svg

श्रीमद् भागवत महापुराण (स्कन्ध 7) | Shrimad Bhagavatam Hindi

अध्याय 14: आदर्श पारिवारिक जीवन

संक्षेप विवरण: इस अध्याय में देश, काल तथा कर्ता के अनुसार गृहस्थ के वृत्तिपरक कर्तव्यों का वर्णन हुआ है। जब युधिष्ठिर महाराज ने गृहस्थ के वृत्तिपरक कर्तव्यों के विषय में अत्यन्त…

श्लोक 1: महाराज युधिष्ठिर ने नारद मुनि से पूछा : हे स्वामी, हे महर्षि, कृपा करके यह बतलाएँ कि जीवन-लक्ष्य के ज्ञान से रहित, घर पर रहने वाले हम लोग किस तरह वेदों के आदेशानुसार सरलता से मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं?

श्लोक 2: नारद मुनि ने उत्तर दिया: हे राजन्, जो लोग घर पर गृहस्थ बन कर रहते हैं उन्हें अपनी जीविका अर्जित करने के लिए कार्य करना चाहिए और अपने कर्मों का फल स्वयं भोगने का प्रयास न करके इन फलों को वासुदेव कृष्ण को अर्पित करना चाहिए। इस जीवन में वासुदेव को किस तरह प्रसन्न किया जाये इसे भगवद्भक्तों की संगति के माध्यम से भलीभाँति सीख जा सकता है।

श्लोक 3-4: गृहस्थ व्यक्ति को चाहिए कि वह साधु पुरुषों की संगति बारम्बार करे और अत्यन्त श्रद्धापूर्वक भगवान् तथा उनके अवतारों के कार्यकलापों के अमृत का उस रूप में श्रवण करे जिस रूप में वे श्रीमद्भागवत तथा अन्य पुराणों में वर्णित हैं। इस प्रकार मनुष्य को चाहिए कि वह धीरे-धीरे अपनी पत्नी तथा सन्तानों के स्नेह से उसी तरह विरक्त होता रहे जिस प्रकार जाग जाने पर मनुष्य स्वप्न से विरक्त हो जाता है।

श्लोक 5: वास्तविक विद्वान को चाहिए कि वह शरीर पालन के लिए जितना आवश्यक हो उतना ही अर्जित करने के लिए कार्य करे और पारिवारिक मामलों से अनासक्त होकर मानव समाज में रहे, यद्यपि बाहर से वह उसमें अत्यधिक आसक्त प्रतीत हो।

श्लोक 6: मानव समाज में बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि अपने कार्यकलापों की योजना को अत्यन्त सहज बनाए। यदि उसका मित्र, पुत्र, माता-पिता, भाई या अन्य कोई कुछ सुझाव देता है, तो उसे ऊपर से मानते हुए यह कहना चाहिए “हाँ, यह ठीक है” किन्तु भीतर से उसे दृढ़संकल्प होना चाहिए कि कहीं वह अपने जीवन को दूभर न बना ले जिससे जीवन का प्रयोजन पूरा न हो सके।

श्लोक 7: भगवान् द्वारा उत्पन्न प्राकृतिक पदार्थों का उपयोग जीवों के शरीरों तथा आत्माओं का पालन करने के लिए किया जाना चाहिए। जीवन की आवश्यकताएँ तीन प्रकार की हैं—वे जो आकाश से (वर्षा से) उत्पन्न हैं, वे जो पृथ्वी से (खानों, समुद्रों या खेतों से) उत्पन्न हैं तथा वे जो वायुमण्डल से (जो अचानक तथा अनपेक्षित रूप से) उत्पन्न होती हैं।

श्लोक 8: शरीर के पालन के लिए जितने धन की आवश्यकता हो उतने के स्वामित्व का ही अधिकार रखना चाहिए, किन्तु जो इससे अधिक का स्वामी बनने की कामना करता है उसे चोर मानना चाहिए और प्रकृति के नियमों द्वारा दण्डनीय है।

श्लोक 9: मनुष्य को चाहिए कि हिरन, ऊँट, गधा, बन्दर, चूहा, साँप, पक्षी तथा मक्खी जैसे पशुओं के साथ अपने पुत्र के ही समान बर्ताव करे। इन निर्दोष पशुओं तथा पुत्रों के बीच वास्तव में अन्तर ही कितना है?

