अध्याय 2: विष्णुदूतों द्वारा अजामिल का उद्धार
संक्षेप विवरण: इस अध्याय में वैकुण्ठ के दूत यमदूतों को भगवान् के पवित्र नाम के कीर्तन की महिमा बतलाते हैं। विष्णुदूतों ने कहा, “अब तो भक्तों की सभा में भी अपवित्र कर्म किये जाते…
श्लोक 1: शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजन्! भगवान् विष्णु के दूत नीति तथा तर्कशास्त्र में अति पटु होते हैं। यमदूतों के कथनों को सुनने के बाद उन्होंने इस प्रकार उत्तर दिया।
श्लोक 2: विष्णुदूतों ने कहा : हाय! यह कितना दु:खद है कि ऐसी सभा में जहाँ धर्म का पालन होना चाहिए, वहाँ अधर्म को लाया जा रहा है। दरअसल, धार्मिक सिद्धान्तों का पालन करने के अधिकारी जन एक निष्पाप एवं अदण्डनीय व्यक्ति को व्यर्थ ही दण्ड दे रहे हैं।
श्लोक 3: राजा या सरकारी शासक को इतना सुयोग्य होना चाहिए कि वह स्नेह और प्रेम के साथ नागरिकों के पिता, पालक तथा संरक्षक के रूप में कार्य कर सके। उसे मानक शास्त्रों के अनुसार नागरिकों को अच्छी सलाह तथा आदेश देने चाहिए और हर एक के प्रति समभाव रखना चाहिए। यमराज ऐसा करता है, क्योंकि वह न्याय का परम स्वामी है और उसके पदचिन्हों पर चलने वाले भी वैसा ही करते हैं, किन्तु यदि ऐसे लोग दूषित हो जायँ और निर्दोष तथा अबोध व्यक्ति को दण्डित करके पक्षपात प्रदर्शित करें तो फिर सारे नागरिक अपने भरण-पोषण तथा सुरक्षा के लिए शरण लेने हेतु कहाँ जायेंगे?
श्लोक 4: आम जनता समाज में नेता के उदाहरण का अनुगमन और उसके आचरण का अनुसरण करती है। नेता जो भी मानता है उसे आप जनता प्रमाण रूप में स्वीकार करती है।
श्लोक 5-6: सामान्य लोग ज्ञान में इतने उन्नत नहीं होते है कि धर्म तथा अधर्म में भेदभाव कर सकें। अबोध, अप्रबुद्ध नागरिक उस अज्ञानी पशु की तरह है, जो अपने स्वामी की गोद में सिर रख कर शान्तिपूर्वक सोता रहता है और श्रद्धापूर्वक अपने स्वामी द्वारा अपने संरक्षण पर विश्वास करता है। यदि नेता वास्तव में दयालु हो तथा जीव की श्रद्धा का भाजन बनने योग्य हो तो वह किसी मूर्ख व्यक्ति को किस तरह दण्ड दे सकता है या जान से मार सकता है, जिसने श्रद्धा तथा मैत्री में पूर्णतया आत्मसमर्पण कर दिया हो?
