संक्षेप विवरण: इस अध्याय में बताया गया है कि किस प्रकार सभी ग्रह ध्रुवतारा अथवा ध्रुवलोक का आश्रय ग्रहण करते हैं। इसमें इसका भी वर्णन है कि ये सभी ग्रह मण्डल पूर्ण पुरुषोत्तम…
श्लोक 1: श्रीशुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा—हे राजन्, सप्तर्षि-मण्डल से १३,००,००० योजन (१०,०४,००,०००)ऊपर भगवान् विष्णु का धाम कहा जाता है। वहाँ पर अब भी महाराज उत्तानपाद के पुत्र, परम भक्त महाराज ध्रुव वास करते हैं, जो इस सृष्टि के अन्त तक रहने वाले समस्त जीवात्माओं के प्राणाधार हैं। वहाँ पर इन्द्र, अग्नि, प्रजापति, कश्यप तथा धर्म सभी समवेत होकर उनका आदर करते हैं और नमस्कार करते हैं। वे उनके दाईं ओर रह कर उनकी प्रदक्षिणा करते हैं। मैं पहले ही महाराज ध्रुव के यशस्वी कार्यों का वर्णन (श्रीमद्भागवत के चतुर्थ स्कन्ध में) कर चूका हूँ।
श्लोक 2: श्रीभगवान् की परम इच्छा से स्थापित धुव्र महाराज का लोक ध्रुवलोक समस्त नक्षत्रों तथा ग्रहों के मध्यवर्ती-स्तम्भ के रूप में निरन्तर प्रकाशमान रहता है। सदा जागते रहने वाला अदृश्य सर्वशक्तिमान काल इन ज्योतिर्गणों को अहर्निश ध्रुवतारे के चारों ओर घुमाता रहता है।
श्लोक 3: यदि बैलों को एकसाथ नाधकर उन्हें एक मध्यवर्ती आधार-स्तम्भ से बाँधकर भूसे पर घुमाया जाता है, तो वे अपनी स्थिति से हटे बिना चक्कर लगाते रहते हैं—पहला बैल स्तम्भ के निकट रहता है, दूसरा बीच में और तीसरा बाहर की ओर। इसी प्रकार सभी ग्रह तथा सैकड़ों हजारों नक्षत्र भी ध्रुवतारे के चारों ओर ऊपर तथा नीचे स्थित अपनी-अपनी कक्ष्याओं में घूमते रहते हैं। वे अपने पूर्वकर्मों के अनुसार श्रीभगवान् द्वारा प्रकृति-यंत्र में बाँधे जाकर वायु द्वारा ध्रुवलोक के चारों ओर घुमाये जाते हैं और इस प्रकार कल्पान्त तक घूमते रहेंगे। ये ग्रह विशाल आकाश के भीतर वायु में वैसे ही तैरते रहते हैं, जिस प्रकार हजारों टन जल से लदे बादल वायु में तैरते रहते हैं, अथवा अपने पूर्वकर्मों के कारण बड़े-बड़े बाज आकाश में ऊँचाई तक उड़ते रहते हैं और भूमि पर कभी नहीं गिरते।
श्लोक 4: नक्षत्रों तथा ग्रहों से युक्त यह विराट यंत्र जल में शिशुमार (सूँस मछली) के स्वरूप से समानता रखने वाला है। कभी-कभी इसे वासुदेव श्रीकृष्ण का अवतार माना जाता है। वास्तव में दृश्य होने के कारण बड़े-बड़े योगी वासुदेव के इस रूप का ध्यान करते हैं।
श्लोक 5: यह शिशुमार कुण्डली मारे हुए है और इसका सिर नीचे की ओर है। इसकी पूँछ के सिरे पर ध्रुव नामक लोक स्थित है। इसकी पूँछ के मध्य भाग में प्रजापति, अग्नि, इन्द्र तथा धर्म नामक देवताओं के लोक स्थित हैं और पूँछ के मूल भाग में धाता और विधाता नामक देवताओं के लोक हैं। उसके कटिप्रदेश में वसिष्ठ, अंगिरा इत्यादि सातों ऋषि हैं। कुण्डलीबद्ध शिशुमार का शरीर दाहिनी ओर मुड़ता है, जिसमें अभिजित् से लेकर पुनर्वसु पर्यन्त चौदह नक्षत्र स्थित हैं। इसकी बाईं ओर पुष्य से लेकर उत्तराषाढ़ा पर्यन्त चौदह नक्षत्र हैं। इस प्रकार दोनों ओर समान संख्या में नक्षत्र होने से इसका शरीर सन्तुलित है। शिशुमार के पृष्ठ भाग में अजवीथी नामक नक्षत्रों का समूह है और उदर में आकाश-गंगा है।
श्लोक 6: शिशुमार चक्र के दाहिने तथा बाएँ कटि तटों पर पुनर्वसु तथा पुष्य नक्षत्र हैं। इसके दाएँ तथा बाएँ पैरों पर आर्द्रा एवं अश्लेषा; इसके दाएँ तथा बाएँ नथुनों पर क्रमश: अभिजित् तथा उत्तराषाढ़ा; इसके दाएँ तथा बाएँ नेत्रों पर श्रवणा तथा पूर्वषाढ़ा और इसके दाएँ तथा बाएँ कानों पर धनिष्ठा तथा मूला स्थित हैं। मघा से अनुराधा तक दक्षिणायन् के आठ नक्षत्र बाईं पसलियों पर और उत्तरायण के मृगशीर्ष से पूर्वभाद्र पर्यन्त आठ नक्षत्र दाईं ओर की पसलियों पर स्थित हैं। शतभिषा तथा ज्येष्ठा ये दो नक्षत्र क्रमश: दाहिने और बाएँ कन्धों पर स्थित हैं।
श्लोक 7: शिशुमार की ऊपरी ठोड़ी पर अगस्ति, निचली ठोड़ी पर यमराज, मुँह में मंगल, उपस्थ में शनि, गर्दन (ककुद) पर बृहस्पति, छाती पर सूर्य, हृदय के छोर में नारायण, मन में चन्द्रमा, नाभि में शुक्र तथा स्तनों में अश्विनी कुमार स्थित हैं। प्राण और अपान नामक प्राण वायु में बुध, गले में राहु तथा समस्त शरीर पर केतु और रोमों में समस्त तारागण स्थित हैं।
श्लोक 8: हे राजन्, इस प्रकार से वर्णित शिशुमार के शरीर को भगवान् श्रीविष्णु का बाह्य रूप मानना चाहिए। प्रत्येक प्रात:, दोपहर तथा सायंकाल शिशुमार चक्र के रूप में भगवान् का दर्शन मौन होकर करना चाहिए और इस मंत्र से उपासना करनी चाहिए—“हे काल रूप धारण करने वाले भगवान्, हे विभिन्न कक्ष्याओं में घूमने वाले ग्रहों के आश्रय, हे समस्त देवों के स्वामी, हे परम पुरुष, मैं आपको नमस्कार करता हूँ और आपका ध्यान धरता हूँ।”
श्लोक 9: शिशुमार चक्र रूपी परमेश्वर विष्णु का शरीर समस्त देवताओं, नक्षत्रों तथा ग्रहों का आश्रय है। जो व्यक्ति परम पुरुष की आराधना करने हेतु नित्य तीन बार प्रात:, दोपहर तथा सायंकाल इस मन्त्र का जप करता है, वह समस्त पापों के फल से अवश्य ही मुक्त हो जाता है। यदि कोई इस रूप में उनको केवल नमस्कार करे या इसे दिन में तीन बार स्मरण करे तो उसके हाल में किए हुए समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं।