संक्षेप विवरण: प्रह्लाद महाराज अपने गुरु के आदेशों का पालन नहीं कर पाते थे, क्योंकि वे सदैव भगवान् विष्णु की पूजा में लगे रहते ते। जैसाकि इस अध्याय में वर्णन हुआ है, हिरण्यकशिपु…
श्लोक 1: महामुनि नारद ने कहा : हिरण्यकशिपु आदि असुरों ने शुक्रचार्य को अनुष्ठान सम्पन्न कराने के लिए पुरोहित के रूप में चुना। शुक्राचार्य के दो पुत्र षण्ड तथा अमर्क हिरण्यकशिपु के महल के ही पास रहते थे।
श्लोक 2: प्रह्लाद महाराज पहले से ही भक्ति में निपुण थे, किन्तु जब उनके पिता ने उन्हें पढ़ाने के लिए शुक्राचार्य के दोनों पुत्रों के पास भेजा तो उन दोनों ने उन्हें तथा अन्य असुरपुत्रों को अपनी पाठशाला में भर्ती कर लिया।
श्लोक 3: प्रह्लाद अध्यापकों द्वारा पढ़ाये गये राजनीति तथा अर्थशास्त्र के पाठों को सुनते और सुनाते अवश्य थे, किन्तु वे यह समझते थे कि राजनीति में किसी को मित्र माना जाता है और किसी को शत्रु। अतएव यह विषय उन्हें पसन्द न था।
श्लोक 4: हे राजा युधिष्ठिर, एक बार असुरराज हिरण्यकशिपु ने अपने पुत्र प्रह्लाद को अपनी गोद में लेकर बड़े ही दुलार से पूछा : हे पुत्र, मुझे यह बतलाओ कि तुमने अपने अध्यापकों से जितने विषय पढ़े हैं उनमें से सर्वश्रेष्ठ कौन सा है।
श्लोक 5: प्रह्लाद महाराज ने उत्तर दिया: हे असुरश्रेष्ठ दैत्यराज, जहाँ तक मैंने अपने गुरु से सीखा है, ऐसा कोई व्यक्ति जिसने क्षणिक देह तथा क्षणिक गृहस्थ जीवन स्वीकार किया है, वह निश्चय ही चिन्ताग्रस्त रहता है, क्योंकि वह ऐसे अंधे कुएँ में गिर जाता है जहाँ जल नहीं रहता, केवल कष्ट ही कष्ट मिलते हैं। मनुष्य को चाहिए कि इस स्थिति को त्याग कर वन में चला जाये। स्पष्टार्थ यह है कि मनुष्य को चाहिए कि वह वृन्दावन जाये जहाँ केवल कृष्णभावनामृत व्याप्त है और इस तरह वह भगवान् की शरण ग्रहण करे।
श्लोक 6: नारद मुनि ने आगे कहा : जब प्रह्लाद महाराज ने भक्तिमय आत्म-साक्षात्कार के विषय में बतलाया और इस तरह अपने पिता के शत्रु-पक्ष के प्रति अपनी स्वामि-भक्ति दिखलाई तो असुरराज हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद की बातें सुनकर हँसते हुए कहा—“शत्रु की वाणी द्वारा बाल बुद्धि इसी तरह बिगाड़ी जाती है।”
श्लोक 7: हिरण्यकशिपु ने अपने सहायकों को आदेश दिया: हे असुरो, इस बालक के गुरुकुल में जहाँ पर यह शिक्षा पाता है, इसकी सुरक्षा का पूरा ध्यान रखो जिससे इसकी बुद्धि छद्मवेश में घूमने वाले वैष्णवों द्वारा और अधिक न प्रभावित हो पाए।
श्लोक 8: जब हिरण्यकशिपु के नौकर बालक प्रह्लाद को गुरुकुल वापस ले आये तो असुरों के पुरोहित षण्ड तथा अमर्क ने उसे शान्त किया। उन्होंने अत्यन्त मृदु वाणी तथा स्नेह भरे शब्दों से उससे इस प्रकार पूछा।
श्लोक 9: हे पुत्र प्रह्लाद, तुम्हारा क्षेम तथा कल्याण हो। तुम झूठ मत बोलना। ये बालक जिन्हें तुम देख रहे हो, वे तुम जैसे नहीं हैं, क्योंकि ये सब पथभ्रष्ट जैसे नहीं बोलते। तुमने ये उपदेश कहाँ से सीखे? तुम्हारी बुद्धि इस तरह कैसे बिगड़ गई है?
