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श्रीमद् भागवत महापुराण (स्कन्ध 3) | Shrimad Bhagavatam Hindi

अध्याय 17: हिरण्याक्ष की दिग्विजय

श्लोक 1: श्रीमैत्रेय ने कहा—विष्णु से उत्पन्न ब्रह्मा ने जब अन्धकार का कारण कह सुनाया, तो स्वर्गलोक के निवासी देवता समस्त भय से मुक्त हो गये। इस प्रकार वे सभी अपने- अपने लोकों को वापस चले गये।

श्लोक 2: साध्वी दिति अपने गर्भ में स्थित सन्तानों से देवों के प्रति उपद्रव किये जाने के लिए अत्यधिक शंकालु थी और उसके पति ने भी यही भविष्यवाणी की थी। अत: उसने एक सौ वर्षों के गर्भकाल के पश्चात् जुड़वाँ पुत्रों को जन्म दिया।

श्लोक 3: दोनों असुरों के जन्म के समय स्वर्गलोक, पृथ्वीलोक तथा इन दोनों के मध्य के लोकों में अनेक प्राकृतिक उपद्रव हुए जो अत्यन्त भयावने एवं विस्मयपूर्ण थे।

श्लोक 4: पृथ्वी पर पर्वत काँपने लगे और ऐसा प्रतीत होने लगा मानो सर्वत्र अग्नि ही अग्नि हो। उल्काओं, पुच्छल तारों तथा वज्रों के साथ-साथ शनि जैसे अनेक अशुभ ग्रह दिखाई देने लगे।

श्लोक 5: बारम्बार साँय-साँय करती तथा विशाल वृक्षों को उखाड़ती हुई अत्यन्त दुस्सह स्पर्शी हवाएँ बहने लगीं। उस समय अंधड़ उनकी सेनाएँ और धूल के मेघ उनकी ध्वजाएँ लग रही थीं।

श्लोक 6: आकाश के नक्षत्रों को मेघों की घटाओं ने घेर लिया और उनमें कभी कभी बिजली चमक जाती तो लगता मानो जोर से हँस रही हो। चारों ओर अन्धकार का राज्य था और कुछ भी दिखाई नहीं पड़ रहा था।

श्लोक 7: उत्ताल तरंगों से युक्त सागर मानो शोक में जोर जोर से विलाप कर रहा था और उसमें रहने वाले प्राणियों में हलचल मची थी। नदियाँ तथा सरोवर भी विक्षुब्ध हो उठे और कमल मुरझा गये।

श्लोक 8: सूर्य तथा चन्द्रमा के चारों ओर ग्रहण लगने के समय अमंगल-सूचक मण्डल बार बार दिखाई पडऩे लगा। बिना बादलों के ही गरजने की ध्वनि और पर्वत की गुफाओं से रथों जैसी घरघराहट सुनाई पडऩे लगी।

श्लोक 9: गाँवों के भीतर सियारिनें अपने मुखों से दहकती आग उगलती हुई अमंगल सूचक शब्द करने लगीं। इस रोने में सियार तथा उल्लू भी साथ हो लिये।

श्लोक 10: जहाँ तहाँ कुत्ते अपनी गर्दन ऊपर उठा उठाकर शब्द करने लगे मानो कभी वे गा रहे हों और कभी विलाप कर रहे हों।

श्लोक 11: हे विदुर, झुंड के झुंड गधे अपने कठोर खुरों से पृथ्वी पर प्रहार करते हुए तथा जोर जोर से रेंकते हुए इधर उधर दौडऩे लगे।

श्लोक 12: गधों के रेंकने से भयभीत होकर पक्षी अपने घोसलों से निकलकर चीख चीख कर उडऩे लगे और गोशालाओं तथा जंगलों में पशु मल-मूत्र त्यागने लगे।

श्लोक 13: भयभीत होने के कारण गौवें दूध के स्थान पर रक्त देने लगीं, बादलों से पीब बरसने लगा, मन्दिरों में देवों के विग्रहों से आँसू निकलने लगे और वृक्ष बिना आँधी के ही गिरने लगे।

श्लोक 14: मंगल तथा शनि जैसे क्रूर ग्रह बृहस्पति, शुक्र तथा अनेक शुभ नक्षत्रों को लाँघकर तेजी से चमकने लगे। टेढ़े मेढ़े रास्तों में घूमने के कारण ग्रहों में परस्पर टक्कर होने लगी।

श्लोक 15: इस प्रकार के तथा अन्य अनेक अपशकुनों को देखकर ब्रह्मा के चारों ऋषि-पुत्र, जिन्हें जय तथा विजय के पतन एवं दिति के पुत्रों के रूप में जन्म लेने का ज्ञान था, उनके अतिरिक्त सभी लोग भयभीत हो उठे। उन्हें इन उत्पातों के मर्म का पता न था और वे सोच रहे थे कि ब्रह्माण्ड का प्रलय होने वाला है।

श्लोक 16: पुराकाल में प्रकट इन दोनों असुरों के शरीर में शीघ्र ही असामान्य लक्षण प्रकट होने लगे, उनके शारीरिक ढाँचे इस्पात के समान थे और वे दो विशाल पर्वतों के समान बढऩे लगे।

श्लोक 17: उनके शरीर इतने ऊँचे हो गये कि उनके स्वर्ण-मुकुटों के शिखर मानो आकाश को चूम रहे हों। उनके कारण सभी दिशाएँ अवरुद्ध हो जाती थीं और जब वे चलते तो उनके प्रत्येक पग पर पृथ्वी हिलती थी। उनके बाहुओं में चमकीले बाजूबन्द सुशोभित थे। उनकी कमर में परम सुन्दर करधनियाँ बँधी थीं और जब वे खड़े होते तो ऐसा लगता मानो उनकी कमर से सूर्य ढक गया हो।

