श्रीमद् भागवत महापुराण (स्कन्ध 6) | Shrimad Bhagavatam Hindi

अध्याय 16: राजा चित्रकेतु की परमेश्वर से भेंट

संक्षेप विवरण: इस अध्याय में बताया गया है कि किस प्रकार चित्रकेतु अपने मृत पुत्र से बातें कर सका और उससे जीवन के सत्य के सम्बन्ध में बातें सुन सका। जब चित्रकेतु शान्त हुआ तो…

श्लोक 1: श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा—हे राजा परीक्षित! नारद ऋषि ने अपनी योगशक्ति से शोकाकुल स्वजनों के समक्ष उस पुत्र को ला दिया और फिर वे इस प्रकार बोले।

श्लोक 2: श्री नारद मुनि ने कहा—हे जीवात्मा! तुम्हारा कल्याण हो। जरा अपने माता-पिता को तो देखो। तुम्हारे चले जाने (मरने) से तुम्हारे समस्त मित्र तथा सम्बन्धी शोकाकुल हैं।

श्लोक 3: तुम असमय ही मरे थे इसलिए तुम्हारी आयु अब भी शेष है। अत: तुम अपने शरीर में पुन: प्रवेश करके अपने मित्रों तथा स्वजनों की संगति में शेष जीवन का भोग करो। अपने पिता द्वारा प्रदत्त यह समस्त ऐश्वर्य तथा राजसिंहासन स्वीकार करो।

श्लोक 4: नारद मुनि की योगशक्ति से जीवात्मा थोड़े समय के लिए मृत शरीर में पुन: प्रविष्ट हुआ और नारद मुनि के अनुरोध पर इस प्रकार बोला, “मैं (जीव) अपने कर्म-फलों के अनुसार एक शरीर से दूसरे शरीर में देहान्तर करता रहता हूँ; इस प्रकार कभी देवताओं की योनि में रहता हूँ तो कभी निम्न पशुओं, अथवा वनस्पतियों में और कभी मनुष्य योनि में रहता हूँ। अत: ये किस जन्म में मेरे माता तथा पिता थे? वास्तव में न तो कोई मेरी माता है और न कोई पिता। तो मैं इन दोनों व्यक्तियों को अपने माता-पिता के रूप में कैसे स्वीकार कर सकता हूँ?

श्लोक 5: यह भौतिक जगत नदी की भाँति प्रवहमान है, जो अपने जीवात्मा को लिये जा रही है और जिसमें सभी लोग समयानुसार मित्र, कुटुम्बी तथा शत्रु बनते रहते हैं। वे उदासीन, मध्यस्थ, द्वेषी तथा कई अन्य प्रकारों से कार्य करते हैं। इतने पर भी कोई किसी से स्थायी रूप से सम्बद्ध नहीं है।

श्लोक 6: जिस प्रकार सोना तथा अन्य व्यापारिक वस्तुएँ समय-समय पर क्रम-विक्रम के कारण लगातार एक स्थान से दूसरे स्थान को स्थानान्तरित होती रहती हैं उसी प्रकार जीवात्मा भी अपने कर्मों के कारण पूरे ब्रह्माण्ड में घूमता रहता है।

श्लोक 7: कुछ ही जीवात्माएँ मनुष्य योनि में जन्म लेती हैं और शेष दूसरी पशु-योनि में जन्मती हैं। यद्यपि ये दोनों ही जीवात्माएँ हैं, किन्तु इनके सम्बन्ध अस्थायी हैं। कोई पशु किसी मनुष्य के अधिकार में कुछ काल तक रहकर किसी दूसरे के अधिकार में जा सकता है। जब पशु चला जाता है पहले वाले मालिक का स्वामित्व भी चला जाता है। जब तक वह पशु उसके अधिकार में रहता है, उसके प्रति उसका लगाव रहता है, किन्तु उसको बेचते ही सारा लगाव छूट जाता है।

श्लोक 8: भले ही एक जीवात्मा मर्त्यदेहों के सम्बन्धों के कारण दूसरी जीवात्मा से सम्बद्ध जान पड़े, किन्तु जीवात्मा शाश्वत है। वास्तव में शरीर ही जन्मता है और नष्ट होता है, जीवात्मा नहीं। हमें यह नहीं मान लेना चाहिए कि जीवात्मा की उत्पत्ति या मृत्यु होती है। जीवात्मा का तथाकथित माता-पिता से कोई सम्बन्ध नहीं होता। जब तक जीवात्मा अपने पूर्व कर्म के फलस्वरूप किन्हीं माता-पिता का पुत्र बन कर प्रकट होता है तभी तक माता-पिता द्वारा प्रदत्त शरीर से उसका नाता रहता है। इस प्रकार वह अपने को मिथ्या ही उनका पुत्र मानकर अत्यन्त स्नेह जताता है। मरने के बाद यह सम्बन्ध नष्ट हो जाता है। ऐसी परिस्थितियों में मनुष्य को झूठे ही हर्ष तथा शोक में लीन नहीं होना चाहिए।

