श्लोक 1: महामुनि मैत्रेय ने कहा : जिस समय सारे नागरिक परम शक्तिमान महाराज पृथु की इस प्रकार स्तुति कर रहे थे उसी समय वहाँ पर सूर्य के समान तेजस्वी चारों कुमार आये।
श्लोक 2: समस्त योग शक्तियों के स्वामी चारों कुमारों के देदीप्यमान् तेज को देखकर राजा तथा उनके पार्षदों ने उन्हें आकाश से उतरते ही पहचान लिया।
श्लोक 3: चारों कुमारों को देखकर पृथु महाराज उनके स्वागत के लिए आतुर हो उठे। अत: अपने पार्षदों सहित वे तुरन्त इस तरह तेज़ी से उठ कर खड़े हो गये मानो कोई बद्धजीव प्रकृति के गुणों द्वारा तुरन्त आकृष्ट हो उठ़ा हो।
श्लोक 4: जब वे महान् ऋषिगण शास्त्रविहित ढंग से उनके द्वारा किये गये स्वागत को स्वीकार कर राजा द्वारा प्रदत्त आसनों पर बैठ गये तो राजा उनके गौरव के वशीभूत होकर तुरन्त नतमस्तक हुआ। इस प्रकार उसने चारों कुमारों की पूजा की।
श्लोक 5: तत्पश्चात् राजा ने कुमारों के चरणकमलों के धोये हुए जल को लेकर अपने बालों पर छिडक़ा। ऐसे शिष्ट आचरण से राजा ने आदर्श पुरुष की तरह यह प्रदर्शित किया कि आध्यात्मिक दृष्टि से उन्नत व्यक्ति का किस प्रकार सम्मान करना चाहिए।
श्लोक 6: चारों मुनि शिवजी से भी ज्येष्ठ थे और जब वे सोने के बने हुए सिंहासन पर बैठा दिये गये तो ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो वेदी पर अग्नि प्रज्ज्वलित हो रही हो। महाराज पृथु ने उनसे अत्यन्त शिष्टता तथा सम्मानपूर्वक बड़े ही संयमित स्वर में कहा।
श्लोक 7: राजा पृथु ने कहा : हे साक्षात् कल्याणमूर्ति महामुनियो, आपका दर्शन तो योगियों के लिए भी दुर्लभ है। निस्सन्देह आपका दर्शन दुर्लभ है। मैं नहीं जानता कि मुझसे ऐसा कौन-सा पुण्य बन पड़ा है, जिससे आप मेरे समक्ष इतनी सहजता से प्रकट हुए हैं।
श्लोक 8: जिस पर ब्राह्मण तथा वैष्णव प्रसन्न हो जाते हैं, वह व्यक्ति इस संसार में तथा साथ ही मृत्यु के बाद भी दुर्लभ से दुर्लभ वस्तु प्राप्त कर सकता है। यही नहीं, ब्राह्मणों तथा वैष्णवों के साथ साथ रहने वाले कल्याणकारी शिव तथा भगवान् विष्णु का भी उस व्यक्ति को अनुग्रह प्राप्त हो जाता है।
श्लोक 9: पृथु महाराज ने आगे कहा : यद्यपि आप समस्त लोकों में विचरण करते रहते हैं, किन्तु लोग आपको नहीं जान पाते, जिस प्रकार वे प्रत्येक हृदय में वास करने वाले और प्रत्येक वस्तु के साक्षी परमात्मा को नहीं जान पाते। यहाँ तक कि ब्रह्मा तथा शिव भी परमात्मा को नहीं जान पाते।
श्लोक 10: कोई भी व्यक्ति जो धनवान हो तथा गृहस्थ जीवन व्यतीत कर रहा हो, वह भी अतीव धन्य हो जाता है, जब उसके घर में साधु पुरुष उपस्थित होते हैं। गृह स्वामी तथा सेवक, जो सम्मान्य अतिथियों को जल, आसन तथा स्वागत सामग्री प्रदान करने में लगे रहते हैं, वे धन्य हो जाते हैं और वह घर भी धन्य हो जाता है।
