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श्रीमद् भागवत महापुराण (स्कन्ध 7) | Shrimad Bhagavatam Hindi

अध्याय 8: भगवान् नृसिंह द्वारा असुरराज का वध

संक्षेप विवरण: जैसाकि इस अध्याय में बताया गया है, हिरण्यकशिपु अपने ही पुत्र प्रह्लाद महाराज को मार डालने के लिए उद्यत था, किन्तु उस असुर के समक्ष भगवान् श्री नृकेशरी, अर्ध-सिंह,…

श्लोक 1: नारद मुनि ने आगे कहा : सारे असुरपुत्रों ने प्रह्लाद महाराज के दिव्य उपदेशों की सराहना की और उन्हें अत्यन्त गम्भीरतापूर्वक ग्रहण किया। उन्होंने षण्ड तथा अमर्क नामक अपने गुरुओं द्वारा दिये गये भौतिकतावादी उपदेशों का तिरस्कार कर दिया।

श्लोक 2: जब शुक्राचार्य के पुत्र षण्ड तथा अमर्क ने देखा कि सारे विद्यार्थी असुर पुत्र प्रह्लाद महाराज की संगति से कृष्णभक्ति में आगे बढ़ रहे हैं, तो वे डर गये। अतएव वे असुरराज के पास गये और उनसे सारी स्थिति वर्णन कर दी।

श्लोक 3-4: जब हिरण्यकशिपु सारी स्थिति समझ गया तो वह इतना अधिक क्रुद्ध हुआ कि उसका सारा शरीर काँपने लगा। इस तरह उसने अन्तत: अपने पुत्र प्रह्लाद को मार डालने का निश्चय कर लिया। वह स्वभाव से अत्यन्त क्रूर था और अपने को अपमानित हुआ जानकर वह पाँव से कुचले सर्प की भाँति फुफकारने लगा। उसका पुत्र प्रह्लाद शान्त, विनम्र तथा उदार था, वह इन्द्रियसंयमी था और हिरण्यकशिपु के समक्ष हाथ जोड़े खड़ा था। वह अपनी आयु तथा आचरण के अनुसार प्रताडऩा के योग्य न था। फिर भी हिरण्यकशिपु ने टेढ़ी नजर से उसे घूरते हुए निम्नलिखित कटु शब्दों के द्वारा फटकारा।

श्लोक 5: हिरण्यकशिपु ने कहा : अरे उद्दण्ड, निपट दुर्बुद्धि, परिवार को फोडऩे वाले! अरे नीच! तुमने अपने ऊपर शासन करने वाली शक्ति का उल्लघंन किया है, अतएव तू हठी मूर्ख है। आज मैं तुझे यमराज के घर भेजूंगा।

श्लोक 6: मेरे दुष्ट पुत्र प्रह्लाद! तुम जानते हो कि जब मैं क्रुद्ध होता हूँ तो तीनों लोक अपने-अपने नायकों सहित काँपने लगते हैं। तो फिर तुम किसके बल पर इतने धृष्ट हो गये हो कि तुम निर्भीक होकर मेरी आज्ञा का उल्लंघन कर रहे हो?

श्लोक 7: प्रह्लाद महाराज ने कहा, हे राजन्, आप जिस बल के मेरे स्रोत को जानना चाह रहे हैं वह आपके बल का भी स्रोत है। निस्सन्देह, समस्त प्रकार के बलों का मूल स्रोत एक ही है। वह न केवल आपका या मेरा बल है, अपितु सबों का एकमात्र बल है। उसके बिना किसी को कोई बल नहीं मिल सकता। चाहे चल हो या अचल, उच्च हो या नीच, ब्रह्मा समेत सारे जीव भगवान् के बल द्वारा नियंत्रित हैं।

श्लोक 8: परम नियन्ता एवं काल रूप भगवान् इन्द्रियों के बल, मन के बल, शरीर के बल तथा इन्द्रियों के प्राण हैं। उनका प्रभाव असीम है। वे समस्त जीवों में श्रेष्ठ तथा प्रकृति के तीनों गुणों के नियन्ता हैं। वे अपनी शक्ति से इस ब्रह्माण्ड का सृजन, पालन तथा संहार करते हैं।