श्लोक 9: जीवात्मा नित्य तथा अविनाशी है क्योंकि इसका आदि तथा अन्त नहीं है। न तो उसका जन्म होता है, न मृत्यु। वह समस्त प्रकार की देहों का मूल है, तो भी उसकी दैहिक वर्ग में गिनती नहीं होती। जीवात्मा इतना उच्च है कि परमात्मा के ही समधर्मा है। तो भी, अत्यन्त सूक्ष्म होने से वह बहिरंगा शक्ति द्वारा मोहित होता रहता है और अपनी इच्छाओं के अनुसार अपने लिए विभिन्न देहें उत्पन्न करता है।

श्लोक 10: इस जीवात्मा को न तो कोई प्रिय है, न कोई अप्रिय। यह अपने पराये में भेद-भाव नहीं रखता। यह अनन्य है, अर्थात् यह न तो मित्रों तथा शत्रुओं, न ही शुभचिन्तकों या दुराग्रह करने वालों से प्रभावित होता है। यह मनुष्यों के विभिन्न गुणों का मात्र दर्शक अथवा साक्षी है।

श्लोक 11: कार्य और कारण का स्रष्टा यह आत्मा सकाम कर्मों से जनित सुख तथा दुख को स्वीकार नहीं करता। वह भौतिक देह स्वीकार करने या न करने के लिए परम स्वतंत्र है और भौतिक शरीर न होने के कारण वह सदैव उदासीन या तटस्थ रहता है। जीवात्मा ईश्वर का भिन्न अंश है और सूक्ष्म मात्रा में उनके गुणों को धारण किए रहता है। अत: मनुष्य को शोक से प्रभावित नहीं होना चाहिए।

श्लोक 12: श्री शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा—जब महाराज चित्रकेतु के पुत्र रूप में वह बद्धजीव इस प्रकार बोलकर जब चला गया तो चित्रकेतु तथा मृत पुत्र के अन्य सम्बन्धी अत्यन्त विस्मित हुए। तब उन्होंने उसके साथ अपने सम्बन्ध से उत्पन्न स्नेह-बन्धन को काट दिया और शोक का परित्याग कर दिया।

श्लोक 13: मृत बालक के शरीर का दाह-संस्कार तथा यथोचित अनुष्ठान सम्पन्न करने के बाद सम्बन्धियों ने उस स्नेह को भी त्याग दिया जिसके कारण मोह, शोक, भय तथा दुख की प्राप्ति होती है। निस्सन्देह, ऐसे स्नेह को त्याग पाना कठिन है, किन्तु उन्होंने सरलता से परित्याग कर दिया।

श्लोक 14: रानी कृतद्युति की सौतें, जिन्होंने बालक को विष दिया था, अत्यन्त लज्जित हुईं और उनके शरीर कान्तिविहीन हो गये। हे राजन्! शोक करते हुए उन्हें ऋषि अंगिरा के उपदेश स्मरण हो आए और उन्होंने पुत्र उत्पन्न करने की कामना का परित्याग कर दिया। ब्राह्मणों के निर्देशानुसार वे यमुना के तट पर गईं, वहाँ पर स्नान किया और अपने पापकर्मों के लिए प्रायश्चित्त किया।

श्लोक 15: परम ब्राह्मण अंगिरा तथा नारद के उपदेशों से जाग्रत होकर राजा चित्रकेतु आत्मज्ञान से भलीभाँति अवगत हो गया। जिस प्रकार हाथी कीचड़-युक्त जलाशय से बाहर निकल आता है, वैसे ही राजा चित्रकेतु गृहस्थ जीवन के अंधकूप से बाहर निकल आया।

श्लोक 16: राजा ने यमुना जल में स्नान किया और विधिपूर्वक अपने पितरों तथा देवताओं को जल का अर्घ्य दिया। फिर इन्द्रियों तथा मन को बड़े विकटता से संयमित करते हुए उन्होंने ब्रह्माजी के दोनों पुत्रों (अंगिरा तथा नारद) को नमस्कार किया।

