की रानी, हम न तो तुम्हारी तरह कार्य करने में सक्षम हैं, न ही तुमने जो कुछ किया है उससे उऋण हो सकते हैं, चाहे हम अपने जीवन भर या मृत्यु के बाद भी कार्य करते रहें। तुमसे उऋण हो पाना उन लोगों के लिए भी असम्भव है, जो निजी गुणों के प्रशंसक होते हैं।
श्लोक 22: यद्यपि मैं तुम्हारे ऋण से उऋण नहीं हो सकता, किन्तु मैं सन्तान उत्पन्न करने के लिए तुम्हारी कामेच्छा को तुरन्त तुष्ट करूँगा। किन्तु तुम केवल कुछ क्षणों तक प्रतीक्षा करो जिससे अन्य लोग मेरी भर्त्सना न कर सकें।
श्लोक 23: यह विशिष्ट वेला अतीव अशुभ है, क्योंकि इस वेला में भयावने दिखने वाले भूत तथा भूतों के स्वामी के नित्य संगी दृष्टिगोचर होते हैं।
श्लोक 24: इस वेला में भूतों के राजा शिवजी, अपने वाहन बैल की पीठ पर बैठकर उन भूतों के साथ विचरण करते हैं, जो अपने कल्याण के लिए उनका अनुगमन करते हैं।
श्लोक 25: शिवजी का शरीर लालाभ है और वह निष्कलुष है, किन्तु वे उस पर राख पोते रहते हैं। उनकी जटा श्मशान भूमि की बवंडर की धूल से धूसरित रहती है। वे तुम्हारे पति के छोटे भाई हैं—और वे अपने तीन नेत्रों से देखते हैं।
श्लोक 26: शिवजी किसी को भी अपना सम्बन्धी नहीं मानते फिर भी ऐसा कोई भी नहीं है, जो उनसे सम्बन्धित न हो। वे किसी को न तो अति अनुकूल, न ही निन्दनीय मानते हैं। हम उनके उच्छिष्ट भोजन की सादर पूजा करते हैं और वे जिसका तिरस्कार करते हैं उसको हम शीश झुका कर स्वीकार करते हैं।
श्लोक 27: यद्यपि भौतिक जगत में न तो कोई भगवान् शिव के बराबर है, न उनसे बढक़र है और अविद्या के समूह को छिन्न-भिन्न करने के लिए उनके अनिंद्य चरित्र का महात्माओं द्वारा अनुसरण किया जाता है फिर भी वे सारे भगवद्भक्तों को मोक्ष प्रदान करने के लिए ऐसे बने रहते हैं जैसे कोई पिशाच हो।
श्लोक 28: अभागे मूर्ख व्यक्ति यह न जानते हुए कि वे अपने में मस्त रहते हैं उन पर हँसते हैं। ऐसे मूर्ख व्यक्ति अपने उस शरीर को जो कुत्तों द्वारा खाये जाने योग्य है वस्त्र, आभूषण, माला तथा लेप से सजाने में लगे रहते हैं।
श्लोक 29: ब्रह्मा जैसे देवता भी उनके द्वारा अपनाये जाने वाले धार्मिक अनुष्ठानों का पालन करते हैं। वे उस भौतिक शक्ति के नियन्ता हैं, जो भौतिक जगत का सृजन करती है। वे महान् हैं, अतएव उनके पिशाचवत् गुण मात्र विडम्बना हैं।
श्लोक 30: मैत्रेय ने कहा : इस तरह दिति अपने पति द्वारा सूचित की गई, किन्तु वह संभोग-तुष्टि हेतु कामदेव द्वारा विवश कर दी गई। उसने उस महान् ब्राह्मण ऋषि का वस्त्र पकड़ लिया जिस तरह एक निर्लज्ज वेश्या करती है।
श्लोक 31: अपनी पत्नी के मन्तव्य को समझकर उन्हें वह निषिद्ध कार्य करना पड़ा और तब पूज्य प्रारब्ध को नमस्कार करके वे उसके साथ एकान्त स्थान में लेट गये।
श्लोक 32: तत्पश्चात् उस ब्राह्मण ने जल में स्नान किया और समाधि में नित्य तेज का ध्यान करते हुए तथा मुख के भीतर पवित्र गायत्री मंत्र का जप करते हुए अपनी वाणी को वश में किया।
श्लोक 33: हे भारत, इसके बाद दिति अपने पति के और निकट गई। उसका मुख दोषपूर्ण कृत्य के कारण झुका हुआ था। उसने इस प्रकार कहा।
श्लोक 34: सुन्दरी दिति ने कहा : हे ब्राह्मण, कृपया ध्यान रखें कि समस्त जीवों के स्वामी भगवान् शिव द्वारा मेरा यह गर्भ नष्ट न किया जाय, क्योंकि मैंने उनके प्रति महान् अपराध किया है।
श्लोक 35: मैं उन क्रुद्ध शिवजी को नमस्कार करती हूँ जो एक ही साथ अत्यन्त उग्र महादेव तथा समस्त इच्छाओं को पूरा करने वाले हैं। वे सर्वकल्याणप्रद तथा क्षमाशील हैं, किन्तु उनका क्रोध उन्हें तुरन्त ही दण्ड देने के लिए चलायमान कर सकता है।
