संक्षेप विवरण: इस अध्याय में आग्नीध्र के ज्येष्ठतम पुत्र राजा नाभि के निर्मल चरित्र का वर्णन किया गया है। पुत्रेच्छा से महाराज नाभि ने कठोर तपस्या की। उन्होंने अपनी पत्नी…
श्लोक 1: शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा—आग्नीध्र के पुत्र महाराज नाभि ने सन्तान की इच्छा की, इसलिए उन्होंने समस्त यज्ञों के भोक्ता एवं स्वामी भगवान् विष्णु की अत्यन्त मनोयोग से स्तुति एवं आराधना प्रारम्भ की। उस समय तक महाराज नाभि की पत्नी मेरुदेवी ने किसी सन्तान को जन्म नहीं दिया था, अत: वह भी अपने पति के साथ भगवान् विष्णु की आराधना करने लगी।
श्लोक 2: यज्ञ में भगवान् का अनुग्रह प्राप्त करने के सात दिव्य साधन हैं—(१) बहुमूल्य सामग्रियों या खाद्य पदार्थों का अर्पण (द्रव्य); (२) देश-अनुरूप कार्य करना, (३) काल-अनुरूप कार्य करना, (४) स्तुति अर्पण (मंत्र) (५) पुरोहित लगाना (ऋत्विक), (६) पुरोहितों को दान देना (दक्षिणा) तथा (७) विधि-नियमों का पालन करना। किन्तु सदैव ही इन सामग्रियों से भगवान् को प्राप्त नहीं किया जा सकता। तो भी ईश्वर अपने भक्त पर वत्सल रहते हैं। अत: जब भक्त महाराज नाभि ने शुद्ध मन से अत्यन्त श्रद्धा तथा भक्ति सहित प्रवर्ग्य यज्ञ करते हुए ईश्वर की आराधना और प्रार्थना की तो अपने भक्तों पर वत्सलता के कारण परम कृपालु भगवान् राजा नाभि के समक्ष अपने दुर्जेय तथा चतुर्भुजी आकर्षक रूप में प्रकट हुए। इस प्रकार से भगवान् ने अपने भक्त की मनोकामना पूर्ण करने के लिए अपने भक्त के समक्ष अपना मनोहर रूप प्रकट किया। यह रूप भक्तों के मन तथा नेत्रों को प्रमुदित करने वाला है।
श्लोक 3: भगवान् विष्णु राजा नाभि के समक्ष चतुर्भुज रूप में प्रकट हुए। वे अत्यन्त तेजोमय थे और समस्त महापुरुषों में सर्वोत्तम प्रतीत होते थे। वे अधोभाग में रेशमी पीताम्बर धारण किये हुए थे; उनके वक्षस्थल पर श्रीवत्स चिह्न था, जो सदैव शोभा देता है। उनके चारों हाथों में शंख, कमल, चक्र तथा गदा थे उनके गले में वनपुष्पों की माला तथा कौस्तुभमणि थी। वे मुकुट, कुण्डल, कंकण, करधनी, मुक्ताहार, बाजूबंद, नूपुर तथा अन्य रत्नजटित आभूषणों से शोभित थे। भगवान् को अपने समक्ष देखकर राजा नाभि, उनके पुरोहित तथा पार्षद वैसा ही अनुभव कर रहे थे जिस प्रकार किसी निर्धन को सहसा अथाह धनराशि प्राप्त हुई हो जाए। उन्होंने भगवान् का स्वागत किया, आदरपूर्वक प्रणाम किया तथा स्तुति करके वस्तुएँ भेंट कीं।
श्लोक 4-5: ऋत्विजगण इस प्रकार ईश्वर की स्तुति करने लगे—हे परम पूज्य, हम आपके दास मात्र हैं। यद्यपि आप पूर्ण हैं, किन्तु अहैतुकी कृपावश ही सही, हम दासों की यत्किंचित सेवा स्वीकार करें। हम आपके दिव्य रूप से परिचित नहीं हैं, किन्तु जैसा वेदों तथा प्रामाणिक आचार्यों ने हमें शिक्षा दी है, उसके अनुसार हम आपको बारम्बार नमस्कार करते हैं। जीवात्माएँ प्रकृति के गुणों के प्रति अत्यधिक आकर्षित होती हैं, अत: वे कभी भी पूर्ण नहीं हैं, किन्तु आप समस्त भौतिक अवधारणाओं से परे हैं। आपके नाम, रूप तथा गुण सभी दिव्य हैं और व्यावहारिक बुद्धि की कल्पना के परे हैं। भला आपकी कल्पना कौन कर सकता है? इस भौतिक जगत में हम केवल नाम तथा गुण देख पाते हैं। हम आपको अपना नमस्कार तथा स्तुति अर्पित करने के अतिरिक्त और कुछ भी करने में समर्थ नहीं हैं। आपके शुभ दिव्य गुणों के कीर्तन से समस्त मानव जाति के पाप धुल जाते हैं। यही हमारा परम कर्तव्य है और इस प्रकार हम आपकी अलौकिक स्थिति को अंशमात्र ही जान सकते हैं।
