श्लोक 1: श्री शौनक ने पूछा—हे सूत गोस्वामी, जब पृथ्वी अपनी कक्ष्या में पुन: स्थापित हो गई तो स्वायंभुव मनु ने बाद में जन्म ग्रहण करने वाले व्यक्तियों को मुक्ति-मार्ग प्रदर्शित करने के लिए क्या-क्या किया?
श्लोक 2: शौनक ऋषि ने विदुर के बारे में जानना चाहा, जो भगवान कृष्ण का महान भक्त एवं सखा था और जिसने भगवान के लिए ही अपने उस ज्येष्ट भाई का साथ छोड़ दिया था जिसने अपने पुत्रों के साथ मिलकर भगवान की इच्छा के विरुद्ध षड्यंत्र किया थो।
श्लोक 3: विदुर वेदव्यास के आत्मज थे और उनसे किसी प्रकार से कम न थे। इस तरह उन्होंने पूर्ण मनोभाव से श्रीकृष्ण के चरणकमलों को स्वीकार किया और वे उनके भक्तों के प्रति अनुरक्त थे।
श्लोक 4: तीर्थस्थलों की यात्रा करने से विदुर सारी विषय वासना से शुद्ध हो गये। अन्त में वे हरद्वार पहुँचे जहाँ आत्मज्ञान के ज्ञाता एक महर्षि से उनकी भेंट हुई जिससे उन्होंने कुछ प्रश्न किये। अत: शौनक ऋषि ने पूछा कि मैत्रेय से विदुर ने और क्या-क्या पूछा?
श्लोक 5: शौनक ने विदुर तथा मैत्रेय के बीच होने वाले वार्तालाप के सम्बन्ध में प्रश्न किया कि भगवान् की निर्मल लीलाओं के अनेक आख्यान रहे होंगे। ऐसे आख्यानों को सुनना गंगाजल में स्नान करने के सदृश है क्योंकि इससे सभी पाप-बन्धन छूट सकते हैं।
श्लोक 6: हे सूत गोस्वामी, आपका मंगल हो, कृपा करके भगवान् के कार्यों को कह सुनाइये क्योंकि वे उदार एवं स्तुति के योग्य हैं। ऐसा कौन भक्त है, जो भगवान् की अमृतमयी लीलाओं को सुनकर तृप्त हो जाये?
श्लोक 7: नैमिषारण्य के ऋषियों द्वारा इस प्रकार पूछे जाने पर रोमहर्षण के पुत्र सूत गोस्वामी ने, जिनका मन भगवान् की दिव्य लीलाओं में लीन था, कहा—अब जो मैं कहता हूँ, कृपया उसे सुनें।
श्लोक 8: सूत गोस्वामी ने आगे कहा—भरत के वंशज विदुर भगवान् की कथा सुन कर परम प्रफुल्लित हुए क्योंकि भगवान् ने अपनी दैवी शक्ति से शूकर का रूप धारण करके पृथ्वी को समुद्र के गर्भ से खेल-खेल में ऊपर लाने (लीला) तथा हिरण्याक्ष को उदासीन भाव से मारने का कार्य किया था। फिर विदुर मैत्रेय से इस प्रकार बोले।
श्लोक 9: विदुर ने कहा—हे पवित्र मुनि, आप हमारी समझ में न आने वाले विषयों को भी जानते हैं, अत: मुझे यह बताएँ कि जीवों के आदि जनक प्रजापतियों को उत्पन्न करने के बाद ब्रह्मा ने जीवों की सृष्टि के लिए क्या किया?
श्लोक 10: विदुर ने पूछा—प्रजापतियों (मरीचि तथा स्वायंभुव मनु जैसे जीवों के आदि जनक) ने ब्रह्मा के आदेश के अनुसार किस प्रकार सृष्टि की और इस दृश्य जगत का किस प्रकार विकास किया?
श्लोक 11: क्या उन्होंने इस जगत की सृष्टि अपनी-अपनी पत्नियों के सहयोग से की अथवा वे स्वतन्त्र रूप से अपना कार्य करते रहे? या कि उन्होंने संयुक्त रूप से इसकी रचना की?
