संक्षेप विवरण: इस अध्याय में वर्णन किया गया है कि प्रह्लाद महाराज को प्रसन्न करने के बाद भगवान् नृसिंहदेव किस तरह अन्तर्धान हो गये। इसमें शिवजी द्वारा प्रदत्त वर का भी उल्लेख…
श्लोक 1: नारद मुनि ने आगे कहा : यद्यपि प्रह्लाद महाराज बालक थे किन्तु जब उन्होंने नृसिंहदेव द्वारा दिये गये वरों को सुना तो उन्होंने इन्हें भक्ति के मार्ग में अवरोध समझा। तब वे विनीत भाव से मुसकाये और इस तरह बोले।
श्लोक 2: प्रह्लाद महाराज ने आगे कहा : हे प्रभु, हे भगवान्, नास्तिक परिवार में जन्म लेने के कारण मैं स्वभावत: भौतिक भोग के प्रति अनुरक्त हूँ; अतएव आप मुझे इन मोहों से मत ललचाइये। मैं भौतिक दशाओं से अत्यधिक भयभीत हूँ और भौतिकतावादी जीवन से मुक्त होने का इच्छुक हूँ। यही कारण है कि मैंने आपके चरणकमलों की शरण ग्रहण की है।
श्लोक 3: हे मेरे अराध्य देव, चूँकि हर एक के हृदय में भौतिक संसार के मूल कारण कामेच्छाओं का बीज रहता है, अतएव आपने मुझे इस भौतिक जगत में शुद्ध भक्त के लक्षण प्रकट करने के लिए भेजा है।
श्लोक 4: अन्यथा हे भगवान्, हे समस्त जगत के परम शिक्षक, आप अपने इस भक्त के प्रति इतने दयालु हैं कि आपने उससे कुछ भी ऐसा करने को प्रेरित नहीं किया जो उसके लिए अलाभकारी हो। दूसरी ओर, जो व्यक्ति आपकी भक्ति के बदले में कुछ भौतिक लाभ चाहता है, वह आपका शुद्ध भक्त नहीं हो सकता। वह उस व्यापारी की तरह ही है, जो सेवा के बदले में लाभ चाहता है।
श्लोक 5: जो सेवक अपने स्वामी से भौतिक लाभ की इच्छा रखता है, वह निश्चय ही योग्य सेवक या शुद्ध भक्त नहीं है। इसी प्रकार जो स्वामी अपने सेवक को इसलिए आशीष देता है कि स्वामी के रूप में उसकी प्रतिष्ठा बनी रहे, वह भी शुद्ध स्वामी नहीं है।
श्लोक 6: हे प्रभु, मैं आपका नि:स्वार्थ सेवक हूँ और आप मेरे नित्य स्वामी हैं। सेवक तथा स्वामी होने के अतिरिक्त हमें कुछ भी नहीं चाहिए। आप प्राकृतिक रूप से मेरे स्वामी हैं और मैं आपका सेवक हूँ। हम दोनों में कोई अन्य सम्बन्ध नहीं है।
श्लोक 7: हे सर्वश्रेष्ठ वरदाता स्वामी, यदि आप मुझे कोई वांछित वर देना ही चाहते हैं, तो मेरी आपसे प्रार्थना है कि मेरे हृदय में किसी प्रकार की भौतिक इच्छाएँ न रहें।
श्लोक 8: हे भगवान्, जन्म काल से ही कामेच्छाओं के कारण मनुष्य की इन्द्रियों के कार्य, मन, जीवन, शरीर, धर्म, धैर्य, बुद्धि, लज्जा, ऐश्वर्य, बल, स्मृति तथा सत्यनिष्ठा समाप्त हो जाते हैं।
श्लोक 9: हे प्रभु, जब मनुष्य अपने मन से सारी भौतिक इच्छाएँ निकालने में सक्षम हो जाता है, तो वह आपके ही समान सम्पत्ति तथा ऐश्वर्य का पात्र बन जाता है।
श्लोक 10: हे षड्ऐश्वर्यवान् प्रभु, हे परम पुरुष, हे परमात्मा, हे समस्त दुखों के विनाशक, हे अद्भुत नृसिंह रूप में परम पुरुष, मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।
