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श्रीमद् भागवत महापुराण (स्कन्ध 6) | Shrimad Bhagavatam Hindi

अध्याय 4: प्रजापति दक्ष द्वारा भगवान् से की गई हंसगुह्य प्रार्थनाएँ

संक्षेप विवरण: जब महाराज परीक्षित ने शुकदेव गोस्वामी से याचना की कि इस ब्रह्माण्ड के जीवों की सृष्टि के विषय में और विस्तार से वर्णन करें तो शुकदेव गोस्वामी ने उन्हें बतलाया…

श्लोक 1-2: वर प्राप्त राजा ने शुकदेव गोस्वामी से कहा : हे प्रभु! देवता, असुर, मनुष्य, नाग, पशु तथा पक्षी स्वायम्भुव मनु के शासन काल में उत्पन्न किये गये थे। आपने इस सृष्टि के विषय में संक्षेप में (तृतीय स्कन्ध में) कहा है। अब मैं इसके विषय में विस्तार से जानना चाहता हूँ। मैं भगवान् की उस शक्ति के विषय में भी जानना चाहता हूँ जिससे उन्होंने गौण सृष्टि की।

श्लोक 3: सूत गोस्वामी ने कहा : हे (नैमिषारण्य में एकत्र) महामुनियो! जब महान् योगी शुकदेव गोस्वामी ने राजा परीक्षित की जिज्ञासा सुनी तो उन्होंने उसकी प्रशंसा की और इस प्रकार उत्तर दिया।

श्लोक 4: शुकदेव गोस्वामी ने कहा : जब प्राचीनबर्हि के दसों पुत्र उस जल से बाहर निकले जिसमें वे तपस्या कर रहे थे तो उन्होंने देखा कि संसार की समूची सतह वृक्षों से ढक गई है।

श्लोक 5: जल में दीर्घकाल तक तपस्या करने के कारण प्रचेतागण वृक्षों पर अत्यधिक क्रुद्ध थे। उन्हें जलाकर भस्म करने की इच्छा से उन्होंने अपने मुखों से वायु तथा अग्नि उत्पन्न की।

श्लोक 6: हे राजा परीक्षित! जब वृक्षों के राजा तथा चन्द्रमा के अधिष्ठाता देव सोम ने अग्नि तथा वायु को समस्त वृक्षों को जलाकर राख करते देखा तो उसे अपार दया आई, क्योंकि वह समस्त वनस्पतियों तथा वृक्षों का पालनकर्ता है। प्रचेताओं के क्रोध को शान्त करने के लिए सोम इस प्रकार बोला।

श्लोक 7: हे भाग्यवान् महाशयों! तुम लोगों को चाहिए कि इन बेचारे वृक्षों को जलाकर भस्म न करो। तुम लोगों का कर्तव्य नागरिकों (प्रजा) के लिए समस्त समृद्धि की कामना करना तथा उनके रक्षकों के रूप में कार्य करना है।

श्लोक 8: भगवान् श्री हरि सारे जीवों के स्वामी हैं जिनमें ब्रह्मा जैसे सारे प्रजापति सम्मिलित हैं। चूँकि वे सर्वव्यापक तथा अविनाशी प्रभु हैं, अत: उन्होंने अन्य जीवों के लिए खाद्य वस्तुओं के रूप में इन सारे वृक्षों तथा शाकों को उत्पन्न किया है।

श्लोक 9: प्रकृति की व्यवस्था के द्वारा फलों तथा फूलों को कीड़ों तथा पक्षियों का भोजन माना जाता है; घास तथा अन्य बिना पैर वाले जीव गायों तथा भैसों जैसे चौपायों के भोजन के लिए हैं। वे पशु, जो अपने अगले पैरों को हाथों की तरह काम में नहीं ला सकते पंजों वाले बाघों जैसे पशुओं के भोजन हैं तथा हिरन एवं बकरे जैसे चौपाये जानवर तथा खाद्यान्न भी मनुष्यों के भोजन के निमित्त होते हैं।

श्लोक 10: हे शुद्ध हृदयवाले! तुम्हारे पिता प्राचीनबर्हि तथा भगवान् ने तुम सबों को प्रजा उत्पन्न करने का आदेश दिया है। अत: तुम लोग इन वृक्षों तथा वनस्पतियों को किस तरह जलाकर भस्म कर सकते हो जिनकी आवश्यकता तुम्हारी प्रजा तथा तुम्हारे वंशजों के पालन के लिए पड़ेगी?