श्लोक 10: हे कुलश्रेष्ठ, तुम्हारी बुद्धि का यह विकार अपने आप आया है या शत्रुओं द्वारा लाया गया है? हम सब तुम्हारे अध्यापक हैं और इसके विषय में जानने के इच्छुक हैं। हमसे सच-सच कहो।
श्लोक 11: प्रह्लाद महाराज ने उत्तर दिया: मैं उन भगवान् को सादर नमस्कार करता हूँ जिनकी माया ने मनुष्यों की बुद्धि को चकमा देकर ‘मेरे मित्र’ तथा ‘मेरे शत्रु’ में अन्तर उत्पन्न किया है। निस्सन्देह, मुझको अब इसका वास्तविक अनुभव हो रहा है, यद्यपि मैंने पहले इसके विषय में प्रामाणिक स्रोतों से सुन रखा है।
श्लोक 12: जब भगवान् किसी जीव से उसकी भक्ति के कारण प्रसन्न हो जाते हैं, तो वह पण्डित बन जाता है और वह शत्रु, मित्र तथा अपने में कोई भेद नहीं मानता। तब वह बुद्धिमानी से सोचता है कि हम सभी ईश्वर के नित्य दास हैं, अतएव हम एक दूसरे से भिन्न नहीं हैं।
श्लोक 13: जो लोग सदैव ‘शत्रु’ तथा ‘मित्र’ के बारे में सोचते हैं, वे अपने भीतर परमात्मा को स्थिर कर पाने में असमर्थ रहते हैं। इनकी जाने दें, ब्रह्मा जैसे बड़े-बड़े पुरुष जो वैदिक साहित्य से पूरी तरह अभिज्ञ हैं कभी-कभी भक्ति के सिद्धान्तों का पालन करते हुए मोहग्रस्त हो जाते हैं। जिस भगवान् ने यह परिस्थिति उत्पन्न की है उसी ने ही मुझे आपके तथाकथित शत्रु का पक्षधर बनने की बुद्धि दी है।
श्लोक 14: हे ब्राह्मणों (आध्यापको), जिस प्रकार चुम्बक से आकर्षित लोह स्वत: चुम्बक की ओर जाता है, उसी प्रकार भगवान् विष्णु की इच्छा से बदली हुई मेरी चेतना उन चक्रधारी की ओर आकृष्ट होती है। इस प्रकार मुझे कोई स्वतंत्रता नहीं है।
श्लोक 15: श्री नारद महामुनि ने आगे कहा : शुक्राचार्य के पुत्रों अर्थात् अपने शिक्षकों षण्ड तथा अमर्क से यह कहने के बाद महात्मा प्रह्लाद महाराज मौन हो गये। तब ये तथाकथित ब्राह्मण उन पर क्रुद्ध हुए। चूँकि वे हिरण्यकशिपु के दास थे अतएव वे अत्यन्त दुखी थे। वे प्रह्लाद महाराज की भर्त्सना करने के लिए इस प्रकार बोले।
श्लोक 16: अरे! मेरी छड़ी तो लाओ! यह प्रह्लाद हम लोगों के नाम और यश में बट्टा लगा रहा है। अपनी दुर्बुद्धि के कारण यह असुरों के कुल में अंगार बन गया है। अब राजनीतिक कूटनीति के चार प्रकारों में से चौथे के द्वारा इसका उपचार किये जाने की आवश्यकता है।
श्लोक 17: यह धूर्त प्रह्लाद चन्दन के वन में कँटीले वृक्ष के समान प्रकट हुआ है। चन्दन-वृक्ष काटने के लिए कुल्हाड़े की आवश्यकता होती है और कँटीले वृक्ष की लकड़ी ऐसे कुल्हाड़े का हत्था बनाने के लिए अत्यन्त उपयुक्त होती है। भगवान् विष्णु दैत्य वंश रूपी चन्दन बन को काट गिराने के लिए कुल्हाड़े के तुल्य हैं और यह प्रह्लाद उस कुल्हाड़े का हत्था (बेंट) है।
