अध्याय 15: नारद तथा अंगिरा ऋषियों द्वारा राजा चित्रकेतु को उपदेश
संक्षेप विवरण: इस अध्याय में अंगिरा ऋषि नारद सहित राजा चित्रकेतु को ढाँढस बँधाते हैं। वे दोनों राजा को अत्यधिक शोक से विमुक्त करने और उसे जीवन के आध्यात्मिक महत्त्व के विषय…
श्लोक 1: श्री शुकदेव गोस्वामी बोले—जब राजा चित्रकेतु शोकग्रस्त होकर अपने पुत्र के शव के निकट पड़े मृतप्राय हुए थे तो नारद तथा अंगिरा नामक दो महर्षियों ने उन्हें आध्यात्मिक चेतना के सम्बन्ध में इस प्रकार उपदेश दिया।
श्लोक 2: हे राजन्! जिस शव के लिए तुम शोक कर रहे हो उसका तुमसे और तुम्हारा उसके साथ क्या सम्बन्ध है? तुम कह सकते हो कि इस समय तुम पिता हो और वह पुत्र है, किन्तु क्या तुम सोचते हो कि यह सम्बन्ध पहले भी था? क्या सचमुच अब भी यह सम्बन्ध है? क्या यह भविष्य में भी बना रहेगा?
श्लोक 3: हे राजन्! जिस प्रकार बालू के छोटे-छोटे कण लहरों के वेग से कभी एक दूसरे के निकट आते हैं और कभी विलग हो जाते हैं, उसी प्रकार से देहधारी जीवात्माएँ काल के वेग से कभी मिलती हैं, तो कभी बिछुड़ जाती हैं।
श्लोक 4: जब बीजों को धरती में बोया जाता है, तो वे कभी तो उगते हैं और कभी नहीं उगते। कभी धरती उपजाऊ नहीं रहती जिससे बीजों का बोना निरर्थक हो जाता है। इसी प्रकार परमात्मा की शक्ति से बाध्य होने पर भावी पिता को कभी सन्तान की प्राप्ति होती है, तो कभी गर्भ ही नहीं रहता। अत: मनुष्य को चाहिए कि वह माता-पिता जैसे बनावटी सम्बन्ध के लिए शोक न करे, क्योंकि अन्तत: इसका नियंत्रण परमेश्वर के हाथों में रहता है।
श्लोक 5: हे राजन्! तुम तथा हम अर्थात् तुम्हारे परामर्शदाता, पत्नियाँ एवं मंत्री और समस्त सम्पूर्ण जगत में इस समय जितने भी स्थावर-जंगम प्राणी हैं, वे सभी क्षणभंगुर हैं। यह स्थिति न तो हमारे जन्म के पूर्व थी और न हमारी मृत्यु के पश्चात् रहेगी। अत: इस समय हमारी स्थिति क्षणिक (अस्थायी) है, यद्यपि वह मिथ्या नहीं है।
श्लोक 6: सबों के स्वामी तथा प्रत्येक वस्तु के मालिक पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् निश्चय ही क्षणिक दृश्य जगत में तनिक भी रुचि नहीं रखते। तो भी जिस प्रकार समुद्र के किनारे पर बैठा हुआ बालक अनचाही किसी न किसी वस्तु (घरौंदा) को बनाता है उसी प्रकार से भगवान् प्रत्येक वस्तु को अपने वश में रखते हुए सृजन, पालन तथा संहार का कार्य करते रहते हैं। वे पिता से पुत्र उत्पन्न कराकर सृष्टि करते हैं, प्रजा के कल्याण हेतु सरकार या राजा नियुक्त करके पालन करते हैं तथा सर्प जैसे माध्यमों से संहार करते हैं। सृजन, पालन तथा संहारकर्ता माध्यमों की कोई स्वतंत्र शक्ति नहीं होती, किन्तु माया के सम्मोहन से वे अपने को कर्त्ता, पालक तथा संहारक मान बैठते हैं।