श्लोक 11: भगवान् ने कहा : हे प्रिय प्रह्लाद, तुम जैसा भक्त न तो इस जीवन में, न ही अगले जीवन में किसी प्रकार के भौतिक ऐश्वर्य की कामना करता है। तो भी मैं तुम्हें आदेश देता हूँ कि तुम इस मन्वन्तर तक असुरों के राजा के रूप में इस भौतिक जगत में उनके ऐश्वर्य का भोग करो।
श्लोक 12: भले ही तुम इस भौतिक जगत में ही क्यों न रहो, लेकिन तुम्हें निरन्तर मेरे उपदेशों तथा वचनों को सुनना चाहिए और मेरे ही विचार में लीन रहना चाहिए, क्योंकि मैं हर एक के हृदय में परमात्मा रूप में निवास करता हूँ। अतएव तुम सकाम कर्मों का परित्याग करके मेरी पूजा करो।
श्लोक 13: हे प्रह्लाद, इस भौतिक जगत में रहते हुए तुम सुख का अनुभव करके अपने पुण्यकर्म से सारे फलों को समाप्त कर सकोगे और पुण्यकर्म करके पापकर्मों को विनष्ट कर दोगे। शक्तिशाली काल के कारण तुम अपना शरीर-त्याग करोगे, किन्तु तुम्हारे कार्यों की ख्याति का गुणगान स्वर्गलोक तक में होगा। तुम बन्धनों से मुक्त होकर भगवद्धाम को लौट सकोगे।
श्लोक 14: जो व्यक्ति तुम्हारे तथा मेरे कार्यों का सदैव स्मरण करता है और तुम्हारे द्वारा की गई प्रार्थनाओं का कीर्तन करता है, वह कालान्तर में भौतिक कर्म-फलों से मुक्त हो जाता है।
श्लोक 15-17: प्रह्लाद महाराज ने कहा : हे परमेश्वर, चूँकि आप पतितात्माओं पर इतने दयालु हैं अतएव मैं आपसे एक ही वर माँगता हूँ। मैं जानता हूँ कि आपने मेरे पिता की मृत्यु के समय अपनी कृपादृष्टि डालकर उन्हें पवित्र बना दिया था, किन्तु वे आपकी शक्ति तथा श्रेष्ठता से अनजान होने के कारण आप पर मिथ्या ही यह सोचकर क्रुद्ध थे कि आप उनके भाई को मारने वाले हैं। इस तरह उन्होंने समस्त जीवों के गुरु आपकी प्रत्यक्ष निन्दा की थी और आपको भक्त अर्थात् मेरे ऊपर जघन्य पातक किये थे। मेरी इच्छा है कि उन्हें इन पापों के लिए क्षमा कर दिया जाये।
श्लोक 18: भगवान् ने कहा : हे परम पवित्र, साधु पुरुष, तुम्हारे पिता तुम्हारे परिवार के इक्कीस पुरखों सहित पवित्र कर दिये गये हैं। चूँकि तुम इस परिवार में उत्पन्न हुए थे, अतएव सारा कुल पवित्र हो गया।
श्लोक 19: जहाँ कहीं भी सदाचारी तथा सद्गुणसम्पन्न, शान्त एवं समदर्शी भक्त होते हैं वह देश तथा परिवार भले ही गर्हित क्यों न हो, पवित्र हो जाते हैं।
श्लोक 20: हे दैत्यराज प्रह्लाद, मेरी भक्ति में अनुरक्त रहने के कारण मेरा भक्त उच्च तथा निम्न जीवों में भेद-भाव नहीं बरतता। सभी तरह से वह किसी से ईर्ष्या नहीं करता।
श्लोक 21: जो तुम्हारे आदर्श का अनुसरण करेंगे वे स्वभावत: मेरे शुद्ध भक्त हो जाएँगे। तुम मेरे भक्त का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हो और अन्य लोग तुम्हारे पदचिन्हों का अनुसरण करेंगे।
श्लोक 22: मेरे बालक, तुम्हारा पिता अपनी मृत्यु के समय मेरे शरीर के स्पर्श मात्र से पहले ही पवित्र हो चुका है। तो भी पुत्र का कर्तव्य है कि वह अपने पिता की मृत्यु के पश्चात् श्राद्ध-क्रिया सम्पन्न करे जिससे उसका पिता ऐसे लोक को जा सके जहाँ वह अच्छा नागरिक तथा भक्त बन सके।
