श्लोक 1: विदुर ने कहा—स्वायम्भुव मनु की वंश परम्परा अत्यन्त आदरणीय थी। हे पूज्य ऋषि, मेरी आपसे प्रार्थना है कि आप इस वंश का वर्णन करें जिसकी सन्तति-वृद्धि संभोग के द्वारा हुई।
श्लोक 2: स्वायम्भुव मनु के दो पुत्रों—प्रियव्रत तथा उत्तानपाद—ने धार्मिक नियमानुसार सप्त द्वीपों वाले इस संसार पर राज्य किया।
श्लोक 3: हे पवित्र ब्राह्मण, हे पापविहीन पुरुष, आपने उनकी पुत्री के विषय में कहा है कि वे प्रजापति ऋषि कर्दम की पत्नी देवहूति थीं।
श्लोक 4: उस महायोगी ने, जिसे अष्टांग योग के सिद्धान्तों में सिद्धि प्राप्त थी, इस राजकुमारी से कितनी सन्तानें उत्पन्न कीं? कृपा करके आप मुझे यह बताएँ, क्योंकि मैं इसे सुनने का इच्छुक हूँ।
श्लोक 5: हे ऋषि, कृपा करके मुझे बताएँ कि ब्रह्मा के पुत्र दक्ष तथा रुचि ने स्वायंभुव मनु की अन्य दो कन्याओं को पत्नी रूप में प्राप्त करके किस प्रकार सन्तानें उत्पन्न कीं?
श्लोक 6: महान् ऋषि मैत्रेय ने उत्तर दिया—भगवान् ब्रह्मा से लोकों में सन्तान उत्पन्न करने का आदेश पाकर पूज्य कर्दम मुनि ने सरस्वती नदी के तट पर दस हजार वर्षों तक तपस्या की।
श्लोक 7: समाधिकाल में कर्दम मुनि ने समाधि में अपनी भक्ति द्वारा शरणागतों को तुरंत समस्त वर देने वाले श्रीभगवान् की आराधना की।
श्लोक 8: तब सत्ययुग में कमल-नयन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् ने प्रसन्न होकर कर्दम मुनि को अपने दिव्य रूप का दर्शन कराया, जिसे वेदों के माध्यम से ही जाना जा सकता है।
श्लोक 9: कर्दम मुनि ने भौतिक कल्मष से रहित, सूर्य के समान तेजमय, श्वेत कमलों तथा कुमुदिनियों की माला पहने श्रीभगवान् के नित्य रूप का दर्शन किया। भगवान् ने निर्मल पीला रेशमी वस्त्र धारण कर रखा था और उनका मुख-कमल घुँघराले नीले चिकने बालों के गुच्छों से सुशोभित था।
श्लोक 10: मुकुट तथा कुण्डलों से आभूषित श्रीभगवान् अपने तीन हाथों में अपने विशिष्ट शंख, चक्र तथा गदा और चौथे में श्वेत कुमुदिनी धारण किये हुए थे। उन्होंने प्रसन्न तथा हासयुक्त मुद्रा में समस्त भक्तों के चित्त को चुराने वाली चितवन से देखा।
श्लोक 11: अपने वक्षस्थल पर सुनहरी रेखा धारण किये तथा अपने गले में प्रसिद्ध कौस्तुभमणि लटकाये हुए वे गरुड़ के कन्धों पर अपने चरण-कमल रखे हुए आकाश (वायु) में खड़े थे।
श्लोक 12: जब कर्दम मुनि ने पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् का साक्षात् दर्शन किया, तो वे अत्यधिक तुष्ट हुए, क्योंकि उनकी दिव्य इच्छा पूर्ण हुई थी। वे भगवान् के चरण-कमलों को नमस्कार करने के लिए नतमस्तक होकर पृथ्वी पर लेट गये। उनका हृदय स्वभाविक रूप में भगवत्प्रेम से पूरित था। उन्होंने हाथ जोडक़र स्तुतियों द्वारा भगवान् को तुष्ट किया।