श्लोक 7: हे राजन्! जिस प्रकार एक बीज से दूसरा बीज उत्पन्न होता है, उसी प्रकार एक शरीर (पिता के शरीर) द्वारा अन्य (माता के) शरीर के माध्यम से एक तीसरा (पुत्र का) शरीर उत्पन्न होता है। जैसे भौतिक शरीर के तत्त्व नित्य हैं, वैसे ही इन भौतिक तत्त्वों से प्रकट होने वाली जीवात्मा भी नित्य है।
श्लोक 8: राष्ट्रीयता तथा व्यक्तिगत सत्ता जैसे सामान्य तथा विशिष्ट विभाजन उन व्यक्तियों की कल्पनाएँ हैं, जो उन्नत ज्ञानी नहीं हैं।
श्लोक 9: श्री शुकदेव गोस्वामी आगे बोले—नारद तथा अंगिरा द्वारा इस प्रकार समझाये-बुझाये जाने पर राजा चित्रकेतु को ज्ञान के कारण आशा बँधी। राजा अपने हाथ से अपना मुरझाया मुखमण्डल पोंछते हुए कहने लगा।
श्लोक 10: राजा चित्रकेतु ने कहा—आप दोनों अपनी पहचान को छुपाए हुए अवधूत वेश में यहाँ आये हैं, किन्तु मैं देख रहा हूँ कि सभी पुरुषों में आप दोनों परम ज्ञानवान् हैं। आप सब कुछ जानते हैं, अत: समस्त महापुरुषों से भी आप महान् हैं।
श्लोक 11: श्रीकृष्ण के सर्वाधिक प्रिय सेवक, ब्राह्मणजन, जो वैष्णव पद को प्राप्त हैं, कभी- कभी अवधूतों जैसा वेष बना लेते हैं और हम जैसे भौतिकतावादियों को, जो इन्द्रियतृप्ति में सदैव आसक्त रहते हैं, लाभ पहुँचाने एवं उनकी अविद्या दूर करने के लिए अपनी इच्छानुसार भूमण्डल पर विचरण करते रहते हैं।
श्लोक 12-15: हे महात्माओ! मैंने सुना है कि अविद्या से ग्रस्त मनुष्यों को ज्ञान का उपदेश देने के लिए भूमण्डल-भर में जो महापुरुष विचरण करते रहते हैं उनमें सनत् कुमार, नारद, ऋभु, अंगिरा, देवल, असित, अपान्तरतमा (व्यासदेव), मार्कण्डेय, गौतम, वसिष्ठ, भगवान् परशुराम, कपिल, शुकदेव, दुर्वासा, याज्ञवल्क्य, जातुकर्ण तथा अरुणि हैं। अन्यों के नाम इस प्रकार हैं—रोमश, च्यवन, दत्तात्रेय, आसुरि, पतंजलि, वेदों के प्रधान परम साधु धौम्य, पंचशिख, हिरण्यनाभ, कौशल्य, श्रुतदेव तथा ऋतध्वज। आप अवश्य ही इनमें से हैं।
श्लोक 16: चूंकि आप दोनों महापुरुष हैं, अत: मुझे वास्तविक ज्ञान देने में समर्थ हैं। मैं अविद्या के अंधकार में डूबा रहने के कारण शूकर अथवा कूकर जैसे ग्राम्य पशु के समान मूढ़ हूँ। अत: मुझे उबारने के लिए ज्ञान का दीपक प्रज्ज्वलित करें।
श्लोक 17: अंगिरा ने कहा—हे राजन्! जब तुमने पुत्र की कामना की थी तो मैं तुम्हारे पास आया था। दरअसल वही अंगिरा ऋषि हूँ जिसने तुम्हें यह पुत्र दिया था। ये जो तुम्हारे पास हैं, भगवान् ब्रह्मा के प्रत्यक्ष पुत्र, महान् ऋषि नारद हैं।
श्लोक 18-19: हे राजन्! तुम पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के परम भक्त हो। किसी भौतिक वस्तु की हानि के लिए इस प्रकार शोक करना तुम्हारे लिए उपयुक्त नहीं है। अत: हम दोनों तुम्हें इस मिथ्या शोक से उबारने के लिए आये हैं, जो आप के अविद्या के अंधकार में डूबे रहने के कारण उत्पन्न है। जो आध्यात्मिक ज्ञान से सम्पन्न हैं उनके लिए इस प्रकार से भौतिक लाभ तथा हानि से प्रभावित होना बिल्कुल अवांछनीय है।