श्लोक 17: तत्पश्चात् आत्मसंयमी तथा शरणागत भक्त चित्रकेतु पर अत्यधिक प्रसन्न होकर सर्वाधिक शक्तिमान मुनि नारद ने निम्नानुस्तर दिव्य उपदेश दिया।

श्लोक 18-19: [नारद ने चित्रकेतु को निम्नलिखित मंत्र प्रदान किया]। ॐकार (प्रणव) नाम से सम्बोधित किये जाने वाले हे ईश्वर, हे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्! मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ। हे भगवान् वासुदेव! मैं आपका ध्यान करता हूँ। हे भगवान् प्रद्युम्न, भगवान् अनिरुद्ध तथा भगवान् संकर्षण! मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ। हे दिव्य शक्ति के आगार, हे परमानन्द! मैं आत्मनिर्भर (आत्माराम) तथा परम शान्त आपको सादर नमस्कार करता हूँ। हे परम सत्य, अद्वितीय! आप ब्रह्म, परमात्मा तथा भगवान् रूप में जाने जाते हैं, अत: आप समस्त ज्ञान के आगार हैं। मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

श्लोक 20: अपने व्यक्तिगत आनन्द का अनुभव करते हुए आप सदैव भौतिक प्रकृति की लहरों के परे हैं। अत: हे ईश्वर! मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ। आप इन्द्रियों के परम नियामक (प्रेरक) हैं और आपके रूप के प्रकाश (विस्तार) अनन्त हैं। आप परम महान् हैं, अत: मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

श्लोक 21: बद्धजीव की वाणी तथा मन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् तक नहीं पहुँच पाते क्योंकि वे नितान्त आत्मस्वरूप, स्थूल तथा सूक्ष्म रूपों की अवधारणाओं से परे हैं, अत: उन पर भौतिक नाम तथा रूप लागू नहीं होते। निर्गुण ब्रह्म उनके अन्य रूपों में से है। वे अपने आनन्द-स्वरुप से हमारी रक्षा करें।

श्लोक 22: जिस प्रकार मिट्टी के पात्र बनाये जाने के बाद पृथ्वी पर स्थित रहते हैं और तोड़ दिये जाने पर पुन: मिट्टी बन जाते हैं, उसी प्रकार से यह दृश्य जगत परम ब्रह्म द्वारा उत्पन्न किया जाता है, उन्हीं में स्थित रहता है और उन्हीं में विलीन हो जाता है। अत: ब्रह्म के कारण स्वरूप पूर्ण पुरुषोत्तम को हमारा सादर नमस्कार है।

श्लोक 23: पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् से प्रादुर्भूत होकर परम ब्रह्म व्योम की तरह विस्तृत हो जाता है। यद्यपि इसको कोई भौतिक पदार्थ स्पर्श नहीं कर सकता, किन्तु यह भीतर तथा बाहर विद्यमान है। तो भी मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ तथा प्राणशक्ति न तो उसका स्पर्श कर सकती हैं, न उसे जान सकती हैं। मैं उनको सादर नमस्कार करता हूँ।

श्लोक 24: जिस प्रकार अग्नि के सम्पर्क से तप्त हुआ लोहा भस्म कर देने में समर्थ है उसी प्रकार शरीर, इन्द्रियाँ, प्राणशक्ति, मन तथा बुद्धि पदार्थ के पिण्ड मात्र होते हुए भी श्रीभगवान् द्वारा चेतना के कणमात्र से पूरित होने पर अपने-अपने कार्य करने लगते हैं। जिस प्रकार अग्नि में तप्त हुए बिना लोहा कुछ भी जला पाने में अशक्त रहता है उसी प्रकार ये शारीरिक इन्द्रियाँ परमेश्वर की कृपादृष्टि के बिना कार्य नहीं कर सकतीं।

श्लोक 25: हे वैकुण्ठलोक में आसीन दिव्य ईश्वर! आपके चरणकमल सदैव श्रेष्ठ-भक्तों के समुदाय के करकमलों के द्वारा चाँपे जाते हैं। आप छ: ऐश्वर्यों से पूर्ण श्रीभगवान् हैं। आप पुरुषसूक्त की स्तुतियों में वर्णित परम पुरुष हैं। आप परम पूर्ण, समस्त योग-शक्तियों के स्वरूपसिद्ध स्वामी हैं। मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