श्लोक 10: यदि कोई ब्रह्मचारी, संन्यासी या वानप्रस्थ न होकर मात्र गृहस्थ हो तो भी उसे धर्म, अर्थ या काम के लिए अधिक श्रम नहीं करना चाहिए। यहाँ तक कि गृहस्थ जीवन में भी स्थान तथा काल के अनुसार न्यूनतम प्रयास से जो कुछ भगवत्कृपा से उपलब्ध हो जाये, उसी से अपना जीवन-यापन करते हुए सन्तुष्ट रहना चाहिए। मनुष्य को अपने आपको उग्र कर्म में नहीं लगाना चाहिए।

श्लोक 11: कुत्तों, पतित पुरुषों तथा चाण्डाल समेत अछूतों को उनकी समुचित आवश्यकताएँ प्रदान करके उनका पालन करना चाहिए। आवश्यकताएँ गृहस्थों द्वारा पूरी की जानी चाहिए। यहाँ तक कि घर की अपनी उस पत्नी को भी, जिससे मनुष्य घनिष्ठतापूर्वक आसक्त होता है, अतिथियों तथा सामान्य जनों के स्वागत में नियुक्त करना चाहिए।

श्लोक 12: मनुष्य अपनी पत्नी को इतनी गम्भीरतापूर्वक अपना मानता है कि वह कभी-कभी उसके लिए स्वयं को या अन्यों को यथा अपने माता-पिता या गुरु अथवा शिक्षक को मार डालता है। अतएव यदि कोई ऐसी पत्नी के प्रति अपनी आसक्ति का परित्याग कर सकता है, तो वह उन भगवान् को जीत लेता है, जो अजेय हैं।

श्लोक 13: समुचित विचार-विमर्श करके मनुष्य को अपनी पत्नी के शरीर के प्रति आकर्षण त्याग देना चाहिए, क्योंकि यह शरीर अन्ततोगत्वा छोटे-छोटे कीड़े-मकोड़ों, मल या राख में परिणत हो जाएगा। तो भला इस तुच्छ शरीर का क्या महत्त्व है? परम पुरुष कितना महान् है, जो आकाश के समान सर्वव्यापी है?

श्लोक 14: बुद्धिमान व्यक्ति को प्रसाद खाकर या पाँच विभिन्न प्रकार के यज्ञ सम्पन्न करके तुष्ट रहना चाहिए। ऐसे कार्यों से मनुष्य शरीर तथा शरीर के तथाकथित स्वामित्व के प्रति अपनी अनुरक्ति को त्याग सकता है। जब वह ऐसा करने में समर्थ होता है, तो वह महात्मा के पद पर दृढ़ स्थित हो जाता है।

श्लोक 15: मनुष्य को चाहिए कि प्रतिदिन वह उन परम पुरुष की पूजा करे जो हर एक के हृदय में स्थित हैं और इसी आधार पर उसे देवताओं, साधु पुरुषों, सामान्य मनुष्यों तथा जीवों, अपने पुरखों तथा स्वयं की अलग-अलग पूजा करनी चाहिए। इस प्रकार वह प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में स्थित परम पुरुष की पूजा कर सकता है।

श्लोक 16: जब कोई व्यक्ति सम्पत्ति तथा ज्ञान से समृद्ध हो, जो उसके पूर्ण नियंत्रण में हों और जिनसे वह यज्ञ सम्पन्न कर सके या भगवान् को प्रसन्न कर सके तो उसे शास्त्रों के निर्देशानुसार अग्नि में आहुतियाँ डालकर यज्ञ करना चाहिए। इस तरह उसे भगवान् की पूजा करनी चाहिए।

श्लोक 17: भगवान् श्री कृष्ण सारी यज्ञ-आहुतियों के भोक्ता हैं। यद्यपि वे अग्नि में डाली गई आहुतियाँ खाते हैं फिर भी हे राजा, जब उन्हें अन्न तथा घी से बना व्यंजन योग्य ब्राह्मणों के मुख से होकर अर्पित किया जाता है, तो वे और भी प्रसन्न होते हैं।

श्लोक 18: अतएव हे राजा, सर्वप्रथम ब्राह्मणों तथा देवताओं को प्रसाद प्रदान करो और जब वे भलीभाँति खा चुकें तो तुम अपनी सामर्थ्य के अनुसार अन्य जीवों को प्रसाद बाँटो। इस प्रकार तुम सारे जीवों की अर्थात् प्रत्येक जीव के भीतर के परम पुरुष की पूजा कर सकोगे।

श्लोक 19: काफी धनवान ब्राह्मण को भाद्र मास के कृष्ण पक्ष में पितरों को आहुति देनी चाहिए। इसी प्रकार पूर्वजों के सम्बन्धियों को आश्विन मास में महालया पर्व* के अवसर पर आहुति देनी चाहिए।

