श्लोक 1-2: जब समस्त पुरोहित तथा यज्ञ-सभा के सभी सदस्य और देवतागण शिवजी के सैनिकों द्वारा पराजित कर दिये गये और त्रिशूल तथा तलवार जैसे हथियारों से घायल कर दिये गये, तब वे डरते हुए ब्रह्माजी के पास पहुँचे। उनको नमस्कार करने के पश्चात्,जो हुआ था, उन्होंने विस्तार से उसके विषय में बोलना प्रारम्भ किया।
श्लोक 3: ब्रह्मा तथा विष्णु दोनों ही पहले से जान गये थे कि दक्ष के यज्ञ-स्थल में ऐसी घटनाएँ होंगी, अत: पहले से पूर्वानुमान हो जाने से वे उस यज्ञ में नहीं गये।
श्लोक 4: जब ब्रह्मा ने देवताओं तथा यज्ञ में सम्मिलित होने वाले सदस्यों से सब कुछ सुन लिया तो उन्होंने उत्तर दिया; यदि तुम किसी महापुरुष की निन्दा करके उसके चरणकमलों की अवमानना करते हो तो यज्ञ करके तुम कभी सुखी नहीं रह सकते। तुम्हें इस तरह से सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती।
श्लोक 5: तुम लोगों ने शिव को प्राप्य यज्ञ-भाग ग्रहण करने से वंचित किया है, अत: तुम सभी उनके चरणकमलों के प्रति अपराधी हो। फिर भी, यदि तुम बिना किसी हिचक के उनके पास जाओ और उनको आत्मसमर्पण करके उनके चरणकमलों में गिरो तो वे अत्यन्त प्रसन्न होंगे।
श्लोक 6: ब्रह्मा ने उन्हें यह भी बतलाया कि शिवजी इतने शक्तिमान हैं कि उनके कोप से समस्त लोक तथा इनके प्रमुख लोकपाल तुरन्त ही विनष्ट हो सकते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि विशेषकर हाल ही में अपनी प्रियतमा के निधन के कारण वे बहुत ही दुखी हैं और दक्ष के कटुवचनों से अत्यन्त मर्माहत हैं। ऐसी स्थिति में ब्रह्मा ने उन्हें सुझाया कि उनके लिए कल्याणप्रद यह होगा कि वे तुरन्त उनके पास जाकर उनसे क्षमा माँगें।
श्लोक 7: ब्रह्मा ने कहा कि न तो वे स्वयं, न इन्द्र, न यज्ञस्थल में समवेत समस्त सदस्य ही अथवा सभी मुनिगण ही जान सकते हैं कि शिव कितने शक्तिमान हैं। ऐसी अवस्था में ऐसा कौन होगा जो उनके चरणकमलों पर पाप करने का दुस्साहस करेगा?
