अध्याय 12: वृत्रासुर की यशस्वी मृत्यु
संक्षेप विवरण: इस अध्याय में बताया गया है कि किस प्रकार स्वर्ग के राजा इन्द्र ने बहुत अनिच्छापूर्वक वृत्रासुर का वध किया। बातें कर चुकने के बाद वृत्रासुर ने अत्यन्त क्रोध…
श्लोक 1: शुकदेव गोस्वामी ने कहा—अपना शरीर छोडऩे की इच्छा से वृत्रासुर ने विजय की अपेक्षा युद्ध में अपनी मृत्यु को श्रेयस्कर समझा। हे राजा परीक्षित! उसने अत्यन्त बलपूर्वक अपना त्रिशूल उठाया और बड़े वेग से स्वर्ग के राजा पर उसी प्रकार से आक्रमण किया जिस प्रकार ब्रह्माण्ड के जलमग्न होने पर कैटभ ने श्रीभगवान् पर बड़े ही बल से आक्रमण किया था।
श्लोक 2: तब असुरों में महान् वीर वृत्रासुर ने कल्पान्त (प्रलय) की धधकती अग्नि की लपटों के समान तीखी नोकों वाले त्रिशूल को अत्यन्त क्रोध एवं वेग से इन्द्र पर चला दिया। उसने गरजकर कहा, “अरे पापी, मैं तेरा वध किये देता हूँ।”
श्लोक 3: आकाश में उड़ता हुआ वृत्रासुर का त्रिशूल प्रकाशमान उल्का के समान था। यद्यपि इस प्रज्ज्वलित आयुध की ओर देख पाना कठिन था, किन्तु राजा इन्द्र ने निर्भोक होकर अपने वज्र से उसके खण्ड-खण्ड कर दिये। उसी समय उसने वृत्रासुर की एक भुजा काट ली, जो सर्पों के राजा वासुकि के शरीर के समान मोटी थी।
श्लोक 4: शरीर से एक भुजा के कट जाने पर भी वृत्रासुर क्रोधपूर्वक राजा इन्द्र के निकट पहुँचा और लोहे के बल्लम (परिघ) से उसकी ठोड़ी पर प्रहार किया। उसने इन्द्र के हाथी पर भी प्रहार किया। इससे इन्द्र के हाथ से उसका वज्र गिर गया।
श्लोक 5: विभिन्न लोकों के वासी, यथा देवता, असुर, चारण तथा सिद्ध, वृत्रासुर के कार्य की प्रशंसा करने लगे, किन्तु जब उन्होंने देखा कि इन्द्र महान् संकट में है, तो वे ‘हाय हाय’ करके विलाप करने लगे।
श्लोक 6: शत्रु की उपस्थिति में अपने हाथ से वज्र गिर जाने पर इन्द्र एक प्रकार से पराजित हो गया था और अत्यन्त लज्जित हुआ। उसने पुन: अपना आयुध उठाने का दुस्साहस नहीं किया। किन्तु वृत्रासुर ने उसे यह कहते हुए प्रोत्साहित किया, “अपना वज्र उठा लो और अपने शत्रु को मार दो। यह भाग्य को कोसने का अवसर नहीं है।”
श्लोक 7: वृत्रासुर ने आगे कहा—हे इन्द्र! आदि भोक्ता पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के अतिरिक्त किसी की सदैव विजय होना निश्चित नहीं है। वे ही उत्पत्ति, पालन और प्रलय के कारण हैं और सब कुछ जानने वाले हैं। अधीन होने तथा भौतिक देहों को धारण करने के लिए बाध्य होने के कारण युद्धप्रिय अधीनस्थ कभी विजयी होते हैं, तो कभी पराजित होते हैं।
श्लोक 8: समस्त लोकों के प्रमुख लोकपालों सहित, इस ब्रह्माण्ड के समस्त लोकों के समस्त जीव, पूर्णत: भगवान् के वश में हैं। वे जाल में पकड़े गये उन पक्षियों के समान कार्य करते हैं, जो स्वतंत्रतापूर्वक विचरण नहीं कर सकते।
श्लोक 9: हमारी इन्द्रियों का शौर्य, मानसिक शक्ति, दैहिक बल, जीवन शक्ति, अमरत्व एवं मृत्यु सभी कुछ परम भगवान् की देखरेख के अधीन हैं। इससे अनवगत मूर्ख लोग अपने जड़ शरीर को ही अपने कार्यकलापों का कारण मानते हैं।
श्लोक 10: हे देवराज इन्द्र! जिस प्रकार काठ की पुतली जो स्त्री के समान प्रतीत होती है अथवा घास-फूस का बना हुआ पशु न तो हिल-डुल सकता है और न अपने आप नाच सकता है, वरन् उसे हाथ से चलाने वाले व्यक्ति पर पूरी तरह निर्भर रहता है, उसी प्रकार हम सभी परम नियन्ता पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की इच्छानुसार नाचते हैं। कोई भी स्वतंत्र नहीं है।
