संक्षेप विवरण: इस अध्याय में पूरी तरह बताया गया है कि हिरण्यकशिपु ने किस तरह ब्रह्माजी से शक्ति प्राप्त की और फिर किस तरह इस ब्रह्माण्ड के समस्त जीवों को तंग करने में उसका दुरुपयोग…
श्लोक 1: नारद मुनि ने कहा : ब्रह्माजी हिरण्यकशिपु की दुष्कर तपस्या से अत्यन्त प्रसन्न थे। अतएव जब उसने उनसे वर माँगे तो उन्होंने निस्सन्देह वे दुर्लभ वर प्रदान कर दिये।
श्लोक 2: ब्रह्माजी ने कहा : हे हिरण्यकशिपु, तुमने जो वर माँगे हैं, वे अधिकांश मनुष्यों को बड़ी कठिनाई से प्राप्त हो पाते हैं। हे पुत्र, यद्यपि ये वर सामान्यतया उपलब्ध नहीं हो पाते, तथापि मैं तुम्हें प्रदान करूँगा।
श्लोक 3: तब अमोघ वर देने वाले ब्रह्माजी दैत्यों में श्रेष्ठ हिरण्यकशिपु द्वारा पूजित तथा महर्षियों एवं साधु पुरुषों द्वारा प्रशंसित होकर वहाँ से विदा हो गये।
श्लोक 4: इस प्रकार बह्मा जी से आशीष पाकर तथा कान्तियुक्त स्वर्णिम देह पाकर असुर हिरण्यकशिपु अपने भाई के वध का स्मरण करता रहा जिससे वह भगवान् विष्णु का ईर्ष्यालु बना रहा।
श्लोक 5-7: हिरण्यकशिपु समग्र ब्रह्माण्ड का विजेता बन गया। इस महान् असुर ने तीनों लोकों—उच्च, मध्य तथा निम्न लोकों को जीत लिया जिसमें मनुष्यों, गन्धर्वों, गरुड़ों, महासर्पों, चारणों, विद्याधरों, महामुनियों, यमराजों, मनुष्यों, यक्षों, पिशाचों तथा उनके स्वामियों एवं भूत-प्रेतों के स्वामियों के लोक सम्मिलित थे। उसने उन सारे अन्य लोकों के शासकों को भी हरा दिया जहाँ- जहाँ जीव रहते थे और उन्हें अपने वश में कर लिया। सबों के निवासों को जीतकर उसने उनकी शक्ति तथा उनके प्रभाव को छीन लिया।
श्लोक 8: समस्त ऐश्वर्य से युक्त हिरण्यकशिपु स्वर्ग के सुप्रसिद्ध नन्दन उद्यान में रहने लगा, जिसका भोग देवता करते हैं। वस्तुत: वह स्वर्ग के राजा इन्द्र के अत्यन्त ऐश्वर्यशाली महल में रहने लगा। इस महल को देवताओं के शिल्पी साक्षात् विश्वकर्मा ने निर्मित किया था और इसे इतने सुन्दर ढंग से बनाया गया था मानो सम्पूर्ण विश्व की लक्ष्मी वहीं निवास कर रही हो।
श्लोक 9-12: राजा इन्द्र के आवास की सीढिय़ाँ मूँगे की थीं, फर्श अमूल्य पन्ने से जटित था, दीवालें स्फटिक की थीं और ख भे वैदूर्य मणि के थे। उसके अद्भुत वितान सुन्दर ढंग से सजाये गये थे, आसन मणियों से जटित थे और झाग के सदृश श्वेत रेशमी बिछौने मोतियों से सजाये गये थे। वे महल में इधर-उधर घूम रही थीं, उनके घुँघुरुओं से मधुर झनकार निकल रही थी और वे रत्नों में अपने सुन्दर प्रतिबिम्ब देख रही थीं। किन्तु अत्यधिक सताये गये देवताओं को हिरण्यकशिपु के चरणों पर सिर झुकाना पड़ता था, क्योंकि उसने देवताओं को अकारण ही दण्डित कर रखा था। इस प्रकार हिरण्यकशिपु उस महल में रह रहा था और सबों पर कठोरता से शासन कर रहा था।