श्लोक 9: प्रह्लाद महाराज ने कहा : हे पिता, आप अपनी आसुरी प्रवृत्ति त्याग दें। आप अपने हृदय में शत्रु-मित्र में भेदभाव न लाएँ, आप अपने मन को सबों के प्रति समभाव बनाएँ। इस संसार में अनियंत्रित तथा पथभ्रष्ट मन के अतिरिक्त कोई शत्रु नहीं है। जब कोई मनुष्य प्रत्येक व्यक्ति को समता के पद पर देखता है तभी वह भगवान् की ठीक से पूजा करने की स्थिति में होता है।

श्लोक 10: प्राचीन काल में आपके समान ही अनेक मूढ हुए हैं जिन्होंने उन छह शत्रुओं को नहीं जीता जो शरीर रूपी सम्पत्ति को चुरा ले जाते हैं। ये मूढ यह सोचकर गर्वित होते हैं “मैंने तो दसों दिशाओं के सारे शत्रुओं को जीत लिया है।” किन्तु यदि कोई व्यक्ति इन छह शत्रुओं पर विजयी होता है और सारे जीवों पर समभाव रखता है, तो उसके लिए शत्रु नहीं होते। शत्रु की कल्पना मूर्खतावश की जाती है।

श्लोक 11: हिरण्यकशिपु ने उत्तर दिया: रे मूर्ख! तू मेरे महत्त्व को घटाने का प्रयास कर रहा है मानो तू मुझसे अधिक इन्द्रिय-संयमी है। यह अति-बुद्धिमत्ता है। अतएव मैं समझ रहा हूँ कि तुम मेरे हाथों मरना चाहते हो, क्योंकि ऐसी बेसिर-पैर की (ऊटपटाँग) बातें वे ही करते हैं, जो मरणासन्न होते हैं।

श्लोक 12: अरे अभागे प्रह्लाद! तूने सदैव मेरे अतिरिक्त किसी परम पुरुष का वर्णन किया है, जो हर एक के ऊपर है, हर एक का नियन्ता है तथा जो सर्वव्यापी है। लेकिन वह है कहाँ? यदि वह सर्वत्र है, तो वह मेरे समक्ष के इस ख भे में क्यों उपस्थित नहीं है?

श्लोक 13: चूँकि तुम इतना अधिक अनर्गल प्रलाप कर रहे हो अतएव अब मैं तुम्हारे शरीर से तुम्हारा शिर छिन्न कर दूँगा। अब मैं देखूँगा कि तुम्हारा परमाराध्य ईश्वर तुम्हारी रक्षा किस तरह करता है। मैं उसे देखना चाहता हूँ।

श्लोक 14: अतिशय क्रोध के कारण अत्यन्त बलशाली हिरण्यकशिपु ने अपने महाभागवत पुत्र को अत्यन्त कटु वचन कहे और उसकी भर्त्सना की। उसे बारम्बार श्राप देते हुए हिरण्यकशिपु ने अपनी तलवार निकाली, अपने राजसी सिंहासन से उठ खड़ा होकर और अत्यन्त क्रोध के साथ ख भे पर मुष्टिका-प्रहार किया।

श्लोक 15: तब उस ख भे से एक भयानक आवाज आई जिससे ब्रह्माण्ड का आवरण विदीर्ण होता प्रतीत हुआ। हे युधिष्ठिर, यह आवाज ब्रह्मा आदि देवताओं के निवासों तक पहुँच गई और जब देवताओं ने इसे सुना तो उन्होंने सोचा “ओह! अब हमारे लोकों का विनाश होने जा रहा है।”

श्लोक 16: अपने पुत्र को मारने के इच्छुक हिरण्यकशिपु ने जो इस तरह अपना अद्वितीय शौर्य दिखला रहा था जब एक अद्भुत भीषण (घोर) ध्वनि सुनी जिसे इसके पूर्व उसने कभी नहीं सुना था। इसी ध्वनि को सुनकर अन्य असुरनायक भी भयभीत हुए। उस सभा में इस ध्वनि के उद्गम को कोई नहीं ढूँढ़ पाया।