श्लोक 20: जिस समय पहले-पहल मैं तुम्हारे घर आया था, उसी समय मैं तुम्हें परम दिव्य ज्ञान देता, किन्तु जब मैंने देखा कि तुम्हारा मन भौतिक वस्तुओं में उलझा हुआ है, तो मैंने तुम्हें केवल एक पुत्र प्रदान किया जो तुम्हारे हर्ष और शोक का कारण बना।
श्लोक 21-23: हे राजन्! अब तुम्हें ऐसे व्यक्ति के कष्ट का वास्तविक अनुभव हो रहा है, जिसके पुत्र तथा पुत्रियाँ होती हैं। हे सूरसेन देश के राजा! पत्नी, घर, राज्य का ऐश्वर्य, अन्य सम्पत्ति तथा इन्द्रिय अनुभूति के विषय—ये सब इस बात में एक-से हैं, कि वे अनित्य हैं। राज्य, सैनिक, शक्ति, कोष, नौकर, मंत्री, मित्र तथा सम्बन्धी—ये सभी भय, मोह, शोक तथा दुख के कारण हैं। ये गंधर्व-नगर की भाँति हैं, जिसे जंगल के बीच स्थित समझा जाता है, किन्तु जिसका अस्तित्व नहीं होता। चूँकि ये सब वस्तुएँ अनित्य हैं, अत: ये मोह, स्वप्न तथा मनोरथों से श्रेष्ठ नहीं हैं।
श्लोक 24: स्त्री, संतान तथा सम्पत्ति जैसी दृश्य वस्तुएँ स्वप्न एवं मनोरथों के तुल्य हैं। वास्तव में हम जो कुछ देखते हैं उसका स्थायी अस्तित्व नहीं होता है। वे कभी दिखती हैं, तो कभी नहीं। अपने पूर्वकर्मों के अनुसार हम मनोरथ का सृजन करते हैं और इन्हीं के कारण हम आगे कार्य करते हैं।
श्लोक 25: देहात्मबुद्धि के कारण जीवात्मा अपने शरीर में, जो भौतिक तत्त्वों, पाँच ज्ञानेन्द्रियों तथा मन समेत पाँच कर्मेन्द्रियों का संपुंज है, मग्न रहता है। मन के कारण जीवात्मा को तीन प्रकार के—अधिभौतिक, अधिदैविक तथा अध्यात्मिक-ताप सहने पड़ते हैं। अत: यह शरीर समस्त दुखों का मूल है।
श्लोक 26: अत: हे चित्रकेतु! आत्मा की स्थिति पर ठीक से विचार करो अर्थात् यह समझने का प्रयत्न करो कि तुम कौन हो—शरीर, मन, या आत्मा? यह विचार करो कि तुम कहाँ से आये हो, यह शरीर छोडक़र कहाँ जाओगे और तुम भौतिक शोक के वश में क्यों हो? इस प्रकार तुम अपनी वास्तविक स्थिति जानने का यत्न करो, तभी तुम अनावश्यक आसक्ति से छुटकारा पा सकोगे। तब तुम इस विश्वास का भी परित्याग कर सकोगे कि यह भौतिक जगत या अन्य कोई वस्तु जिसका श्रीकृष्ण की सेवा से सीधा सम्बन्ध नहीं है, शाश्वत है। इस तरह तुम्हें शान्ति प्राप्ति हो सकेगी।
श्लोक 27: नारद मुनि ने आगे कहा—हे राजन्! तुम एकाग्रचित्त होकर मुझसे अत्यन्त शुभ मंत्र ग्रहण करो। इसे स्वीकार कर लेने के बाद सात रातों में ही तुम साक्षात् भगवान् का दर्शन कर सकोगे।
श्लोक 28: हे राजन्! प्राचीनकाल में भगवान् शिव तथा अन्य देवताओं ने संकर्षण के चरणारविन्द की शरण ली थी। इस प्रकार वे द्वैत-मोह से तुरन्त मुक्त हो गये और उन्होंने आध्यात्मिक जीवन में अद्वितीय तथा अलंघ्य यश प्राप्त किया। तुम शीघ्र ठीक वैसा ही पद प्राप्त करोगे।