श्लोक 13: हे राजा, हिरण्यकशिपु सदा ही तीक्ष्ण गन्ध वाली सुरा पिये रहता था, अतएव उसकी ताम्र जैसी (लाल) आँखें सदैव चढ़ी रहती थीं। फिर भी चूँकि उसने योग की महान् तपस्या की थी और यद्यपि वह निन्दनीय था, किन्तु तीन देवताओं-ब्रह्मा, शिव तथा विष्णु—के अतिरिक्त सारे देवता अपने-अपने हाथों में विविध भेंटें लेकर उसे प्रसन्न करने के लिए उसकी सेवा करते थे।
श्लोक 14: हे पाण्डु के वंशज महाराज युधिष्ठिर, हिरण्यकशिपु ने राजा इन्द्र के सिंहासन पर आसीन होकर अपने निजी बल से अन्य सारे लोकों के निवासियों को वश में किया। विश्वावसु तथा तुम्बुरु नामक दो गन्धर्व, मैं तथा विद्याधर, अप्सराएँ एवं साधुओं ने उसका यशोगन करने के लिए बारम्बार उसकी स्तुतियाँ की।
श्लोक 15: वर्णाश्रम धर्म का पालन करने वाले पुरुष बड़ी-बड़ी दक्षिणा वाले यज्ञ करके उसकी पूजा करते, तो वह यज्ञों की आहुतियाँ देवताओं को न देकर स्वयं ले लेता था।
श्लोक 16: ऐसा प्रतीत होता है मानों सात द्वीपों वाली पृथ्वी हिरण्यकशिपु के भय से, बिना जोते बोये ही अन्न प्रदान करती थी। इस प्रकार यह वैकुण्ठ लोक की सुरभि या स्वर्गलोक की कामदुधा गायों के समान थी। पृथ्वी पर्याप्त अन्न प्रदान करती, गाएँ प्रचुर दूध देतीं तथा आकाश अनोखी घटनाओं से सुसज्जित रहता था।
श्लोक 17: ब्रह्माण्ड के विविध सागर अपनी पत्नियों स्वरूप नदियों तथा उनकी सहायक नदियों की लहरों से हिरण्यकशिपु के उपयोग हेतु विविध प्रकार के रत्नों की पूर्ति करते थे। ये सागर लवण, इक्षु, सुरा, घृत, दुग्ध, दही तथा मीठे जल के थे।
श्लोक 18: पर्वतों के मध्य की घाटियाँ हिरण्यकशिपु की क्रीड़ास्थली बन गईं जिसके प्रभाव से सभी पौधे सभी ऋतुओं में प्रभूत फूल तथा फल देने लगे। जल वृष्टि कराना, सुखाना तथा जलाना जो विश्व के तीन विभागाध्यक्षों इन्द्र, वायु तथा अग्नि के गुण हैं, वे अब देवताओं की सहायता के बिना अकेले हिरण्यकशिपु द्वारा निर्देशित होने लगे।
श्लोक 19: समस्त दिशाओं को वश में करने की शक्ति प्राप्त करके तथा यथासम्भव सभी प्रकार की इन्द्रिय-तृप्ति का भोग करने के बावजूद हिरण्यकशिपु असन्तुष्ट रहा, क्योंकि वह अपनी इन्द्रियों को वश में करने के बजाय उनका दास बना रहा।
श्लोक 20: इस प्रकार अपने ऐश्वर्य से अत्यधिक गर्वित एवं प्रामाणिक शास्त्रों के विधि-विधानों का उल्लंघन करते हुए हिरण्यकशिपु ने काफी समय बिताया। अतएव उसे चार कुमारों ने, जो कि प्रतिष्ठित ब्राह्मण थे, शाप दे दिया।