श्लोक 26: श्री शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा—चित्रकेतु के पूर्णत: शरणागत होने पर गुरु हो जाने के कारण नारद ने इस स्तुति के द्वारा उसे पूरा पूरा उपदेश दिया। हे राजा परीक्षित! तत्पश्चात् अंगिरा ऋषि सहित नारद मुनि ब्रह्मलोक नामक सर्वोच्च लोक के लिए चल पड़े।

श्लोक 27: केवल जल पीकर उपवास करते हुए राजा चित्रकेतु ने नारद मुनि द्वारा दिये गये मंत्र का एक सप्ताह तक अत्यन्त ध्यानपूर्वक लगातार जप किया।

श्लोक 28: हे राजा परीक्षित! अपने गुरु से प्राप्त मंत्र को केवल सात दिनों तक अभ्यास करने पर राजा चित्रकेतु को अन्तिम फल के रूप में आत्मज्ञान हो जाने से विद्याधर लोक का राज्य प्राप्त हुआ।

श्लोक 29: तदनन्तर कुछ ही दिनों में चित्रकेतु द्वारा जपे गए मंत्र के प्रभाव से उस का मन आत्म- ज्ञान से अत्यधिक प्रकाशित हो गया और उन्होंने अनन्त देव के चरणारविन्द की शरण प्राप्त की।

श्लोक 30: भगवान् शेष की शरण में पहुँचकर चित्रकेतु ने देखा कि वे कमल-पुष्प के श्वेत रेशों के समान ही श्वेत वर्ण के थे। उन्होंने नीला वस्त्र धारण कर रखा था और चमचमाते मुकुट, बाजूबंद, करधनी तथा कंगन से आभूषित थे। उनका मुख मन्द हँसी से युक्त था। उनके नेत्र रक्तिम थे। वे सनत्कुमार जैसे मुक्त पुरुषों से घिरे हुए थे।

श्लोक 31: परमेश्वर का दर्शन पाते ही महाराज चित्रकेतु के समस्त भौतिक कल्मष धुल गये और वे पूर्णत: पवित्र हो जाने के कारण अपनी मूल कृष्णचेतना (भक्ति) में स्थित हो गये। वे पूर्णत: पवित्र हो जाने के कारण शान्त एवं गम्भीर हो गये, ईश्वर के प्रेमवश उनकी आँखों से अश्रु झरने लगे और अन्त में उन्हें रोमांच हो आया। उन्होंने अत्यन्त भक्ति तथा प्रेम-पूर्वक आदि भगवान् को सादर नमस्कार किया।

श्लोक 32: चित्रकेतु के प्रेमाश्रुओं से भगवान् के चरणकमल का आसन (चौकी) बार बार भीग जाता था। आल्हाद के कारण वाणी अवरुद्ध हो जाने से वे लम्बे अन्तराल तक भगवान् की उचित स्तुति में एक भी शब्द का उच्चारण न कर पाये।

श्लोक 33: तत्पश्चात् अपनी बुद्धि के द्वारा मन को वश में करके और अपनी इन्द्रियों को बाह्य विषयों से समेट कर वे अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए उपयुक्त शब्द ढूँढ सके। इस प्रकार वे उन भगवान् की स्तुति करने लगे जो साक्षात् शास्त्रों (ब्रह्म-संहिता तथा नारद पंचरात्र जैसी सात्वत संहिताओं) के स्वरूप हैं एवं सबों के गुरु हैं। उन्होंने निम्नवत् स्तुति की।

श्लोक 34: चित्रकेतु ने कहा—हे अजेय भगवान्! यद्यपि आप को कोई जीत नहीं सकता, किन्तु उन भक्तों के द्वारा अवश्य जीत लिये जाते हैं जिनका अपने मन तथा इन्द्रियों पर संयम है। वे आपको इसलिए वश में रख पाते हैं क्योंकि आप उन भक्तों पर अकारण दयालु हैं, जो आपसे किसी प्रकार के लाभ की कामना नहीं करते। निस्सन्देह, आप उन्हें अपने आपको प्रदान कर देते हैं; इसलिए अपने भक्तों पर आपका भी पूरा नियंत्रण रहता है।

श्लोक 35: हे ईश्वर! यह दृश्य जगत तथा इसकी उत्पत्ति, पालन एवं संहार—ये सभी आपके ऐश्वर्य हैं। चूँकि ब्रह्मा तथा अन्य कर्ता (निर्माता) आपके अंश के भी क्षुद्र अंश हैं, अत: सृष्टि करने की उनकी आंशिक शक्ति उन्हें ईश्वर नहीं बना सकती। तो भी अपने को पृथक् ईश्वर मान बैठने की चेतना उनके अहंकार मात्र की द्योतक है। यह वैध नहीं है।