श्लोक 23: अन्त्येष्टि क्रिया सम्पन्न करने के बाद तुम अपने पिता के साम्राज्य का भार सँभालो। तुम सिंहासन पर बैठो और भौतिक कार्यकलापों से तनिक भी विचलित मत होओ। तुम अपना मन मुझ पर स्थिर रखो। तुम शिष्टाचार के रूप में वेदों के आदेशों का उल्लंघन किये बिना अपना विहित कार्य कर सकते हो।
श्लोक 24: श्री नारद मुनि ने आगे कहा : भगवान् की आज्ञानुसार प्रह्लाद महाराज ने अपने पिता की अन्त्येष्टि क्रिया सम्पन्न की। हे राजा युधिष्ठिर, तब उसे हिरण्यकशिपु के राजसिंहासन पर ब्राह्मणों के निर्देशानुसार बैठाया गया।
श्लोक 25: अन्य देवताओं से घिरे हुए ब्रह्माजी का मुखमण्डल चमक रहा था क्योंकि भगवान् प्रसन्न थे। अतएव उन्होंने दिव्य शब्दों से भगवान् की प्रार्थना की।
श्लोक 26: ब्रह्माजी ने कहा : हे देवताओं के परम स्वामी, हे समग्र ब्रह्माण्ड के अध्यक्ष, हे समस्त जीवों के वरदाता, हे आदि पुरुष, यह हमारा सौभाग्य है कि आपने इस पापी असुर को मार डाला जो समग्र ब्रह्माण्ड को दुख देने वाला था।
श्लोक 27: इस असुर हिरण्यकशिपु ने मुझसे यह वरदान प्राप्त किया था कि वह मेरी सृष्टि में किसी भी जीव के द्वारा मारा नहीं जाएगा। इस आश्वासन के कारण तथा तपस्या और योग से प्राप्त बल द्वारा वह अत्यन्त गर्वित हो उठा और समस्त वैदिक आदेशों का उल्लंघन करने लगा।
श्लोक 28: सौभाग्य से हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रह्लाद अब मृत्यु से बचा लिया गया है और यद्यपि वह अभी बालक है, किन्तु है महाभागवत, अब वह पूर्णतया आपके चरणकमलों की शरण में है।
श्लोक 29: हे भगवान्, हे पूर्ण पुरुषोत्तम परमेश्वर! आप परमात्मा हैं। यदि कोई आपके दिव्य शरीर का ध्यान करता है, आप सभी प्रकार के भय से, यहाँ तक कि आसन्न मृत्यु-भय से भी, उसकी रक्षा करते हैं।
श्लोक 30: भगवान् ने उत्तर दिया: हे ब्रह्मा, हे कमल पुष्प से उत्पन्न महान्प्रभु, जिस प्रकार साँप को दूध पिलाना घातक होता है उसी तरह असुरों को वर प्रदान करना घातक होता है, क्योंकि वे प्रकृति से क्रूर तथा ईर्ष्यालु होते हैं। मैं तुम्हें सचेत करता हूँ कि तुम फिर से किभी किसी असुर को ऐसा वर मत प्रदान करना।
श्लोक 31: नारद मुनि ने आगे कहा : हे राजा युधिष्ठिर, ब्रह्मा को उपदेश देते हुए सामान्य व्यक्ति को न दिखने वाले भगवान् इस तरह बोले। तब ब्रह्मा द्वारा पूजित होकर भगवान् उस स्थान से अदृश्य हो गये।
श्लोक 32: तब प्रह्लाद महाराज ने भगवान् के अंश रूप समस्त देवताओं की यथा ब्रह्मा, शिव तथा प्रजापतियों की पूजा और स्तुति की।
श्लोक 33: तत्पश्चात् शुक्राचार्य तथा अन्य बड़े-बड़े सन्त पुरुषों सहित कमलासीन ब्रह्माजी ने प्रह्लाद को ब्रह्माण्ड के सारे असुरों तथा दानवों का राजा बना दिया।
श्लोक 34: हे राजा युधिष्ठिर, प्रह्लाद महाराज द्वारा भली-भाँति पूजित होकर ब्रह्मादि सारे देवताओं ने उन्हें अपने-अपने आशीर्वाद दिये और फिर अपने-अपने आवासों को वापस चले गये।