श्लोक 8: इस प्रकार समस्त देवताओं, पितरों तथा जीवात्माओं के अधिपतियों को उपदेश देकर ब्रह्मा ने उन सबों को अपने साथ ले लिया और शिव के धाम पर्वतों में श्रेष्ठ कैलास पर्वत के लिए प्रस्थान किया।
श्लोक 9: कैलास नामक धाम विभिन्न जड़ी-बूटियों तथा वनस्पतियों से भरा हुआ है और वैदिक मंत्रों तथा योग-अभ्यास द्वारा पवित्र हो गया है। इस प्रकार इस धाम के वासी जन्म से ही देवता हैं और समस्त योगशक्तियों से युक्त हैं। इनके अतिरिक्त यहाँ पर अन्य मनुष्य हैं, जो किन्नर तथा गन्धर्व कहलाते हैं और वे अपनी-अपनी सुन्दर स्त्रियों के संग रहते हैं, जो अप्सराएँ कहलाती हैं।
श्लोक 10: कैलास समस्त प्रकार की बहुमूल्य मणियों तथा खनिजों (धातुओं) से युक्त पर्वतों से भरा हुआ है और सभी प्रकार के मूल्यवान वृक्षों तथा पौधों द्वारा घिरा हुआ है। पर्वतों की चोटियाँ तरह-तरह के हिरनों से शोभायमान हैं।
श्लोक 11: वहाँ अनेक झरने हैं और पर्वतों में अनेक गुफाएँ हैं जिनमें योगियों की अत्यन्त सुन्दर पत्नियाँ रहती हैं।
श्लोक 12: कैलास पर्वत पर सदैव मोरों की मधुर ध्वनि तथा भौंरों के गुंजार की ध्वनि गूँजती रहती है। कोयलें सदैव कूजती रहती हैं और अन्य पक्षी परस्पर कलरव करते रहते हैं।
श्लोक 13: वहाँ पर सीधी शाखाओं वाले ऊँचे-ऊँचे वृक्ष हैं, जो मधुर पक्षियों को बुलाते प्रतीत होते हैं और जब हाथियों के झुंड पर्वतों के पास से गुजरते हैं, तो ऐसा प्रतीत होता है मानो कैलास पर्वत उनके साथ-साथ चल रहा है। जब झरनों की प्रतिध्वनि सुनाई पड़ती है, तो ऐसा प्रतीत होता है मानो कैलास पर्वत भी सुर में सुर मिला रहा हो।
श्लोक 14-15: पूरा कैलास पर्वत अनेक प्रकार के वृक्षों से सुशोभित है, जिनमें से उल्लेखनीय नाम हैं— मन्दार, पारिजात, सरल, तमाल, ताल, कोविदार, आसन, अर्जुन, आम्र-जाति, कदम्ब, धूलि- कदम्ब, नाग, पुन्नाग, चम्पक, पाटल, अशोक, बकुल, कुंद तथा कुरबक। सारा पर्वत ऐसे वृक्षों से सुसज्जित है जिनमें सुगन्धित पुष्प निकलते हैं।
श्लोक 16: वहाँ अन्य वृक्ष भी हैं, जो पर्वत की शोभा बढ़ाते हैं, यथा सुनहरा कमलपुष्प, दारचीनी, मालती, कुब्ज, मल्लिका तथा माधवी।
श्लोक 17: कैलास पर्वत जिन अन्य वृक्षों से सुशोभित है वे हैं कट अर्थात् कटहल, गूलर, बरगद, पाकड़, न्यग्रोध तथा हींग उत्पादक वृक्ष। इसके अतिरिक्त सुपारी, भोजपत्र, राजपूग, जामुन तथा इसी प्रकार के अन्य वृक्ष हैं।
श्लोक 18: वहाँ आम, प्रियाल, मधुक (महुआ) तथा इंगुद (च्यूर) के वृक्ष हैं। इनके अतिरिक्त पतले बाँस, कीचक तथा बाँसों की अन्य किस्में कैलास पर्वत को सुशोभित करने वाली हैं।