श्लोक 36: आप इस दृश्य जगत के नन्हें से नन्हें कण-परमाणु से लेकर विराट ब्रह्माण्डों तथा समस्त भौतिक शक्ति तक की प्रत्येक वस्तु के आदि, मध्य तथा अन्त में विद्यमान हैं। फिर भी आप नित्य हैं, जिसका न कोई आदि है, न अन्त या मध्य। आप इन तीनों स्थितियों में विद्यमान देखे जाते हैं; इस तरह आप अटल हैं। जब इस दृश्य जगत का अस्तित्व नहीं रहता तो आप आदि शक्ति के रूप में विद्यमान रहते हैं।

श्लोक 37: प्रत्येक ब्रह्माण्ड सात आवरणों—पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, सकल भौतिक शक्ति तथा अहंकार—से घिरा है जिनमें से प्रत्येक अपने से पहले वाले से दस गुना बड़ा है। इस ब्रह्माण्ड के अतिरिक्त भी असंख्य ब्रह्माण्ड हैं, जो असीम और विशाल हैं और आपमें स्थित परमाणुओं की भाँति चक्कर लगाते रहते हैं। इसलिए आप अनन्त कहलाते हैं।

श्लोक 38: हे भगवन्, हे परमेश्वर! इन्द्रियतृप्ति के भूखे तथा विभिन्न देवताओं की उपासना करने वाले अज्ञानी पुरुष नर-वेश में पशुओं के समान हैं। वे पाशविक वृत्ति के कारण आपकी उपासना न करके नगण्य देवताओं को, जो आपके यश की लघु चिनगारी के समान हैं, पूजते हैं। समस्त ब्रह्माण्ड के संहार के साथ ये देवता तथा इनसे प्राप्त आशीर्वाद उसी प्रकार विनष्ट हो जाते हैं जिस प्रकार राजा की सत्ता छिन जाने पर राजकीय अधिकारी।

श्लोक 39: हे परमेश्वर! यदि ऐश्वर्य द्वारा इन्द्रियतृप्ति पाने के इच्छुक व्यक्ति भी समस्त ज्ञान के स्रोत तथा भौतिक गुणों से परे आपकी उपासना करते हैं, तो उनका पुनर्जन्म नहीं होता जिस प्रकार भुने बीज से पौधे नहीं उत्पन्न होते। जीवात्माओं को जन्म तथा मृत्यु का चक्र भोगना पड़ता है क्योंकि वे भौतिक प्रकृति द्वारा बद्ध हैं परन्तु आप दिव्य हैं, अत: जो आपसे संगति करता है, वह भौतिक प्रकृति के बन्धन से छूट जाता है।

श्लोक 40: हे अजित! जब आपने भागवत-धर्म कह सुनाया जो आप के चरणकमलों में शरण लेने के लिए अकलुषित धार्मिक प्रणाली थी, तो वह आपकी विजय थी। आत्मतुष्ट (आत्माराम) चतु:सन के समान निष्काम व्यक्ति, भौतिक कल्मष से मुक्त होने के लिए आपकी उपासना करते हैं। दूसरे शब्दों में, कहा जा सकता है कि वे आपके चरणारविन्द की शरण प्राप्त करने के लिए भागवतधर्म को ग्रहण करते हैं।

श्लोक 41: भागवतधर्म को छोडक़र शेष सभी धर्म पारम्पारिक विरोधाभासों से पूर्ण हैं और कर्मफल की सकाम विचारधारा और ‘तू और मैं’ तथा ‘तेरा और मेरा’ जैसे भेदभावों से पूर्ण हैं। श्रीमद्भागवत के अनुयायियों में ऐसी चेतना नहीं रहती। वे कृष्णभावनामृत से पूरित रहते हैं और अपने को श्रीकृष्ण का और श्रीकृष्ण को अपना मानते हैं। कुछ निम्नकोटि की भी धार्मिक पद्धतियाँ हैं, जो शत्रुओं को मारने या योगशक्ति प्राप्त करने के लिए निर्मित हैं, किन्तु ये काम तथा द्वेष से पूर्ण होने के कारण अशुद्ध एवं नाशवान् हैं। द्वेषपूर्ण होने से वे अधर्म से पूर्ण हैं।