श्लोक 11: इसके विपरीत जिस गृहस्थ के घर में भगवान् के भक्तों के चरण नहीं पड़ते और जहाँ उन चरणों के प्रक्षालन के लिए जल नहीं रहता, वह घर समस्त ऐश्वर्य तथा धन-सम्पन्न होते हुए भी ऐसे वृक्ष के तुल्य माना जाता है, जिसमें केवल विषैले सर्प रहते हैं।
श्लोक 12: महाराज पृथु ने चारों कुमारों को ब्राह्मणश्रेष्ठ सम्बोधित करके स्वागत किया और उन्हें कहा कि आपने जन्म से ही ब्रह्मचर्य व्रत का दृढ़ता से पालन किया है और यद्यपि आप मुक्ति के अनुभवी नहीं हैं, तो भी आप अपने को छोटे-छोटे बालकों के समान रखते हैं।
श्लोक 13: पृथु महाराज ने मुनियों से ऐसे व्यक्तियों के विषय में पूछा जो अपने पूर्व कर्मों के कारण इस विपत्तिमय संसार में फँसे हुए हैं। क्या ऐसे व्यक्तियों को, जिनका एकमात्र लक्ष्य इन्द्रियतृप्ति है, सौभाग्य प्राप्त हो सकता है?
श्लोक 14: पृथु महाराज ने आगे कहा : हे महाशयो, आपसे आपकी कुशल तथा अकुशल पूछने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि आप नित्य आध्यात्मिक आनन्द में लीन रहते हैं। आप में कुशल तथा अकुशल की मानसिक वृत्तियाँ पाई ही नहीं जाती हैं।
श्लोक 15: मैं पूर्ण रूप से आश्वस्त हूँ कि आप जैसे महापुरुष इस संसार की अग्नि में सन्तप्त होने वाले व्यक्तियों के एकमात्र मित्र हैं। अत: मैं आपसे पूछना चाहता हूँ कि इस संसार में हम किस प्रकार जल्दी से जल्दी जीवन का परम उद्देश्य प्राप्त कर सकते हैं।
श्लोक 16: भगवान् अपने अंश-रूप जीवों को ऊपर उठाने के लिए सतत इच्छुक रहते हैं और उन्हीं के विषेश लाभ हेतु सारे संसार में आप-जैसे स्वरूपसिद्ध पुरुषों के रूप में भ्रमण करते रहते हैं।
श्लोक 17: महर्षि मैत्रेय ने कहा : इस प्रकार ब्रह्मचारियों में श्रेष्ठ सनत्कुमार पृथु महाराज की अत्यन्त सारगर्भित, युक्तियुक्त तथा श्रुतिमधुर वाणी सुनकर अत्यन्त प्रसन्न होकर हँसे और कहने लगे।
श्लोक 18: सनत्कुमार ने कहा : हे राजा पृथु, आपने मुझसे बहुत ही अच्छा प्रश्न पूछा है। ऐसे प्रश्न, विशेष रूप से आप-जैसे पर-हितकारी द्वारा उठाये जाने के कारण समस्त जीवात्माओं के लिए अत्यन्त लाभप्रद हैं। यद्यपि आप सब कुछ जानते हैं, किन्तु आप ऐसे प्रश्नों को इसीलिए पूछ रहे हैं, क्योंकि यह साधु पुरुषों का आचरण है। ऐसी बुद्धि आपके सर्वथा अनुरूप है।
श्लोक 19: जब भक्तों का समागम होता है, तो उनकी विवेचनाएँ, प्रश्न तथा उत्तर वक्ता तथा श्रोता दोनों ही के लिए निर्णायक होते हैं। इस प्रकार ऐसा समागम प्रत्येक व्यक्ति के वास्तविक सुख के हेतु लाभप्रद है।