श्लोक 13: कर्दम मुनि ने कहा—हे परम पूज्य भगवान्, समस्त अस्तित्वों के आगार आपका दर्शन प्राप्त करके मेरी दर्शन की साध पूरी हो गई। महान् योगीजन बारम्बार जन्म लेकर गहन ध्यान में आपके दिव्य रूप का दर्शन करने की आकांक्षा करते रहते हैं।
श्लोक 14: आपके चरण-कमल सांसारिक अज्ञान के सागर को पार करने के लिए सच्चे पोत (नाव) के तुल्य हैं। माया के वशीभूत केवल अज्ञानी पुरुष ही इन चरणों की पूजा इन्द्रियों के क्षुद्र तथा क्षणिक सुख की प्राप्ति हेतु करते हैं जिनकी प्राप्ति नरक में सडऩे वाले व्यक्ति भी कर सकते हैं। तो भी, हे भगवान्, आप इतने दयालु हैं कि उन पर भी आप अनुग्रह करते हैं।
श्लोक 15: अत: मैं भी ऐसी समान स्वभाव वाली कन्या से विवाह करने की इच्छा लेकर आपके चरणकमलों की शरण में आया हूँ, जो मेरे विवाहित जीवन में मेरी कामेच्छाओं को पूरा करने में कामधेनु के समान सिद्ध हो सके। आपके चरण प्रत्येक वस्तु के देने वाले हैं, क्योंकि आप कल्पवृक्ष के समान हैं।
श्लोक 16: हे भगवान्, आप समस्त जीवात्माओं के स्वामी तथा नायक हैं। आपके आदेश से सभी बद्धजीव मानो डोरी से बँधकर अपनी-अपनी इच्छाओं की तुष्टि में निरन्तर लगे रहते हैं। उन्हीं का अनुसरण करते हुए, हे धर्ममूर्ते, शाश्वत काल रूप आपको मैं भी अपनी आहुति (बलि) अर्पण करता हूँ।
श्लोक 17: फिर भी जिन पुरुषों ने रूढ़ सांसारिकता तथा इनके पशुतुल्य अनुयायियों का परित्याग कर दिया है और जिन्होंने परस्पर विचार-विनिमय के द्वारा आपके गुणों तथा कार्यकलापों के मादक अमृत (सुधा) का पान करके आपके चरण-कमलों की छत्र छाया ग्रहण की है वे भौतिक देह की मूल आवश्यकताओं से मुक्त हो सकते हैं।
श्लोक 18: आपका तीन नाभिवाला (काल) चक्र अमर ब्रह्म की धुरी के चारों ओर घूम रहा है। इसमें तेरह तीलियाँ (अरे), ३६० जोड़, छह परिधियाँ तथा उस पर अनन्त पत्तियाँ (पत्तर) पिरोयी हुई हैं। यद्यपि इसके घूमने से सम्पूर्ण सृष्टि की जीवन-अवधि घट जाती है, किन्तु यह प्रचण्ड वेगवान् चक्र भगवान् के भक्तों की आयु का स्पर्श नहीं कर सकता।
श्लोक 19: हे भगवान्, आप अकेले ही ब्रह्माण्डों की सृष्टि करते हैं। हे श्रीभगवान्, इन ब्रह्माण्डों की सृष्टि करने की इच्छा से, आप उनकी सृष्टि करते, उन्हें पालते और फिर अपनी शक्तियों से उनका अन्त कर देते हैं। ये शक्तियाँ आपकी दूसरी शक्ति योगमाया के अधीन हैं, जिस प्रकार एक मकड़ी अपनी शक्ति से जाला बुनती है और पुन: उसे निगल जाती है।