श्लोक 12: मैत्रेय ने कहा—जब प्रकृति के तीन तत्त्वों के सहयोग का सन्तुलन जीवात्मा की अदृश्य क्रियाशीलता, महाविष्णु तथा कालशक्ति के द्वारा विक्षुब्ध हुआ तो समग्र भौतिक तत्त्व (महत्-तत्त्व) उत्पन्न हुए।
श्लोक 13: जीव के भाग्य (दैव) की प्रेरणा से रजोगुण प्रधान महत्-तत्त्व से तीन प्रकार का अहंकार उत्पन्न हुआ। फिर अंहकार से पाँच-पाँच तत्त्वों के अनेक समूह उत्पन्न हुए।
श्लोक 14: अलग-अलग रहकर ब्रह्माण्ड की रचना करने में असमर्थ होने के कारण वे परमेश्वर की शक्ति के सहयोग से संगठित हुए और फिर एक चमकीले अण्डे का सृजन करने में सक्षम छुए।
श्लोक 15: यह चमकीला अण्डा एक हजार वर्षों से भी अधिक काल तक अचेतन अवस्था में कारणार्णव के जल में पड़ा रहा। तब भगवान् ने इसके भीतर गर्भोदकशायी विष्णु के रूप में प्रवेश किया।
श्लोक 16: गर्भोदकशायी भगवान् विष्णु की नाभि से हजार सूर्यों की दीप्ति सदृश प्रकाशमान एक कमल पुष्प प्रकट हुआ। यह कमल पुष्प समस्त बद्धजीवों का आश्रय है और इस पुष्प से प्रकट होने वाले पहले जीवात्मा सर्वशक्तिमान ब्रह्मा थे।
श्लोक 17: जब गर्भोदकशायी भगवान् ब्रह्मा के हृदय में प्रवेश कर गये तो ब्रह्मा को बुद्धि आई और इस बुद्धि से उन्होंने ब्रह्माण्ड की पूर्ववत् सृष्टि प्रारम्भ कर दी।
श्लोक 18: ब्रह्मा ने सबसे पहले अपनी छाया से बद्धजीवों के अज्ञान के आवरण (कोश) उत्पन्न किये। इनकी संख्या पाँच है और ये तामिस्र, अन्ध-तामिस्र, तमस्, मोह तथा महामोह कहलाते हैं।
श्लोक 19: क्रोध के कारण ब्रह्मा ने उस अविद्यामय शरीर को त्याग दिया। इस अवसर का लाभ उठाकर यक्ष तथा राक्षसगण उस रात्रि रूप में स्थित शरीर पर अधिकार जमाने के लिए कूद-फाँद मचाने लगे। रात्रि भूख तथा प्यास की स्रोत है।
श्लोक 20: भूख तथा प्यास से अभिभूत होकर वे चारों ओर से ब्रह्मा को खा जाने के लिए दौड़े और चिल्लाए, “उसे मत छोड़ो, उसे खा जाओ।”
श्लोक 21: देवताओं के प्रधान ब्रह्माजी ने घबराकर उनसे कहा, “मुझे खाओ नहीं, मेरी रक्षा करो। तुम मुझसे उत्पन्न हो और मेरे पुत्र हो चुके हो। अत: तुम लोग यक्ष तथा राक्षस हो।”
श्लोक 22: तब उन्होंने प्रमुख देवताओं की सृष्टि की जो सात्त्विक प्रभा से चमचमा रहे थे। उन्होंने देवताओं के समक्ष दिन का तेज फैला दिया जिस पर देवताओं ने खेल-खेल में ही अधिकार जमा लिया।
श्लोक 23: ब्रह्माजी ने अपने नितंब प्रदेश से असुरों को उत्पन्न किया जो अत्यन्त कामी थे। अत्यन्त कामी होने के कारण वे संभोग के लिए उनके निकट आ गये।
श्लोक 24: पहले तो पूज्य ब्रह्माजी उनकी मूर्खता पर हँसे, किन्तु उन निर्लज्ज असुरों को अपना पीछा करते देखकर वे क्रुद्ध हुए और भयभीत होकर हड़बड़ी में भागने लगे।
श्लोक 25: वे भगवान् श्री हरि के पास पहुँचे जो समस्त वरों को देने वाले तथा अपने भक्तों एवं अपने चरणों की शरण ग्रहण करने वालों की पीड़ा को हरने वाले हैं। वे अपने भक्तों की तुष्टि के लिए असंख्य दिव्य रूपों में प्रकट होते हैं।
श्लोक 26: भगवान् के पास जाकर ब्रह्माजी ने उन्हें इस प्रकार सम्बोधित किया—हे भगवान्, इन पापी असुरों से मेरी रक्षा करें, जिन्हें आपकी आज्ञा से मैंने उत्पन्न किया था। ये विषय-वासना की भूख से क्रोधोन्माद में आकर मुझ पर आक्रमण करने आये हैं।