श्लोक 17: अपने दास प्रह्लाद महाराज के वचनों को सिद्ध करने के लिए कि वे सत्य हैं—अर्थात् यह सिद्ध करने के लिए कि भगवान् सर्वत्र उपस्थित हैं, यहाँ तक कि सभा भवन के ख भे के भीतर भी हैं—भगवान् श्री हरि ने अपना अभूतपूर्व अद्भुत रूप प्रकट किया। यह रूप न तो मनुष्य का था, न सिंह का। इस प्रकार भगवान् उस सभाकक्ष में अपने अद्भुत रूप में प्रकट हुए।

श्लोक 18: जब हिरण्यकशिपु उस ध्वनि का स्रोत ढूँढऩे के लिए इधर-उधर देख रहा था तो उस ख भे से भगवान् का एक अद्भुत रूप प्रकट हुआ जो न तो मनुष्य का था और न सिंह का माना जाता था। हिरण्यकशिपु आश्चर्यचकित हुआ, “यह कैसा प्राणी है, जो आधा पुरुष तथा आधा सिंह है?”

श्लोक 19-22: हिरण्यकशिपु ने अपने समक्ष खड़े नृसिंह देव के रूप का निश्चय करने के लिए भगवान् के रूप को ध्यान से देखा। भगवान् का रूप पिघले सोने के सदृश था। उनकी क्रुद्ध आँखों के कारण जो पिघले स्वर्ण से मिलती थी वह रूप अत्यन्त भयानक लग रहा था; उनके चमकीले अयाल (गर्दन के बाल) उनके भयानक मुखमण्डल के आकार को फैला रहे थे; उनके दाँत मृत्यु-जैसे भयानक थे, उनकी उस्तरे जैसी तीक्ष्ण जीभ लड़ाई में तलवार के समान इधर-उधर चल रही थी; उनके कान खड़े तथा स्थिर थे और उनके नथुने तथा खुला मुख पर्वत की गुफा जैसे लग रहे थे। उनके जबड़े फैले हुए थे जिससे भय उत्पन्न हो रहा था और उनका समूचा शरीर आसमान को छू रहा था। उनकी गर्दन अत्यन्त छोटी तथा मोटी थी; उनकी छाती चौड़ी थी तथा कमर पतली थी। उनके शरीर के रोएँ चन्द्रमा की किरणों के समान श्वेत लग रहे थे। उनकी भुजाएं चारों दिशाओं में फैले सैनिकों की टुकडिय़ों से मिलती जुलती थी, जब वे असुरों धूर्तों तथा नास्तिकों का अपने शंख, चक्र, गदा, कमल तथा अन्य प्राकृतिक अस्त्र-शस्त्रों से वध कर रहे थे।

श्लोक 23: हिरण्यकशिपु ने मन ही मन कहा : “अत्यधिक योग शक्ति वाले भगवान् विष्णु ने मेरा वध करने के लिए यह योजना बनाई है, किन्तु ऐसा प्रयास करने से क्या लाभ है? भला ऐसा कौन है, जो मुझसे युद्ध कर सकता है?” ऐसा सोचते हुए हाथी के समान हिरण्यकशिपु ने अपनी गदा उठाकर भगवान् पर आक्रमण कर दिया।

श्लोक 24: जिस तरह एक बेचारा छोटा पतंगा बरबस अग्नि में गिरकर अदृश्य हो जाता है उसी तरह जब हिरण्यकशिपु ने तेजोमय भगवान् पर आक्रमण किया तो वह अदृश्य हो गया। यह आश्चर्यजनक नहीं है, क्योंकि भगवान् सदैव सतोगुण की स्थिति में रहते हैं। प्राचीन काल में सृष्टि के समय वे अंधकारपूर्ण ब्रह्माण्ड में प्रविष्ट हो गये थे और उसे उन्होंने अपने आध्यात्मिक तेज से प्रकाशित कर दिया था।

श्लोक 25: तत्पश्चात् अत्यन्त क्रुद्ध उस महान् असुर हिरण्यकशिपु ने तेजी से नृसिंह देव पर अपनी गदा से आक्रमण कर दिया और उन्हें मारने लगा। किन्तु भगवान् नृसिंह देव ने उस महान् असुर को उसकी गदा समेत उसी तरह पकड़ लिया जिस तरह गरुड़ किसी साँप को पकड़ ले।

