श्रीमद् भागवत महापुराण (स्कन्ध 6) | Shrimad Bhagavatam Hindi

अध्याय 3: यमराज द्वारा अपने दूतों को आदेश

संक्षेप विवरण: जैसाकि इस अध्याय में बतलाया गया है, यमदूत यमराज के पास पहुँचे तो यमराज ने विस्तार से भागवत धर्म अर्थात् भक्ति के धार्मिक नियमों की व्याख्या की। इस तरह यमराज ने…

श्लोक 1: राजा परीक्षित ने कहा : हे प्रभु, हे शुकदेव गोस्वामी! यमराज सारे जीवों के धार्मिक तथा अधार्मिक कार्यों के नियंत्रक हैं, लेकिन उनका आदेश व्यर्थ कर दिया गया है। जब उनके सेवकों अर्थात् यमदूतों ने उनसे विष्णुदूतों द्वारा अपनी पराजय की जानकारी दी जिन्होंने उन्हें अजामिल को बन्दी बनाने से रोका था, तो यमराज ने क्या उत्तर दिया?

श्लोक 2: हे महर्षि! इसके पूर्व यह कहीं भी सुनाई नहीं पड़ा कि यमराज के आदेश का उल्लंघन हुआ हो। इसलिए मैं सोचता हूँ कि लोगों को इस पर सन्देह होगा जिसका उन्मूलन अन्य कोई नहीं, अपितु आप ही कर सकते हैं। चूँकि ऐसी मेरी दृढ़ धारणा है, इसलिए कृपा करके इन घटनाओं के कारणों की व्याख्या करें।

श्लोक 3: श्रीशुकदेव गोस्वामी ने उत्तर दिया: हे राजन्! जब यमराज के दूत विष्णुदूतों द्वारा चकरा दिये गये और पराजित कर दिये गये तो वे अपने स्वामी संयमनीपुरी के नियंत्रक तथा पापी पुरुषों के स्वामी यमराज के पास इस घटना को बताने पहुँचे।

श्लोक 4: यमदूतों ने कहा : हे प्रभु! इस भौतिक जगत में कितने नियंत्रक या शासक हैं? प्रकृति के तीन गुणों (सतो, रजो तथा तमो गुणों) के अधीन सम्पन्न कर्मों के विविध फलों को प्रकट करने के लिए कितने कारण उत्तरदायी हैं?

श्लोक 5: यदि इस ब्रह्माण्ड में अनेक शासक तथा न्यायकर्ता हैं, जो दण्ड तथा पुरस्कार के विषय में मतभेद रखते हों, तो उनके विरोधी कार्य एक दूसरे को प्रभावहीन कर देंगे और न तो कोई दण्डित होगा न पुरस्कृत होगा। अन्यथा, यदि उनके विरोधी कार्य एक दूसरे को प्रभावहीन नहीं कर पाते तो हर एक को दण्ड तथा पुरस्कार दोनों ही देने होंगे।

श्लोक 6: यमदूतों ने आगे कहा : चूँकि कर्मी अनेक हैं, अतएव उनके न्याय करने वाले निर्णायक या शासक भिन्न-भिन्न हो सकते हैं, किन्तु जिस तरह एक केन्द्रीय सम्राट विभिन्न विभागीय शासकों को नियंत्रित करता है, उसी तरह सारे निर्णायकों के मार्गदर्शन हेतु एक परम नियन्ता होना चाहिए।

श्लोक 7: परम निर्णायक तो एक होना चाहिए, अनेक नहीं। हम तो यही समझते थे कि आप परम निर्णायक हैं और आपका देवताओं पर भी अधिकार है। हमारी यह धारणा थी कि आप सारे जीवों के स्वामी हैं, जो सारे मनुष्यों के शुभ तथा अशुभ कर्मों में भेदभाव करते हैं।

श्लोक 8: किन्तु अब हम देखते हैं कि आपके अधिकार के अन्तर्गत नियत किया हुआ दण्ड प्रभावी नहीं है, क्योंकि चार अद्भुत सिद्ध पुरुषों द्वारा आपके आदेश का उल्लंघन किया जा चुका है।