श्लोक 7: अजामिल पहले ही अपने सारे पापकर्मों के लिए प्रायश्चित्त कर चुका है। दरअसल, उसने न केवल एक जीवन में किये गये पापों का प्रायश्चित्त किया है, अपितु करोड़ों जीवनों में किये गये पापों के लिए किया है, क्योंकि उसने असहाय अवस्था में नारायण-नाम का उच्चारण किया है। यद्यपि उसने शुद्धरीति से यह उच्चारण नहीं किया, किन्तु उसने अपराधरहित उच्चारण किया है इसलिए अब वह पवित्र है और मोक्ष का पात्र है।
श्लोक 8: विष्णुदूतों ने आगे कहा : यहाँ तक कि पहले भी, खाते समय तथा अन्य अवसरों पर यह अजामिल अपने पुत्र को यह कहकर पुकारा करता, “प्रिय नारायण! यहाँ तो आओ।” यद्यपि वह अपने पुत्र का नाम पुकारता था, फिर भी वह ना, रा, य तथा ण इन चार अक्षरों का उच्चारण करता था। इस प्रकार केवल नारायण नाम का उच्चारण करने से उसने लाखों जन्मों के पापपूर्ण फलों के लिए पर्याप्त प्रायश्चित्त कर लिए हैं।
श्लोक 9-10: भगवान् विष्णु के नाम का कीर्तन सोना या अन्य मूल्यवान वस्तुओं के चोर, शराबी, मित्र या सम्बन्धी के साथ विश्वासघात करने वाले, ब्राह्मण के हत्यारे अथवा अपने गुरु अथवा अन्य श्रेष्ठजन की पत्नी के साथ संभोग करने वाले के लिए प्रायश्चित्त की सर्वोत्तम विधि है। स्त्रियों, राजा या अपने पिता के हत्यारे, गौवों का वध करने वाले तथा अन्य सारे पापी लोगों के लिए भी प्रायश्चित्त की यही सर्वोत्तम विधि है। भगवान् विष्णु के पवित्र नाम का केवल कीर्तन करने से ऐसे पापी व्यक्ति भगवान् का ध्यान आकृष्ट कर सकते हैं और वे इसीलिए विचार करते हैं कि, “इस व्यक्ति ने मेरे नाम का उच्चारण किया है, इसलिए मेरा कर्तव्य है कि उसे सुरक्षा प्रदान करूँ।”
श्लोक 11: वैदिक कर्मकाण्डों का पालन करने अथवा प्रायश्चित्त करने से पापी लोग उस तरह से शुद्ध नहीं हो पाते जिस तरह एक बार भगवान् हरि के पवित्र नाम का कीर्तन करने से शुद्ध बनते हैं। यद्यपि आनुष्ठानिक प्रायश्चित्त मनुष्य को पापफलों से मुक्त कर सकता है, किन्तु यह भक्ति को जाग्रत नहीं करता जिस तरह परम भगवान् के नाम का कीर्तन मनुष्य को भगवान् के यश, गुण, लक्षण, लीलाओं तथा साज-सामग्री का स्मरण कराता है।
श्लोक 12: धार्मिक शास्त्रों में संस्तुत किये गये प्रायश्चित्त के कर्मकाण्ड हृदय को पूरी तरह स्वच्छ बनाने में अपर्याप्त होते हैं, क्योंकि प्रायश्चित्त के बाद मनुष्य का मन पुन: भौतिक कर्मों की ओर दौड़ता है। फलस्वरूप, जो व्यक्ति भौतिक कार्यों के सकाम फलों से मुक्ति चाहता है, उसके लिए हरे कृष्ण मंत्र का कीर्तन या भगवान् के नाम, यश तथा लीलाओं की महिमा का गायन प्रायश्चित्त की सबसे पूर्ण विधि के रूप में संस्तुत किया जाता है, क्योंकि ऐसे कीर्तन से मनुष्य के हृदय में संचित धूल स्वच्छ हो जाती है।