श्लोक 19-20: वहाँ कई प्रकार के कमल पुष्प हैं यथा कुमुद, उत्पल, शतपत्र। वहाँ का वन अलकृंत उद्यान सा प्रतीत होता है और छोटी-छोटी झीलें विभिन्न प्रकार के पक्षियों सें भरी पड़ी हैं, जो अत्यन्त मीठे स्वर से चहकती हैं। साथ ही कई प्रकार के अन्य पशु भी पाये जाते हैं, यथा मृग, बन्दर, सुअर, सिंह, रीछ, साही, नील गाय, जंगली गधे, लघुमृग, भैंसे इत्यादि जो अपने जीवन का पूरा आनन्द उठाते हैं।
श्लोक 21: वहाँ पर तरह तरह के मृग पाये जाते हैं, यथा कर्णांत्र, एकपद, अश्वास्य, वृक तथा कस्तूरी मृग। इन मृगों के अतिरिक्त विविध केले के वृक्ष हैं, जो छोटी-छोटी झीलों के तटों को सुशोभित करते हैं।
श्लोक 22: वहाँ पर अलकनन्दा नामक एक छोटी सी झील है, जिसमें सती स्नान किया करती थीं। यह झील विशेष रूप से शुभ है। कैलास पर्वत की विशेष शोभा देखकर सभी देवता वहाँ के ऐश्वर्य से अत्यधिक विस्त्रित थे।
श्लोक 23: इस प्रकार देवताओं ने सौगन्धिक नामक वन में अलका नामक विचित्र सुन्दर भाग को देखा। यह वन कमल पुष्पों की अधिकता के कारण सौगन्धिक कहलाता है। सौगन्धिक का अर्थ है “सुगन्धि से पूर्ण।”
श्लोक 24: उन्होंने नन्दा तथा अलकनन्दा नामक दो नदियाँ भी देखीं। ये दोनों नदियाँ भगवान् गोविन्द के चरणकमलों की रज से पवित्र हो चुकी हैं।
श्लोक 25: हे क्षत्त, है विदुर, स्वर्ग की सुन्दरियाँ अपने-अपने पतियों सहित विमानों से इन नदियों में उतरती हैं और काम-क्रीड़ा के पश्चात् जल में प्रवेश करती हैं तथा अपने पतियों के ऊपर पानी उलीच कर आनन्द उठाती हैं।
श्लोक 26: स्वर्गलोक की सुन्दरियों द्वारा जल में स्नान करने के पश्चात् उनके शरीर के कुंकुम के कारण वह जल पीला तथा सुगंधित हो जाता है। अत: वहाँ पर स्नान करने के लिए हाथी अपनी-अपनी पत्नी हथिनियों के साथ आते हैं और प्यासे न होने पर भी वे उस जल को पीते हैं।
श्लोक 27: स्वर्ग के निवासियों के विमानों में मोती, सोना तथा अनेक बहुमूल्य रत्न जड़े रहते हैं। स्वर्ग के निवासियों की तुलना उन बादलों से की गई है, जो आकाश में रहकर बिजली की चमक से सुशोभित रहते हैं।
श्लोक 28: यात्रा करते हुए देवता सौगन्धिक वन से होकर निकले जो अनेक प्रकार के पुष्पों, फलों तथा कल्पवृक्षों से पूर्ण था। इस वन से जाते हुए उन्होंने यक्षेश्वर के प्रदेशों को भी देखा।
श्लोक 29: उस नैसर्गिक वन में अनेक पक्षी थे जिनकी गर्दन लाल रंग की थीं और उनका कलरव भौंरों के गुंजार से मिल रहा था। वहाँ के सरोवर शब्द करते हंसों के समूहों तथा लम्बे नाल वाले कमल पुष्पों से सुशोभित थे।
श्लोक 30: ऐसा वातावरण जंगली हाथियों को विचलित कर रहा था, जो चन्दन वृक्ष के जंगल में झुंडों में एकत्र हुए थे। बहती हुई वायु अप्सराओं के मनों को अधिकाधिक इन्द्रियभोग के लिए विचलित किए जा रही थी।
श्लोक 31: उन्होंने यह भी देखा कि नहाने के घाट तथा उनकी सीढिय़ाँ वैदूर्यमणि की बनी थीं। जल कमलपुष्पों से भरा था। ऐसी झीलों के निकट से जाते हुए देवता उस स्थान पर पहुँचे जहाँ एक वट वृक्ष था।