श्लोक 26: हे भरत के महान् पुत्र युधिष्ठिर, जब नृसिंह देव ने हिरण्यकशिपु को अपने हाथ से छूट जाने का अवसर दे दिया, जिस तरह से कभी-कभी गरुड़ साँप के साथ खिलवाड़ करते हुए उसे अपने मुँह से सरक जाने देता है, तो सारे देवताओं ने, जिनके निवास स्थान उनके हाथों से निकल चुके थे और जो असुर के भय से बादलों के पीछे छिपे थे, इस घटना को शुभ नहीं माना। निस्सन्देह, वे अत्यधिक विचलित थे।

श्लोक 27: जब हिरण्यकशिपु नृसिंह देव के हाथों से छूट गया तो उसे यह मिथ्या विचार हुआ कि भगवान् उसके शौर्य से डर गये हैं। अतएव युद्ध से थोड़ा विश्राम करके उसने अपनी ढाल तलवार निकाली और फिर से अत्यन्त बलपूर्वक भगवान् पर आक्रमण कर दिया।

श्लोक 28: अट्टहास करते हुए अत्यन्त प्रबल तथा शक्तिशाली भगवान् नारायण ने हिरण्यकशिपु को पकड़ लिया जो किसी प्रकार का वार करने की संभावना छोड़े बिना अपनी तलवार-ढाल से अपनी रक्षा कर रहा था। वह कभी बाज की गति से आकाश में चला जाता और कभी पृथ्वी पर चला आता था। वह नृसिंहदेव की हँसी के भय से अपनी आखें बन्द किये था।

श्लोक 29: जिस प्रकार कोई साँप किसी चूहे को या कोई गरुड़ किसी अत्यन्त विषैले सर्प को पकड़ ले उसी तरह भगवान् नृसिंहदेव ने उस हिरण्यकशिपु को पकड़ लिया जिसकी त्वचा में इन्द्र का वज्र भी नहीं घुस सकता था। ज्योंही पकड़े जाने पर वह अत्यन्त पीडि़त होकर अपने अंग इधर- उधर तथा चारों ओर हिलाने लगा त्योंही नृसिंहदेव ने उस असुर को अपनी गोद में रख लिया और अपनी जांघों का सहारा देकर उस सभा भवन की देहली पर अपने हाथ के नाखूनों से सरलतापूर्वक उस असुर को छिन्न-भिन्न कर डाला।

श्लोक 30: भगवान् नृसिंहदेव के मुख तथा गरदन के बाल रक्त के छींटों से सने थे और क्रोध से पूर्ण होने के कारण उनकी भयानक आँखों की ओर देख पाना असम्भव था। वे अपने मुँह की कोरों को जीभ से चाट रहे थे तथा हिरण्यकशिपु के उदर से निकली आँतों की माला से सुशोभित थे। वे उस सिंह की भाँति प्रतीत हो रहे थे जिस ने अभी-अभी किसी हाथी को मारा हो।

श्लोक 31: अनेकानेक भुजाओं वाले भगवान् ने सर्वप्रथम हिरण्यकशिपु का हृदय निकाल लिया और उसे एक ओर फेंक दिया। फिर वे असुर के सैनिकों की ओर मुड़े। ये सैनिक हजारों के झुंड में भगवान् से लडऩे आये थे और हाथों में हथियार उठाए थे। ये हिरण्यकशिपु के अत्यन्त स्वामिभक्त अनुचर थे, किन्तु नृसिंह देव ने उन्हें अपने नाखून की नोकों से ही मार डाला।

श्लोक 32: नृसिंह देव के सिर के बालों से बादल हिलकर इधर-उधर बिखर गये। उनकी जलती आँखों से आकाश के नक्षत्रों का तेज मंद पड़ गया और उनके श्वास से समुद्र क्षुब्ध हो उठे। उनकी गर्जना से संसार के सारे हाथी भय से चिग्घाडऩे लगे।

श्लोक 33: नृसिंह देव के सिर के बालों से वायुयान (विमान) बाह्य आकाश तथा उच्च लोकों में जा गिरे। भगवान् के चरणकमलों के दबाव से पृथ्वी अपनी स्थिति से छिटकती प्रतीत हुई और उनके असह्य बल से सारे पर्वत ऊपर उछल गये। भगवान् के शारीरिक तेज से आकाश तथा समस्त दिशाओं का प्राकृतिक प्रकाश घट गया।