श्लोक 18: जीवात्माओं के सृष्टा कश्यप ने अपने जुड़वां पुत्रों का नामकरण किया। जो पहले उत्पन्न हुआ उसका नाम उन्होंने हिरण्याक्ष रखा और जिसको दिति ने पहले गर्भ में धारण किया था उसका नाम हिरण्यकशिपु रखा।

श्लोक 19: ज्येष्ठ पुत्र हिरण्यकशिपु को तीनों लोकों में किसी से भी अपनी मृत्यु का भय न था, क्योंकि उसे ब्रह्मा से वरदान प्राप्त हुआ था। इस वरदान के कारण यह अत्यन्त दंभी तथा अभिमानी हो गया था और तीनों लोकों को अपने वश में करने में समर्थ था।

श्लोक 20: छोटा भाई हिरण्याक्ष अपने कार्यों से अपने अग्रज भ्राता को प्रसन्न रखने के लिए उद्यत रहता था। हिरण्यकशिपु को प्रसन्न रखने के उद्देश्य से ही उसने अपने कंधे पर गदा रखी और लडऩे की इच्छा से पूरे ब्रह्माण्ड में घूम आया।

श्लोक 21: हिरण्याक्ष के आवेग को नियंत्रण कर पाना कठिन था। उसके पैरों में सोने के नूपुरों की झनकार हो रही थी, उसके गले में विशाल माला सुशोभित थी और वह अपनी विशाल गदा को अपने एक कंधे पर धारण किये था।

श्लोक 22: उसके मनोबल, शारीरिक बल तथा ब्रह्मा द्वारा प्राप्त वरदान ने उसे दंभी बना दिया था। उसे न तो किसी से अपनी मृत्यु का भय था और न उस पर किसी का अंकुश था। अत: देवता उसे देखकर ही भयभीत हो उठते थे और अपने को उसी प्रकार छिपा लेते जिस तरह गरुड़ के भय से सर्प छिप जाते हैं।

श्लोक 23: पहले अपनी शक्ति के मद से चूर रहने वाले इन्द्र तथा अन्य देवताओं को अपने समक्ष न पाकर तथा यह देखकर कि उसकी शक्ति के सम्मुख वे सभी छिप गये हैं, उस दैत्यराज ने गम्भीर गर्जना की।

श्लोक 24: स्वर्गलोक से लौटने के बाद मतवाले हाथी के समान उस महाबली असुर ने भयानक गर्जना करते हुए गहरे समुद्र में क्रीड़ावश डुबकी लगाई।

श्लोक 25: समुद्र में उसके प्रवेश करते ही वरुण के सैनिक समस्त जलचर प्राणी डर गये और बहुत दूर भाग गये। इस प्रकार बिना वार किये ही हिरण्याक्ष ने अपनी धाक जमा ली।

श्लोक 26: हे विदुर, वह महाबली हिरण्याक्ष अनेकानेक वर्षों तक समुद्र में घूमता हुआ वायु से दोलायमान उत्ताल तरंगों पर अपनी लोहे की गदा से बारम्बार प्रहार करता हुआ वरुण की राजधानी विभावरी में जा पहुँचा।

श्लोक 27: विभावरी वरुण की पुरी है और वरुण समस्त जलचरों का स्वामी तथा ब्रह्माण्ड के अध: क्षेत्रों का रक्षक है, जहाँ सामान्य रूप से असुर वास करते हैं। वहाँ पहुँचकर हिरण्याक्ष नीच पुरुष के समान वरुण के चरणों पर गिर पड़ा और उसकी हँसी उड़ाने के लिए उसने मुस्कुराते हुए कहा, “हे परमेश्वर, मुझे युद्ध की भिक्षा दीजिये।”

श्लोक 28: आप समस्त गोलक के रक्षक तथा अत्यन्त कीर्तिवान शासक हैं। आपने अहंकारी तथा मोहग्रस्त वीरों के दर्प को दल कर तथा इस संसार के सभी दैत्यों तथा दानवों को जीत कर भगवान् के हेतु एक बार राजसूय यज्ञ सम्पन्न किया था।

श्लोक 29: अत्यन्त दंभी शत्रु के द्वारा इस प्रकार उपहास किये जाने पर जल के पूज्य स्वामी को क्रोध तो आया, किन्तु तर्क के बल पर वे उस क्रोध को पी गये और उन्होंने इस प्रकार उत्तर दिया—हे प्रिय, युद्ध के लिए अत्यधिक बूढ़ा होने के कारण अब मैं युद्ध से दूर रहता हूँ।

श्लोक 30: तुम युद्ध में इतने कुशल हो कि मुझे परम पुरातन पुरुष भगवान् विष्णु के अतिरिक्त कोई ऐसा नहीं दिखता, जो तुम्हें युद्ध में तुष्टि प्रदान कर सके। अत: हे असुरश्रेष्ठ, तुम उन्हीं के पास जाओ, जिनकी तुम जैसे योद्धा भी बड़ाई करते हैं।

श्लोक 31: वरुण ने आगे कहा—उनके पास पहुँचते ही तुम्हारा सारा अभिमान दूर हो जाएगा और तुम युद्धभूमि में कुत्तों से घिरकर चिर निद्रा में सो जाओगे। तुम जैसे दुष्टों को मार भगाने तथा सत्पुरुषों पर अपनी कृपा प्रदर्शित करने के लिए ही वे वराह जैसे विविध रूपों में अवतरित होते रहते हैं।

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