श्लोक 21: हिरण्यकशिपु द्वारा दिये गये कठोर दण्ड से सभी व्यक्ति, यहाँ तक कि विभिन्न लोकों के शासक भी, अत्यधिक पीडि़त थे। वे अत्यन्त भयभीत तथा उद्विग्न होकर और अन्य किसी की शरण न पा सकने के कारण अन्तत: भगवान् विष्णु की शरण में आये।
श्लोक 22-23: “हम उस दिशा को सादर नमस्कार करते हैं जहाँ भगवान् स्थित हैं, जहाँ संन्यास आश्रम में रहने वाले विशुद्ध आत्मा महान् साधु पुरुष जाते हैं और जहाँ जाकर वे फिर कभी नहीं लौटते।” बिना सोये, अपने मनों को पूर्णतया वश में करके तथा केवल अपनी श्वास पर जीवित रहकर विभिन्न लोकपालों ने इस ध्यान से हृषीकेश की पूजा करनी प्रारम्भ की।
श्लोक 24: तब उन सबों के समक्ष दिव्य वाणी प्रकट हुई जो भौतिक नेत्रों से अदृश्य पुरुष से निकली थी। यह वाणी मेघ की ध्वनि के समान गम्भीर थी और यह अत्यन्त प्रोत्साहन देने वाली तथा सभी प्रकार का भय भगाने वाली थी।
श्लोक 25-26: भगवान् की वाणी इस प्रकार गुंजायमान हुई—“हे परम श्रेष्ठ विद्वानो, डरो मत। तुम सब का कल्याण हो। तुम सभी मेरे श्रवण तथा कीर्तन द्वारा एवं मेरी स्तुति से मेरे भक्त बनो, क्योंकि इन सब का उद्देश्य सभी जीवों को आशीष देना है। मैं हिरण्यकशिपु के कार्यकलापों से परिचित हूँ और मैं उन्हें शीघ्र ही रोक दूँगा। तब तक तुम मेरी धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करो।
श्लोक 27: जब कोई व्यक्ति भगवान् के प्रतिनिधि देवताओं, समस्त ज्ञान के दाता वेदों, गायों, ब्राह्मणों, वैष्णवों, धार्मिक सिद्धान्तों तथा अन्तत: मुझ भगवान् से ईर्ष्या करता है, तो वह तथा उसकी सभ्यता दोनों अविलम्ब नष्ट हो जाएंगी।
श्लोक 28: जब हिरण्यकशिपु अपने ही पुत्र परम भक्त प्रह्लाद को सतायेगा, जो अत्यन्त शान्त, गम्भीर तथा शत्रुरहित है, तो मैं ब्रह्मा के समस्त वरों के होते हुए भी उसका तुरन्त ही वध कर दूँगा।
श्लोक 29: परम साधु नारद मुनि ने आगे कहा : जब सबों के गुरु भगवान् ने स्वर्ग में रहने वाले सभी देवताओं को इस तरह आश्वस्त कर दिया तो उन सबों ने उन्हें प्रणाम किया और विश्वस्त होकर लौट आये कि अब तो हिरण्यकशिपु एक तरह से मर चुका है।
श्लोक 30: हिरण्यकशिपु के चार अद्भुत सुयोग्य पुत्र थे जिसमें से प्रह्लाद नामक पुत्र सर्वश्रेष्ठ था। निस्सन्देह प्रह्लाद समस्त दिव्य गुणों की खान थे, क्योंकि वे भगवान् के अनन्य भक्त थे।