श्लोक 34: अपना पूर्ण तेज तथा भंयकर मुखमंडल दिखलाते हुए नृसिंह देव अत्यन्त क्रुद्ध होने तथा अपने बल एवं ऐश्वर्य का सामना करने वाले किसी को न पाकर सभा भवन में राजा के श्रेष्ठतम सिंहासन पर जा बैठे। भय तथा आज्ञाकारिता के कारण किसी में साहस न हुआ कि सामने आकर भगवान् की सेवा करे।

श्लोक 35: हिरण्यकशिपु तीनों लोकों का सिर दर्द बना हुआ था। अतएव जब स्वर्गलोक में देवताओं की पत्नियों ने देखा कि इस महान् असुर का वध भगवान् के हाथों से हो गया है, तो उनके चेहरे प्रसन्नता के मारे खिल उठे। देवताओं की स्त्रियों ने स्वर्ग से भगवान् नृसिंह देव पर पुन: पुन: फूलों की वर्षा की।

श्लोक 36: उस समय भगवान् नारायण का दर्शन करने के इच्छुक देवताओं के विमानों से आकाश पट गया। देवतागण ढोल तथा नगाड़े बजाने लगे जिन्हें सुनकर देव लोक की स्त्रियाँ नाचने लगीं और गन्धर्वों के मुखिया मधुर गान गाने लगे।

श्लोक 37-39: हे राजा युधिष्ठिर, तब सारे देवता भगवान् के निकट आ गये। उनमें ब्रह्माजी, इन्द्र तथा शिव जी प्रमुख थे और उनके साथ बड़े-बड़े साधु पुरुष एवं पितृलोक, सिद्धलोक, विद्याधर लोक तथा नागलोक के निवासी भी थे। वहीं सारे मनु तथा अन्य लोकों के प्रजापति भी पहुँच गये। अप्सराओं के साथ-साथ गन्धर्व, चारण, यक्ष, किन्नर, बेताल, किम्पुरुष लोक के वासी तथा विष्णु के पार्षद सुनन्द एवं कुमुद आदि भी पहुँचे। ये सभी भगवान् के निकट आये जो अपने तीव्र प्रकाश से चमक रहे थे। इन सबों ने अपने-अपने सिरों के ऊपर हाथ जोडक़र नमस्कार किया और स्तुतियाँ कीं।

श्लोक 40: ब्रह्माजी ने प्रार्थना की: हे प्रभु, आप अनन्त हैं और आपकी शक्ति का कोई अन्त नहीं है। कोई भी आपके पराक्रम तथा अद्भुत प्रभाव का अनुमान नहीं लगा सकता, क्योंकि आपके कर्म माया द्वारा दूषित नहीं होते। आप भौतिक गुणों से सहज ही ब्रह्माण्ड का सृजन, पालन तथा संहार करते हैं लेकिन तो भी आप अव्यय बने रहते हैं। अतएव मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

श्लोक 41: शिव जी ने कहा : कल्प का अन्त ही आपके क्रोध का समय होता है। अब जबकि यह नगण्य असुर हिरण्यकशिपु मारा जा चुका है, हे भक्तवत्सल प्रभु, कृपा करके उसके पुत्र प्रह्लाद महाराज की रक्षा करें जो आपके निकट पूर्ण शरणागत भक्त के रूप में खड़ा हुआ है।

श्लोक 42: राजा इन्द्र ने कहा : हे परमेश्वर, आप हमारे उद्धारक तथा रक्षक हैं। आपने दैत्य से हमारे वास्तविक यज्ञ भाग जो वास्तव में आपके हैं लौटाये हैं। चूँकि असुरराज हिरण्यकशिपु अत्यन्त भयानक था, अत: आपके स्थायी निवास हमारे हृदय उसके द्वारा विजित हो चुके थे। अब आपकी उपस्थिति से हमारे हृदयों से निराशा तथा अंधकार दूर हो गये हैं। हे प्रभु, जो लोग आपकी सेवा में सदैव लगे रहते हैं उनके लिए सारा भौतिक ऐश्वर्य तुच्छ है, क्योंकि आपकी सेवा मोक्ष से भी बढक़र है। वे जब मोक्ष की भी परवाह नहीं करते तो काम, अर्थ तथा धर्म के विषय में क्या कहा जाये?