श्लोक 20: सनत्कुमार ने आगे कहा : हे राजन्, भगवान् के चरणकमलों के गुणानुवाद के प्रति आपका पहले से ही झुकाव है। ऐसी आसक्ति दुर्लभ होती है, किन्तु एक बार भगवान् में अविचल श्रद्धा हो जाने पर यह अन्तस्तल की समस्त कामवासनाओं को स्वत: ही धो डालती है।
श्लोक 21: भलीभाँति विचार करने के बाद शास्त्रों में यह निश्चित किया गया है कि मानव समाज के कल्याण का चरम लक्ष्य देहात्मबुद्धि से विरक्ति एवं प्रकृति के गुणों से परे दिव्य परमेश्वर के प्रति सुदृढ़ आसक्ति है।
श्लोक 22: भक्ति करने, भगवान् के प्रति जिज्ञासा करने, जीवन में भक्तियोग का व्यवहार करने, पूर्ण पुरुषोत्तम योगेश्वर भगवान् की पूजा करने तथा भगवान् की महिमा का श्रवण एवं कीर्तन करने से परमेश्वर के प्रति आसक्ति बढ़ाई जा सकती है। ये सारे कार्य अपने आप में परम पवित्र हैं।
श्लोक 23: ऐसे लोगों की संगति न करके, जो केवल इन्द्रियतृप्ति एवं धनोपार्जन के फेर में रहते हैं, मनुष्य को आध्यात्मिक जीवन में उन्नति करनी चाहिए। उसे न केवल ऐसे लोगों से दूर रहना चाहिए, वरन् जो उनका संग करते हैं उनसे भी बचना चाहिए। मनुष्य को अपना जीवन इस प्रकार ढालना चाहिए कि जिसमें उसे भगवान् हरि की महिमा का अमृत पान किये बिना चैन न मिले। इस प्रकार इन्द्रियभोग से विरक्ति उत्पन्न होने पर मनुष्य उन्नति कर सकता है।
श्लोक 24: आध्यात्मिक उन्नति के इच्छुक व्यक्ति को चाहिए कि वह अहिंसक हो, महान् आचार्यों के पदचिह्नों का अनुगमन करे, भगवान् की लीलाओं के अमृत का सदैव स्मरण करे, बिना किसी भौतिक कामना के यम-नियमों का पालन करे और ऐसा करते हुए दूसरों की निन्दा न करे। भक्त को अत्यन्त सादा जीवन बिताना चाहिए और विरोधी तत्त्वों की द्वैतता से विचलित नहीं होना चाहिए। उसे चाहिए कि वह उन्हें सहन करना सीखे।
श्लोक 25: भक्त को चाहिए कि भगवान् के दिव्य गुणों के निरन्तर श्रवण द्वारा भक्ति-अनुशीलन में उत्तरोत्तर वृद्धि करे। ये लीलाएँ भक्तों के कानों के आभूषण सदृश हैं। भक्ति करने तथा भौतिक गुणों को पार करने से मनुष्य सहज ही अध्यात्म में भगवान् में स्थिर हो सकता है।
श्लोक 26: गुरु की कृपा से तथा ज्ञान एवं विराग के जागरित होने से भगवान् के प्रति आसक्ति में स्थिर हो जाने पर जीवात्मा जो शरीर के अन्तस्तल में स्थित तथा पाँच तत्त्वों से आच्छादित है अपने भौतिक परिवेश को उसी प्रकार जला देता है, जिस प्रकार काष्ठ से उत्पन्न अग्नि काष्ठ को ही भस्मसात् कर देती है।
श्लोक 27: जब मनुष्य भौतिक समस्त इच्छाओं से रहित और भौतिक गुणों से मुक्त हो जाता है, तो वह अन्त: तथा बाह्य रूप से किये गये कार्यों में अन्तर नहीं देखता है। उस समय आत्म-साक्षात्कार के पूर्व विद्यमान आत्मा तथा परमात्मा का अन्तर विनष्ट हो जाता है। स्वप्न टूटने पर स्वप्न तथा स्वप्न देखने वाले के बीच कोई अन्तर नहीं रह जाता।