श्लोक 20-23: मनुष्य को चाहिए कि मकर संक्रान्ति (जब सूर्य उत्तरायण की ओर जाने लगता है) के दिन या कर्कट संक्रान्ति (जब सूर्य दक्षिणायन की ओर जाने लगता है) के दिन श्राद्धकर्म करे; वह इस श्राद्धकर्म को मेष संक्रान्ति के दिन तथा तुला संक्रान्ति के दिन, जब तीनों चन्द्र तिथियाँ एकसाथ मिलती हैं, व्यतीपात नामक योग में, चन्द्र या सूर्यग्रहण के समय द्वादशी के दिन तथा श्रवण नक्षत्र में करे। मनुष्य को चाहिए कि अक्षय तृतीया को, कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की नवमी को, शीतऋतु में चारों अष्टकाओं के दिन, माघ मास की शुक्ला सप्तमी के दिन, मघा नक्षत्र तथा पूर्णिमा के योग के समय तथा जब चन्द्रमा पूर्ण हो या लगभग पूर्ण हो, उन दिनों में जब ये दिन उन नक्षत्रों के साथ योग करें जिनसे महीनों के नाम प्राप्त हुए हैं श्राद्धकर्म करे। श्राद्धकर्म द्वादशी को भी किया जाये जब वह अनुराधा, श्रवण, उत्तर फाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा या उत्तर भाद्रपद नामक नक्षत्रों में से किसी के साथ योग करे। यही नहीं, एकादशी को भी श्राद्ध किया जाये जब यह उत्तर फाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा या उत्तर भाद्रपद के योग में हो। अन्त में, मनुष्य को चाहिए अपने जन्म नक्षत्र या श्रवण नक्षत्र के योग वाले दिनों में श्राद्धकर्म करे।

श्लोक 24: ऋतुओं के सारे अवसर मानवता के लिए अत्यन्त शुभ माने जाते हैं। ऐसे अवसरों पर सारे कल्याण (शुभ) कार्य किये जाने चाहिए, क्योंकि ऐसे कार्यों से मनुष्य अपने छोटे से जीवनकाल में सफलता प्राप्त कर लेता है।

श्लोक 25: ऋतु-परिवर्तन के इन अवसरों पर यदि कोई गंगा या यमुना में या किसी तीर्थस्थान में स्नान करता है, यदि कोई कीर्तन करता है, अग्नि यज्ञ करता है, व्रत रखता है या यदि कोई भगवान् की, ब्राह्मणों की, पितरों की, देवताओं की तथा सामान्य जीवों की पूजा करता है या जो कुछ दान देता है, तो उसका स्थायी लाभप्रद फल मिलता है।

श्लोक 26: हे राजा युधिष्ठिर, अपने, अपनी पत्नी या अपनी सन्तान के संस्कार अनुष्ठानों के लिए नियत समय पर या अन्त्येष्टि संस्कार तथा बरसी के अवसर पर मनुष्य को सकाम कर्मों में आगे बढऩे के लिए उपर्युक्त शुभ उत्सव सम्पन्न करने चाहिए।

श्लोक 27-28: नारद मुनि ने आगे कहा : अब मैं उन स्थानों का वर्णन करूँगा जहाँ धार्मिक अनुष्ठान अच्छी तरह सम्पन्न किये जा सकते हैं। जिस किसी स्थान में वैष्णव हो वह स्थान समस्त कल्याणकारी कृत्यों के लिए सर्वश्रेष्ठ है। भगवान् समस्त चर तथा अचर प्राणियों समेत इस समग्र विराट जगत के आश्रय हैं और वह मन्दिर जहाँ भगवान् का अर्चाविग्रह स्थापित किया जाता है सर्वाधिक पवित्र स्थान होता है। यही नहीं, जिन स्थानों में विद्वान ब्राह्मण तपस्या, विद्या तथा दया के द्वारा वैदिक नियमों का पालन करते हैं, वे भी अत्यन्त शुभ तथा पवित्र होते हैं।

श्लोक 29: निस्सन्देह, वे स्थान कल्याणकारी हैं जहाँ भगवान् कृष्ण का मन्दिर हो जिसमें उनकी विधिवत् पूजा होती हो। वे स्थान भी कल्याणकारी हैं जहाँ पुराणों जैसे अनुपूरक वैदिक शास्त्रों में उल्लिखित गंगा सदृश प्रसिद्ध पवित्र नदियाँ बहती हैं। निश्चय ही वहाँ जो भी आध्यात्मिक कार्य किया जाता है, वह अत्यन्त प्रभावशाली होता है।