श्लोक 35: इस प्रकार भगवान् विष्णु के दोनों पार्षद, जो दिति के पुत्र हिरण्याक्ष तथा हिरण्यकशिपु बने थे, मार डाले गये। भ्रमवश उन्होंने सोचा था कि हर एक के हृदय में निवास करने वाले परमेश्वर उनके शत्रु हैं।
श्लोक 36: ब्राह्मणों द्वारा शापित होने से इन दोनों पार्षदों ने कुम्भकर्ण तथा दशग्रीव रावण के रूप में फिर से जन्म लिया। ये दोनों राक्षस भगवान् रामचन्द्र के अतुलित पराक्रम द्वारा मारे गये।
श्लोक 37: भगवान् रामचन्द्र के बाणों से बिंध कर कुम्भकर्ण तथा रावण दोनों ही युद्धभूमि में पड़े रहे और भगवान् के विचार में लीन होकर उसी तरह अपने अपने शरीर छोड़ दिये जिस तरह अपने पूर्व-जन्म में हिरण्याक्ष तथा हिरण्यकशिपु के रूप में किया था।
श्लोक 38: उन्होंने फिर से मानव समाज में शिशुपाल तथा दन्तवक्र के रूप में जन्म लिया और भगवान् से वैसा ही वैर-भाव बनाये रखा। ये वही थे, जो ही तुम्हारे समक्ष भगवान् के शरीर में लीन हो गये।
श्लोक 39: न केवल शिशुपाल तथा दन्तवक्र अपितु अन्य अनेकानेक राजा जो कृष्ण के शत्रु बने हुए थे अपनी मृत्यु के समय मोक्ष को प्राप्त हुए। चूँकि वे भगवान् के विषय में सोचते थे, अत: उन्हें भगवान्-जैसा आध्यात्मिक स्वरूप प्राप्त हुआ जिस तरह भृंगी द्वारा पकड़ा गया कीड़ा भृंगी का शरीर प्राप्त कर लेता है।
श्लोक 40: जो शुद्ध भक्त भक्ति के द्वारा भगवान् का निरन्तर चिन्तन करते रहते हैं, वे उन्हीं जैसा शरीर प्राप्त करते हैं। यह सारूप्य मुक्ति कहलाती है। यद्यपि शिशुपाल, दन्तवक्र तथा अन्य राजा कृष्ण का अपने शत्रु के रूप में चिंतन करते थे, किन्तु उन्हें भी वैसा ही फल प्राप्त हुआ।
श्लोक 41: तुमने मुझसे पूछा था कि किस तरह शिशुपाल तथा अन्यों ने भगवान् का शत्रु होते हुए भी मोक्ष प्राप्त किया सो वह सब कुछ मैंने तुम्हे बतला दिया है।
श्लोक 42: भगवान् कृष्ण सम्बन्धी इस कथा में भगवान् के विभिन्न अवतार वर्णन किए गये हैं। साथ ही इसमें हिरण्याक्ष तथा हिरण्यकशिपु नामक दो असुरों के वध का भी वर्णन किया गया है।
श्लोक 43-44: यह कथा महाभागवत प्रह्लाद महाराज के गुणों, उनकी दृढ़ भक्ति, उनके पूर्ण ज्ञान तथा भौतिक कल्मष से पूर्ण विरक्ति को बताती है। यह सृजन, पालन तथा संहार के कारणस्वरूप भगवान् का भी वर्णन करती है। प्रह्लाद महाराज ने अपनी स्तुतियों में भगवान् के दिव्य गुणों के साथ ही यह भी बताया कि किस तरह देवताओं तथा असुरों के आवास भगवान् के निर्देश मात्र से ध्वस्त हो जाते हैं चाहे वे भौतिक ऐश्वर्य से कितने ही भरे क्यों न हो।
श्लोक 45: धर्म के जिन सिद्धान्तों से भगवान् को वास्तव में समझा जा सकता है, वह भागवत धर्म कहलाता है। अतएव इस कथा में इन सिद्धान्तों का समावेश होने से वास्तविक अध्यात्म का भली-भाँति वर्णन हुआ है।
श्लोक 46: जो कोई भगवान् विष्णु की सर्वव्यापकता विषयक इस कथा को सुनता है और इसका कीर्तन करता है, वह निश्चित रूप से भव-बन्धन से मुक्त हो जाता है।