श्लोक 13: इस अजामिल ने मृत्यु के समय असहाय होकर तथा अत्यन्त जोर-जोर से भगवान् नारायण के पवित्र नाम का उच्चारण किया है। एकमात्र उसी उच्चारण ने पूरे पापमय जीवन के फलों से उसे पहले ही मुक्त कर दिया है। इसलिए हे यमराज के सेवको! तुम उसे नारकीय दशाओं में दण्ड देने के लिए अपने स्वामी के पास ले जाने का प्रयास मत करो।
श्लोक 14: जो व्यक्ति भगवन्नाम का कीर्तन करता है उसे तुरन्त अनगिनत पापों के फलों से मुक्त कर दिया जाता है। भले ही उसने यह कीर्तन अप्रत्यक्ष रूप में (कुछ अन्य संकेत करने के लिए), परिहास में, संगीतमय मनोरंजन के लिए अथवा उपेक्षा भाव से क्यों न किया हो। इसे शास्त्रों में पारंगत सभी विद्वान पंडित स्वीकार करते हैं।
श्लोक 15: यदि कोई हरिनाम का उचार करता है और तभी किसी आकस्मिक दुर्भाग्य से यथा छत से गिरने, फिसलने या सडक़ पर यात्रा करते समय हड्डी टूट जाने, सर्प द्वारा काटे जाने, पीड़ा तथा तेज ज्वर से आक्रान्त होने या हथियार से घायल होने से, मर जाता है, तो वह कितना ही पापी क्यों न हो नारकीय जीवन में प्रवेश करने से वह तुरन्त मुक्त कर दिया जाता है।
श्लोक 16: प्राधिकृत विज्ञ पंण्डितों तथा महर्षियों ने बड़ी ही सावधानी के साथ यह पता लगाया है कि मनुष्य को भारी से भारी पापों का प्रायश्चित्त करने के लिए प्रायश्चित की भारी विधि का तथा हल्के पापों के प्रायश्चित्त के लिए हल्की विधि का प्रयोग करना चाहिए। किन्तु हरे- कृष्ण-कीर्तन सारे पापकर्मों के प्रभावों को, चाहे वे भारी हों या हल्के, नष्ट कर देता है।
श्लोक 17: यद्यपि तपस्या, दान, व्रत तथा अन्य विधियों से पापमय जीवन के फलों का निरसन किया जा सकता है, किन्तु ये पुण्यकर्म किसी के हृदय की भौतिक इच्छाओं का उन्मूलन नहीं कर सकते। किन्तु यदि वह भगवान् के चरणकमलों की सेवा करता है, तो वह तुरन्त ही ऐसे सारे कल्मषों से मुक्त कर दिया जाता है।
श्लोक 18: जिस तरह अग्नि सूखी घास को जला कर राख कर देती है, उसी तरह भगवन्नाम, चाहे वह जाने-अनजाने में उच्चारण किया गया हो, मनुष्य के पापकर्मों के सभी फलों को निश्चित रूप से जलाकर राख कर देता है।
श्लोक 19: यदि किसी दवा की प्रभावकारी शक्ति से अनजान व्यक्ति उस दवा को ग्रहण करता है या उसे बलपूर्वक खिलाई जाती है, तो वह दवा उस व्यक्ति के जाने बिना ही अपना कार्य करेगी, क्योंकि उसकी शक्ति रोगी के जानकारी पर निर्भर नहीं करती हैं। इसी तरह, भगवन्नाम के कीर्तन के महत्त्व को न जानते हुए भी यदि कोई व्यक्ति जाने या अनजाने में उसका कीर्तन करता है, तो वह कीर्तन अत्यन्त प्रभावकारी होगा।
श्लोक 20: श्रीशुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : हे राजन्! तर्क-वितर्कों द्वारा भक्ति के सिद्धान्तों का पूरी तरह से निर्णय कर चुकने के बाद विष्णु के दूतों ने अजामिल को यमदूतों के पाश से छुड़ा दिया और उसे आसन्न मृत्यु से बचा लिया।
श्लोक 21: हे राजा परीक्षित! हे समस्त शत्रुओं के दमनकर्ता! जब यमराज के सेवकों ने विष्णुदूतों से उत्तर पा लिया, तो वे यमराज के पास गये और जो कुछ घटित हुआ था, सब कह सुनाया।