श्लोक 11: तुम्हारे पिता, पितामह तथा परदादाओं ने जिस अच्छाई के मार्ग का अनुसरण किया था, वह प्रजा के पालन करने का था जिसमें मनुष्य, पशु तथा वृक्ष सम्मिलित हैं। तुम लोगों को उसी मार्ग का पालन करना चाहिए। व्यर्थ का क्रोध तुम्हारे कर्तव्य के विरुद्ध है। अतएव मेरी प्रार्थना है कि तुम लोग अपने क्रोध को नियंत्रित करो।

श्लोक 12: पिता तथा माता जिस तरह अपनी सन्तानों के मित्र और पालनकर्ता होते हैं, जिस तरह पलक आँख की रक्षा करती है, पति जिस तरह पत्नी का भर्त्ता तथा रक्षक होता है, जिस तरह गृहस्थ भिखारियों का अन्नदाता तथा रक्षक होता है तथा जिस तरह विद्वान अज्ञानी का मित्र होता है, उसी तरह राजा अपनी प्रजा का रक्षक तथा जीवनदाता होता है। वृक्ष भी राजा की प्रजा होते हैं, अतएव उन्हें भी संरक्षण प्रदान किया जाना चाहिए।

श्लोक 13: भगवान् सारे जीवों के हृदय में परमात्मा रूप में स्थित हैं, चाहे वे चर हों या अचर। इनमें मनुष्य, पक्षी, पशु, वृक्ष तथा सारे जीव सम्मिलित हैं। इसलिए तुम लोगों को प्रत्येक शरीर को भगवान् का वासस्थान या मन्दिर मानना चाहिए। इस दृष्टिकोण से तुम लोग भगवान् को तुष्ट कर सकोगे। तुम लोगों को क्रोध में आकर वृक्षों रूपों में स्थित इन जीवों का वध नहीं करना चाहिए।

श्लोक 14: जो व्यक्ति आत्म-साक्षात्कार की जिज्ञासा करता है और इस तरह अपने शक्तिशाली क्रोध को—जो शरीर में सहसा जाग्रत हो जाता है, मानों आकाश से गिरा हो उसे दबाता है, वह भौतिक प्रकृति के गुणों को लाँघ जाता है।

श्लोक 15: अब इन बेचारे वृक्षों को जलाने की आवश्यकता नहीं है। जो वृक्ष शेष हैं उन्हें सुखपूर्वक रहने दें। निस्सन्देह, तुम लोगों को भी सुखी रहना चाहिए। यहाँ पर एक सुयोग्य सुन्दर लडक़ी है, जिसका नाम मारिषा है और जिसका पालन-पोषण इन वृक्षों ने अपनी पुत्री के रूप में किया है। तुम लोग इस सुन्दर लडक़ी को अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कर सकते हो।

श्लोक 16: शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : हे राजन्! प्रचेताओं को तुष्ट करने के बाद चन्द्रमा के राजा सोम ने प्रम्लोचा अप्सरा से उत्पन्न सुन्दर कन्या उन्हें प्रदान की। प्रचेताओं ने प्रम्लोचा की कन्या का स्वागत किया। उसके उठे हुए नितम्ब अतीव सुन्दर थे। उन्होंने धार्मिक पद्धति के अनुसार उसके साथ विवाह कर लिया।

श्लोक 17: उस लडक़ी के गर्भ से प्रचेताओं ने दक्ष नामक एक पुत्र उत्पन्न किया जिसने तीनों लोकों को जीवों से भर दिया।