श्लोक 30-33: पुष्कर जैसे पवित्र सरोवर तथा वे स्थान जहाँ साधु पुरुष रहते हैं यथा कुरुक्षेत्र, गया, प्रयाग, पुलहाश्रम, नैमिषारण्य, फाल्गु नदी का तट, सेतुबन्ध, प्रभास, द्वारका, वाराणसी, मथुरा, पम्पा, बिन्दु सरोवर, बदरिकाश्रम (नारायणाश्रम), वे स्थान जहाँ से होकर नन्दा नदी बहती है, वे स्थल जहाँ भगवान् रामचन्द्र तथा माता सीता ने शरण ली, यथा चित्रकूट तथा महेन्द्र और मलय नामक पहाड़ी क्षेत्र भी—इन सभी स्थानों को अत्यन्त पवित्र एवं पुण्य माना जाता है। इसी प्रकार भारत के बाहर के स्थान जहाँ कृष्णभावनामृत आन्दोलन के केन्द्र हैं और जहाँ राधाकृष्ण अर्चाविग्रह पूजे जाते हैं, उन स्थानों में आध्यात्मिक रूप से बढऩे-चढऩे की इच्छा रखने वाले व्यक्तियों को जाना चाहिए और उनकी पूजा करनी चाहिए। जो आध्यात्मिक जीवन में आगे बढऩा चाहता है, वह इन सारे स्थानों की यात्रा कर सकता है और अनुष्ठान कर सकता है, जिससे अन्य स्थानों में सम्पन्न किये गये उन्हीं कृत्यों से हजार गुना अच्छे फल प्राप्त हो सकते हैं।

श्लोक 34: हे पृथ्वीपति, पटु तथा विद्वान अध्येताओं ने यह तय किया है कि भगवान् कृष्ण ही सर्वश्रेष्ठ पुरुष हैं जिन्हें प्रत्येक वस्तु प्रदान की जानी चाहिए, जिन पर ब्रह्माण्ड के सारे जड़ या चेतन टिके हैं और सारी वस्तुएँ उन्हीं से उत्पन्न होती हैं।

श्लोक 35: हे राजा युधिष्ठिर, तुम्हारे राजसूय यज्ञ उत्सव में मेरे सहित देवता, मुनि तथा साधुओं के अतिरिक्त ब्रह्माजी के चारों पुत्र उपस्थित थे, किन्तु जब यह प्रश्न उठा कि किस व्यक्ति की सर्वप्रथम पूजा की जाये तो सबों ने परम पुरुष कृष्ण को ही चुना।

श्लोक 36: जीवों से भरा हुआ समग्र ब्रह्माण्ड एक वृक्ष के समान है, जिसकी जड़ भगवान् अच्युत (कृष्ण) हैं। इसलिए भगवान् कृष्ण की पूजा करने से समस्त जीवों की पूजा हो सकती है।

श्लोक 37: भगवान् ने अनेक पुर अर्थात् रहने के स्थान बनाये हैं, यथा मनुष्यों के शरीर, पशु, पक्षी, ऋषि तथा देवता। इन असंख्या-शरीर रूपों में भगवान् परमात्मा रूप में जीव के साथ निवास करते हैं। इस प्रकार वे पुरुषावतार कहलाते हैं।

श्लोक 38: हे राजा युधिष्ठिर, प्रत्येक जीव में परमात्मा उसकी समझने की क्षमता के अनुसार बुद्धि प्रदान करता है। अतएव शरीर के भीतर परमात्मा प्रमुख होता है। परमात्मा जीव में उसके ज्ञान के सापेक्ष विकास, तपस्या आदि के अनुसार जीव के समक्ष प्रकट होता है।

श्लोक 39: हे राजन्, जब ऋषियों-मुनियों ने देखा कि त्रेतायुग के प्रारम्भ में ही परस्पर अनादारपूर्ण व्यवहार चालू हो गया तो मन्दिर में अर्चाविग्रह की साज-सामग्री सहित पूजा का सूत्रपात हुआ।

श्लोक 40: कभी-कभी नवदीक्षित भक्त भगवान् की पूजा में सारी साज-सामग्री अर्पित करता है और वह वास्तव में भगवान् की पूजा अर्चाविग्रह के रूप में करता है लेकिन भगवान् विष्णु के अधिकृत भक्तों से ईर्ष्यालु होने के कारण भगवान् उसकी भक्ति से कभी प्रसन्न नहीं होते।

श्लोक 41: हे राजन्, सभी पुरुषों में सुयोग्य ब्राह्मण को इस संसार में सर्वोत्तम मानना चाहिए क्योंकि वह तपस्या, वैदिक अध्ययन तथा संतुष्टि द्वारा भगवान् का प्रतिरूप बन जाता है।

श्लोक 42: हे राजा युधिष्ठिर, ऐसे ब्राह्मण जो विशेषत: पूरे विश्व में भगवान् की महिमा के प्रचार में लगे रहते हैं, सारी सृष्टि के आत्मा भगवान् द्वारा मान्य और पूजित होते हैं। ब्राह्मण अपने प्रचार द्वारा तीनों लोकों को अपने चरणकमलों की धूलि से पवित्र बनाते हैं और इस तरह वे कृष्ण के भी पूज्य हैं।

Leave a reply

Loading Next Post...
svgSearch
Popular Now svg
Scroll to Top
Loading

Signing-in 3 seconds...

Signing-up 3 seconds...