संक्षेप विवरण: इस अध्याय में भरत महाराज द्वारा ब्राह्मण शरीर धारण करने का वर्णन किया गया है। वे इस शरीर में जड़, मूक तथा बधिर की भाँति बने रहे, यहाँ तक कि जब उन्हें देवी काली के…
श्लोक 1-2: श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा, हे राजन्, मृग शरीर त्याग कर भरत महाराज ने एक विशुद्ध ब्राह्मण के कुल में जन्म लिया। वह ब्राह्मण अंगिरा गोत्र से सम्बन्धित था और ब्राह्मण के समस्त गुणों से सम्पन्न था। वह अपने मन तथा इन्द्रियों को वश में करने वाला तथा वैदिक एवं अन्य पूरक साहित्यों का ज्ञाता था। वह दानी, संतुष्ट, सहनशील, विनम्र, पंडित तथा किसी से न ईर्ष्या करने वाला था। वह स्वरूपसिद्ध एवं ईश्वर की सेवा में तत्पर रहने वाला था। वह सदैव समाधि में रहता था। उसकी पहली पत्नी से उसी के समान योग्य नौ पुत्र हुए और दूसरी पत्नी से जुड़वाँ भाई-बहन पैदा हुए जिनमें से लडक़ा सर्वोच्च भक्त तथा राजर्षियों में अग्रणी भरत महाराज के नाम से विख्यात हुआ। तो यह कथा है उसके मृग शरीर को त्याग कर पुन: जन्म लेने की।
श्लोक 3: भगवत्कृपा से भरत महाराज को अपने पूर्वजन्म की घटनाएँ स्मरण थीं। यद्यपि उन्हें ब्राह्मण का शरीर प्राप्त हुआ था, किन्तु वे अपने स्वजनों तथा मित्रों से, जो भक्त नहीं थे, अत्यन्त भयभीत थे। वे ऐसी संगति से सदैव सतर्क रहते, क्योंकि उन्हें भय था कि कहीं पुन: पथच्युत न हो जाँय। फलत: वे जनता के समक्ष उन्मत्त (पागल), जड़, अंधे तथा बहरे के रूप में प्रकट होते रहे जिससे दूसरे लोग उनसे बात करने की चेष्टा न करें। इस प्रकार उन्होंने कुसंगति से अपने को बचाए रखा। वे अपने अन्त:करण में सदा भगवान् के चरणकमल का ध्यान धरते और उनके गुणों का जप करते रहते जो मनुष्य को कर्म-बन्धन से बचाने वाला है। इस प्रकार उन्होंने अपने को अभक्त संगियों के आक्रमण से बचाए रखा।
श्लोक 4: ब्राह्मण पिता का मन अपने पुत्र जड़ भरत (भरत महाराज) के प्रति सदैव स्नेह से पूरित रहता था। उससे सदा अनुरक्त रहते थे। क्योंकि जड़ भरत गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने के लिए अयोग्य थे, अत: ब्रह्मचर्य आश्रम की समाप्ति तक ही उनके संस्कार पूरे हुए। यद्यपि जड़ भरत अपने पिता की शिक्षाओं को मानने में आनाकानी करते तो भी उस ब्राह्मण ने यह सोचकर कि पिता का कर्तव्य है कि अपने पुत्र को शिक्षा दे, जड़ भरत को स्वच्छ रहने तथा प्रक्षालन करने की शिक्षा दी।
श्लोक 5: अपने पिता द्वारा वैदिक ज्ञान की समुचित शिक्षा दिये जाने पर भी जड़ भरत उनके समक्ष मूर्ख (जड़) की भाँति आचरण करते। वे ऐसा आचरण इसलिए करते जिससे उनके पिता यह समझें कि वे शिक्षा के अयोग्य हैं और इस प्रकार उसे आगे शिक्षा देना बन्द कर दें। वे सर्वथा विपरीत आचरण करते। यद्यपि शौच के बाद हाथ धोने को कहा जाता, किन्तु वे उन्हें उसके पहले ही धो लेते। तो भी उनके पिता उन्हें बसन्त तथा ग्रीष्म काल में वैदिक शिक्षा देना चाहते थे। उन्होंने उसे ओंकार तथा व्याहृति के साथ-साथ गायत्री मंत्र सिखाने का यत्न किया, किन्तु चार मास बीत जाने पर भी वे उसे सिखाने में सफल न हो सके।
