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श्रीमद् भागवत महापुराण (स्कन्ध 7) | Shrimad Bhagavatam Hindi

अध्याय 11: पूर्ण समाज: चातुर्वर्ण

संक्षेप विवरण: इस अध्याय में उन सामान्य सिद्धान्तों का वर्णन है जिनका पालन करने पर मनुष्य, विशेष रूप से वह जो आध्यात्मिक जीवन में प्रगति करने का इच्छुक है, पूर्ण बन सकता है।…

श्लोक 1: शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : प्रह्लाद महाराज, जिनके कार्यकलाप तथा चरित्र की पूजा तथा चर्चा ब्रह्मा तथा शिव जी जैसे महापुरुष करते हैं, उनके विषय में सुनने के बाद महापुरुषों में सर्वाधिक आदरणीय राजा युधिष्ठिर महाराज ने नारद मुनि से अत्यन्त प्रसन्न मुद्रा में पुन: पूछा।

श्लोक 2: महाराज युधिष्ठिर ने कहा : हे प्रभु, मैं आपसे धर्म के उन सिद्धान्तों के विषय में सुनने का इच्छुक हूँ जिनसे मनुष्य जीवन के चरम लक्ष्य भक्ति को प्राप्त कर सकता है। मैं मानव समाज के सामान्य वृत्तिपरक कर्तव्यों तथा वर्णाश्रम धर्म के नाम से विख्यात सामाजिक तथा आध्यात्मिक उन्नति की प्रणाली के विषय में सुनना चाहता हूँ।

श्लोक 3: हे ब्राह्मणश्रेष्ठ, आप प्रजापति (ब्रह्मा) के साक्षात् पुत्र हैं। आप अपनी तपस्या, योग तथा समाधि के कारण ब्रह्मा के समस्त पुत्रों में से सर्वश्रेष्ठ माने जाते हैं।

श्लोक 4: शान्त जीवन तथा दया में आपसे श्रेष्ठ कोई नहीं है और आपसे बढक़र कोई यह नहीं जानता कि भक्ति किस तरह की जाये या ब्राह्मणों में सर्वश्रेष्ठ किस प्रकार बना जाये। अतएव आप गुह्य धार्मिक जीवन के समस्त सिद्धान्तों के जानने वाले हैं और आपसे बढक़र उन्हें अन्य कोई नहीं जानता।

श्लोक 5: श्री नारद मुनि ने कहा : मैं सर्वप्रथम समस्त जीवों के धार्मिक सिद्धान्तों के रक्षक भगवान् कृष्ण को नमस्कार करके नित्य धार्मिक पद्धति (सनातन धर्म) के सिद्धान्तों को बताता हूं जिन्हें मैंने नारायण के मुख से सुना है।

श्लोक 6: भगवान् नारायण अपने अंश नर समेत इस संसार में दक्ष महाराज की मूर्ति नामक पुत्री से प्रकट हुए। धर्म महाराज द्वारा उनका जन्म समस्त जीवों के लाभ हेतु था। वे आज भी बदरिकाश्रम नामक स्थान के निकट महान् तपस्या करने में लगे हुए हैं।

श्लोक 7: परम पुरुष भगवान् समस्त वैदिक ज्ञान के सार, समस्त धर्मों के मूल तथा महापुरुषों की स्मृति हैं। हे राजा युधिष्ठिर, इस धर्म के सिद्धान्त को प्रमाणस्वरूप समझना चाहिए। इसी धार्मिक सिद्धान्त के आधार पर सबों की तुष्टि होती है, यहाँ तक कि मनुष्य के मन, आत्मा तथा शरीर की भी तुष्टि होती है।

श्लोक 8-12: सभी मनुष्यों को जिन सामान्य नियम का पालन करना होता है, ये हैं—सत्य, दया, तपस्या, (महीने में कुछ दिन उपवास करना), दिन में दो बार स्नान, सहनशीलता, अच्छे बुरे का विवेक, मन का संयम, इन्द्रिय संयम, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, दान, शास्त्रों का अध्ययन, सादगी, सन्तोष, साधु पुरुषों की सेवा, अनावश्यक कार्यों से क्रमश: अवकाश लेना, मानव समाज के अनावश्यक कार्यों की व्यर्थता समझना, गम्भीर तथा शान्त बने रहना एवं व्यर्थ की बातें करने से बचना, मनुष्य शरीर या इस आत्मा के विषय में विचार करना, सभी जीवों (पशुओं तथा मनुष्यों) में अन्न का समान वितरण करना, प्रत्येक आत्मा को (विशेषतया मनुष्य को) परमेश्वर का अंश मानना, भगवान् के कार्यकलापों तथा उनके उपदेशों को सुनना (भगवान् साधु पुरुषों के आश्रय हैं), इन कार्यों तथा उपदेशों का कीर्तन करना, इनका नित्य स्मरण करना, सेवा करने का प्रयास, पूजा करना, नमस्कार करना, दास बनना, मित्र बनना और आत्म-समर्पण करना। हे राजा युधिष्ठिर, मनुष्य जीवन में इन तीस गुणों को अर्जित करना चाहिए। मनुष्य इन गुणों को अर्जित करने मात्र से भगवान् को प्रसन्न कर सकता है।