श्लोक 42: ऐसा धर्म जिससे अपने तथा परायों में द्वेष उत्पन्न होता है किस प्रकार लाभप्रद हो सकता है? ऐसे धर्म का पालन करने से कौन सा कल्याण हो सकता है? इससे आखिर क्या मिलेगा? आत्म द्वेष के द्वारा अपने आपको तथा अन्यों को कष्ट पहुँचा कर मनुष्य आपके (भगवान् के) क्रोध का भाजन होता है और अधर्म करता है।

श्लोक 43: हे भगवन्! जीवन के महदुद्देश्य से विचलित न होने वाले आपके दृष्टिकोण के अनुसार मनुष्य का वृत्तिपरक धर्म श्रीमद्भागवत तथा भगवद्गीता में उपदिष्ट होना है। जो मनुष्य आपके आदेशानुसार इस धर्म का पालन करते हैं, जड़ तथा चेतन समस्त जीवात्माओं को समान मानते हैं और किसी को उच्च तथा निम्न नहीं मानते हैं, वे आर्य कहलाते हैं। ऐसे आर्य आप की अर्थात् पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की उपासना करते हैं।

श्लोक 44: हे भगवन्! आपके दर्शनमात्र से किसी के लिए भी समस्त भौतिक कल्मषों से तुरन्त मुक्त हो जाना असम्भव नहीं है। आपको प्रत्यक्ष देखने की बात तो एक ओर रही; आपके पवित्र नाम को एक बार सुन लेने से ही चण्डाल तक समस्त भौतिक कल्मष से विमुक्त हो जाते हैं। ऐसी दशा में आपके दर्शनमात्र से ऐसा कौन है, जो भौतिक कल्मष से मुक्त नहीं हो पायेगा?

श्लोक 45: अत: हे भगवन्! आपके दर्शन मात्र मेरे समस्त पापकर्मों के कल्मष एवं भौतिक आसक्ति तथा कामासक्त विषयों के फल, जिनसे मेरा मन तथा अन्त:स्थल पूरित था, सदा सर्वदा के लिए धो दिये हैं। जो कुछ नारद मुनि ने भविष्यवाणी की है, वह अन्यथा नहीं हो सकता। दूसरे शब्दों में, नारद मुनि के द्वारा शिक्षित किये जाने के कारण ही मुझे आपका सान्निध्य प्राप्त हो सका है।

श्लोक 46: हे अनन्त भगवान्! इस भौतिक जगत में जीवात्मा जो भी करता है, वह आपको भली भाँति विदित रहता है क्योंकि आप परमात्मा हैं। सूर्य की उपस्थिति में जुगनुओं के प्रकाश से कुछ भी उद्दीप्त नहीं होता? इसी प्रकार, चूँकि आप सब कुछ जानने वाले हैं, अत: आपकी उपस्थिति में मेरे बताने के लिए कुछ भी नहीं है।

श्लोक 47: हे भगवान्! आप ही इस दृश्य जगत के स्रष्टा, पालक तथा संहारक हैं, किन्तु घोर संसारी तथा भेदवादी जनों के पास वे नेत्र ही नहीं होते जिनसे वे आपको देख सकें। वे आपकी वास्तविक स्थिति को न समझ पाने के कारण इस निष्कर्ष पर पहुंच जाते हैं कि यह दृश्य-जगत आपके ऐश्वर्य से स्वतंत्र है। हे भगवान्! आप परम विशुद्ध हैं और सभी छहों ऐश्वर्यों से ओतप्रोत हैं। अत: मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

श्लोक 48: हे भगवान्! आपकी चेष्टा से ही भगवान् ब्रह्मा, इन्द्र तथा दृश्य जगत के अन्य अधीक्षक अपने अपने कार्यों में निरत हो जाते हैं। हे ईश्वर! आपके द्वारा भौतिक शक्ति को देखे जाने पर ही इन्द्रियाँ देख पाती हैं। अनन्त भगवान् समस्त ब्रह्माण्डों को अपने सर पर सरसों के बीजों के समान धारण किये रहते हैं। हे सहस्र-फण वाले परम पुरुष! मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

श्लोक 49: शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा—हे कुरुवंश में श्रेष्ठ, महाराज परीक्षित! विद्याधरों के राजा चित्रकेतु द्वारा की गई स्तुति से अत्यधिक प्रसन्न होकर भगवान् अनन्तदेव ने इस प्रकार उत्तर दिया।