श्लोक 18: प्रह्लाद महाराज के शिक्षक षण्ड तथा अमर्क ने अपने शिष्य को तरह-तरह से डराया धमकाया और उसे धर्म, अर्थ तथा काम के मार्गों के विषय में पढ़ाना प्रारम्भ कर दिया। यह थी उनकी शिक्षा देने की विधि।
श्लोक 19: कुछ काल बाद षण्ड तथा अमर्क नामक शिक्षकों ने सोचा कि प्रह्लाद महाराज जनता के नेताओं को शान्त करने, उन्हें लाभप्रद आकर्षक नौकरीयाँ देकर प्रसन्न करने, उनमें फूट डालकर उन पर शासन करने तथा अवज्ञा करने पर उन्हें दण्डित करने के कूटनीतिक मामलों में पर्याप्त शिक्षा प्राप्त कर चुका है। तब एक दिन जब प्रह्लाद की माता अपने पुत्र को स्वयं नहला धुलाकर तथा पर्याप्त आभूषणों से अलंकृत कर चुकी थीं तो उन शिक्षकों ने उसे उसके पिता के समक्ष लाकर प्रस्तुत कर दिया।
श्लोक 20: जब हिरण्यकशिपु ने देखा कि उसका पुत्र उसके चरणों पर विनत है और प्रणाम कर रहा है, तो उसने तुरन्त ही वत्सल पिता की भाँति अपने पुत्र को आशीर्वाद देते हुए उसे अपनी दोनों बाँहों में भरकर उसका आलिंगन किया। पिता स्वभावत: अपने पुत्र का आलिंगन करके प्रसन्न होता है और इस तरह हिरण्यकशिपु अत्यन्त प्रसन्न हुआ।
श्लोक 21: नारद मुनि ने आगे बताया: हे राजा युधिष्ठिर, हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद महाराज को अपनी गोद में बैठा लिया और उसका सिर सूँघने लगा। फिर अपने नेत्रों से प्रेमाश्रु ढरकाते हुए और बालक के हँसते मुख को भिगोते हुए वह अपने पुत्र से इस प्रकार बोला।
श्लोक 22: हिरण्यकशिपु ने कहा : हे प्रह्लाद, मेरे पुत्र, हे चिरञ्जीव, इतने काल में तुमने अपने गुरुओं से बहुत सारी बातें सुनी हैं। अब तुम उन सब में जिसे सर्वश्रेष्ठ समझते हो उसे मुझसे कह सुनाओ।
श्लोक 23-24: प्रह्लाद महाराज ने कहा : भगवान् विष्णु के दिव्य पवित्र नाम, रूप, साज-सामान तथा लीलाओं के विषय में सुनना तथा कीर्तन करना, उनका स्मरण करना, भगवान् के चरणकमलों की सेवा करना, षोडशोपचार विधि द्वारा भगवान् की सादर पूजा करना, भगवान् से प्रार्थना करना, उनका दास बनना, भगवान् को सर्वश्रेष्ठ मित्र के रूप में मानना तथा उन्हें अपना सर्वस्व न्योछावर करना (अर्थात् मनसा, वाचा, कर्मणा उनकी सेवा करना)—शुद्ध भक्ति की ये नौ विधियाँ स्वीकार की गई हैं। जिस किसी ने इन नौ विधियों द्वारा कृष्ण की सेवा में अपना जीवन अर्पित कर दिया है उसे ही सर्वाधिक विद्वान व्यक्ति मानना चाहिए, क्योंकि उसने पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया है।
श्लोक 25: अपने पुत्र प्रह्लाद के मुख से इन वचनों को सुनकर हिरण्यकशिपु अत्यन्त क्रुद्ध हुआ। उसने काँपते होठों से अपने गुरु शुक्राचार्य के पुत्र षण्ड से इस प्रकार कहा।
श्लोक 26: अरे ब्राह्मण के अत्यन्त नृशंस (घृणित) अयोग्य पुत्र, तुमने मेरे आदेश की अवज्ञा की है और मेरे शत्रु-पक्ष की शरण ले रखी है। तुमने इस बेचारे बालक को भक्ति का पाठ पढ़ाया है। यह क्या बकवास है?