श्लोक 32: वह वट वृक्ष आठ सौ मील ऊँचा था और उसकी शाखाएँ चारों ओर छह सौ मील तक फैली थीं। उसकी मनोहर छाया से सतत शीतलता छाई थी, तो भी पक्षियों की गूँज सुनाई नहीं पड़ रही थी।
श्लोक 33: देवताओं ने शिव को, जो योगियों को सिद्धि प्रदान करने एवं समस्त लोगों का उद्धार करने में सक्षम थे, उस वृक्ष के नीचे आसीन देखा। अनन्त काल के समान गम्भीर, शिवजी ऐसे प्रतीत हो रहे थे मानो समस्त क्रोध का परित्याग कर चुके हों।
श्लोक 34: वहाँपर शिवजी कुबेर, गुह्यकों के स्वामी तथा चारों कुमारों जैसी मुक्तात्माओं से घिरे हुए बैठे थे। शिवजी अत्यन्त गम्भीर एवं शान्त थे।
श्लोक 35: देवताओं ने शिवजी को इन्द्रिय, ज्ञान, सकाम कर्मों तथा सिद्धि मार्ग के स्वामी के रूप में स्थित देखा। वे समस्त जगत के भिन्न हैं और सबके लिए पूर्ण स्नेह रखने के कारण वे अत्यन्त कल्याणकारी हैं।
श्लोक 36: वे मृगचर्म पर आसीन थे और सभी प्रकार की तपस्या कर रहे थे। शरीर में राख लगाये रहने से वे संध्याकालीन बादल की भाँति दिखाई पड़ रहे थे। उनकी जटाओं में अर्द्धचन्द्र का चिह्न था, जो सांकेतिक प्रदर्शन है।
श्लोक 37: वे तृण (कुश) के आसन पर बैठे थे और वहाँ पर उपस्थित सबों को, विशेषरूप से नारद मुनि, को परम सत्य के विषय में उपदेश दे रहे थे।
श्लोक 38: उनका बायाँ पैर उनकी दाहिनी जाँघ पर रखा था और उनका बायाँ हाथ बायीं जाँघ पर था। दाहिने हाथ में उन्होंने रुद्राक्ष की माला पकड़ रखी थी। यह आसन वीरासन कहलाता है। इस प्रकार वे वीरासन में थे और उनकी अँगुली तर्क-मुद्रा में थी।
श्लोक 39: समस्त मुनियों तथा इन्द्र आदि देवताओं ने हाथ जोडक़र शिवजी को सादर प्रणाम किया। शिवजी ने केसरिया वस्त्र धारण कर रखा था और समाधि में लीन थे जिससे वे समस्त साधुओं में अग्रणी प्रतीत हो रहे थे।
श्लोक 40: शिवजी के चरणकमल देवताओं तथा असुरों द्वारा समान रूप से पूज्य थे, फिर भी अपने उच्च पद की परवाह न करके उन्होंने ज्योंही देखा कि अन्य देवताओं में ब्रह्मा भी हैं, तो वे तुरन्त खड़े हो गये और झुक कर उनके चरणकमलों का स्पर्श करके उनका सत्कार किया, जिस प्रकार वामनदेव ने कश्यप मुनि को सादर नमस्कार किया था।
श्लोक 41: शिवजी के साथ जितने भी ऋषि, यथा नारद आदि, बैठे हुए थे उन्होंने भी ब्रह्मा को सादर नमस्कार किया। इस प्रकार पूजित होकर शिव से ब्रह्मा हँसते हुए कहने लगे।
श्लोक 42: ब्रह्मा ने कहा : हे शिव, मैं जानता हूँ कि आप सारे भौतिक जगत के नियन्ता, दृश्य जगत के माता-पिता और दृश्य जगत से भी परे परब्रह्म हैं। मैं आपको इसी रूप में जानता हूँ।
श्लोक 43: हे भगवान्, आप अपने व्यक्तिगत विस्तार से इस दृश्य जगत की सृष्टि, पालन तथा संहार उसी प्रकार करते हैं जिस प्रकार मकड़ी अपना जाला बनाती है, बनाये रखती हैं और फिर अन्त कर देती है।