श्लोक 47: प्रह्लाद महाराज भक्तों में सर्वश्रेष्ठ थे। जो कोई प्रह्लाद महाराज के कार्यकलापों, हिरण्यकशिपु के वध तथा भगवान् नृसिंहदेव की लीलाओं से सम्बद्ध इस कथा को अत्यन्त मनोयोग से सुनता है, वह निश्चयपूर्वक आध्यात्मिक जगत में पहुँचता है जहाँ कोई चिन्ता नहीं रहती है।
श्लोक 48: नारद मुनि ने आगे कहा : हे महाराज युधिष्ठिर, तुम सभी (पाण्डव) अत्यन्त भाग्यशाली हो, क्योंकि भगवान् कृष्ण तुम्हारे महल में सामान्य मनुष्य की भाँति निवास करते हैं। बड़े-बड़े साधु पुरुष इसे भली-भाँति जानते हैं इसीलिए वे निरन्तर इस घर में आते रहते हैं।
श्लोक 49: निराकार ब्रह्म साक्षात् कृष्ण हैं, क्योंकि कृष्ण निराकार ब्रह्म के स्रोत हैं। वे बड़े-बड़े साधु पुरुषों द्वारा तलाश किये जाने वाले दिव्य आनन्द के उत्स हैं फिर भी परम पुरुष तुम्हारे सर्वाधिक प्रिय मित्र तथा चिरन्तन सुहृद् हैं और तुम्हारे मामा के पुत्ररूप में तुमसे घनिष्ठत: सम्बन्धित हैं। निस्सन्देह, वे सदैव तुम्हारे शरीर तथा आत्मा के सदृश हैं। वे पूज्य हैं फिर भी वे तुम्हारे सेवक की तरह और कभी-कभी तुम्हारे गुरु की तरह कार्य करते हैं।
श्लोक 50: शिव तथा ब्रह्माजी जैसे महापुरुष भगवान् कृष्ण के सत्य का सही-सही वर्णन नहीं कर पाये। वे भगवान् हम पर प्रसन्न हों जो सदा समस्त भक्तों के रक्षक रूप में उन महान् सन्तों द्वारा पूजे जाते हैं, जो मौन, ध्यान, भक्ति तथा त्याग का व्रत लिए रहते हैं।
श्लोक 51: हे राजा युधिष्ठिर, बहुत समय पहले तकनीकी ज्ञान में अत्यन्त कुशल मय नामक दानव ने शिवजी के यश में बट्टा लगाया। उस स्थिति में भगवान् कृष्ण ने शिवजी की रक्षा की थी।
श्लोक 52: महाराज युधिष्ठिर ने पूछा : मय दानव ने किस कारण से शिवजी की कीर्ति नष्ट की? कृष्ण ने किस तरह शिव जी की रक्षा की? और किस तरह उनकी कीर्ति का पुन: विस्तार किया? कृपया इन घटनाओं को कह सुनायें।
श्लोक 53: नारद मुनि ने कहा : जब परम देवताओं ने जो भगवान् कृष्ण की दया से सदा शक्तिशाली बने रहते हैं असुरों से युद्ध किया तो असुर हार गये, अतएव उन्होंने महानतम असुर मय दानव की शरण ग्रहण की।
श्लोक 54-55: असुरों के महान् नायक मय दानव ने तीन अदृश्य आवास तैयार किये और उन्हें असुरों को सौंप दिया। ये तीनों आवास सोने, चाँदी तथा लोहे के बने विमानों जैसे थे और उनमें अपूर्व साज-सामग्री थी। हे राजा युधिष्ठिर, इन तीनों आवसों के कारण असुरों के सेनानायक देवताओं से अदृश्य हो गए थे। इस अवसर का लाभ उठाकर तथा अपनी पूर्व शत्रुता का स्मरण करते हुए असुरगण तीनों लोकों—ऊर्ध्व, मध्य तथा अधो लोकों—का विनाश करने लगे।
श्लोक 56: तत्पश्चात् जब असुरगण स्वर्गलोकों को तहस-नहस करने लगे तो उन लोकों के शासक शिवजी की शरण में आये और उन्होंने कहा—हे प्रभु, हम तीन लोकों के वासी देवता विनष्ट होने वाले हैं। हम आपके अनुयायी हैं। कृपया हमारी रक्षा करें।
श्लोक 57: अत्यन्त शक्तिशाली एवं समर्थ शिवजी ने उन्हें धैर्य बँधाते हुए कहा “डरो मत।” तब उन्होंने अपने धनुष पर बाण चढ़ाकर असुरों द्वारा निवसित तीनों आवासों की ओर छोड़ा।