श्लोक 43: सारे उपस्थित ऋषियों ने उनकी इस प्रकार स्तुति की: हे प्रभु, हे शरणागत पालक, हे आदि पुरुष, आपने हमें पहले जिस तपस्या की विधि का उपदेश दिया है, वह आपकी ही आध्यात्मिक शक्ति है। आप तपस्या से ही भौतिक जगत का सृजन करते हैं। यह तपस्या आपमें सुप्त रहती है। इस दैत्य ने अपने कार्यकलापों से इसी तपस्या को रोक सा रखा था, किन्तु अब हम लोगों की रक्षा करने के लिए आप जिस नृसिंह देव के रूप में प्रकट हुए हैं उससे तथा इस असुर को मारने से तपस्या की विधि का फिर से अनुमोदन हुआ है।

श्लोक 44: पितृलोक के वासियों ने प्रार्थना की: हम ब्रह्माण्ड के धार्मिक नियमों के पालनकर्ता भगवान् नृसिंह देव को सादर नमस्कार करते हैं। आपने उस असुर को मार डाला है, जो हमारे श्राद्ध के अवसर पर हमारे पुत्रों-पौत्रों द्वारा अर्पित बलि को छीनकर खा जाता था और तीर्थस्थलों पर अर्पित की जाने वाली तिलांजलि को पी जाता था। हे प्रभु, आपने इस असुर को मारकर अपने नाखूनों से इसके पेट को विदीर्ण करके उसमें से समस्त चुराई हुई सामग्री निकाल ली है। अतएव हम आपको सादर नमस्कार करते हैं।

श्लोक 45: सिद्धलोक के वासियों ने प्रार्थना की: हे भगवान् नृसिंह देव, हम लोग सिद्धलोक के निवासी होने के कारण अष्टांग योग में स्वत:सिद्ध होते हैं। तो भी हिरण्यकशिपु इतना धूर्त था कि उसने अपने बल तथा तपस्या से हमारी सारी शक्तियाँ छीन ली थीं। इस तरह वह अपने योग- बल के प्रति घमंडी हो गया था। अब आपके नखों से इस दुष्ट का वध हो जाने के कारण हम आपको सादर नमस्कार करते हैं।

श्लोक 46: विद्याधर के निवासियों ने प्रार्थना की: उस मूर्ख हिरण्यकशिपु ने विविध प्रकार के ध्यान के अनुसार प्रकट तथा अप्रकट होने की हमारी शक्ति पर प्रतिबन्ध लगा दिया था, क्योंकि उसे अपनी श्रेष्ठ शारीरिक शक्ति तथा अन्यों को जीत लेने की सामर्थ्य का घमण्ड था। अब भगवान् ने उसका उसी तरह वध कर दिया है जैसे वह असुर कोई पशु हो। हम भगवान् नृसिंह देव के उस लीला रूप को सादर प्रणाम करते हैं।

श्लोक 47: नागलोक के वासियों ने कहा : अत्यन्त पापी हिरण्यकशिपु ने हम सबके फणों की मणियाँ तथा हम सबकी सुन्दर पत्नियाँ छीन ली थीं। अब चूँकि उसके वक्षस्थल को आपने अपने नाखूनों से विदीर्ण कर दिया है, अतएव आप हमारी पत्नियों की परम प्रसन्नता के कारण हैं। इस तरह हम सभी मिलकर आपको सादर नमस्कार करते हैं।

श्लोक 48: समस्त मनुओं ने इस प्रकार प्रार्थना की: हे प्रभो, हम सारे मनु आपके आज्ञापालक के रूप में मानव समाज के लिए विधि प्रदान करते हैं किन्तु इस महान् असुर हिरण्यकशिपु की क्षणभंगुर श्रेष्ठता के कारण वर्णाश्रम धर्म पालन विषयक हमारे नियम नष्ट हो गये थे। हे स्वामी, अब आपके द्वारा इस महान् असुर का वध हो जाने से हम अपनी सहज स्थिति में हैं। कृपया अपने इन शाश्वत दासों को आज्ञा दें कि अब वे क्या करें।

