अध्याय 10: देवताओं तथा वृत्रासुर के मध्य युद्ध
संक्षेप विवरण: इस अध्याय में बताया है कि इन्द्र द्वारा दधीचि का शरीर प्राप्त करने के पश्चात् दधीचि की अस्थियों से वज्र बनवाया गया और फिर देवताओं तथा वृत्रासुर के मध्य युद्ध…
श्लोक 1: श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा—इस प्रकार इन्द्र को आदेश देकर भगवान् हरि, जो दृश्य जगत के कारणस्वरूप हैं, देवताओं के देखते-देखते वहीं अन्तर्धान हो गये।
श्लोक 2: हे राजा परीक्षित! भगवान् की आज्ञानुसार देवतागण अथर्वा के पुत्र दधीचि के पास पहुँचे। वे अत्यन्त उदार थे और जब देवताओं ने उनसे शरीर देने के लिए प्रार्थना की तो वे तुरन्त तैयार से हो गये। किन्तु उनसे धार्मिक उपदेश सुनने के उद्देश्य से वे हँसे और विनोद में इस प्रकार बोले।
श्लोक 3: हे देवताओ! मृत्यु के समय तीक्ष्ण असह्य वेदना के कारण समस्त देहधारी जीवात्माओं की चेतना जाती रहती है। क्या तुम्हें इस वेदना का पता नहीं है?
श्लोक 4: इस भौतिक जगत में प्रत्येक जीवात्मा को अपना शरीर अत्यन्त प्रिय है। अपने शरीर को अक्षुण्ण बनाये रखने के संघर्ष में वह सभी प्रकार से, यहाँ तक कि अपना सर्वस्व न्यौछावर करके, बचाये रखने का प्रयत्न करता है। अत: ऐसा कौन है, जो अपना शरीर किसी अन्य को दान देना चाहेगा, भले ही भगवान् विष्णु क्यों न माँगें?
श्लोक 5: देवताओं ने उत्तर दिया—हे ब्रह्मन्! आप जैसे पवित्र तथा प्रशंसनीय कार्यों वाले पुरुष सभी व्यक्तियों पर परम दयालु एवं वत्सल होते हैं। ऐसी पवित्र आत्माएँ परोपकार के लिए क्या नहीं दे सकतीं? वे सब कुछ, यहाँ तक कि अपना शरीर भी, दे सकती हैं।
श्लोक 6: जो नितान्त स्वार्थी होते हैं, वे अन्यों की पीड़ा को सोचे बिना उनसे कुछ याचना करते हैं। किन्तु यदि याचक दाता की कठिनाई को जान ले तो वह कोई वस्तु न माँगे। इसी प्रकार जो दान दे सकता हैं वह याचक (भिखारी) की कठिनाई नहीं समझता अन्यथा जो कुछ भी वह माँगे वह उसे देने से इनकार नहीं करेगा।
श्लोक 7: परमसाधु दधीचि ने कहा—मैने तुम लोगों से धर्म की बातें सुनने के लिए ही तुम्हारे मांगने पर अपना शरीर देने से इनकार कर दिया है। अब, यद्यपि मुझे अपना शरीर अत्यन्त प्रिय है, तो भी तुम लोगों के कल्याण के लिए मैं इसको छोड़ दूँगा, क्योंकि मैं जानता हूँ कि यह आज नहीं तो कल अवश्य मुझे छोड़ देगा।
श्लोक 8: हे देवो! जो न तो दुखी प्राणियों पर दया दिखाता है और न धार्मिक नियमों या अक्षुण्ण कीर्ति के महान् कार्यों के लिए अपने नश्वर शरीर की बलि कर सकता है, वह निश्चय ही जड़ प्राणियों तक के द्वारा धिक्कारा जाता है।
श्लोक 9: यदि कोई मनुष्य दूसरे जीवों के दुख से दुखी होता है और उनके सुख को देखकर प्रसन्न होता है, तो पवित्र तथा परोपकारी महापुरुषों द्वारा ऐसे पुरुष के धर्म को अविनाशी माना गया है।
श्लोक 10: यह शरीर, जिसे मृत्यु के पश्चात् कुत्ते तथा गीदड़ खा जायेंगे, मेरे अपने किसी काम का नहीं है। यह कुछ काल तक ही काम आने वाला है और किसी भी क्षण नष्ट हो सकता है। यह शरीर तथा इसके सभी कुटुम्बी तथा सम्पत्ति परोपकार में लगने चाहिए, अन्यथा वे सब दुख एवं विपत्ति के कारण बनेंगे।