श्लोक 18: शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : कृपया अत्यन्त ध्यानपूर्वक मुझसे सुनें कि किस तरह प्रजापति दक्ष ने, जो अपनी पुत्रियों के प्रति अति स्नेहिल थे, अपने वीर्य से तथा मन से विभिन्न प्रकार के जीवों को उत्पन्न किया।

श्लोक 19: प्रजापति दक्ष ने सर्वप्रथम अपने मन से सभी तरह के देवताओं, असुरों, मनुष्यों, पक्षियों, पशुओं, जलचरों इत्यादि को उत्पन्न किया।

श्लोक 20: किन्तु जब प्रजापति दक्ष ने देखा कि वे ठीक से सभी प्रकार के जीवों को उत्पन्न नहीं कर पा रहे हैं, तो वे विन्घ्याचल पर्वतश्रेणी के निकट एक पर्वत पर गये और वहाँ पर उन्होंने अत्यन्त कठिन तपस्या की।

श्लोक 21: उस पर्वत के निकट अघमर्षण नामक एक तीर्थस्थल था। वहाँ पर प्रजापति दक्ष ने सारे कर्मकाण्ड सम्पन्न किये और भगवान् हरि को प्रसन्न करने के लिए महान् तपस्या में संलग्न होकर उन्हें संतुष्ट किया।

श्लोक 22: हे राजन्! अब मैं आपसे हंसगुह्य नामक स्तुतियों की पूरी व्याख्या करूँगा जिन्हें दक्ष ने भगवान् को अर्पित किया और मैं बताऊँगा कि किस तरह उन स्तुतियों से भगवान् उन पर प्रसन्न हुए।

श्लोक 23: प्रजापित दक्ष ने कहा : भगवान् माया तथा उससे उत्पन्न शारीरिक कोटियों से परे हैं। उनमें अचूक ज्ञान तथा परम इच्छा-शक्ति रहती है और वे जीवों तथा माया के नियन्ता हैं। जिन बद्धात्माओं ने इस भौतिक जगत को सर्वस्व समझ रखा है वे उन्हें नहीं देख सकते, क्योंकि वे व्यावहारिक ज्ञान के प्रमाण से परे हैं। वे स्वत: प्रकट तथा आत्म-तुष्ट हैं। वे किसी कारण द्वारा उत्पन्न नहीं किये जाते। मैं उन्हें सादर नमस्कार करता हूँ।

श्लोक 24: जिस तरह इन्द्रियविषय (रूप, स्वाद, स्पर्श, गन्ध तथा ध्वनि) यह नहीं समझ सकते कि इन्द्रियाँ उनकी अनुभूति किस तरह करती हैं, उसी तरह बद्ध-आत्मा यद्यपि अपने शरीर में परमात्मा के साथ-साथ निवास करता है, यह नहीं समझ सकता कि भौतिक सृष्टि के स्वामी परम आध्यात्मिक पुरुष किस तरह उसकी इन्द्रियों को निर्देश देते हैं। मैं उन परम पुरुष को सादर नमस्कार करता हूँ जो परम नियन्ता हैं।

श्लोक 25: केवल पदार्थ होने के कारण शरीर, प्राण वायु, बाह्य तथा आन्तरिक इन्द्रियाँ, पाँच स्थूल तत्त्व तथा सूक्ष्म इन्द्रियविषय (रूप, स्वाद, गन्ध, ध्वनि तथा स्पर्श) अपने स्वभाव को, अन्य इन्द्रियों के स्वभाव को या उनके नियन्ताओं के स्वभाव को नहीं जान पाते हैं। किन्तु जीव अपने आध्यात्मिक स्वभाव के कारण अपने शरीर, प्राणवायु, इन्द्रियों, तत्त्वों तथा इन्द्रियविषयों को जान सकता है और वह तीन गुणों को भी, जो उनके मूल में होते हैं, जान सकता है। इतने पर भी, यद्यपि जीव उनसे पूर्णतया भिज्ञ होता है, किन्तु वह परम पुरुष को, जो सर्वज्ञ तथा असीम है, देख पाने में अक्षम रहता है। इसलिए मैं उन्हें सादर नमस्कार करता हूँ।