श्लोक 49: प्रजापतियों ने इस प्रकार स्तुति की: हे परमेश्वर, हे ब्रह्मा तथा शिव जी के भी पूज्य प्रभु, हम सारे प्रजापति आपके द्वारा दी गई आज्ञा के पालन के लिए उत्पन्न किये गये थे, किन्तु हिरण्यकशिपु ने हमें और उत्तम सन्तान उत्पन्न करने से रोक दिया। अब यह असुर हमारे समक्ष मृत पड़ा है, जिसके वक्षस्थल को आपने विदीर्ण कर दिया है। अतएव हम आपको सादर नमस्कार करते हैं, क्योंकि इस शुद्ध सात्विक रूप में आपका यह अवतार समग्र ब्रह्माण्ड के कल्याण के निमित्त है।

श्लोक 50: गन्धर्वलोक के निवासियों ने प्रार्थना की: हे भगवान्, हम नाच तथा अभिनय में गायन द्वारा आपकी सेवा में लगे रहते थे, किन्तु इस हिरण्यकशिपु ने अपनी शारीरिक शक्ति तथा पराक्रम से हमें अपने अधीन बना लिया था। अब आपके द्वारा यह इस अधम दशा को प्राप्त हुआ है। भला हिरण्यकशिपु जैसे कुमार्गगामी के कार्यकलापों से हमें क्या लाभ हो सकता है?

श्लोक 51: चारणलोक के निवासियों ने कहा : हे प्रभु, आपने उस असुर हिरण्यकशिपु को विनष्ट कर दिया जो सारे निष्कपट पुरुषों के हृदयों में आतंक बना हुआ था। अब हमें शान्ति मिली है। हम सभी आपके उन चरणकमलों की शरण ग्रहण करते हैं, जो बद्धजीव को भौतिक कल्मष से मुक्ति दिलानेवाले हैं।

श्लोक 52: यक्षलोक के निवासियों ने प्रार्थना की: हे चौबीस तत्त्वों के नियामक, हम आपको भाने वाली सेवाएँ करने के कारण आपके सर्वश्रेष्ठ सेवक माने जाते हैं फिर भी दितिपुत्र हिरण्यकशिपु के आदेश पर हमसे पालकी ढोने का कार्य लिया जाता था। हे नृसिंह देव, आप यह जानते हैं कि इस असुर ने किस तरह सबों को कष्ट पहुँचाया है, किन्तु अब आपने इसका वध कर दिया है और इसका शरीर पंच तत्त्वों में मिल गया है।

श्लोक 53: किम्पुरुषलोक के वासियों ने कहा : हम क्षुद्र जीव हैं और आप परम नियामक महापुरुष हैं। अतएव हम आपकी समुचित स्तुति कैसे कर सकते हैं? जब भक्तों ने तंग आकर इस असुर का तिरस्कार कर दिया तो आपने इसका वध कर दिया।

श्लोक 54: वैतालिकलोक के निवासियों ने कहा : हे प्रभु, सभाओं तथा यज्ञस्थलों में आपके निर्मल यश का गायन करने के कारण प्रत्येक व्यक्ति हमें आदर प्रदान करता था। किन्तु इस असुर ने हमारे उस पद को छीन लिया था। अब हमारा बड़ा भाग्य है कि आपने इस महान् असुर का उसी तरह वध कर दिया जिस प्रकार कोई भीषण रोग को अच्छा कर देता है।

श्लोक 55: किन्नरों ने कहा : हे परम नियन्ता, हम आपके सतत सेवक हैं, लेकिन आपकी सेवा में युक्त न होकर हम सभी इस असुर की बेगार में लगाये गये थे। अब आपने इस पापी का वध कर दिया है, अतएव हे नृसिंहदेव, हे स्वामी, हम आपको सादर नमस्कार करते हैं। कृपा करके हमारे संरक्षक बने रहें।

श्लोक 56: विष्णु के वैकुण्ठलोक के पार्षदों ने यह प्रार्थना की: हे स्वामी, हे शरणदाता, आज हमने नृसिंहदेव के रूप में आपके अद्भुत रूप का दर्शन किया है, जो समस्त जगत में सौभाग्य लाने वाला है। हे भगवान्, हम यह समझते हैं कि हिरण्यकशिपु आपकी सेवा में रत रहने वाला जय ही था, किन्तु उसे ब्राह्मणों ने शाप दे दिया था जिससे उसे असुर का शरीर प्राप्त हुआ था। हम समझते हैं कि उसका मारा जाना उस पर आपकी विशेष कृपा है।

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