श्लोक 9: हम आपके आदेशानुसार महान् पापी अजामिल को नरक की ओर ला रहे थे, तभी सिद्धलोक के उन सुन्दर पुरुषों ने बलपूर्वक उन रस्सियों की गाँठों को काट दिया जिनसे हम उसे बन्दी बनाये हुए थे।

श्लोक 10: ज्योंही पापी अजामिल ने नारायण नाम का उच्चारण किया, ये चारों सुन्दर व्यक्ति तुरन्त वहाँ आ गये और यह कहकर उसे पुन: आश्वस्त किया, “डरो मत। मत डरो।” हम आपसे उनके विषय में जानना चाहते हैं। यदि आप यह सोचते हैं कि हम उनके विषय में जान सकते हैं, तो कृपा करके बताइये कि वे कौन हैं।

श्लोक 11: श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा : इस प्रकार पूछे जाने पर जीवों के परम नियन्ता यमराज अपने दूतों से नारायण का पवित्र नाम सुनकर उन पर परम प्रसन्न हुए। उन्होंने भगवान् के चरणकमलों का स्मरण किया और उत्तर देना शुरू किया।

श्लोक 12: यमराज ने कहा : मेरे प्रिय सेवको! तुम लोगों ने मुझे सर्वोच्च स्वीकार किया है, किन्तु मैं वास्तव में हूँ नहीं। मेरे ऊपर तथा इन्द्र एवं चन्द्र समेत अन्य सारे देवताओं के ऊपर एक परम स्वामी तथा नियन्ता हैं। उनके आंशिक स्वरूप ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव हैं, जो ब्रह्माण्ड के सृष्टि पालन एवं संहार के भार को संभालते हैं। वे उन दो धागों के तुल्य हैं, जो बुने हुए वस्त्र की लम्बाई तथा चौड़ाई या ताने-बाने का निर्माण करते हैं। सम्पूर्ण जगत उनके द्वारा उसी तरह नियंत्रित होता है, जिस तरह एक बैल अपने नाक की रस्सी द्वारा नियंत्रित होता है।

श्लोक 13: जिस तरह बैलगाड़ी का चालक अपने बैलों को वश में करने के लिए उनके नथुनों से निकालकर रस्सियाँ (नाथ) बाँध देता है उसी तरह पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् सारे व्यक्तियों को वेदों में कहे अपने वचनों रूपी रस्सियों (नाथ) के द्वारा बाँधते हैं, जो मानव समाज के विभिन्न वर्णों के नामों तथा कार्यों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र) को निर्धारित करते हैं। इन वर्णों के लोग भयवश परम भगवान् की पूजा अपने-अपने कर्मों के अनुसार भेंटें अर्पित करते हुए करते हैं।

श्लोक 14-15: मैं यमराज, स्वर्ग का राजा इन्द्र, निर्ऋति, वरुण, चन्द्र, अग्नि, शिव, पवन, ब्रह्मा, सूर्य, विश्वासु, आठों वरुण, साध्यगण, मरुतगण, सिद्धगण; तथा मरीचि एवं अन्य ऋषिगण जो ब्रह्माण्ड के विभागीय कार्यकर्ताओं को चलाने में लगे रहते हैं, बृहस्पति इत्यादि सर्वोत्तम देवतागण तथा भृगु आदि मुनिगण—ये सभी प्रकृति के दो निम्न गुणों—रजो तथा तमोगुण के प्रभाव से निश्चित रूप से मुक्त होते हैं। फिर भी, यद्यपि हम सतोगुणी हैं, तो भी हम पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के कार्यों को नहीं समझ सकते। तो फिर दूसरों के विषय में क्या कहा जाये जो मोह के अधीन होने से ईश्वर को जानने के लिए केवल मानसिक ऊहापोह करते हों?