श्लोक 11: श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा—इस प्रकार अर्थवा के पुत्र दधीचि मुनि ने देवताओं की सेवा के लिए अपना शरीर त्यागने का निश्चय किया। उन्होंने अपने आप (आत्मा) को पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के चरणारविन्द में रख कर पंचभूत से निर्मित अपने स्थूल शरीर को त्याग दिया।
श्लोक 12: दधीचि मुनि ने अपनी इन्द्रियों, प्राण, मन तथा बुद्धि को संयमित किया और समाधि में लीन हो गये। इस प्रकार उनके समस्त भव-बन्धन छिन्न हो गये। वे यह नहीं देख सकते थे कि उनका भौतिक शरीर किस प्रकार आत्मा से पृथक् हो गया।
श्लोक 13-14: तत्पश्चात् राजा इन्द्र ने विश्वकर्मा द्वारा दधीचि की अस्थियों से निर्मित वज्र को दृढ़तापूर्वक धारण किया। दधीचि मुनि की परम शक्ति से आविष्ट एवं श्रीभगवान् के तेज से प्रकाशित होकर इन्द्र अपने वाहन ऐरावत की पीठ पर सवार हुआ। उसे समस्त देवता घेरे हुए थे और सभी मुनिगण उसकी प्रशंसा कर रहे थे। इस तरह जब वह वृत्रासुर का वध करने के लिए सवार होकर चला तो वह अत्यन्त सुशोभित हो रहा था और तीनों लोकों को भा रहा था।
श्लोक 15: हे राजा परीक्षित! जिस प्रकार रूद्र अत्यन्त क्रुद्ध होकर पहले समय में अन्तक (यमराज) को मारने के लिए उसकी ओर दौड़े थे, उसी प्रकार इन्द्र ने अत्यन्त क्रुद्ध होकर बड़े ही वेग से आसुरी सेना के नायकों से घिरे वृत्रासुर पर धावा बोल दिया।
श्लोक 16: तत्पश्चात् सत्ययुग के अन्त तथा त्रेतायुग के प्रारम्भ में नर्मदा नदी के तट पर देवों तथा असुरों के मध्य घमासान युद्ध हुआ।
श्लोक 17-18: हे राजन्! जब वृत्रासुर को आगे करके सभी असुर युद्धभूमि में आये तो उन्होंने देखा कि राजा इन्द्र वज्र धारण किये हुए है और रूद्रों, वसुओं, आदित्यों, अश्वनी-कुमारों, पितरों, वह्नियों, मरुतों, ऋभुओं, साध्यों तथा विश्वदेवों से घिरा हुआ है और इस प्रकार से देदीप्यमान है कि उसका तेज असुरों के लिए असह्य था।
श्लोक 19-22: सैकड़ों हजारों असुरों, यक्षों, राक्षसों (मनुष्य-भक्षकों) तथा सुमालि, मालि आदि अन्यों ने राजा इन्द्र की सेनाओं को रोका जिन्हें साक्षात् काल भी नहीं जीत सकता था। असुरों में नमुचि, शम्बर, अनर्वा, द्विमूर्धा, ऋषभ, असुर, हयग्रीव, शंकु-शिरा, विप्रचित्ति, अयोमुख, पुलोमा, वृषपर्वा, प्रहेति, हेति तथा उत्कल सम्मिलित थे। ये अजेय असुर स्वर्णाभूषणों से भूषित होकर सिंह के समान निर्भीक होकर घोर नाद कर रहे थे और गदा, परिघ, बाण, प्रास, मुद्गर तथा तोमर जैसे हथियारों से देवताओं को पीड़ा पहुँचा रहे थे।
श्लोक 23: बर्छों, त्रिशूलों, फरसों, तलवारों तथा शतघ्नी एवं भुशुण्डी जैसे अन्य हथियारों से सुसज्जित होकर असुरों ने विभिन्न दिशाओं से आक्रमण कर दिया और देवताओं की सेना के समस्त नायकों को तितर-बितर कर दिया।
श्लोक 24: जिस प्रकार घने बादलों के आकाश में छा जाने के बाद तारे नहीं दिखाई पड़ते उसी प्रकार एक के बाद एक गिरने वाले बाणों के जाल से पूर्णतया आच्छादित हो जाने से देवतागण दिखाई नहीं पड़ रहे थे।