श्लोक 13: जो लोग अविच्छिन्न रूप से वैदिक मंत्रों द्वारा सम्पन्न होने वाले गर्भाधान संस्कार तथा अन्य नियत विधियों द्वारा शुद्ध किये जा चुके हैं तथा जिनकी स्वीकृति ब्रह्मा द्वारा दी जा चुकी है, वे द्विज कहलाते हैं। ऐसे ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य जो अपनी पारिवारिक परम्परा तथा अपने आचरण द्वारा शुद्ध किये जा चुके हैं उन्हें चाहिए कि भगवान् की पूजा करें, वेदों का अध्ययन करें तथा दान दें। इस पद्धति में उन्हें आश्रमों (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास) के नियमों का पालन करना चाहिए।

श्लोक 14: ब्राह्मण के लिए छ: वृत्तिपरक कर्तव्य हैं। क्षत्रिय के लिए दान लेना वर्जित है किन्तु वह इनमें से अन्य पाँच कर्तव्य कर सकता है। राजा या क्षत्रिय को ब्राह्मण से कर वसूलने की अनुमति नहीं है, किन्तु वह अपनी अन्य प्रजा पर न्यूनतम कर तथा दण्ड के लिए जुर्माना लगाकर अपनी जीविका चला सकता है।

श्लोक 15: व्यवसायी वर्ग को सदैव ब्राह्मणों के आदेशों का पालन करना चाहिए और कृषि, व्यापार तथा गोरक्षा जैसे वृत्तिपरक कर्तव्यों में लगे रहना चाहिए। शूद्र का एकमात्र कर्तव्य है उच्चवर्ण में से किसी को स्वामी बनना और उस की सेवा करना।

श्लोक 16: विकल्प के रूप में ब्राह्मण वैश्य की कृषि, गोरक्षा या व्यापार की वृत्तियाँ ग्रहण कर सकता है। जो कुछ बिना माँगे मिल जाये वह उस पर आश्रित रह सकता है, वह प्रति दिन धान के खेत में जाकर भिक्षा माँग सकता है, वह स्वामी द्वारा खेत में थोडा अन्न इकट्टा कर सकता है; या अन्न के व्यापारियों की दूकान में पिछले गिरे हुए अन्न को एकत्र कर सकता है। जीविका के ये चार साधन हैं जिन्हें ब्राह्मण भी अपना सकते हैं। इन चारों में से प्रत्येक साधन अपने पिछेले से (उत्तरोत्तर) श्रेष्ठ है।

श्लोक 17: आपात्काल के अतिरिक्त निम्न लोगों को उच्च वर्ग के वृत्तिपरक कार्य नहीं करने चाहिए। हाँ, यदि आपात्काल हो तो क्षत्रिय के अतिरिक्त अन्य सभी लोग अन्यों की जीविकाएँ स्वीकार कर सकते हैं।

श्लोक 18-20: आपात्काल में मनुष्य ऋत, अमृत, मृत, प्रमृत तथा सत्यनृत नामक विभिन्न वृत्तियों में से किसी एक को स्वीकार कर सकता है। किन्तु कूकर वृत्ति से कभी नहीं अपनानी चाहिए। उञ्छशिल वृत्ति में अर्थात् खेती से अन्न एकत्र करने की वृत्ति को होता है। इसे ही ऋत कहते हैं। बिना भीख माँगे एकत्र करना अमृत कहलाता है, अन्न की भीख माँगना मृत है, जमीन को जोतना प्रमृत है और व्यापार करना सत्यानृत है। किन्तु निम्न पुरुषों की सेवा करना श्ववृत्ति या कूकर वृत्ति कहलाती है। विशेषत: ब्राह्मणों तथा क्षत्रियों को शूद्रों की निम्न तथा गर्हित सेवा में नही लगना चाहिए। ब्राह्मणों को समस्त वैदिक ज्ञान में पटु होना चाहिए और क्षत्रियों को देवताओं की पूजा से भली भान्ति परिचित होना चाहिए।

श्लोक 21: ब्राह्मण के लक्षण इस प्रकार हैं—मन का संयम, इन्द्रिय संयम, तपस्या, पवित्रता, सन्तोष, क्षमाशीलता, सरलता, ज्ञान, दया, सत्य तथा भगवान् के प्रति पूर्ण आत्म-समर्पण।

श्लोक 22: युद्ध में प्रभावशाली, अजेय, धैर्यवान, तेजवान तथा दानवीर होना, शारीरिक आवश्यकताओं को वश में करना, क्षमाशील होना, ब्राह्मण नियमों का पालन करना तथा सदैव प्रसन्न रहना और सत्यनिष्ठ होना—ये क्षत्रिय के लक्षण हैं।