श्लोक 27: हे भगवान्, केवल आप ही दुखियों के कष्ट दूर करने और आपके चरणों की शरण में न आने वालों को यातना देने में समर्थ हैं।
श्लोक 28: सबों के मनों को स्पष्ट रूप से देख सकने वाले भगवान् ने ब्रह्मा की वेदना समझ ली और वे उनसे बोले, “तुम अपना यह अशुद्ध शरीर त्याग दो।” भगवान् से आदेश पाकर ब्रह्मा ने अपना शरीर त्याग दिया।
श्लोक 29: ब्रह्मा द्वारा परित्यक्त शरीर ने सन्ध्या का रूप धारण कर लिया जो काम को जगाने वाली दिन-रात की संधि वेला है। असुर जो स्वभाव से कामुक होते हैं और जिनमें रजोगुण का प्राधान्य होता है उसे सुन्दरी मान बैठे जिसके चरण-कमलों से नूपुरों की ध्वनि निकल रही थी, जिसके नेत्र मद से विस्तीर्ण थे और जिसका कटि भाग महीन वस्त्र से ढका था और जिस पर मेखला चमक रही थी।
श्लोक 30: एक दूसरे से सटे होने के कारण उसके स्तन ऊपर उठे हुए थे और उनके बीच में कोई रिक्त स्थान बचा न था। उसकी नाक तथा दाँतों की बनावट सुन्दर थी; उसके होठों पर आकर्षक हँसी नाच रही थी और वह असुरों को क्रीड़ापूर्ण चितवन से देख रही थी।
श्लोक 31: काले-काले बालसमूह से विभूषित वह मानो लज्जावश अपने को छिपा रही थी। उस बाला को देखकर सभी असुर विषय-वासना की भूख से मोहित हो गये।
श्लोक 32: असुरों ने उसकी प्रशंसा की—अहा! कैसा रूप, कैसा अप्रतिम धैर्य, कैसा उभरता यौवन, हम कामपीडि़तों के बीच वह इस प्रकार विचर रही है मानो काम-भाव से सर्वथा रहित हो।
श्लोक 33: तरुणी स्त्री के रूप में प्रतीत होने वाली संध्या के विषय में अनेक प्रकार के तर्क- वितर्क करते हुए दुष्ट-बुद्धि असुरों ने उसका अत्यन्त आदर किया और उससे प्रेमपूर्वक इस प्रकार बोले।
श्लोक 34: हे सुन्दरी बाला, तुम कौन हो? तुम किसकी पत्नी या पुत्री हो और तुम हम सबों के समक्ष किस प्रयोजन से प्रकट हुई हो? हम अभागों को तुम अपने सौन्दर्य रूपी अमूल्य सामग्री से क्यों तरसा रही हो?
श्लोक 35: हे सुन्दरी बाला, तुम चाहे जो भी हो, हम भाग्यशाली हैं कि तुम्हारा दर्शन कर रहे हैं। तुमने गेंद के अपने खेल से हम दर्शकों के मन को विचलित कर दिया है।
श्लोक 36: हे सुन्दरी, जब तुम धरती से उछलती गेंद को अपने हाथों से बार-बार मारती हो तो तुम्हारे चरण-कमल एक स्थान पर नहीं रुके रहते। तुम्हारे पूर्ण विकसित स्तनों के भार से पीडि़त तुम्हारी कमर थक जाती है और स्वच्छ दृष्टि मन्द पड़ जाती है। कृपया अपने सुन्दर बालों को ठीक से गूँथ तो लो।
श्लोक 37: जिनकी बुद्धि पर पर्दा पड़ चुका है, ऐसे असुरों ने सन्ध्या को हावभाव करने वाली आकर्षक सुन्दरी मानकर उसको पकड़ लिया।
श्लोक 38: तब गम्भीर भावपूर्ण हँसी हँसते हुए पूज्य ब्रह्मा ने अपनी कान्ति से, जो अपने सौन्दर्य का मानो आप ही आस्वादन करती थी, गन्धर्वों व अप्सराओं के समूह को उत्पन्न किया।
श्लोक 39: तत्पश्चात् ब्रह्मा ने वह चाँदनी सा दीप्तिमान तथा सुन्दर रूप त्याग दिया और विश्वावसु तथा अन्य गन्धर्वों ने प्रसन्नतापूर्वक उसे अपना लिया।
श्लोक 40: तब पूज्य ब्रह्मा ने अपनी तन्द्रा से भूतों तथा पिशाचों को उत्पन्न किया, किन्तु जब उन्हें नग्न एवं बिखरे बाल वाले देखा तो उन्होंने अपनी आँखें बन्द कर लीं।