श्लोक 16: जिस तरह शरीर के विभिन्न अंग आँखों को नहीं देख सकते, उसी तरह सारे जीव परमेश्वर को नहीं देख सकते जो हर एक के हृदय में परमात्मा के रूप में स्थित रहते हैं। न तो इन्द्रियों से, न मन से, न प्राणवायु से, न हृदय के अन्दर के विचारों से, न ही शब्दों की ध्वनि से जीवात्माएँ परमेश्वर की असली स्थिति को निश्चित कर सकते हैं।

श्लोक 17: पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् आत्म-निर्भर तथा पूरी तरह स्वतंत्र हैं। वे माया समेत हर एक के स्वामी हैं। वे रूप, गुण तथा स्वभाव से युक्त हैं और इसी तरह उनके आदेशपालक, अर्थात् वैष्णव, जो अत्यन्त सुन्दर होते हैं, उन्हीं जैसे ही शारीरिक स्वरूप दिव्य गुण तथा दिव्य स्वभाव से युक्त होते हैं। वे इस जगत में पूर्ण स्वतंत्रता के साथ सदैव विचरण करते हैं।

श्लोक 18: भगवान् विष्णु के दूत, जिनकी पूजा देवता भी किया करते हैं, विष्णु जैसे ही अद्भुत शारीरिक लक्षणों से युक्त होते हैं और विरले ही दिखाई देते हैं। ये विष्णुदूत भगवद्भक्तों की रक्षा उनके शत्रुओं, ईर्ष्यालु व्यक्तियों और मेरे अधिकार क्षेत्र के साथ ही साथ प्राकृतिक उत्पातों से भी करते हैं।

श्लोक 19: असली धार्मिक सिद्धान्तों का निर्माण पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् द्वारा किया जाता है। पूर्णतया सतोगुणी महान् ऋषि तक भी, जो सर्वोच्च लोकों में स्थान पाये हुए हैं, वे भी असली धार्मिक सिद्धान्तों को सुनिश्चित नहीं कर सकते, न ही देवतागण, न सिद्धलोक के नामक ही कर सकते हैं, तो असुरों, सामान्य मनुष्यों, विद्याधरों तथा चारणों की कौन कहे?

श्लोक 20-21: ब्रह्माजी, भगवान् नारद, शिवजी, चार कुमार, भगवान् कपिल (देवहूति के पुत्र), स्वायंभुव मनु, प्रह्लाद महाराज, जनक महाराज, भीष्म पितामह, बलि महाराज, शुकदेव गोस्वामी तथा मैं असली धर्म के सिद्धान्त को जानने वाले हैं। हे सेवको! यह अलौकिक धार्मिक सिद्धान्त, जो भागवत धर्म या परम भगवान् की शरणागति तथा भगवत्प्रेम कहलाता है, प्रकृति के तीनों गुणों से अकलुषित है। यह अत्यन्त गोपनीय है और सामान्य मनुष्य के लिए दुर्बोध है, किन्तु संयोगवश यदि कोई भाग्यवान् इसे समझ लेता है, तो वह तुरन्त मुक्त हो जाता है और इस तरह भगवद्धाम लौट जाता है।

श्लोक 22: भगवान् के नाम के कीर्तन से प्रारम्भ होने वाली भक्ति ही मानव-समाज में जीव के लिए परम धार्मिक सिद्धान्त है।

श्लोक 23: हे मेरे पुत्रवत् सेवको! जरा देखो न, भगवन्नाम का कीर्तन कितना महिमायुक्त है! परम पापी अजामिल ने यह न जानते हुए कि वह भगवान् के पवित्र नाम का उच्चारण कर रहा है, केवल अपने पुत्र को पुकारने के लिए नारायण नाम का उच्चारण किया। फिर भी भगवान् के पवित्र नाम का उच्चारण करने से उसने नारायण का स्मरण किया और इस तरह से वह तुरन्त मृत्यु के पाश से बचा लिया गया।