श्लोक 22: यमराज के सेवकों के फन्दे से छुड़ा दिये जाने पर ब्राह्मण अजामिल अब भय से मुक्त होकर होश में आया और तुरन्त ही उसने विष्णुदूतों के चरणकमलों पर शीश झुकाकर उन्हें नमस्कार किया। वह उनकी उपस्थिति से अत्यन्त प्रसन्न था, क्योंकि उसने यमराज के दूतों के हाथों से उन्हें अपना जीवन बचाते देखा था।
श्लोक 23: हे निष्पाप महाराज परीक्षित! पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् विष्णुदूतों ने देखा कि अजामिल कुछ कहना चाह रहा था, अत: वे सहसा उसके समक्ष से अन्तर्धान हो गये।
श्लोक 24-25: यमदूतों तथा विष्णुदूतों के बीच हुए वार्तालापों को सुनकर अजामिल उन धार्मिक सिद्धान्तों को समझ सका जो भौतिक प्रकृति के तीन गुणों के अधीन कार्य करते हैं। ये सिद्धान्त तीन वेदों में उल्लिखित हैं। वह उन दिव्य धार्मिक सिद्धान्तों को भी समझ सका जो भौतिक प्रकृति के गुणों से ऊपर हैं और जो जीव तथा पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के बीच के सम्बन्ध से सम्बन्धित हैं। इतना ही नहीं, अजामिल ने पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के नाम, यश, गुणों तथा लीलाओं के गुणगान को सुना। इस तरह वह पूरी तरह शुद्ध भक्त बन गया। तब उसे अपने विगत पापकर्मों का स्मरण हुआ और उसे अत्यधिक पछतावा हुआ कि उसने ये पाप क्यों किये।
श्लोक 26: अजामिल ने कहा : हाय! अपनी इन्द्रियों का दास बनकर मैं कितना अधम बन गया! मैं अपने सुयोग्य ब्राह्मण पद से नीचे गिर गया और मैंने एक वेश्या के गर्भ से बच्चे उत्पन्न किये।
श्लोक 27: हाय! मुझे धिक्कार है। मैंने इतना पापपूर्ण कार्य किया है कि अपनी मैने कुल-परम्परा को लज्जित किया है। दरअसल, मैंने शराब पीने वाली पतित वेश्या के साथ संभोग करने के लिए अपनी सती तथा सुन्दर युवा पत्नी को त्याग दिया है। धिक्कार है मुझे।
श्लोक 28: मेरे माता-पिता वृद्ध थे और उनकी देखरेख करने वाला कोई अन्य पुत्र या मित्र न था। चूँकि मैंने उनकी देखभाल नहीं की, अतएव उन्हें बहुत ही कष्ट में रहना पड़ा। हाय! एक निन्दनीय निम्न जाति के पुरुष की तरह मैंने उस स्थिति में अकृतज्ञतापूर्वक उन्हें छोड़ दिया।
श्लोक 29: अब यह स्पष्ट है कि ऐसे कर्मों के फलस्वरूप मुझ जैसे पापी व्यक्ति को उस नारकीय अवस्था में फेंक दिया जाना चाहिए जो धार्मिक सिद्धान्तों को तोडऩे वाले लोगों के निमित्त होती है और मुझे वहाँ घोर कष्ट सहने चाहिए।
श्लोक 30: क्या मैंने यह सपना देखा था या यह सच्चाई थी? मैंने भयावह पुरुषों को हाथ में रस्सी लिये मुझको बन्दी बनाने के लिए आते और मुझे दूर घसीटकर ले जाते हुए देखा। वे कहाँ चले गये हैं?
श्लोक 31: और वे मुक्त तथा अति सुन्दर चार पुरुष कहाँ चले गये जिन्होंने मुझे बन्धन से मुक्त किया और मुझे नारकीय क्षेत्रों में घसीट कर ले जाये जाने से बचाया?