श्लोक 26: जब मनुष्य की चेतना स्थूल तथा सूक्ष्म भौतिक जगत के कल्मष से पूरी तरह शुद्ध हो जाती है और कार्य करने तथा स्वप्न देखने की अवस्थाओं से विचलित नहीं होती तथा जब मन सुषुप्ति अर्थात् गहरी नीद में लीन नहीं होता तो वह समाधि के पद को प्राप्त होता है। तब उसकी भौतिक दृष्टि तथा मन की स्मृतियाँ, जो नामों तथा रूपों को प्रकट करती हैं, विनष्ट हो जाती हैं। केवल ऐसी ही समाधि में भगवान् प्रकट होते हैं। अत: हम उन भगवान् को नमस्कार करते हैं, जो उस अकलुषित दिव्य अवस्था में देखे जाते हैं।

श्लोक 27-28: जिस तरह कर्मकाण्ड तथा यज्ञ करने में निपुण प्रकांड विद्वान ब्राह्मण पन्द्रह सामिधेनी मंत्रों का उच्चारण करके काष्ठ के भीतर सुप्त अग्नि को बाहर निकाल सकते हैं और इस तरह वैदिक मंत्रों की दक्षता को सिद्ध करते हैं, उसी तरह जो लोग कृष्णभावनामृत में वस्तुत: बढ़े-चढ़े होते हैं—दूसरे शब्दों में, जो कृष्णभावनाभावित होते हैं—वे परमात्मा को ढूँढ सकते हैं, जो अपनी आध्यात्मिक शक्ति के द्वारा हृदय के भीतर स्थित रहते हैं। हृदय प्रकृति के तीनों गुणों से तथा नौ भौतिक तत्त्वों (प्रकृति, कुल भौतिक शक्ति, अहंकार, मन तथा इन्द्रिय तृप्ति के पाँचों विषय) एवं पाँच भौतिक तत्त्वों तथा दस इन्द्रियों द्वारा आच्छादित रहता है। ये सत्ताईस तत्त्व मिलकर भगवान् की बहिरंगा शक्ति का निर्माण करते हैं। बड़े बड़े योगी भगवान् का ध्यान करते हैं, जो परमात्मा रूप में हृदय के भीतर स्थित हैं। वह परमात्मा मुझ पर प्रसन्न हों। जब कोई भौतिक जीवन की असंख्य विविधताओं से मुक्ति के लिए उत्सुक होता है, तो परमात्मा का साक्षात्कार होता है। वस्तुत: उसे ऐसी मुक्ति तब मिलती है जब वह भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति में लग जाता है और अपनी सेवा प्रवृत्ति के कारण भगवान् का साक्षात्कार करता है। भगवान् को उन अनेक आध्यात्मिक नामों से सम्बोधित किया जा सकता है, जो भौतिक इन्द्रियों के लिए अकल्पनीय हैं। वे भगवान् मुझ पर कब प्रसन्न होंगे?

श्लोक 29: भौतिक ध्वनियों द्वारा व्यक्त, भौतिक बुद्धि द्वारा सुनिश्चित तथा भौतिक इन्द्रियों द्वारा अनुभव की गई अथवा भौतिक मन के भीतर गढ़ी गई कोई भी वस्तु भौतिक प्रकृति के गुणों के प्रभाव के अतिरिक्त कुछ नहीं होती, इसलिए भगवान् के असली स्वभाव से उसका किसी तरह का सम्बन्ध नहीं होता। परमेश्वर इस भौतिक जगत की सृष्टि के परे हैं, क्योंकि वे भौतिक गुणों तथा सृष्टि के स्त्रोत हैं। सभी कारणों के कारण होते हुए, वे सृष्टि के पूर्व तथा सृष्टि के पश्चात् विद्यमान रहते हैं। मैं उन्हें सादर प्रणाम करना चाहता हूँ।