श्लोक 25: देवताओं की सेना को मारने के लिए हथियारों तथा बाणों के द्वारा की गई वर्षा उन तक नहीं पहुँच पाई, क्योंकि उन्होंने अपने हस्तलाघव से आकाश में इन हथियारों को काटकर खण्ड-खण्ड कर दिया।
श्लोक 26: जब असुरों के हथियार तथा मंत्र चुक गये, तो उन्होंने देवताओं पर पर्वतों के शिखर, वृक्ष तथा पत्थर बरसाना प्रारम्भ कर दिया। किन्तु देवता इतने प्रभावशाली तथा दक्ष थे कि उन्होंने पूर्ववत् इन सभी हथियारों को आकाश में खण्ड-खण्ड कर दिया।
श्लोक 27: जब वृत्रासुर द्वारा आदेशित असुर सैनिकों ने देखा कि इन्द्र के सैनिक अनेक शस्त्रास्त्रों के समूह से, यहाँ तक कि वृक्षों, पत्थरों तथा पर्वत-शृगों के द्वारा भी घायल नहीं हो सके हैं और अक्षत बने हुए हैं, तो असुरगण अत्यन्त भयभीत हुए।
श्लोक 28: जब तुच्छ लोग सन्त पुरुषों पर झूठे, क्रुद्ध आरोप लगाने के लिए दुर्वचनों का व्यवहार करते हैं, तो निरर्थक वचनों से महापुरुष विचलित नहीं होते। इसी प्रकार श्रीकृष्ण द्वारा सुरक्षित देवताओं के विरुद्ध किये जाने वाले असुरों के सभी प्रयास निष्फल हो रहे थे।
श्लोक 29: जब श्रीभगवान् कृष्ण के अभक्त असुरों ने देखा कि उनके सारे प्रयास निष्फल हो गये हैं, तो युद्ध करने का उनका सारा घमंड जाता रहा। उन्होंने अपने नायक को युद्ध शुरू होने के समय ही छोडक़र वहाँ से भागने का निश्चय कर लिया, क्योंकि उनके शत्रुओं ने उनका सारा शौर्य छीन लिया था।
श्लोक 30: अपनी सेना को क्षत-विक्षत तथा समस्त असुरों को, यहाँ तक कि जो परमवीर कहलाते थे, अत्यन्त भय के कारण युद्धभूमि से भागते देखकर सचमुच विशाल हृदय वाला बहादुर वृत्रासुर हँसा और इन शब्दों में बोला।
श्लोक 31: अपनी स्थिति तथा काल और परिस्थितियों के अनुसार वीरशिरोमणि वृत्रासुर ने ऐसे वचन कहे जो विचारवान् पुरुषों द्वारा प्रशंसा के योग्य थे। उसने असुर-वीरों को बुलाया, “हे विप्रचित्ति, हे नमुचि, हे पुलोमा, हे मय, हे अनर्वा तथा शम्बर! भागो नहीं, मेरी बात तो सुन लो।”
श्लोक 32: वृत्रासुर ने कहा—इस संसार में जन्मे सभी जीवों को मरना है। निश्चित ही, इस संसार में कोई भी मृत्यु से बचने के किसी उपाय को नहीं ढँूढ सका है। विधाता तक ने इससे बचने का कोई उपाय नहीं बताया। ऐसी परिस्थितियों में जब कि मृत्यु अपरिहार्य है और यदि स्वर्गलोक की प्राप्ति हो रही हो और उपयुक्त मृत्यु के कारण सदैव यश तथा कीर्ति बनी रहे तो भला कौन पुरुष होगा जो ऐसी यशस्वी मृत्यु को स्वीकार नहीं करेगा?
श्लोक 33: यशस्वी मृत्यु को वरण करने के दो उपाय हैं और वे दोनों अत्यन्त दुर्लभ हैं। पहला है, योग-साधना, विशेष रूप से भक्तियोग के द्वारा मरना जिसमें मनुष्य मन तथा प्राण को वश में करके पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के चिन्तन में लीन होकर मृत्यु को प्राप्त होता है। दूसरा है युद्धभूमि में सेना का नेतृत्व करते हुए तथा कभी पीठ न दिखाते हुए मर जाना। शास्त्र में इन दो प्रकार की मृत्युओं को यशस्वी कहा गया है।