श्लोक 32: निश्चय ही मैं अति निन्दनीय तथा अभागा हूँ कि पापकर्मों के समुद्र में डूबा हुआ हूँ, किन्तु फिर भी अपने पूर्व आध्यात्मिक कर्मों के कारण मैं उन चार महापुरुषों का दर्शन कर सका जो मुझे बचाने आये थे। उनके आने से अब मैं अत्यधिक सुखी अनुभव करता हूँ।
श्लोक 33: यदि मैने विगत में भक्ति न की होती तो मुझ मलिन वेश्यागामी को, जो मरणासन्न था किस तरह वैकुण्ठपति के पवित्र नाम का उच्चारण करने का अवसर मिल पाता? निश्चय ही ऐसा सम्भव न हो पाता।
श्लोक 34: अजामिल कहता रहा : मैं ऐसा निर्लज्ज ठग हूँ जिसने अपनी ब्राह्मण संस्कृति की हत्या कर दी है। निस्सन्देह, मैं साक्षात् पाप हूँ। भला मैं भगवान् नारायण के पवित्रनाम के सर्वमंगलकारी कीर्तन की बराबरी में कहाँ ठहर सकता हूँ?
श्लोक 35: मैं ऐसा पापी व्यक्ति हूँ, किन्तु अब मुझे यह अवसर प्राप्त हुआ है, अत: मैं अपने मन, जीवन (प्राण) तथा इन्द्रियों को पूरी तरह से वश में करके भक्ति में अपने को लगाऊँगा जिससे मैं पुन: गहन अंधकार तथा भौतिक जीवन के अज्ञान में न गिरूँ।
श्लोक 36-37: शरीर से अपनी पहचान बनाने के कारण मनुष्य इन्द्रियतृप्ति के लिए इच्छाओं के अधीन होता है और इस तरह वह अपने को अनेक प्रकार के पवित्र तथा अपवित्र कार्यों में लगाता है। यही भौतिक बन्धन है। अब मैं अपने आपको उस भौतिक बन्धन से छुड़ाऊँगा जो स्त्री के रूप में पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की मोहिनी शक्ति द्वारा उत्पन्न किया गया है। सर्वाधिक पतितात्मा होने से मैं माया का शिकार बना और उस नाचने वाले कुत्ते के समान बन गया जो स्त्री के हाथ के इशारे पर चलता है। अब मैं सारी कामेच्छाओं को त्याग दूँगा और इस मोह से अपने को मुक्त कर लूँगा। मैं दयालु एवं समस्त जीवों का शुभैषी मित्र बनूंगा तथा कृष्णभावनामृत में अपने को सदैव लीन रखूँगा।
श्लोक 38: चूँकि मैंने भक्तों की संगति में भगवान् के पवित्र नाम का केवल कीर्तन किया है, इसलिए मेरा हृदय अब शुद्ध बन रहा है। इसलिए मैं अब पुन: भौतिक इन्द्रियतृप्ति के झूठे आकर्षणों का शिकार नहीं बनूँगा। चूँकि अब मैं परम सत्य में स्थित हो चुका हूँ, अत: अब उसके बाद मैं शरीर के साथ अपनी पहचान नहीं करूँगा। “मैं” तथा “मेरा” के मिथ्या विचारों को त्यागकर मैं अपने मन को कृष्ण के चरणकमलों में स्थिर करूँगा।
श्लोक 39: भक्तों (विष्णुदूतों) की क्षण-भर की संगति के कारण अजामिल ने अपने मन को संकल्पपूर्वक भौतिक देहात्मबुद्धि से विलग कर लिया। इस तरह समस्त भौतिक आकर्षण से मुक्त हुआ वह तुरन्त हरद्वार के लिए चल पड़ा।
श्लोक 40: हरद्वार में अजामिल ने एक विष्णुमन्दिर में शरण ली जहाँ उसने भक्तियोग की विधि को सम्पन्न किया। उसने अपनी इन्द्रियों को वश में किया और अपने मन को पूरी तरह से भगवान् की सेवा में लगा दिया।