श्लोक 20: हे भगवान्, इच्छा के न होते हुए भी आप स्थूल तथा सूक्ष्म तत्त्वों की इस सृष्टि को हमारी ऐन्द्रिय तुष्टि के लिए प्रकट करते हैं। आपकी अहैतुकी कृपा हमें प्राप्त हो, क्योंकि आप अपने नित्य रूप में तुलसीदल की माला से विभूषित होकर हमारे समक्ष प्रकट हुए हैं।
श्लोक 21: मैं आपके चरण-कमलों में निरन्तर सादर नमस्कार करता हूँ, जिनकी शरण ग्रहण करना श्रेयस्कर है, क्योंकि आप अकिंचनों पर समस्त आशीर्वादों की वृष्टि करने वाले हैं। आपने इन भौतिक लोकों को अपनी ही शक्ति से विस्तार दिया है, जिससे समस्त जीवात्माएँ आपकी अनुभूति के द्वारा सकाम कर्मों से विरक्ति प्राप्त कर सकें।
श्लोक 22: मैत्रेय ने कहा—इन शब्दों से प्रशंसित होने पर गरुड़ के कंधों पर अत्यन्त मनोहारी रूप से दैदीप्यमान भगवान् विष्णु ने अमृत के समान मधुर शब्दों में उत्तर दिया। उनकी भौंहें ऋषि की ओर स्नेहपूर्ण हँसी से देखने के कारण चञ्चल हो रही थीं।
श्लोक 23: भगवान् ने कहा—जिसके लिए तुमने आत्मा संयमादि के द्वारा मेरी आराधना की है, तुम्हारे मन के उस भाव को पहले ही जानकर मैंने उसकी व्यवस्था कर दी है।
श्लोक 24: भगवान् ने आगे कहा—हे ऋषि, हे जीवात्माओं के अध्यक्ष, जो लोग मेरी पूजा द्वारा भक्तिपूर्वक मेरी सेवा करते हैं, विशेष रूप से तुम जैसे पुरुष जिन्होंने अपना सर्वस्व मुझे अर्पित कर रखा है, उन्हें निराश होने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता।
श्लोक 25: भगवान् ब्रह्मा के पुत्र सम्राट स्वायंभुव मनु जो अपने सुकृत्यों के लिए विख्यात हैं, ब्रह्मावर्त में स्थित होकर सात समुद्रों वाली पृथ्वी पर शासन करते हैं।
श्लोक 26: हे ब्राह्मण, धार्मिक कृत्यों में दक्ष सुप्रसिद्ध सम्राट अपनी पत्नी शतरूपा सहित तुम्हें देखने के लिए परसों यहाँ आएँगे।
श्लोक 27: उनके एक श्याम नेत्रों वाली तरुणी कन्या है। वह विवाह के योग्य है, वह उत्तम आचरण वाली तथा सर्व गुणसम्पन्न है। वह भी अच्छे पति की तलाश में है। महाशय, उसके माता-पिता तुम्हें देखने आएँगे। तुम उसके सर्वथा अनुरूप हो जिससे वे अपनी कन्या को तुम्हारी पत्नी के रूप में अर्पित कर देंगे।
श्लोक 28: हे ऋषि, वह राजकुमारी उसी प्रकार की होगी जिस प्रकार की तुम इतने वर्षों से अपने मन में सोचते रहे हो। वह शीघ्र ही तुम्हारी हो जाएगी और वह जी भर तुम्हारी सेवा करेगी।
श्लोक 29: वह तुम्हारा वीर्य धारण करके नौ पुत्रियाँ उत्पन्न करेगी और यथासमय इन कन्याओं से ऋषि सन्तानें उत्पन्न करेंगे।
श्लोक 30: मेरी आज्ञा का अच्छी तरह से पालन करने के कारण स्वच्छ हृदय होकर तुम अपने सब कर्मों का फल मुझे अर्पित करके अन्त में मुझे ही प्राप्त करोगे।