श्लोक 50: भगवान् अनन्त देव ने इस प्रकार उत्तर दिया—हे राजन्! परम साधु नारद तथा अंगिरा द्वारा मेरे सम्बन्ध में दिये गये उपदेशों को अंगीकार करने के फलस्वरुप तुम दिव्य ज्ञान से भली-भाँति अवगत हो चुके हो। आध्यात्मिक ज्ञान में शिक्षित हो जाने के कारण अब तुमने मेरा साक्षात् दर्शन किया है, अत: तुम अब पूर्णतया सिद्ध हो चुके हो।

श्लोक 51: समस्त चर तथा अचर जीवात्माएँ मेरे ही प्रकाश (विस्तार) हैं और मुझसे पृथक् हैं। मैं ही समस्त जीवों का परमात्मा हूँ; मेरे प्रकाशित करने के ही कारण उनका अस्तित्व है। मैं ही ऊँकार तथा हरे कृष्ण हरे राम मंत्र जैसे दिव्य शब्दों का रूप हूँ और मैं ही परम सत्य हूँ। ये दोनों रूप—दिव्य शब्द तथा श्रीविग्रह का शाश्वत आनन्दमय दिव्य रूप—मेरे शाश्वत रूप हैं, वे भौतिक नहीं हैं।

श्लोक 52: बद्धजीव इस भौतिक जगत में, जिसे वह सुख के साधनों से भरा हुआ समझता है, यह सोचकर विस्तार करता है कि वही इस जगत का भोक्ता है। इसी प्रकार यह भौतिक जगत जीवात्मा के सुख के साधनस्वरूप विस्तार करता है। इस प्रकार दोनों ही विस्तार करते हैं, किन्तु दोनों ही मेरी शक्तियाँ होने के कारण मुझसे युक्त हैं। परमेश्वर होने के कारण मैं इन फलों का कारण हूँ और मनुष्य को यह जानना चाहिए कि ये दोनों ही मुझमें व्याप्त हैं।

श्लोक 53-54: जब मनुष्य गाढ़ निद्रा में होता है, तो वह स्वप्न देखता है और अपने अन्तर में विशाल पर्वत तथा नदियाँ या सम्भवत: सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को भी देखता है, यद्यपि ये सारी वस्तुएँ अत्यन्त दूर हैं। किन्तु कभी कभी जब वह स्वप्न से जगता है, तो अपने को मनुष्य रूप में एक स्थान पर बिस्तर पर लेटा पाता है। तब वह अपने को अनेक स्थितियों में पाता है यथा विशेष राष्ट्रीयता, परिवार आदि में। प्रगाढ़-निद्रा, स्वप्न तथा जाग्रत ये समस्त अवस्थाएँ भगवान् की ही शक्तियाँ हैं। मनुष्य को इन अवस्थाओं के मूल स्रष्टा को, जो इनसे प्रभावित नहीं होता, सदैव स्मरण रखना चाहिए।

श्लोक 55: तुम मुझे परब्रह्म जानो, जो सर्वव्यापी परमात्मा है और जिसके माध्यम से सुप्त जीवात्मा अपनी सुप्तावस्था तथा इन्द्रियातीत सुखों का अनुभव कर सकता है। कहने का तात्पर्य यह है। कि सुप्त जीवात्माओं की गतिविधियों का कारण मैं ही हूँ।

श्लोक 56: यदि निद्रा के समय देखे गये स्वप्न केवल परमात्मा द्वारा ही देखे गए विषय हैं, तो फिर जीवात्मा, जो परमात्मा से पृथक् है, स्वप्नों के क्रियाकलापों को क्यों स्मरण रखता है? एक व्यक्ति के अनुभवों को दूसरा नहीं समझ सकता। अत: जीवात्मा, जो तथ्यों का ज्ञाता है और स्वप्न तथा जागृति में प्रकट होने वाली घटनाओं के विषय में जिज्ञासा करता है आकस्मिक कार्यों से पृथक् है। जानने वाला तो ब्रह्म है। दूसरे शब्दों में जानने का गुण जीवात्मा तथा परमात्मा से सम्बन्धित है। इसलिए जीवात्मा को भी स्वप्न तथा जागृति की घटनाओं का अनुभव हो सकता है। दोनों दशाओं में ज्ञाता वही रहता है और गुणरूप में वह परब्रह्म से एकाकार है।