श्लोक 11: तीनों पुरुष—कारणोदकशायी विष्णु, गर्भोदकशायी विष्णु तथा क्षीरोदकशायी विष्णु—भौतिक प्रकृति, समग्र भौतिक शक्ति (महत् तत्त्व), मिथ्या अहंकार, पाँचों भौतिक तत्त्व, भौतिक इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि तथा चेतना, ये सब भगवान् के आदेश के बिना भौतिक जगत की सृष्टि नहीं कर सकते।
श्लोक 12: ज्ञानरहित मूर्ख व्यक्ति पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् को नहीं समझ सकता। वह शाश्वत अधीन रहकर भी अपने आपको झूठे ही सर्वोच्च मानता है। यदि कोई यह सोचे कि अपने पूर्व सकाम कर्मों के अनुसार उसका भौतिक शरीर उसके माता-पिता द्वारा उत्पन्न किया गया है और उसी शरीर को दूसरा कोई विनष्ट कर देता है जैसे कि बाघ दूसरे पशु को निगल जाता है, तो यह सही ज्ञान नहीं है। श्रीभगवान् स्वयं सृष्टि करते हैं और अन्य जीवों के द्वारा जीवों को निगलते रहते हैं।
श्लोक 13: जिस प्रकार मरने की इच्छा न रखने पर भी मनुष्य को मृत्यु के समय अपनी आयु, ऐश्वर्य, यश तथा अन्य सब कुछ त्याग देना पड़ता है उसी प्रकार जब ईश्वर की कृपा होती है, तो विजय के नियत समय के अनुकूल होने पर ये सारी वस्तुएँ उसे मिल जाती हैं।
श्लोक 14: चूँकि प्रत्येक वस्तु भगवान् की परम इच्छा पर निर्भर है, अत: मनुष्य को यश-अपयश, हार-जीत तथा जीवन-मृत्यु में निश्चिन्त रह कर समभाव बनाये रखना चाहिए।
श्लोक 15: जो पुरुष यह जानता है कि सतो, रजो तथा तमो गुण—ये तीनों आत्मा के नहीं, वरन् भौतिक प्रकृति के गुण हैं और जो यह जानता है कि शुद्ध आत्मा इन गुणों के कर्मों तथा फलों का साक्षी मात्र है, उसे मुक्त पुरुष मानना चाहिए। वह इन गुणों से नहीं बंधता।
श्लोक 16: अरे मेरे शत्रु! जरा मेरी ओर देख। मैं पहले ही पराजित हो चुका हूँ, क्योंकि मेरा हथियार तथा मेरी भुजा पहले ही खंड-खंड हो चुके हैं। तुमने मुझे पहले ही परास्त कर दिया है, तो भी मैं तुम्हें मारने की प्रबल इच्छा के कारण तुमसे लडऩे का भरसक प्रयत्न कर रहा हूँ। ऐसी विषम परिस्थिति में भी मैं तनिक भी दुखी नहीं हूँ। अत: तुम उदासीनता त्याग करके युद्ध जारी रखो।
श्लोक 17: अरे मेरे शत्रु! इस युद्ध को द्यूतक्रीड़ा का खेल मानो जिसमें हमारे प्राणों की बाजी लगी है, बाण पासे हैं और वाहक पशु चौसर हैं। कोई नहीं जानता कि कौन हारेगा और कौन जीतेगा। यह सब विधाता पर निर्भर है।
श्लोक 18: शुकदेव गोस्वामी ने कहा—वृत्रासुर के निष्कपट तथा निर्देशात्मक वचन सुनकर राजा इन्द्र ने उसकी प्रशंसा की और अपने वज्र को पुन: हाथ में धारण कर लिया। इसके बाद बिना मोह या द्वैत-भाव से वह हँसा और वृत्रासुर से इस प्रकार बोला।
श्लोक 19: इन्द्र ने कहा, हे असुरश्रेष्ठ! मैं देखता हूँ कि संकटमय स्थिति में होते हुए भी अपने विवेक तथा भक्तियोग में निष्ठा के कारण तुम श्रीभगवान् के पूर्ण भक्त तथा जन-जन के मित्र हो।
श्लोक 20: तुमने भगवान् विष्णु की माया को पार कर लिया है और इस मुक्ति के कारण तुमने आसुरी भाव का परित्याग करके महान् भक्त का पद प्राप्त कर लिया है।
श्लोक 21: हे वृत्रासुर! असुर सामान्यत: रजोगुणी होते हैं, अत: यह कितना महान् आश्चर्य है। कहा जायेगा कि असुर होकर भी तुमने भक्त-भाव ग्रहण करके अपने मन को पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् वासुदेव में स्थिर कर दिया है, जो सदैव शुद्ध सत्त्व में स्थित रहते हैं।
श्लोक 22: जो मनुष्य परम कल्याणकारी परमेश्वर हरि की भक्ति में स्थिर है, वह अमृत के समुद्र में तैरता है। उसके लिए छोटे-छोटे गड्ढों के जल से क्या प्रयोजन?
