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श्रीमद् भागवत महापुराण (स्कन्ध 8) | Shrimad Bhagavatam Hindi

हरे कृष्ण। इस पोस्ट में श्रीमद भागवत महापुराण के स्कन्ध 8 के सम्पूर्ण अर्थ संग्रह किया हुआ है। आशा है आप इसे पढ़के इसी जन्म में इस जन्म-मरण के चक्कर से ऊपर उठ जायेंगे और आपको भगवद प्राप्ति हो जाये। तो चलिए शुरू करते हैं – जय श्री राधा-कृष्ण

श्रीमद् भागवत महापुराण – स्कन्ध 8: ब्रह्माण्डीय सृष्टि का निवर्तन

अध्याय 1: ब्रह्माण्ड के प्रशासक मनु

श्लोक 1: राजा परीक्षित ने कहा : हे स्वामी! हे गुरु! अभी मैंने आपके मुख से स्वायंभुव मनु के वंश के विषय में भलीभाँति सुना। किन्तु अन्य मनु भी तो हैं; अतएव मैं उनके वंशों के विषय में सुनना चाहता हूँ। कृपा करके उनका वर्णन करें।

श्लोक 2: हे विद्वान ब्राह्मण शुकदेव गोस्वामी! बड़े-बड़े विद्वान पुरुष, जो नितान्त बुद्धिमान् हैं, विभिन्न मन्वन्तरों में भगवान् के कार्यकलापों का तथा उनके प्राकट्य का वर्णन करते हैं। हम इन वर्णनों को सुनने के लिए अत्यन्त उत्सुक हैं। कृपया उनका वर्णन करें।

श्लोक 3: हे विद्वान ब्राह्मण! कृपा करके इस दृश्य जगत को उत्पन्न करने वाले भगवान् के उन सारे कार्यकलापों का वर्णन हमसे करें जिन्हें उन्होंने विगत मन्वन्तरों में सम्पन्न किया, जो वे वर्तमान में सम्पन्न कर रहे हैं तथा जो वे भावी मन्वन्तरों में सम्पन्न करेंगे।

श्लोक 4: शुकदेव गोस्वामी ने कहा : वर्तमान कल्प में छह मनु हो चुके हैं। मैं तुमसे स्वायंभुव मनु तथा अनेक देवताओं के प्राकट्य के विषय में वर्णन कर चुका हूँ। ब्रह्मा के इस कल्प में स्वायंभुव प्रथम मनु हैं।

श्लोक 5: स्वायंभुव मनु के दो पुत्रियाँ थीं—आकूति तथा देवहूति। उनके गर्भ से भगवान् दो पुत्रों के रूप में प्रकट हुए जिनके नाम क्रमश: यज्ञमूर्ति तथा कपिल थे। इन पुत्रों को धर्म तथा ज्ञान का उपदेश देने का कार्यभार सौंपा गया।

श्लोक 6: हे कुरुश्रेष्ठ! मैं पहले ही (तृतीय स्कन्ध में) देवहूति के पुत्र कपिल के कार्यकलापों का वर्णन कर चुका हूँ। अब मैं आकूति के पुत्र यज्ञपति के कार्यकलापों का वर्णन करूँगा।

श्लोक 7: शतरूपा के पति स्वायंभुव मनु स्वभाव से इन्द्रियभोग के प्रति तनिक भी आसक्त नहीं थे। अतएव उन्होंने अपने विलासमय राज्य को त्याग दिया और अपनी पत्नी सहित तपस्या करने के लिए जंगल में चले गये।

श्लोक 8: हे भरतवंशी! स्वायंभुव मनु अपनी पत्नी समेत जंगल में प्रविष्ट होने के बाद सुनन्दा नदी के तट पर एक पाँव पर खड़े रहे। इस प्रकार केवल एक पाँव से पृथ्वी का स्पर्श करते हुए उन्होंने एक सौ वर्षों तक महान् तपस्या की। तपस्या करते समय वे इस प्रकार बोले।

श्लोक 9: श्री-मनु ने कहा : परम पुरुष ने इस चेतन भौतिक जगत की सृष्टि की है; ऐसा नहीं है कि इस भौतिक जगत से उसकी उत्पत्ति हुई हो। जब सब कुछ मौन रहता है, तो परम पुरुष साक्षी रूप में जगा रहता है। जीव उसे नहीं जानता, किन्तु वह सब कुछ जानता है।

श्लोक 10: इस ब्रह्माण्ड में भगवान् परमात्मा रूप में सर्वत्र, जहाँ कहीं भी चर तथा अचर प्राणी हैं, विद्यमान हैं। अतएव मनुष्य उतना ही स्वीकार करे जितना उसके लिए नियत है; उसे पराये धन में हस्तक्षेप करने की इच्छा नहीं करनी चाहिए।