श्लोक 41: अजामिल पूरी तरह से भक्ति में लग गया। इस तरह उसने इन्द्रियतृप्ति से अपने मन को विलग कर लिया और वह भगवान् के स्वरूप का चिन्तन करने में पूरी तरह लीन हो गया।
श्लोक 42: जब ब्राह्मण अजामिल की बुद्धि तथा मन भगवान् के स्वरूप पर स्थिर हो गये तो उसने पुन: उन चार दिव्य पुरुषों को अपने समक्ष देखा। वह समझ गया कि ये वही हैं, जिन्हें वह पहले देख चुका है, अत: उनके समक्ष उसने नतमस्तक होकर नमस्कार किया।
श्लोक 43: विष्णुदूतों का दर्शन करने के बाद अजामिल ने गंगानदी के तट पर हरद्वार में अपना भौतिक शरीर त्याग दिया। उसे अपना आदि आध्यात्मिक शरीर पुन: मिल गया जो भगवान् के पार्षद के लिए उपयुक्त था।
श्लोक 44: भगवान् विष्णु के दूतों के साथ अजामिल सोने के बने हुए विमान पर सवार हुआ। वह आकाश मार्ग से जाते हुए सीधे लक्ष्मीपति भगवान् विष्णु के धाम गया।
श्लोक 45: अजामिल ब्राह्मण था जिसने कुसंगति के कारण सारी ब्राह्मण-संस्कृति तथा धार्मिक नियमों को त्याग दिया था। सर्वाधिक पतित होने से वह चोरी करता, शराब पीता तथा अन्य गर्हित कार्य करता था। उसने एक वेश्या भी रख ली थी। इस तरह उसका यमराज के दूतों द्वारा नरक ले जाया जाना सुनिश्चित था, किन्तु नारायण के पवित्र नाम का लेश मात्र उच्चारण करने से ही तुरन्त उसे बचा लिया गया।
श्लोक 46: अत: जो व्यक्ति भवबन्धन से मुक्त होना चाहता है, उसे चाहिए कि उन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के नाम, यश, रूप तथा लीलाओं के कीर्तन तथा गुणगान की विधि को अपनाए, जिनके चरणों पर सारे तीर्थस्थान स्थित हैं। अन्य साधनों से, यथा पवित्र पश्चात्ताप, ज्ञान, यौगिक ध्यान से उसे उचित लाभ प्राप्त नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसी विधियों का पालन करने पर भी मनुष्य अपने मन को वश में न कर सकने के कारण पुन: सकाम कर्म करने लगता है, क्योंकि मन प्रकृति के निम्न गुणों से—यथा रजो तथा तमो गुणों से—संदूषित रहता है।
श्लोक 47-48: चूँकि इस अतिगोपनीय ऐतिहासिक कथा में सारे पापफलों को नष्ट करने की शक्ति है, अत: जो भी इसे श्रद्धा तथा भक्तिपूर्वक सुनता है या सुनाता है, वह नरकभागी नहीं होता, चाहे उसे भौतिक शरीर मिला हो और चाहे वह कितना ही पापी क्यों न रहा हो। दरअसल, यमराज के आदेशों का पालन करने वाले यमदूत उसे आँख उठाकर देखने के लिए भी उसके पास नहीं जाते। अपना शरीर त्यागने के बाद वह भगवद्धाम लौट जाता है जहाँ उसका सादर स्वागत किया जाता है और पूजा की जाती है।
श्लोक 49: अजामिल ने मृत्यु के समय कष्ट भोगते हुए भगवान् के पवित्र नाम का उच्चारण किया और यद्यपि उसका यह उच्चारण उसके पुत्र की ओर लक्षित था फिर भी वह भगवद्धाम वापस गया। इसलिए यदि कोई श्रद्धापूर्वक तथा निरपराध भाव से भगवन्नाम का उच्चारण करता है, तो वह भगवान् के पास लौटेगा इसमें सन्देह कहाँ है?