श्लोक 6: हे परमेश्वर, आप सभी प्रकार से पूर्ण हैं। जब आपके भक्त गद्गद् वाणी से आपकी स्तुति करते हैं तथा आह्लादवश तुलसीदल, जल, पल्लव तथा दूब के अंकुर चढ़ाते हैं, तो आप निश्चय ही परम सन्तुष्ट होते हैं।
श्लोक 7: हमने आपकी पूजा में आपको अनेक वस्तुएँ अर्पित की हैं और आपके लिए अनेक यज्ञ किये हैं, किन्तु हम सोचते हैं कि आपको प्रसन्न करने के लिए इतने सारे आयोजनों की कोई आवश्यकता नहीं है।
श्लोक 8: आप में प्रतिक्षण प्रत्यक्षतया, स्वयमेव, निरन्तर एवं असीमत: जीवन के समस्त लक्ष्यों एवं ऐश्वर्यों की वृद्धि हो रही है। दरअसल, आप स्वयं ही असीम सुख तथा आनन्द से युक्त हैं। हे ईश्वर, हम तो सदा ही भौतिक सुखों के फेर में रहते हैं। आपको इन समस्त याज्ञिक आयोजनों की आवश्यकता नहीं है। ये तो हमारे लिए हैं जिससे हम आपका आशीर्वाद पा सकें। ये सारे यज्ञ हमारे अपने कर्म-फल के लिए किये जाते हैं और वास्तव में आपको इनकी कोई अवश्यकता ही नहीं है।
श्लोक 9: हे ईशाधश, हम धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष से पूर्णतया अनजान हैं क्योंकि हमें जीवन लक्ष्य का ठीक से पता नहीं है। आप यहाँ हमारे समक्ष साक्षात् इस प्रकार प्रकट हुए हैं जिस प्रकार कोई व्यक्ति जानबूझ कर अपनी पूजा कराने के लिए आया हो। किन्तु ऐसा नहीं है, आप तो इसलिए प्रकट हुए हैं जिससे हम आपके दर्शन कर सकें। आप अपनी अगाध तथा अहैतुकी करुणावश हमारा उद्देश्य पूरा करने, हमारा हित करने तथा अपवर्ग का लाभ प्रदान करने हेतु प्रकट हुए हैं। हम अपनी अज्ञानता के कारण आपकी ठीक से उपासना भी नहीं कर पा रहे हैं, तो भी आप पधारे हैं।
श्लोक 10: हे पूज्यतम, आप समस्त वरदायकों में श्रेष्ठ हैं और राजर्षि नाभि की यज्ञशाला में आपका प्राकट्य हमें आशीर्वाद देने के लिए हुआ है। चूँकि हम आपको देख पाये हैं इसलिए आपने हमें सर्वाधिक मूल्यवान वर प्रदान किया है।
श्लोक 11: हे ईश्वर, समस्त विचारवान मुनि तथा साधु पुरुष निरन्तर आपके दिव्य गुणों का गान करते रहते हैं। इन मुनियों ने अपनी ज्ञान-अग्नि से अपार मलराशि को पहले ही दग्ध कर दिया है और इस संसार से अपने वैराग्य को सुदृढ़ किया है। इस प्रकार वे आपके गुणों को ग्रहण कर आत्म- तुष्ट हैं। तो भी जिन्हें आपके गुणों के गान में परम-आनन्द आता है उनके लिए भी आपका दर्शन दुर्लभ है।
श्लोक 12: हे ईश्वर, सम्भव है कि हम कँपकँपाने, भूखे रहने, गिरने, जम्हाई लेने या ज्वर के कारण मृत्यु के समय शोचनीय रुग्ण अवस्था में रहने के कारण आपके नाम का स्मरण न कर पाएँ। अत: हे ईश्वर, हम आपकी स्तुति करते हैं क्योंकि आप भक्तों पर वत्सल रहते हैं। आप हमें अपने पवित्र नाम, गुण तथा कर्म को स्मरण कराने में सहायक हों जिससे हमारे पापी जीवन के सभी पाप दूर हो जाँय।