श्लोक 24: अतएव यह समझ लेना चाहिए कि मनुष्य भगवान् के पवित्र नाम का और उनके गुणों तथा कार्यों का कीर्तन करने से समस्त पाप फलों से सरलता से छुटकारा पा जाता है। पापफलों से छुटकारा पाने के लिए इसी एकमात्र विधि की संस्तुति की जाती है। यदि कोई अशुद्ध उच्चारण द्वारा भी भगवान् के नाम का कीर्तन करता है, तो उसे भवबन्धन से छुटकारा मिल जायेगा, किन्तु यदि वह अपराधरहित होकर कीर्तन करे। उदहारणार्थ, अजामिल अत्यन्त पापी था, किन्तु मरते समय उसने पवित्र नाम का उच्चारण किया और यद्यपि वह अपने पुत्र को पुकार रहा था, किन्तु उसे पूर्ण मुक्ति प्राप्त हुई, क्योंकि उसने नारायण के नाम का स्मरण किया।

श्लोक 25: पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की माया द्वारा मोहग्रस्त होने के कारण याज्ञवल्क्य, जैमिनि तथा अन्य शास्त्रप्रणेता भी बारह महाजनों की गुह्य धार्मिक प्रणाली को नहीं जान सकते। वे भक्ति करने या हरे कृष्ण मंत्र का कीर्तन करने के दिव्य महत्त्व को नहीं समझ सकते। चूँकि उनके मन वेदों—विशेषतया यजुर्वेद, सामवेद तथा ऋग्वेद में उल्लिखित कर्मकाण्डों के प्रति आकृष्ट रहते हैं, इसलिए उनकी बुद्धि जड़ हो गई है। इस तरह वे उन कर्मकाण्डों के लिए सामग्री एकत्र करने में व्यस्त रहते हैं, जो केवल नश्वर लाभ देने वाले हैं—यथा भौतिक सुख के लिए स्वर्गलोक जाना। वे संकीर्तन आन्दोलन के प्रति आकृष्ट नहीं होते बल्कि वे धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष में रुचि लेते हैं।

श्लोक 26: अत: इन सभी बातों पर विचार करते हुए बुद्धिमान लोग हर एक के हृदय में स्थित तथा समस्त शुभ गुणों की खान भगवान् के पवित्र नाम के कीर्तन की भक्ति को अपनाकर सारी समस्याओं को हल करने का निर्णय करते हैं। ऐसे लोग दण्ड देने के मेरे अधिकार क्षेत्र में नहीं आते। सामान्यतया वे कभी कोई पापकर्म नहीं करते, किन्तु यदि वे भूलवश या मोहवश कभी कोई पापकर्म करते भी हैं, तो वे पापफलों से बचा लिये जाते हैं, क्योंकि वे सदैव हरे कृष्ण मंत्र का कीर्तन करते हैं।

श्लोक 27: मेरे प्रिय सेवको! ऐसे भक्तों के पास मत जाना, क्योंकि वे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के चरणकमलों में पूरी तरह शरणागत हो चुके होते हैं। वे समदर्शी होते हैं और उनकी गाथाएँ देवताओं तथा सिद्धलोक के निवासियों द्वारा गाई जाती हैं। तुम लोग उनके निकट भी मत जाना। वे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की गदा द्वारा सदैव रक्षित रहते हैं, इसलिए ब्रह्मा तथा मैं और काल भी उन्हें दण्ड देने में समर्थ नहीं हैं।

श्लोक 28: परमहंस सम्माननीय पुरुष होते हैं, जिन्हें भौतिक भोग में कोई रुचि नहीं है तथा जो भगवान् के चरणकमलों का मधु-पान करते हैं। मेरे सेवको! मेरे पास ऐसे व्यक्तियों को ही दण्डित किये जाने के लिए लाओ जो उस मधु के आस्वादन से विमुख हैं, जो परमहंसों की संगति नहीं करते तथा जो गृहस्थ जीवन एवं सांसारिक भोग में लिप्त हैं, क्योंकि ये नरक ले जाने वाले रास्ते हैं।