श्लोक 31: समस्त जीवों पर दया करते हुए तुम आत्म-साक्षात्कार प्राप्त कर सकोगे; फिर सबको अभयदान देकर अपने सहित सम्पूर्ण जगत को मुझमें और मुझको अपने में स्थित देखोगे।
श्लोक 32: हे ऋषि, मैं तुम्हारी नवों कन्याओं सहित तुम्हारी पत्नी देवहूति के माध्यम से अपने स्वांश को प्रकट करूँगा और उसे उस दर्शनशास्त्र (सांख्य दर्शन) का उपदेश दूँगा जो परम तत्त्वों या श्रेणियों से सम्बद्ध है।
श्लोक 33: मैत्रेय ने आगे कहा इस प्रकार कर्दम मुनि से बातें करने के बाद, इन्द्रियों के कृष्ण भावनामृत में लीन रहने पर प्रकट होने वाले भगवान् उस बिन्दु नामक सरोवर से, जो सरस्वती नदी के द्वारा चारों ओर से घिरा हुआ था, अपने लोक को चले गये।
श्लोक 34: खड़े हुए कर्दम मुनि के देखते-देखते भगवान्, वैकुण्ठ जानेवाले मार्ग से प्रस्थान कर गये, जिस मार्ग की प्रशंसा सभी महान् मुक्त आत्माएँ करती हैं। मुनि खड़े-खड़े, भगवान् के वाहन गरुड़ के फडफ़ड़ाते पंखों से गुंजादित, सामवेद के मंगलाचरण जैसे लगने वाली ध्वनि को सुनते रह गये।
श्लोक 35: तब भगवान् के चले जाने पर पूज्य साधु कर्दम भगवान् द्वारा बताये उस समय की प्रतीक्षा करते हुए बिन्दु सरोवर के तट पर ही ठहरे रहे।
श्लोक 36: स्वायंभुव मनु अपनी पत्नी सहित स्वर्णाभूषणों से सुसज्जित अपने रथ पर आरूढ़ हुए। अपनी पुत्री को भी उस पर चढ़ाकर वे समस्त भूमण्डल का भ्रमण करने लगे।
श्लोक 37: हे विदुर, वे मुनि की कुटी में पहुँचे, जिसने अपनी तपस्या का व्रत भगवान् द्वारा पहले से बताये गये दिन ही समाप्त किया था।
श्लोक 38-39: सरस्वती नदी के बाढ़-जल से भरने वाले पवित्र बिन्दु सरोवर का सेवन ऋषियों का समूह करता था। इसका पवित्र जल न केवल कल्याणकारी था वरन् अमृत के समान मीठा भी था। यह बिन्दु सरोवर कहलाता था, क्योंकि यहीं पर, जब भगवान् शरणागत ऋषि पर दयार्द्र हो उठे थे, उनके नेत्रों से आँसुओं की बूँदें गिरी थीं।
श्लोक 40: सरोवर के तट पवित्र वृक्षों तथा लताओं के समूहों से घिरे थे, जो सभी ऋतुओं में फलों तथा फूलों से लदे रहते थे और जिनमें पवित्र पशु तथा पक्षी अपना-अपना बसेरा बनाते थे और विविध प्रकार से कूजन करते थे। यह स्थान वृक्षों के कुंजों की शोभा से विभूषित था।
श्लोक 41: यह प्रदेश मतवाले पक्षियों के स्वर से प्रतिध्वनित था। मतवाले भौंरे मँडरा रहे थे, प्रमत्त मोर गर्व से नाच रहे थे और प्रमुदित कोयलें एक दूसरे को पुकार रही थीं।
श्लोक 42-43: बिन्दु-सरोवर कदम्ब, चम्पक, अशोक, करंज, बकुल, आसन, कुन्द, मन्दार, कुटज तथा नव-आम्र के पुष्पित वृक्षों से सुशोभित था। वायु कारण्डव, प्लव, हंस, कुररी, जलपक्षी, सारस, चक्रवाक तथा चकोर के कलरव से गुँजायमान थे।