श्लोक 30: परब्रह्म कृष्ण प्रत्येक वस्तु के परम आश्रय तथा उद्गम हैं। हर कार्य उन्हीं के द्वारा किया जाता है, हर वस्तु उन्हीं की है और हर वस्तु उन्हीं को अर्पित की जाती है। वे ही परम लक्ष्य हैं और चाहे वे स्वयं कार्य करते हों या अन्यों से कराते हों, वे परम कर्ता हैं। वैसे उच्च तथा निम्न अनेक कारण हैं, किन्तु समस्त कारणों के कारण होने से वे परब्रह्म कहलाते हैं, जो समस्त कार्यकलापों के पहले से विद्यमान थे। वे अद्वितीय हैं और उनका कोई अन्य कारण नहीं है। मैं उनको सादर प्रणाम करता हूँ।

श्लोक 31: मैं उन सर्वव्यापक भगवान् को सादर नमस्कार करता हूँ जो अनन्त दिव्य गुणों से युक्त हैं। वे विभिन्न मतों का प्रसार करने वाले समस्त दार्शनिकों के हृदय के भीतर से कार्य करते हुए उनसे उनकी ही आत्मा को भुलवाते हैं, कभी उनमें परस्पर मतैक्य कराते हैं, तो कभी मत भिन्नता कराते हैं। इस तरह वे इस भौतिक जगत में ऐसी स्थिति उत्पन्न करते हैं जिसमें वे किसी भी दार्शनिक निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाते। मैं उन्हें नमस्कार करता हूँ।

श्लोक 32: संसार मे दो वर्ग हैं—आस्तिक तथा नास्तिक। परमात्मा को मानने वाला आस्तिक सम्पूर्ण योग में आध्यात्मिक कारण को पाता है। किन्तु भौतिक तत्त्वों का मात्र विश्लेषण करने वाला सांख्यधर्मी निर्विशेषवाद के निष्कर्ष को प्राप्त होता है और परम कारण को, चाहे वह भगवान् हो, परमात्मा हो या ब्रह्म ही क्यों न हो, स्वीकार नहीं करता। उल्टे, वह भौतिक प्रकृति के व्यर्थ बाह्य कार्यों में व्यस्त रहता है। किन्तु अन्ततोगत्वा दोनों वर्ग एक परम सत्य की स्थापना करते हैं, क्योंकि विरोधी कथन करते हुए भी उनका लक्ष्य एक ही परम कारण होता है। वे दोनों ही जिस एक परब्रह्म के पास पहुँचते हैं उन्हें मैं सादर नमस्कार करता हूँ।

श्लोक 33: पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् जो कि अचिन्त्य रूप से ऐश्वर्यवान् हैं, जो सारे भौतिक नामों, रूपों तथा लीलाओं से रहित हैं तथा जो सर्वव्यापक हैं, उन भक्तों पर विशेषरूप से कृपालु रहते हैं, जो उनके चरणकमलों की पूजा करते हैं। इस तरह वे विभिन्न लीलाओं सहित दिव्य रूपों तथा नामों को प्रकट करते हैं। ऐसे भगवान्, जो सच्चिदानन्द विग्रह हैं, मुझ पर कृपालु हों।

श्लोक 34: जिस तरह वायु भौतिक तत्त्वों के विविध गुण यथा फूल की गंध या वायु में धूल के मिश्रण से उत्पन्न विभिन्न रंग अपने साथ ले जाती है, उसी तरह भगवान् मनुष्य की इच्छाओं के अनुसार पूजा की निम्नतर प्रणालियों के माध्यम से प्रकट होते हैं, यद्यपि वे देवताओं के रूप में प्रकट होते हैं, अपने आदि रूप में नहीं। तो इन अन्य रूपों का क्या लाभ है? ऐसे आदि भगवान् मेरी इच्छाएँ परिपूर्ण करें।