श्लोक 29: हे मेरे प्यारे सेवको! तुम लोग केवल उन्हीं पापी पुरुषों को मेरे पास लाना जिनकी जीभ कृष्ण के नाम तथा गुणों का कीर्तन नहीं करती, जिनके हृदय कृष्ण के चरणकमलों का एक बार भी स्मरण नहीं करते तथा जिनके सिर एक बार भी कृष्ण के समक्ष नहीं झुकते। मेरे पास उन लोगों को भेजना जो विष्णु के प्रति अपने उन कर्तव्यों को पूरा नहीं करते जो मानव जीवन के एकमात्र कर्तव्य हैं। ऐसे सभी मूर्खों तथा धूर्तों को मेरे पास लाना।

श्लोक 30: [तब यमराज स्वयं को तथा अपने सेवकों को अपराधी मानते हुए, भगवान् से क्षमायाचना करते हुए इस प्रकार बोले] हे प्रभु! मेरे सेवकों ने निश्चित रूप से अजामिल जैसे वैष्णव को बन्दी बनाकर महान् अपराध किया है। हे नारायण, हे परम एवं पुरातन पुरुषोत्तम! आप हमें क्षमा कर दें। अपने अज्ञान के कारण हम अजामिल को आपके सेवक के रूप में नहीं पहचान सके और इस तरह हमने निश्चित रूप से महान् अपराध किया है। अतएव हम हाथ जोड़ कर आपसे क्षमा माँगते हैं। हे प्रभु! आप अत्यन्त दयालु हैं और सद्गुणों से सदैव पूर्ण रहते हैं। कृपया हमें क्षमा कर दें। हम आपको सादर नमस्कार करते हैं।

श्लोक 31: शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजन्! भगवन्नाम का कीर्तन बड़े से बड़े पापों के फलों को भी उन्मूलित करने में सक्षम है। इसलिए सङ्कीर्तन आन्दोलन का कीर्तन सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में सबसे शुभ कार्य है। कृपया इसे समझने का प्रयास करें जिससे अन्य लोग इसे गम्भीरतापूर्वक ग्रहण कर सकें।

श्लोक 32: जो व्यक्ति भगवन्नाम का निरन्तर श्रवण तथा कीर्तन करता है और भगवान् के कार्यों का श्रवण तथा कीर्तन करता है, वह बहुत ही आसानी से शुद्ध भक्ति पद को प्राप्त कर सकता है, जो उसके हृदय के मैल को शुद्ध करने वाला है। केवल व्रत रखने तथा वैदिक कर्मकाण्ड करने से ऐसी शुद्धि प्राप्त नहीं की जा सकती।

श्लोक 33: जो भक्तगण भगवान् कृष्ण के चरणकमलों के मधु को जो भक्तगण सदैव चाटते रहते हैं, वे उन भौतिक कर्मों की तनिक भी चिन्ता नहीं करते जो प्रकृति के तीन गुणों के अधीन सम्पन्न किये जाते हैं और जो केवल दु:खदायी होते हैं। दरअसल, भौतिक कर्मों में वापस आने के लिए भक्तगण कभी भी कृष्ण के चरणकमलों को नहीं छोड़ते। किन्तु अन्य लोग, जो भगवान् के चरणकमलों की सेवा की उपेक्षा करने तथा कामेच्छाओं से विमोहित होने से वैदिक कर्मकाण्डों में लिप्त रहते हैं, कभी-कभी प्रायश्चित्त के कर्म करते हैं। फिर भी अपूर्णरूप से शुद्ध होने से वे पुन:-पुन: पापकर्मों में लौट आते हैं।

श्लोक 34: अपने स्वामी के मुख से भगवान् की अद्वितीय महिमा तथा उनके नाम, यश तथा गुणों के विषय में सुनकर यमदूत आश्चर्यचकित रह गये। तब से, जैसे ही वे किसी भक्त को देखते हैं, तो वे उससे डरते हैं और उसकी ओर फिर से देखने का साहस नहीं करते।

श्लोक 35: जब कुम्भ के पुत्र अगस्त्य मुनि मलय पर्वत पर निवास कर रहे थे और पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की पूजा कर रहे थे तो मैं उनके पास गया और उन्होंने मुझे यह गुह्य इतिहास बतलाया।

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