श्लोक 23: श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा—वृत्रासुर तथा राजा इन्द्र ने युद्धभूमि में भी भक्तियोग के सम्बन्ध में बातें कीं और अपना कर्तव्य समझकर दोनों पुन: युद्ध में भिड़ गये। हे राजन्! दोनों ही बड़े योद्धा और समान रूप से शक्तिशाली थे।
श्लोक 24: हे महाराज परीक्षित! अपने शत्रु को वश में करने में पूर्ण सक्षम वृत्रासुर ने अपना लोहे का परिघ उठाकर चारों ओर घुमाया और इन्द्र को लक्ष्य बनाकर अपने बाएँ हाथ से उस पर फेंका।
श्लोक 25: इन्द्र ने अपने शतपर्वन नामक वज्र से वृत्रासुर के परिघ तथा उसके बचे हुए हाथ को एक साथ खण्ड-खण्ड कर डाला।
श्लोक 26: जड़ से दोनों भुजाएँ कट जाने से तेजी से रक्त बहने के कारण वृत्रासुर उड़ते हुए पर्वत के समान सुन्दर लग रहा था जिसके पंखों को इन्द्र ने खण्ड-खण्ड कर दिया हो।
श्लोक 27-29: वृत्रासुर अत्यन्त शक्तिशाली तथा वीर्यवान् था। उसने अपने निचले जबड़े को भूमि पर और ऊपरी जबड़े को आकाश में गड़ा दिया। उसका मुख इतना गहरा हो गया मानो आकाश हो और उसकी जीभ बहुत बड़े सर्प के सदृश लग रही थी। अपने काल के समान कराल दाँतों से वह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को निगलने का प्रयास करता प्रतीत हुआ। इस प्रकार विराट शरीर धारण करके उस महान् असुर वृत्रासुर ने पर्वतों तक को हिला दिया और अपने पाँवों से पृथ्वी की सतह को इस प्रकार मर्दित करने लगा मानो वह चलता हुआ साक्षात् हिमालय पर्वत हो। वह इन्द्र के सामने आया और उसके वाहन ऐरावत समेत उसे इस प्रकार निगल गया मानो एक बड़े अजगर ने हाथी निगल लिया हो।
श्लोक 30: जब देवताओं, ब्रह्मा समेत अन्य प्रजापतियों तथा अन्य बड़े-बड़े साधु पुरुषों ने देखा कि असुर ने इन्द्र को निगल लिया है, तो वे अत्यन्त दुखी हुए और ‘हाय हाय’ ‘कितनी बड़ी विपत्ति’! कह करके विलाप करने लगे।
श्लोक 31: इन्द्र के पास नारायण का जो सुरक्षा कवच था, वह स्वयं भगवान् नारायण से अभिन्न था। उस कवच के द्वारा तथा अपनी योगशक्ति से सुरक्षित होने पर राजा इन्द्र वृत्रासुर द्वारा निगले जाने पर भी उस असुर के उदर में मरा नहीं।
श्लोक 32: अत्यन्त शक्तिशाली राजा इन्द्र ने अपने वज्र के द्वारा वृत्रासुर का पेट फाड़ डाला और बाहर निकल आया। बल असुर के मारने वाले इन्द्र ने उसके तुरन्त बाद वृत्रासुर के पर्वत शृंग जैसे ऊँचे सिर को काट लिया।
श्लोक 33: यद्यपि वज्र वृत्रासुर की गर्दन के चारों ओर अत्यन्त वेग से घूम रहा था, किन्तु उसके शरीर से सिर को विलग करने में पूरा एक वर्ष—३६० दिन—लग गया, जो सूर्य, चन्द्र तथा अन्य नक्षत्रों के उत्तरी तथा दक्षिणी यात्रा पूर्ण करने में लगने वाले समय के तुल्य है। तब वृत्रासुर के वध का उपयुक्त समय (योग) उपस्थित होने पर उसका सिर पृथ्वी पर गिर पड़ा।
श्लोक 34: वृत्रासुर के मारे जाने पर, गन्धर्वों तथा सिद्धों ने हर्षित होकर स्वर्गलोक में दुन्दुभियाँ बजाईं। उन्होंने वृत्रासुर के संहर्ता इन्द्र के शौर्य का वेद-स्रोत्रों से अभिनन्दन किया और अत्यन्त प्रसन्न होकर उस पर फूलों की वर्षा की।
श्लोक 35: हे शत्रुओं का दमन करने वाले राजा परीक्षित! तब वृत्रासुर के शरीर से सजीव ज्योति निकल कर बाहर आई और भगवान् के परम धाम को लौट गई। सभी देवताओं के देखते देखते वह भगवान् संकर्षण का संगी बनने के लिए दिव्य लोक में प्रविष्ट हुआ।