श्लोक 11: यद्यपि भगवान् विश्व के कार्यकलापों को निरन्तर देखते रहते हैं, किन्तु उन्हें कोई नहीं देख पाता। फिर भी किसी को यह नहीं सोचना चाहिए कि चूँकि उन्हें कोई नहीं देखता अतएव वे भी उसे नहीं देखते। स्मरण रहे कि उनकी देखने की शक्ति में कभी ह्रास नहीं आता अतएव प्रत्येक व्यक्ति को चाहिए कि उन परमात्मा की पूजा करे जो प्रत्येक जीव के साथ मित्र रूप में सदैव रहते हैं।

श्लोक 12: भगवान् का न तो आदि है, न अन्त और न मध्य। न ही वे किसी व्यक्ति विशेष या राष्ट्र के हैं। उनका न भीतर है न बाहर। इस जगत में दिखने वाले सारे द्वन्द्व—यथा आदि तथा अन्त, मेरा और उनका—उस परम पुरुष के व्यक्तित्व में अनुपस्थित हैं। यह ब्रह्माण्ड जो उनसे उद्भूत होता है उनका एक दूसरा स्वरूप है। अतएव भगवान् परम सत्य हैं और उनकी महानता पूर्ण है।

श्लोक 13: यह समग्र विश्व परम सत्य भगवान् का शरीर है जिनके लाखों नाम हैं और अनन्त शक्तियाँ हैं। वे आत्मतेजस्वी, अजन्मा तथा परिवर्तनहीन हैं। वे प्रत्येक वस्तु के आदि हैं, किन्तु स्वयं उनका कोई आदि नहीं है। चूँकि उन्होंने अपनी बहिरंगा शक्ति से इस विराट रूप की सृष्टि की है अतएव यह उनके द्वारा उत्पन्न, पालित तथा ध्वंसित प्रतीत होता है। फिर भी वे अपनी आध्यात्मिक शक्ति में निष्क्रिय रहते हैं और भौतिक शक्ति के कार्यकलाप उनका स्पर्श तक नहीं कर पाते।

श्लोक 14: अतएव लोगों को कर्मों की ऐसी अवस्था तक पहुँचने में समर्थ बनाने के लिए जो सकाम फलों से दूषित नहीं होते, बड़े-बड़े साधु पुरुष सर्वप्रथम लोगों को सकाम कर्म में लगाते हैं क्योंकि जब तक कोई शास्त्रानुमोदित कर्मों को सम्पन्न करना आरम्भ नहीं करता तब तक वह मुक्ति की अवस्था को या कर्मफल न उत्पन्न करने वाले कार्यों की अवस्था को प्राप्त नहीं होता।

श्लोक 15: भगवान् अपने ही लाभ से ऐश्वर्यपूर्ण हैं, फिर भी वे संसार के स्रष्टा, पालक तथा संहर्ता के रूप में कार्य करते हैं। इस प्रकार से कर्म करने पर भी वे कभी बन्धन में नहीं पड़ते। अतएव जो भक्तगण उनके चरण-चिह्नों का अनुगमन करते हैं, वे भी कभी बन्धन में नहीं पड़ते।

श्लोक 16: भगवान् कृष्ण एक सामान्य व्यक्ति की भाँति कर्म करते हैं, फिर भी वे कर्मफल भोगने की इच्छा नहीं रखते। वे ज्ञान से पूर्ण, भौतिक इच्छाओं तथा विक्षेपों से मुक्त एवं पूर्णत: स्वतंत्र हैं। वे मानव समाज के परम शिक्षक के रूप में अपनी ही कर्मशैली का उपदेश देते हैं और इस प्रकार धर्म के असली मार्ग का उद्धाटन करते हैं। मैं हर व्यक्ति से प्रार्थना करता हूँ कि वह उनका अनुसरण करे।

श्लोक 17: शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : इस प्रकार स्वायंभुव मनु उपनिषदों के मंत्रों की जयध्वनि करते हुए समाधिस्थ हो गये। उन्हें देखकर राक्षसों तथा असुरगण ने अत्यन्त भूखे होने के कारण उन्हें निगल जाना चाहा। अतएव वे उनके पीछे द्रुतगति से दौने लगे।

श्लोक 18: प्रत्येक हृदय में वास करने वाले भगवान् विष्णु यज्ञपति के रूप में प्रकट हुए और उन्होंने देखा कि राक्षस तथा असुर स्वायंभुव मनु को निगल जाने वाले हैं। इस प्रकार याम नामक अपने पुत्रों तथा अन्य सभी देवताओं को साथ लेकर भगवान् ने उन असुरों तथा राक्षसों को मार डाला। तब उन्होंने इन्द्र का पद ग्रहण किया और स्वर्ग लोक पर शासन करने लगे।