श्लोक 41: जीवों के स्रष्टा ब्रह्मा द्वारा उस अँगड़ाई रूप में फेंके जाने वाले शरीर को भूत पिशाचों ने उस शरीर को अपना लिया। इसी को निद्रा भी कहते हैं जिसमें लार चू जाती है। जो लोग अशुद्ध रहते हैं उन पर ये भूत-प्रेत आक्रमण करते हैं और उनका यह आक्रमण उन्माद (पागलपन) कहलाता है।
श्लोक 42: जीवात्माओं के स्रष्टा, पूज्य ब्रह्मा ने अपने आपको इच्छा तथा शक्ति से पूर्ण मानकर अपने अदृश्य रूप, अपनी नाभि, से साध्यों तथा पितरों के समूह को उत्पन्न किया।
श्लोक 43: पितृगण ने अपने अस्तित्व के स्रोत उस अदृश्य शरीर को स्वयं धारण कर लिया। इस अदृश्य शरीर के माध्यम से ही श्राद्ध के अवसर पर कर्मकाण्ड में पटु लोग साध्यों तथा पितरों (दिवंगत पूर्वजों के रूप में) को पिण्डदान करते हैं।
श्लोक 44: तब दृष्टि से अदृश्य रहने की अपनी क्षमता के कारण ब्रह्माजी ने सिद्धों तथा विद्याधरों को उत्पन्न किया और उन्हें अपना अन्तर्धान नामक विचित्र रूप प्रदान किया।
श्लोक 45: एक दिन समस्त जीवात्माओं के सर्जक ब्रह्मा ने जल में अपनी परछाई देखी और आत्मप्रशंसा करते हुए उन्होंने उस प्रतिबिम्ब (परछाई) से किन्नरों तथा किम्पुरुषों की सृष्टि की।
श्लोक 46: किम्पुरुषों तथा किन्नरों ने ब्रह्मा द्वारा त्यक्त उस छाया-शरीर को ग्रहण कर लिया इसीलिए वे अपनी पत्नियों सहित प्रत्येक प्रात:काल उनके कर्म का स्मरण कर करके उनकी प्रशंसा का गान करते हैं।
श्लोक 47: एक बार ब्रह्माजी अपने शरीर को पूरी तरह फैलाकर लेटे थे। वे अत्यधिक चिन्तित थे कि उनकी सृष्टि का कार्य आगे नहीं बढ़ रहा है, अत: उन्होंने रोष में आकर उस शरीर को भी त्याग दिया।
श्लोक 48: हे विदुर, उस शरीर से जो बाल गिरे वे सर्पों में परिणत हो गये। उनके हाथ-पैर सिकोड़ कर चलने से उस शरीर से क्रूर सर्प तथा नाग उत्पन्न हुए जिनके फन फैले हुए होते हैं।
श्लोक 49: एक दिन स्वयंजन्मा प्रथम जीवात्मा ब्रह्मा ने अनुभव किया कि उन्होंने अपने जीवन का उद्देश्य प्राप्त कर लिया है। उस समय उन्होंने अपने मन से मनुओं को उत्पन्न किया, जो ब्रह्माण्ड के कल्याण-कार्यों की वृद्धि करने वाले हैं।
श्लोक 50: आत्मवान स्रष्टा ने उन्हें अपना मानवी रूप दे दिया। मनुओं को देखकर, उनसे पूर्व उत्पन्न देवता, गन्धर्व आदि ब्रह्माण्ड के स्वामी ब्रह्मा की स्तुति करने लगे।
श्लोक 51: उन्होंने स्तुति की—हे ब्रह्माण्ड के स्रष्टा, हम प्रसन्न हैं, आपने जो भी सृष्टि की है, वह सुन्दर है। चूँकि इस मानवी रूप में अनुष्ठान-कार्य पूर्णतया स्थापित हो चुके हैं, अत: हम हवि में साझा कर लेंगे।
श्लोक 52: फिर आत्म-भू जीवित प्राणी ब्रह्मा ने अपने आपको कठोर तप, पूजा, मानसिक एकाग्रता तथा भक्ति-तल्लीनता से सुसज्जित करके एवं निष्काम भाव से अपनी इन्द्रियों को वश में करते हुए महर्षियों को अपने पुत्रों (प्रजा) के रूप में उत्पन्न किया।
श्लोक 53: ब्रह्माण्ड के अजन्मा स्रष्टा (ब्रह्मा) ने इन पुत्रों में से प्रत्येक को अपने शरीर का एक-एक अंश प्रदान किया जो गहन चिन्तन, मानसिक एकाग्रता, नैसर्गिक शक्ति, तपस्या, पूजा तथा वैराग्य के लक्षणों से युक्त था।