श्लोक 35-39: श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा : अपने भक्तों के प्रति अत्यधिक स्नेहिल भगवान् हरि दक्ष द्वारा की गई स्तुतियों से अत्यधिक प्रसन्न हुए, अत: वे अघमर्षण नामक पवित्र स्थान पर प्रकट हुए। हे श्रेष्ठ कुरुवंशी महाराज परीक्षित! भगवान् के चरणकमल उनके वाहन गरुड़ के कंधों पर रखे थे और वे अपनी आठ लम्बी बलिष्ठ अतीव सुन्दर भुजाओं सहित प्रकट हुए। अपने हाथों में वे चक्र, शंख, तलवार, ढाल, बाण, धनुष, रस्सी तथा गदा धारण किये थे—प्रत्येक हाथ में अलग-अलग हथियार थे और सबके सब चमचमा रहे थे। उनके वस्त्र पीले थे और उनके शरीर का रंग गहरा नीला था। उनकी आँखें तथा मुख अतीव मनोहर थे और उनके गले से लेकर पाँवों तक फूलों की लम्बी माला लटक रही थी। उनका वक्षस्थल कौस्तुभ मणि तथा श्रीवत्स चिह्न से सुशोभित था। उनके सिर पर विशाल गोल मुकुट था और उनके कान मछलियों के सदृश कुण्डलों से सुशोभित थे। ये सारे आभूषण असाधारण रूप से सुन्दर थे। भगवान् अपनी कमर में सोने की पेटी, बाहों में बिजावट, अंगुलियों में अँगूठियाँ तथा पाँवों में पायल पहने थे। इस तरह विविध आभूषणों से सुशोभित भगवान् हरि, जो तीनों लोकों के जीवों को आकर्षित करने वाले हैं, पुरुषोत्तम कहलाते हैं। उनके साथ नारद, नन्द जैसे महान् भक्त तथा स्वर्ग के राजा इन्द्र इत्यादि प्रमुख देवता एवं उच्चतर लोकों यथा सिद्धलोक, गन्धर्वलोक तथा चारणलोक के निवासी थे। भगवान् के दोनों ओर तथा उनके पीछे भी स्थित ये भक्त निरन्तर उनकी स्तुतियाँ कर रहे थे।

श्लोक 40: भगवान् के उस अद्भुत तथा तेजवान स्वरूप को देखकर प्रजापति दक्ष पहले तो कुछ भयभीत हुए, किन्तु बाद में भगवान् को देखकर अतीव प्रसन्न हुए और उन्हें नमस्कार करने के लिए भूमि पर दण्डवत् गिर पड़े।

श्लोक 41: जिस तरह पर्वत से प्रवाहित होने वाले जल से नदियाँ भर जाती हैं उसी तरह दक्ष की सारी इन्द्रियाँ प्रसन्नता से पूरित हो गईं। अत्यधिक सुख के कारण दक्ष कुछ भी नहीं कह सके, अपितु भूमि पर पड़े रहे।

श्लोक 42: यद्यपि प्रजापति दक्ष कुछ भी नहीं कह सके, किन्तु हर एक के हृदय की बात जानने वाले भगवान् ने जब अपने भक्त को इस प्रकार से नमित तथा जनसंख्या बढ़ाने की इच्छा से युक्त देखा तो उन्होंने उसे इस प्रकार से सम्बोधित किया।

श्लोक 43: भगवान् ने कहा : हे परम भाग्यशाली प्राचेतस! तुमने मुझ पर अपनी महती श्रद्धा के कारण परम भक्तिमय भाव को प्राप्त किया है। निस्सन्देह, तुम्हारी महती भक्ति के साथ साथ तुम्हारी तपस्या के कारण तुम्हारा जीवन अब सफल है। तुमने पूर्ण सिद्धि प्राप्त कर ली है।

श्लोक 44: हे प्रजापति दक्ष! तुमने संसार के कल्याण तथा वृद्धि के लिए घोर तपस्या की है। मेरी भी यही इच्छा है कि इस जगत में हरेक प्राणी सुखी हो। इसलिए मैं तुमसे अत्यधिक प्रसन्न हूँ, क्योंकि तुम सम्पूर्ण जगत के कल्याण की मेरी इच्छा को पूरी करने का प्रयत्न कर रहे हो।