श्लोक 6: जड़ भरत का ब्राह्मण पिता अपने पुत्र को अपनी आत्मा तथा हृदय के समान मानता, अत: वह उससे अत्यधिक अनुरक्त था। उसने अपने पुत्र को सुशिक्षित बनाना चाहा और अपने इस असफल प्रयास में उसने अपने पुत्र को ब्रह्मचर्य के विधि-विधान सिखाने प्रारम्भ किये, जिनमें वैदिक अनुष्ठान, शौच, वेदाध्ययन, कर्मकाण्ड, गुरु की सेवा, अग्नि यज्ञ करने की विधि सम्मिलित थे। उसने इस प्रकार से अपने पुत्र को शिक्षा देने का भरसक प्रयत्न किया, किन्तु वह असफल रहा। उसने अपने अन्त:करण में यह आशा बाँध रखी थी कि उसका पुत्र विद्वान होगा, किन्तु उसके सारे प्रयत्न निष्फल रहे। प्रत्येक प्राणी की भाँति यह ब्राह्मण भी अपने घर के प्रति आसक्त था और वह यह भूल ही गया था कि एक दिन उसे मरना है। किन्तु मृत्यु कभी भूलती नहीं। वह उचित समय पर प्रकट हुई और उसे उठा ले गई।
श्लोक 7: तत्पश्चात् ब्राह्मण की छोटी पत्नी अपने जुड़वाँ बच्चों—एक लडक़ा तथा एक लडक़ी—को अपनी बड़ी सौत को सौंप कर अपनी इच्छा से अपने पति के साथ मर कर पतिलोक चली गई।
श्लोक 8: पिता की मृत्यु के बाद जड़ भरत के नौ सौतेले भाइयों ने उसे जड़ तथा बुद्धि-हीन समझकर उसको पूर्ण शिक्षा प्रदान करने के उनके पिता का प्रयत्न छोड़ दिया। जड़ भरत के ये भाई तीनों वेदों—ऋग्, साम यथा यजुर्वेद में पारंगत थे, जो सकाम कर्म को अत्यधिक प्रोत्साहन देते हैं। किन्तु वे नवों भाई ईश्वर की भक्तिमयसेवा से तनिक भी परिचित न थे। फलस्वरूप वे जड़ भरत की सिद्ध अवस्था को नहीं समझ सके।
श्लोक 9-10: नीच पुरुष पशुओं के तुल्य होते हैं। अन्तर इतना ही है कि पशुओं के चार पैर होते हैं और ऐसे मनुष्यों के केवल दो। ऐसे दो पैर वाले पाशविक पुरुष जड़ भरत को पागल, मन्द बुद्धि, बहरा तथा गूँगा कहते थे। वे उसके साथ दुर्व्यवहार करते और जड़ भरत बहरे, अंधे या जड़ पागल की भाँति आचरण करता। न तो वह कभी प्रतिवाद करता, न ही उन्हें आश्वस्त करने का प्रयत्न करता कि वह ऐसा नहीं है। यदि कोई उससे कुछ कराना चाहता तो वह उनकी इच्छा के अनुसार कार्य करता। उसे भिक्षा या मजदूरी से अथवा अपने आप जो भी भोजन मिलता—चाहे वह थोड़ा हो, स्वादु, बासी या अस्वादु—उसे ग्रहण करता और खाता। वह इन्द्रिय-तृप्ति के लिए कभी कुछ नहीं खाता था, क्योंकि वह पहले से उस देहात्म-बुद्धि से मुक्त हो गया था, जिसके वशीभूत होकर स्वादिष्ट या बेस्वाद भोजन किया जाता है। वह भक्ति की दिव्य भावना से पूर्ण था, फलत: देहात्म-बुद्धि से उठने वाले द्वन्द्वों से सर्वथा अप्रभावित रहता था। वास्तव में उसका शरीर साँड़ के समान बलिष्ठ था और उसके अंग-प्रत्यंग हृष्ट-पुष्ट थे। उसे न तो सर्दी-गर्मी या बयार-वर्षा की परवाह थी और न ही कभी वह अपने शरीर को ढकता था। वह जमीन पर लेटा रहता। वह अपने शरीर में न तो कभी