श्लोक 58: शिवजी द्वारा छोड़े गये बाण सूर्यमण्डल से निकलने वाली प्रज्ज्वलित किरणों जैसे लग रहे थे। उनसे तीनों आवास-रूपी विमान आच्छादित हो गये जिससे वे दिखने बन्द हो गये।
श्लोक 59: शिवजी के सुनहरे बाणों से आक्रमण किये जाने से उन तीनों आवासों के निवासी असुर निष्प्राण होकर गिर पड़े। तब परम योगी मय दानव ने उन्हें अपने द्वारा निर्मित अमृत कूप में लाकर डाल दिया।
श्लोक 60: असुरों के मृत शरीर इस अमृत का स्पर्श करते ही वज्र के समान अभेद्य हो गये। महान् शक्ति प्राप्त करने के कारण वे बादलों को विदीर्ण करने वाली बिजली की भाँति उठ खड़े हो गये।
श्लोक 61: शिवजी को अत्यन्त दुखी तथा निराश देखकर भगवान् विष्णु ने विचार किया कि मय दानव द्वारा उत्पन्न इस उत्पात को किस प्रकार रोका जाये।
श्लोक 62: तब ब्रह्माजी बछड़ा और भगवान् विष्णु गाय बन गये और दोपहर के समय आवासों में प्रवेश करके वे कुएं का सारा अमृत पी गये।
श्लोक 63: असुरों ने बछड़े तथा गाय को देखा लेकिन भगवान् द्वारा उत्पन्न मोह शक्ति के कारण वे उन्हें रोक नहीं पाये। महायोगी मय असुर को पता चल गया कि बछड़ा तथा गाय अमृत पी रहे हैं और वह यह समझ गया कि यह अदृश्य दैवी शक्ति के कारण हो रहा है। इस प्रकार वह पश्चात्ताप करते हुए असुरों से बोला।
श्लोक 64: मय दानव ने कहा : जो अपने, पराये अथवा दोनों के भाग्य में भगवान् द्वारा निश्चित कर दिया गया है उसे कोई भी कहीं भी मिटा नहीं सकता चाहे वह देवता, असुर, मनुष्य या अन्य कोई क्यों न हो।
श्लोक 65-66: नारद मुनि ने आगे कहा—तत्पश्चात् कृष्ण ने शिवजी को अपनी निजी शक्ति से, जो धर्म, ज्ञान, त्याग, ऐश्वर्य, तपस्या, विद्या तथा कर्म से युक्त थी, सभी प्रकार की साज-सामग्री से— यथा रथ, सारथी, ध्वजा, घोड़े, हाथी, धनुष, ढाल तथा बाण से संयुक्त कर दिया। इस तरह से संयुक्त होकर शिव जी अपने धनुष-बाण द्वारा असुरों से लडऩे के लिए रथ पर आसीन हुए।
श्लोक 67: हे राजा युधिष्ठिर, परम शक्तिशाली शिवजी ने अपने धनुष पर बाण चढ़ाये और दोपहर के समय असुरों के तीनों आवासों में अग्नि लगाकर उन्हें नष्ट कर दिया।
श्लोक 68: तब आकाश में अपने-अपने विमानों में आसीन उच्चलोकों के निवासियों ने दुन्दुभियाँ बजाईं। देवताओं, ऋषियों, पितरों, सिद्धों तथा विविध महापुरुषों ने शिव जी के ऊपर पुष्प-वर्षा की और जयजयकार की। अप्सराएँ परम प्रमुदित होकर नाचने-गाने लगीं।
श्लोक 69: हे राजा युधिष्ठिर, इस प्रकार शिवजी त्रिपुरारी कहलाते हैं, क्योंकि उन्होंने असुरों की तीनों पुरियों को भस्म कर दिया था। ब्रह्मा समेत समस्त देवताओं से पूजित होकर शिव जी अपने धाम लौट गये।
श्लोक 70: यद्यपि भगवान् कृष्ण मनुष्य के रूप में प्रकट हुए थे फिर भी उन्होंने अपनी शक्ति से अनेक असामान्य तथा आश्चर्यजनक लीलाएँ सम्पन्न कीं। उन महान् सन्त पुरुषों द्वारा जो कुछ कहा जा चुका है उससे भला मैं और अधिक क्या कह सकता हूँ? प्रत्येक व्यक्ति अधिकारी व्यक्ति से भगवान् के कार्यकलापों के श्रवण मात्र से शुद्ध हो सकता है।