श्लोक 27: समय के साथ, उन लोगों में अनेक प्रकार के रोग प्रकट होते हैं, जो पापी हैं। इसी प्रकार से इस संसार में छद्मवेष धारण किये हुए जितने धोखेबाज मित्र हैं अन्ततोगत्वा उनके मिथ्या आचरण से उनकी वास्तविकता शत्रुता में प्रकट हो जाती है।
श्लोक 28: हिरण्यकशिपु के गुरु शुक्राचार्य के पुत्र ने कहा : हे इन्द्र के शत्रु, हे राजन्, आपके प्रह्लाद पुत्र ने जो भी कहा है, वह न तो मेरे द्वारा पढ़ाया गया है, न किसी अन्य के द्वारा। उसमें यह भक्ति स्वत: विकसित हुई है। अतएव आप अपना क्रोध त्याग दें और व्यर्थ ही हमें दोषी न ठहराएँ। एक ब्राह्मण को इस प्रकार अपमानित करना अच्छा नहीं है।
श्लोक 29: श्री नारद मुनि ने आगे कहा : जब हिरण्यकशिपु को अध्यापक से यह उत्तर मिल गया तो उसने पुन: अपने पुत्र को सम्बेधित किया। हिरण्यकशिपु ने कहा “रे धूर्त! हमारे परिवार के सबसे पतित! यदि तुमने यह शिक्षा अपने अध्यापकों से नहीं प्राप्त की, तो बतला कि इसे कहाँ से प्राप्त की?”
श्लोक 30: प्रह्लाद महाराज ने उत्तर दिया: अपनी असंयमित इन्द्रियों के कारण जो लोग भौतिकतावादी जीवन के प्रति अत्यधिक लिप्त रहते हैं, वे नरकगामी होते हैं और बार-बार उसे चबाते हैं, जिसे पहले ही चबाया जा चुका है। ऐसे लोगों का कृष्ण के प्रति झुकाव न तो अन्यों के उपदेशों से, न अपने निजी प्रयासों से, न ही दोनों को मिलाकर कभी होता है।
श्लोक 31: जो लोग भौतिक जीवन के भोग की भावना द्वारा दृढ़ता से बँधे हैं और जिन्होंने अपने ही समान बाह्य इन्द्रिय विषयों से आसक्त अन्धे व्यक्ति को अपना नेता या गुरु स्वीकार कर रखा है, वे यह नहीं समझ सकते कि जीवन का लक्ष्य भगवद्धाम को वापस जाना तथा भगवान् विष्णु की सेवा में लगे रहना है। जिस प्रकार अन्धे व्यक्ति द्वारा ले जाया गया दूसरा अन्धा व्यक्ति सही मार्ग भूल सकता है और गड्ढे में गिर सकता है उसी प्रकार भौतिकता से आसक्त व्यक्ति अपने ही जैसे किसी दूसरे व्यक्ति द्वारा मार्ग दिखलाये जाने पर सकाम कर्म की रस्सियों द्वारा बंधे रहते हैं, जो अत्यन्त मजबूत धागों से बनी होती हैं और ऐसे लोग तीनों प्रकार के कष्ट सहते हुए पुन:-पुन: भौतिक जीवन प्राप्त करते रहते हैं।
श्लोक 32: जब तक भौतिकतावादी जीवन के प्रति झुकाव रखने वाले लोग ऐसे वैष्णवों के चरणकमलों की धूलि अपने शरीर में नहीं लगाते जो भौतिक कल्मष से पूर्णतया मुक्त हैं, तब तक वे भगवान् के चरणकमलों के प्रति आसक्त नहीं हो सकते जिनका यशोगान उनके अपने असामान्य कार्यकलापों के लिए किया जाता है। केवल कृष्णभावनाभावित बनकर एवं इस प्रकार से भगवान् के चरणकमलों की शरण ग्रहण करके ही मनुष्य भौतिक कल्मष से मुक्त हो सकता है।