तेल लगाता, न ही कभी स्नान करता था। शरीर मलिन होने के कारण उसका ब्रह्मतेज तथा ज्ञान उसी प्रकार ढके हुए थे जिस प्रकार धूल जमने से किसी मूल्यवान मणि का तेज छिप जाता है। उसने केवल एक गन्दा कौपीन और एक यज्ञोपवीत पहन रखा था जो काला पड़ गया था। यह जानते हुए भी कि वह ब्राह्मण कुल में उत्पन्न है, लोग उसे ब्रह्मबन्धु तथा अन्य नामों से पुकारते थे। इस प्रकार भौतिकतावादी लोगों द्वारा अपमानित एवं उपेक्षित होकर वह इधर-उधर घूमतारहता था।
श्लोक 11: जड़ भरत केवल भोजन के लिए काम करता था। उसके सौतेले भाइयों ने इसका लाभ उठाकर उसे कुछ भोजन के बदले खेत में काम करने में लगा दिया, किन्तु उसे खेत में ठीक से काम करने की विधि ज्ञात न थी। उसे यह ज्ञात न था कि कहाँ मिट्टी डाली जाये अथवा कहाँ भूमि को समतल या ऊँचा-नीचा रखा जाये। उसके भाई उसे टूटे चावल (कना), खली, धान की भूसी, घुना अनाज तथा रसोई के बर्तनों की जली हुई खुरचन दिया करते थे, किन्तु वह इन सबको प्रसन्नतापूर्वक अमृत के समान स्वीकार कर लेता था। उसे किसी प्रकार की शिकायत न रहती और वह इन सब चीजों को प्रसन्नतापूर्वक खा लेता था।
श्लोक 12: इसी समय, पुत्र की कामना से, डाकुओं का एक सरदार जो शूद्र कुल का था, किसी पशु तुल्य जड़ मनुष्य की भद्रकाली पर बलि चढ़ाकर उपासना करना चाहता था।
श्लोक 13: डाकुओं के सरदार ने बलि के लिए एक नर-पशु पकड़ा, किन्तु वह बचकर निकल भागा और सरदार ने अपने सेवकों को उसे ढूँढने के लिए आज्ञा दी। वे विभिन्न दिशाओं में दोड़ै किन्तु उसे ढूंढ न सके। अर्द्धरात्रि के गहन अंधकार में इधर-उधर घूमते हुए, वे एक धान के खेत में पहुँचे जहाँ उन्होंने अंगिरा वंश के एक ब्राह्मणकुमार (जड़भरत) को देखा जो एक ऊँचे स्थान पर बैठ कर मृग तथा जंगली सुअरों से खेत की रखवाली कर रहा था।
श्लोक 14: डाकू सरदार के सेवकों तथा अनुचरों ने नर-पशु के लक्षणों सें युक्त जड़ भरत को अत्यन्त उपयुक्त समझ कर उसे बलि के लिए अत्युत्तम पाया। अत: प्रसन्नता के मारे उनके मुख चमकने लगे, उन्होंने उसे रस्सियों से बाँध लिया और देवी काली के मन्दिर में ले आये।
श्लोक 15: इसके पश्चात् चोरों ने नर-पशु बलि की काल्पनिक पद्धति के अनुसार जड़ भरत को नहलाया, नये वस्त्र पहनाए, पशु के अनुकूल आभूषणों से अलंकृत किया, उसके शरीर पर सुगन्धित लेप किया तथा तिलक, चन्दन एवं हार से सुसज्जित किया। उसे अच्छी तरह भोजन कराने के बाद वे उसे देवी काली के समक्ष ले आये और देवी को धूप, दीप, माला, खील, पत्ते, अंकुर, फल तथा फूल की भेंट चढ़ाई। इस प्रकार उन्होंने नर-पशु का वध करने के पूर्व गीत, स्तुति द्वारा एवं मृदंग तथा तुरही आदि बजाकर देवी की पूजा की। इसके पश्चात् जड़ भरत को मूर्ति के समक्ष बैठा दिया।
श्लोक 16: उस समय, पुरोहित के रूप में कार्य कर रहा एक चोर भद्रकाली को पीने के लिए नर-पशु जड़-भरत का रक्त-आसव चढ़ाने के लिए तत्पर था। अत: उसने अत्यन्त भयावनी तथा पैनी तलवार निकाली और भद्रकाली के मंत्र से अभि मंत्रित करके जड़ भरत को मारने के लिए उसे उठाया।