श्लोक 44: इसके तटों पर हिरन, सूकर, साही, नीलगाय, हाथी, लंगूर, शेर, बन्दर, नेवला तथा कस्तूरी मृगों की बहुलता थी।
श्लोक 45-47: उस पवित्र स्थान में आदि राजा स्वयांभुव मनु अपनी पुत्री सहित प्रविष्ट हुए और उन्होंने जाकर देखा कि अभी-अभी पवित्र अग्नि में आहुति देकर वे मुनि अपने आश्रम में आसन लगाए थे। उनका शरीर अत्यन्त आभावान था। यद्यपि वे दीर्घ काल तक कठोर तपस्या में लगे हुए थे, किन्तु वे तनिक भी क्षीण नहीं थे, क्योंकि भगवान् ने उन पर कृपा-कटाक्ष किया था और उन्होंने भगवान् के चन्द्रमा के समान स्निग्ध अमृतमय शब्दों का पान किया था। मुनि लम्बे थे, उनकी आँखें बड़ी-बड़ी थीं मानो कमल-दल हों और उनके सिर पर जटा-जूट था। वे चिथड़े पहने थे। स्वायंभुव मनु उनके पास गये और उन्होंने देखा कि वे धूलधूसरित हैं मानो बिना तराशा हुआ कोई मणि हो।
श्लोक 48: राजा को अपने आश्रम में आकर प्रणाम करते देखकर उस मुनि ने आशीर्वाद देकर सत्कार किया और यथोचित सम्मान सहित उसका स्वागत किया।
श्लोक 49: मुनि से सम्मान पाकर राजा स्वयांभुव मनु बैठ गये और शान्त बने रहे। तब भगवान् की आदेशों का स्मरण करते हुए कर्दम मुनि अपनी मधुर वाणी से राजा को प्रमुदित करते हुए इस प्रकार बोले।
श्लोक 50: हे भगवान्, आपका यह भ्रमण (यात्रा) निश्चित रूप से सज्जनों की रक्षा तथा असुरों के वध के उद्देश्य से सम्पन्न हुआ है, क्योंकि आप श्री हरि की रक्षक-शक्ति से समन्वित हैं।
श्लोक 51: जब भी आवश्यक होता है, आप सूर्य, चन्द्र, अग्नि, इन्द्र, वायु, यम, धर्म, वरुण का अंश धारण करते हैं। आप भगवान् विष्णु के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं हैं, अत: आपको सभी प्रकार से नमस्कार है।
श्लोक 52-54: यदि आप अपने विजयी रत्नजटित रथ पर जिसकी उपस्थिति मात्र से अपराधी भयभीत हो उठते हैं सवार न हों, यदि आप अपने धनुष की प्रचंड टंकार न करें और यदि आप तेजवान सूर्य की भाँति संसार भर में एक विशाल सेना लेकर विचरण न करें जिसके पदाघात से पृथ्वी मंडल हिलने लगती है, तो स्वंय भगवान् द्वारा बनाई गई समस्त वर्णों तथा आश्रमों की व्यवस्था चोरों तथा डाकुओं द्वारा छिन्न-भिन्न हो जाय।
श्लोक 55: यदि आप संसार की स्थिति के विषय में सोचना छोड़ दें (निश्चिन्त हो जायँ) तो अधर्म बढ़ेगा, क्योंकि धनलोलुप व्यक्ति निर्द्वन्द्व हो जाएँगे। ऐसे दुराचारियों के आक्रमणों से यह संसार विनष्ट हो जाएगा।
श्लोक 56: तो भी, हे पराक्रमी राजा, मैं आपसे यहाँ आने का कारण पूछ रहा हूँ। वह चाहे जो भी हो, हम बिना हिचक के उसको पूरा करेंगे।