श्लोक 33: जब प्रह्लाद महाराज इस प्रकार बोलकर शान्त हो गये तो क्रोध से अन्धे हिरण्यकशिपु ने उन्हें अपनी गोद से उठाकर भूमि पर फेंक दिया।
श्लोक 34: अत्यन्त क्रुद्ध तथा पिघले ताम्र जैसी लाल-लाल आँखें किये हिरण्यकशिपु ने अपने नौकरों से कहा : अरे असुरो, इस बालक को मेरी आँखों से दूर करो। यह वध करने योग्य है। इसे जितनी जल्दी हो सके मार डालो।
श्लोक 35: यह बालक प्रह्लाद मेरे भाई को मारने वाला है, क्योंकि इसने एक तुच्छ नौकर की भाँति मेरे शत्रु भगवान् विष्णु की सेवा में संलग्न रहने के लिए अपने परिवार को छोड़ दिया है।
श्लोक 36: यद्यपि प्रह्लाद केवल पाँच वर्ष का है, किन्तु इसी अल्पावस्था में उसने अपने माता-पिता के स्नेह-सम्बन्ध को त्याग दिया है। अतएव यह निश्चय ही विश्वास करने योग्य नहीं है। निस्सन्देह, इस पर विश्वास नहीं किया जा सकता कि वह विष्णु के प्रति भी ठीक से आचरण करेगा।
श्लोक 37: यद्यपि औषधि (जड़ी-बूटी) जंगल में उत्पन्न होने के कारण मनुष्य की श्रेणी में परिगणित नहीं होती किन्तु लाभप्रद होने पर अत्यन्त सावधानी से रखी जाती है। इसी प्रकार यदि अपने परिवार से बाहर का कोई व्यक्ति अनुकूल हो तो उसे पुत्र के समान संरक्षण प्रदान किया जाना चाहिए। दूसरी ओर, यदि किसी के शरीर का कोई अंग रोग से विषाक्त हो जाये तो उसे काट कर अलग कर देना चाहिए जिससे शेष शरीर सुखपूर्वक जीवित रहे। इसी प्रकार भले ही अपना आत्मज पुत्र ही क्यों न हो, यदि वह प्रतिकूल है, तो उसका परित्याग कर देना चाहिए।
श्लोक 38: जिस प्रकार असंयमित इन्द्रियाँ आध्यात्मिक जीवन में आगे बढऩे के लिए व्यस्त योगियों की शत्रु होती हैं उसी प्रकार यह प्रह्लाद मित्र के समान प्रतीत होकर भी मेरा शत्रु है, क्योंकि इस पर मेरा वश नहीं चलता। अतएव खाते, बैठे या सोते हुए, सभी तरह से इस शत्रु को मार डाला जाये।
श्लोक 39-40: इस प्रकार हिरण्यकशिपु के सारे नौकर राक्षसगण प्रह्लाद महाराज के शरीर के नम्र भागों (मर्मस्थलों) पर अपने त्रिशूल से वार करने लगे। इन राक्षसों के मुख अत्यन्त भयानक थे, दाँत तीखे तथा दाढ़ी एवं बाल ताँबे जैसे थे और वे सब अत्यन्त भयावने प्रतीत हो रहे थे। वे उच्च स्वर से “उसके टुकड़े-टुकड़े कर दो। उसे छेद डालो” इस तरह चिल्ला कर प्रह्लाद महाराज पर जो शान्त भाव से भगवान् का ध्यान करते हुए आसीन थे प्रहार करने लगे ।