श्लोक 28: जब आत्मा इन्द्रियतृप्ति के हेतु रहता है, तो वह नाना प्रकार की इच्छाएँ उत्पन्न करता है, जिसके कारण उसको उपाधियाँ दी जाती हैं। किन्तु जब मनुष्य दिव्य स्थिति में रहता है, तो वह भगवान् की इच्छाओं को पूरा करने के अतिरिक्त और किसी कार्य में रुचि नहीं दिखाता।
श्लोक 29: विभिन्न निमित्तों (कारणों) के फलस्वरूप ही मनुष्य अपने तथा दूसरों में अन्तर देखता है, जिस प्रकार के जल, तेल या दर्पण में एक ही पदार्थ के प्रतिबिम्ब भिन्न-भिन्न प्रकार से दिखते हैं।
श्लोक 30: जब मनुष्य का मन तथा इन्द्रियाँ सुख-भोग के हेतु विषय-वस्तुओं के प्रति आकर्षित होते हैं, तो मन विचलित हो जाता है। परिणाम स्वरूप लगातार विषय-वस्तुओं का चिन्तन करने से मनुष्य की असली कृष्णचेतना वैसे ही खो जाती है, जैसे कि जलाशय के किनारे उगे हुए बड़ी बड़ी कुश जैसी घास के द्वारा चूसे जाने के कारण जलाशय का जल।
श्लोक 31: जब मनुष्य अपनी मूल चेतना से इधर-उधर हटता है, तो वह न तो अपनी पूर्वस्थिति को स्मरण रख पाता है और न वर्तमान स्थिति को पहचान पाता है। स्मरण-शक्ति के नष्ट हो जाने पर जितना भी ज्ञान अर्जित किया जाता है, वह एक झूठी आधार-शिला पर टिका रहता है। जब ऐसी घटना घटती है, तो पंडित जन कहते हैं कि आत्मा का विनाश हो गया।
श्लोक 32: आत्म-साक्षात्कार की अपेक्षा अन्य विषयों को अधिक रुचिकर सोचना—मनुष्य के अपने हित के लिए इससे बड़ी बाधा कोई नहीं होती है।
श्लोक 33: धन कमाने तथा इन्द्रितृप्ति के लिए उसके उपयोग के विषय में निरन्तर सोचते रहने से मानव-समाज के प्रत्येक व्यक्ति का पुरुषार्थ विनष्ट होता है। जब कोई ज्ञान तथा भक्ति से शून्य हो जाता है, वह वृक्षों तथा पत्थरों की सी जड़ योनियों में प्रवेश करता है।
श्लोक 34: जो अज्ञान के सागर को पार करने की प्रबल इच्छा रखते हैं, उन्हें कभी भी तमोगुण के साथ साथ नहीं जुडऩा चाहिए, क्योंकि सुखवादी कार्य धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष के मार्ग में अत्यन्त बाधक हैं।
श्लोक 35: चारों पुरुषार्थ अर्थात्—धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष—में से मोक्ष को अत्यन्त गम्भीरतापूर्वक ग्रहण करना चाहिए। अन्य तीन तो प्रकृति के कठोर नियम अर्थात् काल (मृत्यु) द्वारा नाशवान् हैं।
श्लोक 36: हम उच्चतर जीवन की विभिन्न अवस्थाओं को जीवन की निम्नतर अवस्थाओं से अलग करते हुए वरदानस्वरूप ग्रहण करते हैं, किन्तु हमें स्मरण रखना चाहिए कि इस प्रकार के भेदभाव भौतिक प्रकृति के गुणों की अन्योन्य क्रिया के प्रसंग में ही विद्यमान रहते हैं। वस्तुत: जीवन की इन अवस्थाओं का कोई स्थायी अस्तित्व नहीं होता, क्योंकि ये परम नियन्ता द्वारा विनष्ट कर दी जाएंगी।