श्लोक 23: देवता, गुरु तथा भगवान् विष्णु के प्रति सदैव अनुरक्ति, धर्म, अर्थ तथा काम में प्रयत्नशीलता; गुरु तथा शास्त्र के शब्द में विश्वास; तथा धनार्जन में निपुणता सहित प्रयत्नशील होना—ये वैश्य के लक्षण हैं।

श्लोक 24: समाज के उच्च वर्णों (ब्राह्मणों, क्षत्रिय तथा वैश्यों) को नमस्कार करना, सदैव स्वच्छ रहना, द्वैतभाव से मुक्त रहना, अपने स्वामी की सेवा करना, मंत्र पढ़े बिना यज्ञ करना, चोरी न करना, सदा सत्य बोलना तथा गायों एवं ब्राह्मणों को सदा संरक्षण प्रदान करना—ये शूद्र के लक्षण हैं।

श्लोक 25: पति की सेवा करना, अपने पति के अनुकूल रहना, पति के सम्बन्धियों तथा मित्रों के प्रति भी समान रूप से अनुकूल रहना तथा पति के व्रतों का पालन करना—ये चार नियम पतिव्रता स्त्री के लिए पालनीय हैं।

श्लोक 26-27: पतिव्रता (साध्वी) स्त्री को चाहिए कि अपने पति की प्रसन्नता के लिए स्वयं को अच्छे- अच्छे वस्त्रों से सजाये तथा स्वर्णाभूषणों से अलंकृत हो। सदैव स्वच्छ तथा आकर्षक वस्त्र पहने। अपना घर बुहारे तथा उसे पानी तरल पदार्थों से धोए जिससे सारा घर सदा शुद्ध तथा स्वच्छ रहे। उसे गृहस्थी की सामग्री एकत्र करनी चाहिए और घर को अगुरु तथा पुष्पों से सुगन्धित रखना चाहिए। उसे अपने पति की इच्छा पूरी करने के लिए तैयार रहना चाहिए। साध्वी स्त्री को विनीत तथा सत्यनिष्ठ रहकर, अपनी इन्द्रियों पर संयम रख कर तथा मधुर वचन बोलकर काल तथा परिस्थिति के अनुसार अपने पति की प्रेमपूर्ण सेवा में लगना चाहिए।

श्लोक 28: साध्वी स्त्री को लालची नहीं होना चाहिए, अपितु उसे सभी परिस्थितियों में संतुष्ट रहना चाहिए। उसे गृहस्थी के काम-काज में अत्यन्त पटु होना चाहिए और धार्मिक नियमों से पूर्णतया अवगत होना चाहिए। उसे मधुर तथा सत्यभाषिणी होना चाहिए; उसे अत्यन्त सतर्क तथा सदैव शुद्ध एवं पवित्र रहना चाहिए। इस प्रकार एक साध्वी स्त्री को उस पति की प्रेमपूर्वक सेवा करनी चाहिए जो पतित न हो।

श्लोक 29: जो स्त्री लक्ष्मी जी के पदचिन्हों पर पूरी तरह चलकर अपने पति की सेवा में लगी रहती है, वह निश्चित रूप से अपने भक्त पति के साथ भगवद्धाम वापस जाती है और वैकुण्ठलोक में अत्यन्त सुखपूर्वक रहती है।

श्लोक 30: संकर जातियों में से जो चोर नहीं होते वे अन्तेवसायी या चण्डाल (कुत्ता खाने वाले) कहलाते हैं और उनके कुल में चले आने वाले रीति-रिवाजों को होते हैं।

श्लोक 31: हे राजन्, वैदिक ज्ञान में पारंगत ब्राह्मणों का निर्णय है कि प्रत्येक युग में अपने-अपने भौतिक गुणों के अनुसार विभिन्न वर्णों के लोगों का आचरण इस जीवन में तथा अगले जीवन में कल्याणकारी होता है।

श्लोक 32: यदि कोई अपनी प्रकृति जन्य भौतिक स्थिति के अनुसार अपना वृत्तिपरक कार्य करता है तथा धीरे-धीरे इन कार्यों को छोड़ देता है, तो उसे निष्काम अवस्था प्राप्त हो जाती है।

श्लोक 33-34: हे राजन्, यदि कोई खेत को बारम्बार जोता-बोया जाता है, तो उसकी उत्पादन शक्ति घट जाती है और जो भी बीज बोये जाते हैं वे नष्ट हो जाते हैं। जिस प्रकार घी की एक एक बूँद डालने से अग्नि कभी नहीं बुझती अपितु घी की धारा से वह बुझ जाएगी उसी प्रकार विषयवासना में अत्यधिक लिप्त होने पर ऐसी इच्छाएँ पूरी तरह नष्ट हो जाती हैं।

श्लोक 35: यदि कोई उपर्युक्त प्रकार से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र के लक्षण प्रदर्शित करता है, तो भले ही वह भिन्न जाति का क्यों न हो, उसे वर्गीकरण के उन लक्षणों के अनुसार स्वीकार किया जाना चाहिए।

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