श्लोक 41: ऐसा व्यक्ति जिसके पास कोई पुण्यकर्म की कमाई नहीं होती यदि वह कोई अच्छा कार्य करे भी तो उसका कोई परिणाम नहीं निकलता। इसी प्रकार राक्षसों के हथियारों का प्रह्लाद महाराज पर कोई प्रकट प्रभाव नहीं पड़ रहा था, क्योंकि वे भौतिक दशाओं से अविचलित रहने वाले भक्त थे और उन भगवान् का ध्यान करने तथा सेवा करने में व्यस्त थे, जो अनश्वर थे, जिन्हें भौतिक इन्द्रियों द्वारा अनुभव नहीं किया जा सकता और जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के आत्मा हैं।
श्लोक 42: हे राजा युधिष्ठिर, जब प्रह्लाद महाराज को मार डालने के असुरों के सारे प्रयास निष्फल हो गये तो दैत्यराज हिरण्यकशिपु अत्यन्त भयभीत होकर उसे मारने के अन्य उपायों की योजना करने लगा।
श्लोक 43-44: हिरण्यकशिपु अपने पुत्र को विशाल हाथी के पाँवों के नीचे, बड़े-बड़े भयानक साँपों के बीच में, विध्वसंक जादू का प्रयोग करके, पर्वत की चोटी से नीचे गिरा कर, मायावी तरकीबें करके, विष देकर, भूखों रख कर, ठिठुरती ठंड, हवा, अग्नि तथा जल में रखकर या उस पर भारी पत्थर फेंक कर भी नहीं मार पाया। जब उसने देखा कि वह निर्दोष प्रह्लाद को किसी तरह हानि नहीं पहुँचा पाया, तो वह अत्यन्त चिन्ता में पड़ गया कि आगे क्या किया जाये।
श्लोक 45: हिरण्यकशिपु ने विचार किया: मैंने इस बालक को दण्डित करने के लिए अनेक गालियाँ दी हैं, अपशब्द कहे हैं और उसे मार डालने के लिए अनेक उपाय किये हैं, किन्तु मेरे समस्त प्रयत्नों के बावजूद यह मरा नहीं। निस्सन्देह, इन विश्वासघातों तथा घृणित कर्मों के द्वारा वह तनिक भी प्रभावित नहीं हुआ और अपनी ही शक्ति से उसने अपने को बचाया है।
श्लोक 46: यद्यपि यह मेरे अत्यन्त निकट है और निरा बालक है फिर भी यह पूर्ण निर्भीक है। यह उस कुत्ते की टेढ़ी पूँछ के समान है, जो कभी सीधी नहीं की जा सकती, क्योंकि यह मेरे दुर्व्यवहार तथा अपने स्वामी भगवान् विष्णु से अपने सम्बन्ध को कभी भी नहीं भूलता है।
श्लोक 47: मैं देखता हूँ कि इस बालक की शक्ति असीम है, क्योंकि यह मेरे किसी भी दण्ड से भयभीत नहीं हुआ। यह अमर प्रतीत होता है, अतएव इसके प्रति शत्रुता के भाव से मैं मरूँगा। या ऐसा नहीं भी हो सकता।
श्लोक 48: इस प्रकार सोचते हुए चिन्तित तथा कान्तिहीन दैत्यराज अपना मुँह नीचा किये चुप रह गया। शुक्राचार्य के दोनों पुत्र षण्ड तथा अमर्क एकान्त में उससे बोले।
श्लोक 49: हे स्वामी, हम जानते हैं कि यदि आप अपनी भौहों को हिला भी दें तो विविध लोकों के नायक (पालक) अत्यन्त भयभीत हो उठते हैं। आपने किसी की सहायता लिए बिना ही तीनों लोकों को जीत लिया है। इसलिए हमें आपके चिन्तित होने का कोई कारण नहीं दिख रहा। जहाँ तक प्रह्लाद का प्रश्न है, वह एक बालक मात्र है और वह चिन्ता का कारण नहीं बन सकता। अन्तत: उसके गुणों या अवगुणों का कोई महत्व नहीं है।