श्लोक 36: वे हम पर प्रसन्न हों, क्योंकि वे मेरी बहिन सती के पति, मेरे बहनोई हैं। वे समस्त स्त्रियों के आराध्य देव भी हैं। वे समस्त ऐश्वर्यों के व्यक्ति हैं और उन स्त्रियों के प्रति कृपा प्रदर्शित कर सकते हैं, जिन्हें असभ्य शिकारी भी क्षमा कर देते हैं।
श्लोक 37: मैत्रेय ने कहा : तब महर्षि कश्यप ने अपनी पत्नी को सम्बोधित किया जो इस भय से काँप रही थी कि उसके पति का अपमान हुआ है। वह समझ गई कि उन्हें संध्याकालीन प्रार्थना करने के नैत्यिक कर्म से विरत होना पड़ा है, फिर भी वह संसार में अपनी सन्तानों का कल्याण चाहती थी।
श्लोक 38: विद्वान कश्यप ने कहा : तुम्हारा मन दूषित होने, मुहूर्त विशेष के अपवित्र होने, मेरे निर्देशों की तुम्हारे द्वारा उपेक्षा किये जाने तथा तुम्हारे द्वारा देवताओं की अवहेलना होने से सारी बातें अशुभ थीं।
श्लोक 39: हे अभिमानी स्त्री! तुम्हारे निंदित गर्भ से दो अभद्र पुत्र उत्पन्न होंगे। अरी अभागिन! वे तीनों लोकों के लिए निरन्तर शोक का कारण बनेंगे।
श्लोक 40: वे दीन, निर्दोष जीवों का वध करेंगे, स्त्रियों को सताएँगे तथा महात्माओं को क्रोधित करेंगे।
श्लोक 41: उस समय ब्रह्माण्ड के स्वामी पुरुषोत्तम भगवान् जो कि समस्त जीवों के हितैषी हैं अवतरित होंगे और उनका इस तरह वध करेंगे जिस तरह इन्द्र अपने वज्र से पर्वतों को ध्वस्त कर देता है।
श्लोक 42: दिति ने कहा : यह तो अति उत्तम है कि मेरे पुत्र भगवान् द्वारा उनके सुदर्शन चक्र से उदारतापूर्वक मारे जायेंगे। हे मेरे पति, वे ब्राह्मण-भक्तों के क्रोध से कभी न मारे जाँय।
श्लोक 43: जो व्यक्ति ब्राह्मण द्वारा तिरस्कृत किया जाता है या जो अन्य जीवों के लिए सदैव भयप्रद बना रहता है, उसका पक्ष न तो पहले से नरक में रहने वालों द्वारा, न ही उन योनियों में रहने वालों द्वारा लिया जाता है, जिसमें वह जन्म लेता है।
श्लोक 44-45: विद्वान कश्यप ने कहा : तुम्हारे शोक, पश्चात्ताप तथा समुचित वार्तालाप के कारण तथा पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् में तुम्हारी अविचल श्रद्धा एवं शिवजी तथा मेरे प्रति तुम्हारी प्रशंसा के कारण भी तुम्हारे पुत्र (हिरण्यकशिपु) का एक पुत्र (प्रह्लाद) भगवान् द्वारा अनुमोदित भक्त होगा और उसकी ख्याति भगवान् के ही समान प्रचारित होगी।
श्लोक 46: उसके पदचिन्हों का अनुसरण करने के लिए सन्त पुरुष शत्रुता से मुक्त होने का अभ्यास करके उसके चरित्र को आत्मसात् करना चाहेंगे जिस तरह शुद्धिकरण की विधियाँ निम्न गुण वाले सोने को शुद्ध कर देती हैं।
श्लोक 47: हर व्यक्ति उनसे प्रसन्न रहेगा, क्योंकि ब्रह्माण्ड के परम नियन्ता भगवान् सदैव ऐसे भक्त से तुष्ट रहते हैं, जो उनके अतिरिक्त और किसी वस्तु की इच्छा नहीं करता।
श्लोक 48: भगवान् का सर्वोच्च भक्त विशाल बुद्धि तथा विशाल प्रभाव वाला होगा और महात्माओं में सबसे महान् होगा। परिपक्व भक्तियोग के कारण वह निश्चय ही दिव्य भाव में स्थित होगा और इस संसार को छोडऩे पर वैकुण्ठ में प्रवेश करेगा।
श्लोक 49: वह समस्त सद्गुणों का अतीव सुयोग्य आगार होगा, वह प्रसन्न रहेगा और अन्यों के सुख में सुखी, अन्यों के दुख में दुखी होगा तथा उसका एक भी शत्रु नहीं होगा। वह सारे ब्रह्माण्डों के शोक का उसी तरह नाश करने वाला होगा जिस तरह ग्रीष्मकालीन सूर्य के बाद सुहावना चन्द्रमा।
श्लोक 50: तुम्हारा पौत्र भीतर तथा बाहर से उन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् का दर्शन कर सकेगा जिन की पत्नी सुन्दरी लक्ष्मीजी हैं। भगवान् भक्त द्वारा इच्छित रूप धारण कर सकते हैं और उनका मुखमण्डल सदैव कुण्डलों से सुन्दर ढंग से अलंकृत रहता है।
श्लोक 51: मैत्रेय मुनि ने कहा : यह सुनकर कि उसका पौत्र महान् भक्त होगा और उसके पुत्र भगवान् कृष्ण द्वारा मारे जायेंगे, दिति मन में अत्यधिक हर्षित हुई।