श्लोक 45: ब्रह्मा, शिव, मनुगण, उच्च लोकों के अन्य सारे देवता तथा जनसंख्या बढ़ाने वाले तुम सारे प्रजापति सारे जीवों के लाभार्थ कार्य कर रहे हो। इस तरह मेरी तटस्था शक्ति के अंश रूप तुम सभी मेरे विभिन्न गुणों के अवतार हो।

श्लोक 46: हे ब्राह्मण! ध्यान रूप में तपस्या ही मेरा हृदय है, स्तुतियों तथा मंत्रों के रूप में वैदिक ज्ञान ही मेरा शरीर है और आध्यात्मिक कार्य तथा आनन्दानुभूतियां ही मेरा वास्तविक स्वरूप है। उचित रीति से सम्पन्न हुए कर्मकाण्ड तथा यज्ञ मेरे शरीर के विविध अंग हैं; पुण्य या आध्यात्मिक कार्यों से उत्पन्न अदृश्य सौभाग्य मेरा मन है और विविध विभागों में मेरे आदेशों को लागू करने वाले देवता मेरे जीवन तथा आत्मा हैं।

श्लोक 47: इस विराट जगत की सृष्टि के पूर्व अकेला मैं अपनी विशिष्ट आध्यात्मिक शक्तियों के साथ विद्यमान था। तब चेतना प्रकट नहीं हुई थी, जिस तरह नींद के समय मनुष्य की चेतना अप्रकट रहती है।

श्लोक 48: मैं असीम शक्ति का आगार हूँ, इसलिए मैं अनन्त या सर्वव्यापक के नाम से प्रसिद्ध हूँ। मेरी भौतिक शक्ति से मेरे भीतर विराट जगत प्रकट हुआ और इस विराट जगत में मुख्य जीव ब्रह्मा प्रकट हुए जो तुम लोगों के स्रोत हैं और वे किसी भौतिक माता से नहीं जन्मे हैं।

श्लोक 49-50: जब ब्रह्माण्ड के मुख्य देवता ब्रह्मा (स्वयंभू) मेरी शक्ति के द्वारा प्रेरणा पाकर सृजन करने का प्रयास कर रहे थे तो उन्होंने अपने को असमर्थ पाया। इसलिए मैंने उन्हें सलाह दी और मेरे आदेशों के अनुसार उन्होंने कठिन तपस्या की। इस तपस्या के कारण सृजन के कार्यों में अपनी सहायता के लिए उन्होंने तुम समेत नौ महापुरुषों को उत्पन्न किया।

श्लोक 51: हे पुत्र दक्ष! प्रजापति पञ्चजन के असिक्नी नामक पुत्री है, जिसे मैं तुम्हें प्रदान करता हूँ जिससे तुम उसे अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कर सको।

श्लोक 52: अब पुरुष तथा स्त्री रूप में यौन जीवन में संयुक्त हो जाओ और इस तरह संभोग द्वारा तुम इस कन्या के गर्भ से जनसंख्या की वृद्धि करने के लिए सैकड़ों सन्तानें उत्पन्न कर सकोगे।

श्लोक 53: जब तुम हजारों सन्तानों को जन्म दे चुकोगे, तो वे भी मेरी माया द्वारा मोहित की जाती रहेंगी और तुम्हारी ही तरह संभोग में संलग्न होंगी। किन्तु तुम पर और उन पर मेरी कृपा के कारण, वे भी मुझे भक्ति की भेंटें प्रदान कर सकेंगे।

श्लोक 54: शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : जब सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के स्रष्टा पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हरि प्रजापति दक्ष के सामने इस तरह बोल चुके तो वे तुरन्त अन्तर्धान हो गये, मानो वे स्वप्न में अनुभव की गई कोई वस्तु रहे हों।

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