श्लोक 13: हे ईश्वर, आपके समक्ष ये महाराज नाभि, हैं जिनके जीवन का परम लक्ष्य आपके ही समान पुत्र प्राप्त करना है। हे भगवन्, उसकी स्थिति उस व्यक्ति जैसी है, जो एक अत्यन्त धनवान पुरुष के पास थोड़ा सा अन्न माँगने के लिए जाता है। पुत्रेच्छा से ही वे आपकी उपासना कर रहे हैं यद्यपि आप उन्हें कोई भी उच्चस्थ पद प्रदान कर सकने में समर्थ हैं—चाहे वह स्वर्ग हो या भगवद्धाम का मुक्ति-लाभ।
श्लोक 14: हे ईश्वर, जब तक मनुष्य परम भक्तों के चरणकमलों की उपासना नहीं करता, तब तक उसे माया परास्त करती रहेगी और उसकी बुद्धि मोहग्रस्त बनी रहेगी। दरअसल, ऐसा कौन है जो विष तुल्य भौतिक सुख की तरंगों में न बहा हो! आपकी माया दुर्जेय है। न तो इस माया के पथ को कोई देख सकता है, न इसकी कार्य-प्रणाली को ही कोई बता सकता है।
श्लोक 15: हे ईश्वर, आप अनेक अद्भुत कार्य कर सकने में समर्थ हैं। इस यज्ञ के करने का हमारा एकमात्र लक्ष्य पुत्र प्राप्त करना था, अत: हमारी बुद्धि अधिक प्रखर नहीं है। हमें जीवन-लक्ष्य निर्धारित करने का कोई अनुभव नहीं है। निसन्देह भौतिक लक्ष्य की प्राप्ति हेतु किये गये इस तुच्छ यज्ञ में आपको आमंत्रित करके हमने आपके चरण कमलों में महान् पाप किया है। अत: हे सर्वेश, आप अपनी अहैतुकी कृपा तथा समदृष्टि के कारण हमें क्षमा करें।
श्लोक 16: श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा—भारतवर्ष के सम्राट, राजा नाभि द्वारा पूजित ऋत्विजों ने गद्य में (सामान्यत: पद्य में) ईश्वर की स्तुति की और वे सभी उनके चरणकमलों पर झुक गये। देवताओं के अधिपति, परमेश्वर उनसे अत्यन्त प्रसन्न हुए और वे इस प्रकार बोले।
श्लोक 17: भगवान् बोले—हे ऋषियो, मैं आपकी स्तुतियों से परम प्रसन्न हुआ हूँ। आप सभी सत्यवादी हैं। आप लोगों ने राजा नाभि के लिए मेरे समान पुत्र की प्राप्ति के लिए स्तुति की है, किन्तु ऐसा पाना अति दुर्लभ है। चूँकि मैं अद्वितीय परम पुरुष हूँ और मेरे समान अन्य कोई नहीं है, अत: मुझ जैसा पुरुष पाना सम्भव नहीं है। तो भी आप सभी सयोग्य ब्राह्मण हैं, आपका वचन मिथ्या सिद्ध नहीं होना चाहिए। मैं सुयोग्य ब्राह्मणों को अपने मुख के समान उत्तम मानता हूँ।
श्लोक 18: चूँकि मुझे अपने तुल्य और कोई नहीं मिल पा रहा, इसलिए मैं स्वयं ही अंश रूप में आग्नीध्र के पुत्र महाराज नाभि की पत्नी मेरुदेवी के गर्भ से अवतार लूँगा।
श्लोक 19: श्रीशुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा—ऐसा कहकर भगवान् अदृश्य हो गये। राजा नाभि की पत्नी मेरुदेवी अपने पति के पास में ही बैठी थीं, फलस्वरूप परमेश्वर ने जो कुछ कहा था उसे वे सुन रही थीं।
श्लोक 20: हे विष्णुदत्त परीक्षित महाराज, उस यज्ञ के ऋषियों से भगवान् अत्यन्त प्रसन्न हुए। फलस्वरूप उन्होंने स्वयं धर्माचरण करके दिखलाने (जैसा कि ब्रह्मचारी, संन्यासी, वानप्रस्थ तथा गृहस्थ करते हैं) और महाराज नाभि की मनोकामना को पूरा करने का निश्चय किया। अत: वे अपने गुणातीत आद्य सत्व रूप में मेरुदेवी के पुत्र के रूप में प्रकट हुए।