श्लोक 37: सनत्कुमार ने राजा को उपदेश दिया—अत: हे राजा पृथु, उन भगवान् को समझने का प्रयास करो जो प्रत्येक हृदय में प्रत्येक जीव के साथ निवास कर रह रहे हैं, चाहे वह चर हो या अचर। प्रत्येक जीव स्थूल भौतिक शरीर से तथा प्राण एवं बुद्धि से निर्मित सूक्ष्म शरीर से पूर्णतया आवृत है।
श्लोक 38: भगवान् इस शरीर के भीतर कारण तथा कार्य के एकाकार रूप में अपने को प्रकट करते हैं, किन्तु जो विवेक रस्सी में सर्प के भ्रम को दूर करने वाला है, यदि उससे किसी ने माया को पार कर लिया है, तो वही यह समझ सकता है कि परमात्मा भौतिक सृष्टि से परे हैं और शुद्ध अन्तरंगा शक्ति में स्थित हैं। भगवान् समस्त भौतिक कल्मष से परे हैं और एकमात्र उन्हीं की शरण में जाना चाहिए।
श्लोक 39: जो भक्तजन नित्य ही भगवान् के चरणकमलों के अँगुष्ठों की सेवा में रत रहते हैं, वे सकाम कर्म की जोर से बँधी गाँठ जैसी इच्छाओं को सरलता से लाँघ जाते हैं। चूँकि ऐसा कर पाना दु:साध्य है, अत: अभक्तजन—ज्ञानी तथा योगी—इन्द्रियतृप्ति की तरंगों को रोकने का प्रयास करके भी ऐसा नहीं कर पाते। अत: तुम्हें आदेश है कि तुम वसुदेव के पुत्र श्रीकृष्ण की भक्ति में लग जाओ।
श्लोक 40: अज्ञान के सागर को पार करना अत्यन्त कठिन है, क्योंकि उसमें अनेक भयानक मगरमच्छ भरे पड़े हैं। जो भक्त नहीं हैं, वे इस समुद्र को पार करने के लिए कठिन तपस्या करते हैं, किन्तु हम तुम्हारे लिए बता रहे हैं कि तुम एकमात्र भगवान् के चरणकमलों का आश्रय लो, वे समुद्र को पार करने के लिए नाव के समान हैं। यद्यपि सागर को लाँघना कठिन है, किन्तु भगवान् के चरणकमलों की शरण ग्रहण करके तुम सभी संकटों को पार कर जाओगे।
श्लोक 41: मैत्रेय ऋषि ने आगे कहा : इस प्रकार ब्रह्मा के पुत्र कुमारों में से एक के द्वारा जो पूर्ण आत्मज्ञानी था, पूर्ण आत्मज्ञान प्राप्त करके राजा ने उनकी निम्नलिखित शब्दों से आराधना की।
श्लोक 42: राजा ने कहा : हे ब्राह्मण, हे शक्तिमान, पहले भगवान् विष्णु ने मुझ पर अहैतुकी कृपा प्रदर्शित की थी और यह संकेत किया था कि आप मेरे घर पधारेंगे। आप लोग उसी आशीर्वाद की पुष्टि करने के लिए यहाँ पर आये हैं।
श्लोक 43: हे ब्राह्मण, आपने तो भगवान् के आदेश का सम्यक् पालन किया है, क्योंकि आप उन्हीं के समान उदार भी हैं। अत: यह मेरा कर्तव्य है कि आपको कुछ अर्पित करूँ, किन्तु मेरे पास जो कुछ भी है, वह साधु पुरुषों के भोजन में से बचा-खुचा प्रसाद ही है। मैं आपको क्या दूँ?