श्लोक 44: हे भगवान्, आपने दक्ष को माध्यम बनाकर यज्ञ-प्रथा चलाई है, जिससे मनुष्य धार्मिक कृत्य तथा आर्थिक विकास का लाभ उठा सकता है। आपके ही नियामक विधानों से चारों वर्णों तथा आश्रमों को सम्मानित किया जाता है। अत: ब्राह्मण इस प्रथा का दृढ़तापूर्वक पालन करने का व्रत लेते हैं।
श्लोक 45: हे परम मंगलमय भगवान्, आपने स्वर्गलोक, वैकुण्ठलोक तथा निर्गुण ब्रह्मलोक को शुभ कर्म करने वालों का गन्तव्य निर्दिष्ट किया है। इसी प्रकार जो दुराचारी हैं उनके लिए अत्यन्त घोर नरकों की सृष्टि की है। तो भी कभी-कभी ये गन्तव्य उलट जाते हैं। इसका कारण तय कर पाना अत्यन्त कठिन है।
श्लोक 46: हे भगवान्, जिन भक्तों ने अपना जीवन आपके चरण-कमलों पर अर्पित कर दिया है, वे प्रत्येक प्राणी में परमात्मा के रूप में आपकी उपस्थिति पाते हैं; फलत: वे प्राणी-प्राणी में भेद नहीं करते। ऐसे लोग सभी प्राणियों को समान रूप से देखते हैं। वे पशुओं की तरह क्रोध के वशीभूत नहीं होते, क्योंकि पशु बिना भेदबुद्धि के कोई वस्तु नहीं देख सकते।
श्लोक 47: जो लोग भेद-बुद्धि से प्रत्येक वस्तु को देखते हैं, जो केवल सकाम कर्मों में लिप्त रहते हैं, जो तुच्छबुद्धि हैं, जो अन्यों के उत्कर्ष को देखकर दुखी होते हैं और उन्हें कटु तथा मर्मभेदी वचनों से पीड़ा पहुँचाते रहते हैं, वे तो पहले से विधाता द्वारा मारे जा चुके हैं। अत: आप जैसे महान् पुरुष द्वारा उनको फिर से मारने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती।
श्लोक 48: हे भगवान्, यदि कहीं भगवान् की दुर्लंघ्य माया से पहले से मोहग्रस्त भौतिकतावादी (संसारी) कभी-कभी पाप करते हैं, तो साधु पुरुष दया करके इन पापों को गम्भीरता से नहीं लेता। यह जानते हुए कि वे माया के वशीभूत होकर पापकर्म करते हैं, वह उनका प्रतिघात करने में अपने शौर्य का प्रदर्शन नहीं करता।
श्लोक 49: हे भगवान्, आप परमात्मा की माया के मोहक प्रभाव से कभी मोहित नहीं होते। अत: आप सर्वज्ञ हैं, और जो उसी माया के द्वारा मोहित एवं सकाम कर्मों में अत्यधिक लिप्त हैं, उन पर कृपालु हों और अनुकम्पा करें।
श्लोक 50: हे शिव, आप यज्ञ का भाग पाने वाले हैं तथा फल प्रदान करने वाले हैं। दुष्ट पुरोहितों ने आपका भाग नहीं दिया, अत: आपने सर्वस्व ध्वंस कर दिया, जिससे यज्ञ अधूरा पड़ा है। अब आप जो आवश्यक हो, करें और अपना उचित भाग प्राप्त करें।
श्लोक 51: हे भगवान्, आपकी कृपा से यज्ञ के कर्त्ता (राजा दक्ष) को पुन: जीवन दान मिले, भग को उसके नेत्र मिल जायँ, भृगु को उसकी मूँछें तथा पूषा को उसके दाँत मिल जाएँ।
श्लोक 52: हे शिव, जिन देवताओं तथा पुरोहितों के अंग आपके सैनिकों द्वारा क्षत-विक्षत हो चुके हैं, वे आपकी कृपा से तुरन्त ठीक हो जाँय।
श्लोक 53: हे यज्ञविध्वंसक, आप अपना यज्ञ-भाग ग्रहण करें और कृपापूर्वक यज्ञ को पूरा होने दें।