श्लोक 50: हमारे गुरु शुक्राचार्य के लौट आने तक इस बालक को वरुण की रस्सियों से बाँध दो जिससे वह डर कर भाग न सके। हर हालत में, जब वह कुछ-कुछ बड़ा हो जाएगा और हमारे उपदेशों को आत्मसात् कर चुकेगा या हमारे गुरु की सेवा कर लेगा तो इसकी बुद्धि बदल जाएगी। इस प्रकार चिन्ता की कोई बात नहीं है।
श्लोक 51: अपने गुरु पुत्र षण्ड तथा अमर्क के इन उपदेशों को सुनकर हिरण्यकशिपु राजी हो गया और उनसे प्रह्लाद को इस वृत्तिपरक धर्म का उपदेश देने की प्रार्थना की जिसका पालन राजसी गृहस्थ परिवार करते हैं।
श्लोक 52: तत्पश्चात् षण्ड तथा अमर्क ने अत्यन्त नम्र एवं विनीत प्रह्लाद महाराज को क्रमश: तथा निरन्तर धर्म, अर्थ तथा काम के विषय में पढ़ाना शुरू किया।
श्लोक 53: षण्ड तथा अमर्क नामक शिक्षकों ने प्रह्लाद महाराज को धर्म, अर्थ तथा काम इन तीन प्रकार के भौतिक विकास के बारे में शिक्षा दी। किन्तु प्रह्लाद महाराज इन उपदेशों से ऊपर थे, अतएव उन्होंने इन्हें पसन्द नहीं किया, क्योंकि ऐसे उपदेश संसारी मामलों के द्वैत पर आधारित होते हैं, जो मनुष्य को भौतिकतावादी जीवन-शैली में फंसा लेते हैं जिसमें जन्म, मृत्यु, जरा तथा व्याधि प्रमुख हैं।
श्लोक 54: जब शिक्षक अपने घरेलू काम करने अपने घर चले जाते थे, तो प्रह्लाद महाराज के समवयस्क छात्र उन्हें इस अवकाश (छुट्टी) को खेलने में लगाने के लिए बुला लेते।
श्लोक 55: तब प्रह्लाद महाराज ने, जो सचमुच परम विद्वान पुरुष थे, अपने सहपाठियों से अत्यन्त मधुर वाणी में कहा। उन्होंने हँसते हुए भौतिकतावादी जीवन-शैली की अनुपयोगिता के विषय में बताना शुरू किया। उन पर अत्यन्त कृपालु होने के कारण उन्होंने उन्हें इस प्रकार उपदेश दिया।
श्लोक 56-57: हे राजा युधिष्ठिर, सारे बालक प्रह्लाद महाराज को अत्यधिक चाहते थे और उनका सम्मान करते थे। अपनी अल्पायु के कारण वे अपने शिक्षकों के उपदेशों एवं कार्यों से जितने दूषित नहीं हुए थे जबकि उनके शिक्षक निन्दा, द्वैत तथा शारीरिक सुविधा के प्रति आसक्त थे। इस तरह सारे बालक अपने-अपने खिलौने छोडक़र प्रह्लाद महाराज की बात सुनने के लिए उनके चारों ओर बैठ गये। उनके हृदय तथा नेत्र उन पर टिके थे और वे उन्हें उत्साहपूर्वक देख रहे थे। प्रह्लाद महाराज यद्यपि असुर कुल में पैदा हुए थे, किन्तु महान् भक्त थे और वे असुरों की कल्याण- कामना करते थे। इस प्रकार उन्होंने उन बालकों को भौतिकतावादी जीवन की व्यर्थता के विषय में उपदेश देना प्ररम्भ किया।