श्लोक 17: जिन चोर-उचक्कों ने देवी काली के पूजन का प्रबन्ध कर रखा था वे अत्यन्त नीच थे और रजो तथा तमो गुणों से आबद्ध थे। वे धनवान बनने की कामना से ओतप्रोत थे, अत: उन्होंने वेदों के आदेशों का तिरस्कार किया। यहाँ तक कि वे ब्राह्मण कुल में उत्पन्न स्वरूपसिद्ध जीवात्मा जड़ भरत का वध करने के लिए उद्यत थे। द्वेषवश वे उन्हें देवी काली के समक्ष बलि चढ़ाने के लिए लाये थे। ऐसे व्यक्ति सदैव ईर्ष्यालु कार्यों में रत रहते हैं, इसीलिए वे जड़ भरत को मारने का दुस्साहस कर सके। जड़ भरत समस्त जीवों के परम मित्र थे। वे किसी के भी शत्रु न थे और सदैव पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के ध्यान में मग्न रहते थे। उनका जन्म उत्तम ब्राह्मण कुल में हुआ था, अत: यदि वे किसी के शत्रु होते अथवा आक्रामक होते तो भी उनका वध वर्जित था। किसी भी दशा में जड़ भरत को वध किये जाने का कोई औचित्य न था, अत: यह भद्रकाली से सहन नहीं हो सका। वे तुरन्त समझ गईं कि ये पापी डाकू ईश्वर के एक परम भक्त का वध करने वाले हैं। अत: सहसा मूर्ति का शरीर विदीर्ण हो गया और साक्षात् देवी काली प्रकट हुईं। उनका शरीर प्रखर एवं असह्य तेज से जल रहा था।
श्लोक 18: किए गये अत्याचारों को न सहन कर सकने के कारण क्रुद्ध देवी काली ने अपनी आँखें चमकायी और उनके कराल वक्र दाँत (दाढें़) दिखाए। उनकी लाल-लाल आँखें दहकने लगीं और उनकी आकृति डरावनी हो गई। उन्होंने अत्यन्त भयावना रूप धारण कर लिया मानो समस्त सृष्टि का संहार करने को उद्यत हों। वे बलिवेदी से तेजी से कूदीं और तुरन्त ही उन चोर-उचक्कों के सिर उसी तलवार से काट लिये जिससे वे जड़ भरत का वध करने जा रहे थे। फिर छिन्न सिरों वाले उन उच्चकों-चोरों के गले से निकलने वाले तप्त रक्त को पीने लगीं मानो मदिरा (आसव) पान कर रही हों। दरअसल उन्होंने अपने गणों के सहित, जिनमें डाइनें तथा चुड़ैलें थीं, उस आसव का पान किया और फिर प्रमत्त होकर वे सब उच्च स्वर से गाने तथा नाचने लगीं मानो समस्त ब्रह्माण्ड का संहार कर डालेंगी। उसी समय वे उनके सिरों को गेंद के समान उछाल- उछाल कर खेलने लगीं।
श्लोक 19: जब कोई ईर्ष्यालु व्यक्ति किसी महापुरुष के समक्ष कोई अपराध करता है, तो उसे सदैव उपर्युक्त विधि से दंडित होना पड़ता है।
श्लोक 20: तब शुकदेव गोस्वामी ने महाराज परीक्षित से कहा—हे विष्णुदत्त, आत्मा को शरीर से पृथक् मानने वाले, अजेय हृदय-ग्रंथि से मुक्त, समस्त जीवों के कल्याण कार्य में निरन्तर अनुरक्त तथा दूसरों का अहित न सोचने वाले व्यक्ति चक्रधारी तथा असुरों के लिए परम काल एवं भक्तों के रक्षक श्रीभगवान् द्वारा सदैव संरक्षित होते हैं। भक्त सदैव भगवान् के चरणकमल की शरण ग्रहण करते हैं। फलत: सिर कटने का अवसर आने पर भी वे सदैव अक्षुब्ध रहते हैं। यह उनके लिए तनिक भी विस्मयकारी नहीं होता है।