श्लोक 31-32: [यहाँ पर हिरण्यकशिपु के पुत्र महाराज प्रह्लाद के गुणों का उल्लेख हुआ है] वे योग्य ब्राह्मण के रूप में पूर्णतया संस्कृत, सच्चरित्र तथा परम सत्य को समझने के लिए दृढ़संकल्प थे। उन्हें अपनी इन्द्रियों तथा मन पर पूर्ण संयम था। परमात्मा की भाँति वे प्रत्येक जीव के प्रति दयालु थे और हर एक के श्रेष्ठ मित्र थे। वे सम्मानित व्यक्ति के साथ दास की भाँति व्यवहार करते थे, गरीबों के वे पिता तुल्य थे और समानधर्माओं के प्रति वे दयालु भ्राता की तरह अनुरक्त रहने वाले तथा अपने गुरुओं तथा पुराने गुरुभाइयों को भगवान् की तरह मानने वाले थे। वे उस बनावटी गर्व (मान) से पूरी तरह मुक्त थे, जो उनकी अच्छी शिक्षा, धन, सौन्दर्य व उच्च जन्म के कारण संभव था।
श्लोक 33: यद्यपि प्रह्लाद महाराज का जन्म असुर वंश में हुआ था, किन्तु वे स्वयं असुर न होकर भगवान् विष्णु के परम भक्त थे। अन्य असुरों की तरह वे कभी भी वैष्णवों से ईर्ष्या नहीं करते थे। कठिन परिस्थिति आने पर वे कभी क्षुब्ध नहीं होते थे और वेदों में वर्णित सकाम कर्मों में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से भी रुचि नहीं लेते थे। निस्सन्देह, वे हर भौतिक वस्तु को व्यर्थ मानते थे; इसलिए वे भौतिक इच्छाओं से पूर्णतया रहित थे। वे सदैव अपनी इन्द्रियों तथा प्राणवायु पर संयम रखते थे। स्थिरबुद्धि तथा संकल्पमय होने के कारण उन्होंने सारी विषय-वासनाओं का दमन कर लिया था।
श्लोक 34: हे राजा, आज भी प्रह्लाद महाराज के सद्गुणों का यशोगान विद्वान सन्तों तथा वैष्णवों द्वारा किया जाता है। जिस तरह सारे सद्गुण सदैव भगवान् में विद्यमान रहते हैं उसी प्रकार वे उनके भक्त प्रह्लाद महाराज में भी सदैव पाये जाते हैं।
श्लोक 35: हे राजा युधिष्ठिर, किसी भी सभा में जहाँ सन्तों तथा भक्तों की चर्चाएँ चलती हैं वहाँ पर असुरों के शत्रु देवतागण तक प्रह्लाद महाराज को परम भक्त के रूप में उदाहृत करते हैं। आपका तो कहना ही क्या जो प्रह्लाद महाराज का उदाहरण सदा देते रहते हैं।
श्लोक 36: भला ऐसा कौन है, जो प्रह्लाद महाराज के असंख्य दिव्य गुणों के नाम गिना सके? उनको वासुदेव भगवान् श्री कृष्ण (वसुदेव के पुत्र) में अविचल श्रद्धा एवं अनन्य भक्ति थी। भगवान् कृष्ण के प्रति उनकी अनुरक्ति अपनी पूर्व भक्ति के कारण स्वाभाविक थी। यद्यपि उनके सद्गुणों की गणना नहीं की जा सकती, किन्तु उनसे सिद्ध होता है कि वे महात्मा थे।
श्लोक 37: अपने बाल्यकाल के प्रारम्भ से ही प्रह्लाद महाराज को बालकों के खेल-कूद में अरुचि थी। निस्सन्देह, उन्होंने उन सबका परित्याग कर दिया था और कृष्णभावनामृत में पूर्णतया लीन होकर शान्त तथा जड़ बने रहते थे। चूँकि उनका मन सदैव कृष्णभावनामृत से प्रभावित रहता था, अतएव वे यह नहीं समझ सके कि यह संसार किस प्रकार से इन्द्रियतृप्ति के कार्यों में निमग्न रहकर चलता रहता है।