श्लोक 19: अग्नि का पुत्र स्वारोचिष दूसरा मनु बना। उसके अनेक पुत्रों में द्युमत्, सुषेण तथा रोचिष्मत् प्रमुख थे।

श्लोक 20: स्वारोचिष के शासनकाल में इन्द्र का पद यज्ञपुत्र रोचन ने ग्रहण किया। तुषित तथा अन्य लोग प्रधान देवता बने और ऊर्ज, स्तम्भ इत्यादि सप्तर्षि हुए। ये सभी भगवान् के निष्ठावान् भक्त थे।

श्लोक 21: वेदशिरा अत्यन्त विख्यात ऋषि थे। उनकी पत्नी तुषिता के गर्भ से विभु नामक अवतार ने जन्म लिया।

श्लोक 22: विभु ब्रह्मचारी बने रहे और जीवन पर्यन्त अविवाहित रहे। उनसे अट्ठासी हजार अन्य मुनियों ने आत्मनिग्रह, तपस्या तथा अन्य आचार सम्बन्धी शिक्षाएँ ग्रहण कीं।

श्लोक 23: हे राजा! तीसरा मनु राजा प्रियव्रत का पुत्र उत्तम था। इस मनु के पुत्रों में पवन, सृञ्जय तथा यज्ञहोत्र मुख्य थे।

श्लोक 24: तीसरे मनु के शासनकाल में वसिष्ठ के प्रमद तथा अन्य पुत्र सप्तर्षि बने। सत्यगण, वेदश्रुतगण तथा भद्रगण देवता बने और सत्यजित् को स्वर्ग का राजा इन्द्र चुना गया।

श्लोक 25: इस मन्वन्तर में भगवान् धर्म की पत्नी सूनृता के गर्भ से प्रकट हुए और सत्यसेन नाम से विख्यात हुए। वे सत्यव्रत नामक अन्य देवताओं के साथ प्रकट हुए।

श्लोक 26: सत्यसेन ने अपने मित्र सत्यजित् सहित जो उस काल के स्वर्ग के राजा इन्द्र थे समस्त झूठे, अपवित्र तथा दुराचारी यक्षों, राक्षसों तथा भूतप्रेतों का वध कर दिया क्योंकि वे सारे जीवों को कष्ट पहुँचाते थे।

श्लोक 27: तीसरे मनु उत्तम का भाई जो तामस नाम से विख्यात था चौथा मनु बना। तामस के दस पुत्र थे जिनमें पृथु, ख्याति, नर तथा केतु प्रमुख थे।

श्लोक 28: तामस मनु के शासन में सत्यकगण, हरिगण तथा वीरगण देवताओं में से थे। स्वर्ग का राजा इन्द्र त्रिशिख था। सप्तर्षि-धाम के ऋषियों में ज्योतिर्धाम प्रमुख था।

श्लोक 29: हे राजा! तामस मन्वन्तर में विधृति के पुत्र भी जो वैधृति कहलाते थे, देवता बने। चूँकि कालक्रम से वैदिक स्वत्व विनष्ट हो गया था, अतएव इन देवताओं ने अपने बल से वैदिक स्वत्व की रक्षा की।

श्लोक 30: इस मन्वन्तर में भगवान् विष्णु ने भी हरिमेधा की पत्नी हरिणी के गर्भ से जन्म लिया और वे हरि कहलाये। हरि ने हाथियों के राजा एवं अपने भक्त गजेन्द्र को घडिय़ाल के मुख से छुड़ाया।

श्लोक 31: राजा परीक्षित ने कहा : हे बादरायणि प्रभु! हम आपसे विस्तार से यह सुनना चाहते हैं कि घडिय़ाल द्वारा आक्रमण किये जाने पर हाथियों के राजा (गजेन्द्र) को हरि ने किस प्रकार छुड़ाया?

श्लोक 32: कोई भी साहित्य या कथा जिसमें भगवान् उत्तमश्लोक का वर्णन और उनकी महिमा का गायन किया जाता है, वह निश्चय ही महान्, शुद्ध, धन्य, कल्याणप्रद तथा उत्तम है।

श्लोक 33: श्री सूत गोस्वामी ने कहा : हे बाह्मणो! जब आसन्न मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे परीक्षित महाराज ने शुकदेव गोस्वामी से ऐसा बोलने के लिए प्रार्थना की तो मुनि ने राजा के शब्दों से प्रोत्साहित होकर, राजा का अभिनन्दन किया और वे सुनने के इच्छुक मुनियों की सभा में अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक बोले।

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