श्लोक 57: जब जीवात्मा अपने आपको मुझसे भिन्न मानकर ज्ञान तथा आनन्द में मुझसे अपने गुण रूप में दिव्य तादात्म्य को भूल जाता है तभी उसका यह भौतिक बद्ध जीवन प्रारम्भ होता है। कहने का अभिप्राय यह है कि वह मुझमें तादात्म्य न मानकर अपने सांसारिक विस्तारों में, यथा पत्नी, सन्तान तथा धन में अभिरुचि दिखाने लगता है। इस प्रकार अपने कर्मों के प्रभाव से एक शरीर के बाद दूसरा शरीर और एक मृत्यु के बाद दूसरी मृत्यु का चक्कर लगाता रहता है।

श्लोक 58: वैदिक ज्ञान तथा उसके व्यवहार के माध्यम से आत्म-साक्षात्कार द्वारा मनुष्य अपने जीवन में सिद्धि प्राप्त कर सकता है। ऐसा भारत में जन्म लेने वाले मनुष्य के लिए विशेष रूप से सम्भव है। जो मनुष्य ऐसी उपयुक्त परिस्थिति में जन्म लेकर अपने आपको नहीं जान पाता वह परम सिद्धि को प्राप्त कर सकने में अक्षम रहता है भले ही वह स्वर्ग लोक को प्राप्त क्यों न हो जाए।

श्लोक 59: यह स्मरण रखते हुए कि कर्मफल हेतु सम्पन्न कर्मों के क्षेत्र में बड़ी बड़ी अड़चनें आती हैं और इच्छा से विपरीत फल प्राप्त होते हैं चाहे वे भौतिक कर्मों से उत्पन्न हों या वैदिक ग्रंथों द्वारा बताये सकाम कर्मों के फल हों, बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि वह सकाम कर्मों की इच्छा का परित्याग कर दे क्योंकि ऐसी चेष्टाओं से जीवन का परम उद्देश्य प्राप्त नहीं हो सकता। दूसरी ओर यदि कोई कर्मफल के हेतु निष्काम भाव से कर्म करता है अर्थात् वह भक्ति-कार्यों में लगता है, तो दयनीय स्थितियों से मुक्त रहकर वह जीवन का परम उद्देश्य प्राप्त कर सकता है। इस पर विचार करते हुए मनुष्य को चाहिए कि भौतिक कामनाओं का परित्याग करे।

श्लोक 60: पुरुष तथा स्त्री जैसे दम्पत्ति के रूप में कई प्रकार से पारस्परिक सहयोग करके सुख प्राप्त करने तथा दुख को कम करने के लिए कई प्रकार से योजना बनाते हैं; किन्तु कामनाओं से पूर्ण होने के कारण उनके कर्मों से न तो कभी सुख प्राप्त होता है और न दुख में कमी आती है। उल्टे, ये भारी दुख के कारण बनते हैं।

श्लोक 61-62: मनुष्य को यह जान लेना चाहिए कि जो व्यक्ति अपने भौतिक अनुभव पर गर्व करते हैं उन्हें जगते, सोते तथा प्रगाढ़ निद्रा में कल्पित किए गये फलों के विपरीत फल मिलते हैं। मनुष्य को यह भी समझना चाहिए कि यद्यपि भौतिकतावादी व्यक्ति के लिए आत्मा को देख पाना दुष्कर है, तो भी वह इन समस्त स्थितियों से परे है और उसे अपने विवेक के आधार पर इस जन्म में तथा अगले जन्म में कर्म-फल की इच्छा का परित्याग कर देना चाहिए। इस प्रकार दिव्य ज्ञान में अनुभवी बनकर ही किसी को मेरा भक्त बनना चाहिए।

श्लोक 63: जो पुरुष जीवन के परम उद्देश्य को प्राप्त करना चाहते हैं उन्हें चाहिए कि वे परम पुरुष तथा जीवात्मा का भलीभाँति अवलोकन करें जो अंश तथा पूर्ण होने के कारण गुण रूप से एक ही हैं। जीवन की यही सबसे बड़ी समझ है। इससे बढक़र और कोई सत्य नहीं है।

श्लोक 64: हे राजन्! यदि तुम भौतिक सुख से विरक्त रह कर परम श्रद्धा सहित मुझसे संलग्न होकर ज्ञान तथा इसकी जीवन में व्यवहारिकता में निपुण बन कर मेरे इस निष्कर्ष को स्वीकार करोगे तो तुम परम सिद्धि को प्राप्त होगे।

श्लोक 65: श्री शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा—इस प्रकार चित्रकेतु को उपदेश देकर और उसे सिद्धि का आश्वासन देकर जगद्गुरु परमात्मा भगवान् संकर्षण उस स्थान से चित्रकेतु के देखते-देखते अन्तर्धान हो गये।

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