श्लोक 38: प्रह्लाद महाराज सदैव कृष्ण के विचारों में लीन रहते थे। इस प्रकार भगवान् द्वारा आलिंगित उन्हें यह पता भी नहीं चल पाता था कि उनकी शारीरिक आवश्यकताएँ यथा बैठना, चलना, खाना, सोना, पीना तथा बोलना किस तरह स्वत: सम्पन्न होती थीं।
श्लोक 39: कृष्णभावनामृत में प्रगति होने से वह कभी रोता था, कभी हँसता था, कभी हर्षित होता था और कभी उच्च स्वर में गाता था।
श्लोक 40: कभी भगवान् का दर्शन करके प्रह्लाद महाराज पूर्ण उत्सुकतावश जोर से पुकारने लगते। कभी-कभी वे प्रसन्नतावश अपनी लज्जा खो बैठते और हर्ष के भावावेश में नाचने लगते। कभी-कभी कृष्ण के भावों में विभोर होकर वे भगवान् से एकाकार होने का अनुभव करते और उनकी लीलाओं का अनुकरण करते।
श्लोक 41: कभी-कभी भगवान् के करकमलों का स्पर्श अनुभव करके वे आध्यात्मिक रूप से प्रसन्न होते और मौन बने रहते, उनके शरीर के रोंगटे खड़े हो जाते (रोमांच हो आता) और भगवान् के प्रेम के कारण उनके अर्धनिमीलित नेत्रों से अश्रु ढुलकने लगते।
श्लोक 42: पूर्ण, अनन्य भक्तों की संगति के कारण जिन्हें भौतिकता से कुछ भी लेना देना नहीं था। प्रह्लाद महाराज निरन्तर भगवान् के चरणकमलों की सेवा में लगे रहते थे। जब वे पूर्ण आनन्द में होते तो उनके शारीरिक लक्षणों को देखकर आध्यात्मिक ज्ञान से विहीन व्यक्ति भी शुद्ध हो जाते थे। दूसरे शब्दों में, प्रह्लाद महाराज उन्हें दिव्य आनन्द प्रदान करते थे।
श्लोक 43: हे राजा युधिष्ठिर, उस असुर हिरण्यकशिपु ने इस महान् भाग्यशाली भक्त प्रह्लाद को सताया था, यद्यपि वह उसका निजी पुत्र था।
श्लोक 44: महाराज युधिष्ठिर ने कहा : हे देवर्षि, हे श्रेष्ठ आध्यात्मिक नेता, हिरण्यकशिपु ने शुद्ध तथा श्रेष्ठ सन्त प्रह्लाद महाराज को अपना पुत्र होने पर भी किस प्रकार इतना अधिक कष्ट दिया? मैं इसे आपसे जानना चाहता हूँ।
श्लोक 45: माता तथा पिता सदा ही अपने बच्चों के प्रति वत्सल होते हैं। जब बच्चे आज्ञापालक नहीं होते तो माता-पिता उन्हें किसी शत्रुतावश नहीं, अपितु उन्हें शिक्षा देने तथा उनके भले के लिए दण्ड देते हैं। तो हिरण्यकशिपु ने क्योंकर अपने इतने नेक पुत्र प्रह्लाद महाराज को प्रताडि़त किया? मैं यह जानने के लिए अत्यन्त उत्सुक हूँ।
श्लोक 46: महाराज युधिष्ठिर ने आगे पूछा : भला एक पिता के लिए यह कैसे सम्भव हुआ कि वह अपने आज्ञाकारी, सदाचारी तथा पिता का सम्मान करने वाले पुत्र के प्रति इतना उग्र बना? हे ब्राह्मण, हे स्वामी, मैंने कभी ऐसा विरोधाभास नहीं सुना कि कोई वत्सल पिता अपने नेक पुत्र को मार डालने के उद्देश्य से उसे दण्डित करे। कृपा करके इस सम्बन्ध में मेरे संशयों को दूर कीजिए।