श्लोक 44: राजा ने आगे कहा : अत: हे ब्राह्मणो, मेरा प्राण, पत्नी, बच्चे, घर, घर का साज-सामान, मेरा राज्य, सेना, पृथ्वी तथा विशेष रूप से मेरा राजकोष—ये सब आपको अर्पित हैं।
श्लोक 45: चूँकि केवल ऐसा व्यक्ति, जो वैदिक ज्ञान के अनुसार पूर्ण रूप से शिक्षित हो, सेनापति, राज्य का शासक, दण्डदाता तथा सारे लोक का स्वामी होने का पात्र होता है, अत: पृथु महाराज ने कुमारों को सर्वस्व अर्पित कर दिया।
श्लोक 46: क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र केवल ब्राह्मणों की कृपा से अपना भोजन प्राप्त करते हैं। केवल ब्राह्मण ही ऐसे हैं, जो अपनी ही सम्पत्ति का भोग करते हैं, अपने कपड़े पहनते हैं और अपना ही धन दान में देते हैं।
श्लोक 47: पृथु महाराज ने आगे कहा : जिन व्यक्तियों ने भगवान् के सम्बन्ध में आत्म-साक्षात्कार के पथ को बता कर अपार सेवा की हो और जिनकी व्याख्याएँ पूर्ण विश्वास एवं वैदिक साक्ष्य द्वारा हमारे उत्थान के लिए की जाती हों, भला उनसे उऋण होने के लिए अंजुली-भर जल के अतिरिक्त और क्या अर्पित किया जा सकता है? ऐसे महापुरुषों को उनके ही कार्यों के द्वारा सन्तुष्ट किया जा सकता है, जो उनकी अपार कृपावश मानव समाज के बीच में संवितरित हुए हैं।
श्लोक 48: महर्षि मैत्रेय ने आगे कहा : महाराज पृथु द्वारा इस प्रकार पूजित होकर भक्ति में प्रवीण ये चारों कुमार अत्यन्त गद्गद हुए। दरअसल वे आकाश में दिखाई पड़े और उन्होंने राजा के शील की प्रशंसा की और सभी लोगों ने उनके दर्शन किये।
श्लोक 49: महाराज पृथु अपने तत्त्वज्ञान में पूर्ण रूप से स्थित होने के कारण महापुरुषों में प्रमुख थे। वे आध्यात्मिक ज्ञान में सफलता प्राप्त व्यक्ति की भाँति परम संतुष्ट थे।
श्लोक 50: आत्मतुष्ट होने के कारण महाराज पृथु समय, स्थान, शक्ति तथा आर्थिक स्थिति के अनुसार जितनी पूर्णता से सम्भव हो सकता था अपने कर्तव्यों को पूरा करते थे। इन सारे कार्यों के द्वारा उनका एकमात्र उद्देश्य परम सत्य को प्रसन्न करना था। इस प्रकार उन्होंने अपने कर्मों का भली भाँति निर्वाह किया।
श्लोक 51: महाराज पृथु ने अपने आपको प्रकृति से परे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के शाश्वत दास के रूप में समर्पित कर दिया था। फलस्वरूप उनके कर्मों के सारे फल भगवान् को समर्पित थे। वे अपने आपको सदैव सर्वेश्वर भगवान् के दास के रूप में समझते रहे।
श्लोक 52: महाराज पृथु, जो अपने सारे साम्राज्य की सम्पत्ति के कारण अत्यन्त ऐश्वर्यवान् थे, घर में एक गृहस्थ की भाँति रहते थे। चूँकि वे अपने ऐश्वर्य का उपयोग अपनी इन्द्रियतृप्ति के हेतु कभी नहीं करना चाहते थे, अत: वे विरक्त बने रहे, जिस प्रकार कि सूर्य सभी परिस्थितियों में अप्रभावित रहता है।
श्लोक 53: भक्ति की मुक्त अवस्था में स्थित होकर पृथु महाराज ने न केवल समस्त सकाम कर्मों को सम्पन्न किया, अपितु अपनी पत्नी अर्चि से पाँच पुत्र भी उत्पन्न किये। निस्सन्देह, उनके सारे पुत्र उनकी निजी इच्छानुसार उत्पन्न हुए थे।
श्लोक 54: विजिताश्व, धूम्रकेश, हर्यक्ष, द्रविण तथा वृक नामक पाँच पुत्र उत्पन्न करने के बाद भी पृथु महाराज इस लोक पर राज्य करते रहे। उन्होंने अन्य समस्त लोकों पर शासन करने वाले देवों के समस्त गुणों को आत्मसात् किया।
श्लोक 55: चूँकि महाराज पृथु भगवान् के पूर्ण भक्त थे, अत: वे सारे नागरिकों को उनकी अपनी- अपनी इच्छा के अनुसार प्रसन्न रखते हुए भगवान् की सृष्टि की रक्षा करना चाहते थे। अत: पृथु महाराज उन्हें अपनी वाणी, मन, कर्म तथा सौम्य आचरण से सभी प्रकार प्रसन्न रखते थे।
श्लोक 56: महाराज पृथु चन्द्र के राजा सोमराज के समान विख्यात हो गये। वे सूर्यदेव के समान शक्तिशाली तथा कर-संग्रहणकर्ता भी थे। सूर्य ताप तथा प्रकाश बाँटता है, किन्तु साथ ही समस्त लोकों के जल को खींच लेता है।
श्लोक 57: महाराज पृथु इतने प्रबल तथा शक्तिमान थे कि उनके आदेशों का उल्लंघन करना मानो अग्नि को जीतना था। वे इतने बलशाली थे कि उनकी उपमा स्वर्ग के राजा इन्द्र से दी जाती थी जिसकी शक्ति अजेय है। दूसरी ओर महाराज पृथु पृथ्वी के समान सहिष्णु भी थे और मानव समाज की विभिन्न इच्छाएँ पूरी करने में वे स्वयं स्वर्ग के समान थे।
श्लोक 58: जिस प्रकार वर्षा से हर एक की इच्छाएँ पूरी होती हैं उसी तरह महाराज पृथु सबों को तुष्ट रखते थे। वे समुद्र के समान थे, क्योंकि कोई उनकी गहराई (गम्भीरता) को नहीं समझ सकता था और उद्देश्य की दृढ़ता में वे पर्वतराज मेरु के समान थे।
श्लोक 59: महाराज पृथु की बुद्धि तथा शिक्षा मृत्यु के अधीक्षक यमराज के बिलकुल समान थी। उनका ऐश्वर्य हिमालय पर्वत से तुलनीय था, जहाँ सभी बहुमूल्य हीरे, जवाहरात तथा धातुएँ संचित हैं। उनके पास स्वर्ग के कोषाध्यक्ष कुवेर के समान विपुल सम्पत्ति थी। वरुण देवता के ही समान उनके रहस्यों का किसी को पता न था।
श्लोक 60: महाराज पृथु अपनी शारीरिक बल तथा ऐन्द्रिय शक्ति में वायु के समान बलशाली थे, जो कहीं भी तथा सर्वत्र आ जा सकता है। अपनी असह्यता में वे शिवजी या सदाशिव के अंश सर्वशक्तिमान रुद्र के समान थे।
श्लोक 61: वे शारीरिक सुन्दरता में कामदेव के समान तथा विचारशीलता में सिंह के समान थे। वात्सल्य में वे स्वायंभुव मनु के समान थे और अपनी नियंत्रण-क्षमता में ब्रह्माजी के समान थे।
श्लोक 62: पृथु महाराज के निजी आचरण में समस्त उत्तम गुण प्रकट होते थे। अपने आत्म-ज्ञान में वे ठीक बृहस्पति के समान थे। आत्म-नियंत्रण (इन्द्रियजय) में वे साक्षात् भगवान् के समान थे। जहाँ तक भक्ति का प्रश्न था, वे भक्तों के परम अनुयायी थे। जो गो-रक्षा के प्रति आसक्त और गुरु तथा ब्राह्मणों की सारी सेवा करते थे। वे परम सलज्ज थे और उनका आचरण अत्यन्त भद्र था। जब वे किसी परोपकार में लग जाते तो इस प्रकार कार्य करते थे मानो अपने लिए ही कार्य कर रहे हों।
श्लोक 63: सारे ब्रह्माण्ड भर में—उच्चतर, निम्नतर तथा मध्य लोकों में—पृथु महाराज की कीर्ति उच्च स्वर से घोषित की जा रही थी। सभी महिलाओं तथा साधु पुरुषों ने उनकी महिमा को सुना जो भगवान् रामचन्द्र की महिमा के समान मधुर थी।